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भगवान की पूजा का फल यही है, चित्त की प्रसन्नता ।
'अभ्यर्चनादर्हतः मनःसमाधिः ततश्च निःश्रेयसम्... अतो हित त्पूजनम् न्याय्यम्' - ऐसा उमास्वाति म. कहते है ।
भगवान की अर्चना आदि से ज्ञानावरणीय आदि चार घाती कर्मों का नाश होता है।ज्ञान प्राप्त कराने के कारण ज्ञानावरणीय कर्म ।
दर्शन प्राप्त कराने के कारण दर्शनावरणीय कर्म ।
चारित्र प्राप्त कराने के कारण मोहनीय कर्म ।
उल्लास प्राप्त कराने के कारण अन्तराय कर्म को प्रभु भक्ति नष्ट करती है।
. गुरु का जितना बहुमान करें, वह भगवान का ही बहुमान है । 'जो गुरुं मन्नइ सो मं मन्नइ' जो गुरु को मानते हैं, वे मुझे मानते है। यह भगवान ने कहा है । गुरु-तत्त्व की स्थापना भी भगवान ने ही की है न ?
यों भिन्न प्रतीत होते है, परन्तु वैसे गुरु एवं देव एक ही है । अरिहंत स्वयं देव भी है, गुरु भी है । गणधरों के गुरु ही है । दुनिया के देव है । अरिहंत दोनों पद सम्हालते है ।
जैनेतर दर्शन की तरह हमारे यहां देव और गुरु आत्यंतिक रूप से भिन्न नहीं है ।
उत्तराध्ययन में कहा है - 'प्रभु स्तुति, कीर्तन आदि से ज्ञानदर्शन आदि के रूप में बोधि-लाभ प्राप्त होता है ।' तदुपरान्त इसी भव में वह जीवन्मुक्ति की अनुभूति कराता है ।
पूज्य आचार्य प्रवरश्री कलापूर्णसूरिजी म. के स्वर्गवास का समाचार जान कर मन अत्यन्त पीड़ा से भर उठा है। वे इस सदी के महान् आचार्य थे । स्वाध्याय, परमात्म-भक्ति से परिपूर्ण उनका जीवन प्रेरणायोग्य है। उनके महान्, संयममय आध्यात्मिक जीवन की अनुमोदना करते हुए हम अपनी श्रद्धांजलि अर्पण करते है। दिव्यात्मा को नमन करते है। - खरतरगच्छीय उपा. मणिप्रभसागरनी वंदना
१६-२-२००२, मालपुरा.
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