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मच्छर, चींटी आदि मारने की दवा ? दवा(औषधि) तो जीवन देती है, औषधि क्या मारती है ? यदि औषधि मारेगी तो जीवन कौन देगा ?
चींटियों आदि को मारने के चौक आदि के भूल कर भी कभी प्रयोग न करें । जो वस्तु सूक्ष्म जंतुओं को हानि पहुंचाती है, वह अमुक अंशों में मनुष्य को भी हानि पहुंचाती ही है ।
. विश्वास्यो न प्रमादरिपुः । आराधना से च्युत करने वाला है प्रमाद-शत्रु । मोह की विजय तब ही होगी न ? यदि हम प्रमाद में पड़ जायें !
मद्य, विषय, कषाय, निद्रा, निन्दा (विकथा) - ये पांच प्रमाद हैं।
भगवती में ये आठ प्रमाद बताये गये है : १. अज्ञान, २. संशय, ३. मिथ्याज्ञान, ४. मति भ्रंश, ५. राग, ६. द्वेष, ७. धर्म में अनादर और ८. योगों में दुष्प्रणिधान ।
समस्त प्रमाद अज्ञान में से उत्पन्न होते हैं । अतः सर्वप्रथम अज्ञान को लिया है । हमने अनन्तकाल एकेन्द्रिय में निकाला है न ? तीव्र अज्ञान-तीव्र मोह है वहां ।
सीप है कि चांदी ? यह संशय है । विपरीत ज्ञान मिथ्या ज्ञान है । जैसे सीप में चांदी की बुद्धि ।
पुद्गल में चेतन का भ्रम, यही अविद्या है। अनित्य में नित्य, अपवित्र में पवित्र, अचेतन में चेतनबुद्धि अविद्या है । देह अनित्य, अपवित्र, अचेतन है फिर भी हमारी बुद्धि उल्टी है।
मतिभ्रंश - बुद्धि की भ्रष्टता । मिथ्याज्ञान का यह फल है । सम्यक्त्व से मिथ्यात्व नष्ट होता है, मति भ्रंश भी नष्ट होता है, परन्तु राग-द्वेष विद्यमान रह सकते है। धर्म में अनादर भी विद्यमान रह सकता है। मन-वचन-काया ठीक प्रकार से न जुड़े, यह भी प्रमाद है।
धर्मानुष्ठान के समय तीनों योगों की चंचलता दुष्प्रणिधान है। इस आठ मुंह वाले प्रमाद राक्षस का विश्वास करने योग्य नहीं है ऐसा उपाध्याय महाराज कहते है ।
जो विश्वास हमें भगवान एवं गुरु पर करना चाहिये, वह विश्वास हमने प्रमाद पर कर लिया है।
- ध्येया आत्मबोधनिष्ठा । वैसे ही आत्मबोध नहीं होगा,
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