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समग्र द्वादशांगी का सार है कि राग-द्वेष का क्षय करके समता भाव का आश्रय करें ।
राग-द्वेष दो चोर लुटेरे हैं । राग ने रीसा दोय खवीशा, ये है दुःख का दिसा ।
आपके पास धन-माल है। यदि यह बात लुटेरे को मालुम हो जाये तो फिर वह क्या करेगा? वह आपका पीछा नहीं छोड़ेगा । आपके गली में प्रविष्ट होते ही वह आपको तुरन्त पकड़ लेगा, आपको लूट लेगा । ये राग-द्वेष भी ठीक अवसर देखकर आप पर टूट पड़ेंगे ।
गत रविवार को नैलोर (A.P.) में दोपहर में खुले कार्यालय में लुटेरा आया, छुरा भोंक दिया, लहू-लुहान करके लूट-मार करके भाग गया । यदि नाम बताया तो जान से मार डालने की धमकी दी । इनकी अपेक्षा भी राग-द्वेषरूपी लुटेरे खतरनाक हैं ।
साधुओं को गोचरी वापरते समय राग-द्वेष से परे रहना है । राग-द्वेष के प्रसंग प्रायः गोचरी वापरने के समय होते हैं ।
'हे जीव ! भिक्षाटन में तू ४२ में से किसी दोष से ठगा नहीं गया तो अब भोजन के समय तू राग-द्वेष से ठगा मत जाना ।' इस प्रकार आत्मा को शिक्षा दें ।
भोजन के समय अन्य कोई शिक्षा दे तो प्रिय नहीं लगती, गुरु की शिक्षा भी प्रिय नहीं लगती । जीव इतना अभिमानी है कि किसी की सीख सुनने के लिए लगभग तैयार नहीं होता, परन्तु यहां तो जीव स्वयं अपने आपको सीख देता है ।
जीव अपनी बात तो मानेगा न ?
समस्त अनुष्ठान जीव को राग-द्वेष से बचाने के लिए रखे गये हैं। यदि साधु के पास ज्ञान-ध्यान की विपुल सामग्री हो तो मोह आक्रमण नहीं कर सकता ।
जो देश विपुल शस्त्र सरंजाम आदि से तैयार हो, उस पर शत्रु-राष्ट्र आक्रमण करने का विचार नहीं कर सकता ।
. कार्य कार्य को सिखाता है, स्वाध्याय स्वाध्याय को सिखाता है ।
ध्यान ध्यान को सिखाता है, यह अभ्यास है । पुनः पुनः की जाने वाली क्रिया अभ्यास है । अभ्यास के कारण ही समान
कहे
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