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है । मन की प्रसन्नता हो तो द्रव्य-भाव रोग रह ही कैसे सकते
हैं
?
शायद द्रव्य रोग आ जाये तो भी मन की प्रसन्नता खण्डित नहीं होनी चाहिए न ? आप सनत्कुमार चक्रवर्ती को याद करें । स्वयं के थूक में ही रोग-निवारक शक्ति होने पर भी उन्होंने कभी उसका उपयोग नहीं किया । वे सातसौ वर्षों तक प्रसन्नतापूर्वक रोग भोगते रहे ।
- इस प्रकार रोग भी कर्म-निर्जरा में सहायक बनता है । कर्म भोगने का यह उत्तम अवसर है, यह मानकर आये हुए रोगों का स्वागत करें ।
___ हम पर आये हुए रोग हमारे ही कर्मों का फल है कि दूसरे किसी का फल हैं ? 'किसीने ऐसा कर दिया' आदि बातों पर विश्वास हो जाये तो समझो कि कर्म-सिद्धान्त समझ में नहीं आया ।
हमारे वैसे कर्म न हों तो कोई हमारा कुछ भी बिगाड़ नहीं सकता । दूसरे केवल निमित्त ही बनते हैं ।
. तीर्थंकरों की आज्ञानुसार चलनेवाले मुनियों को इसी भव में लब्धि-सिद्धियां प्रकट होती हैं । ये लब्धियां और सिद्धियां नष्ट करने के लिए नहीं है। इनका अयोग्य प्रयोग नहीं करने की शक्ति भी साथ मिलती है ।
. कई बार प्रशंसा भारी भी पड़ जाती है। आपकी प्रशंसा अन्य की ईर्ष्या का कारण बनती है और आपके लिए वह विघ्नरूप भी बनती है । भगवान महावीर की प्रशंसा वह संगम नहीं सुन सका और उसने छ: माह तक भगवान को परेशान किया । ऐसे अनेक उदाहरण मिल सकते हैं ।
. महामुनि महारोग को भी विशिष्ट दृष्टिकोण से कर्मनिर्जरा का अवसर बना देते हैं ।।
• भगवान का मार्ग केवल जानने-समझने के लिए नहीं है, जीने के लिए हैं । तो ही हम गन्तव्य स्थान पर शीघ्र पहुंच सकेंगे।
मार्ग जानते हो परन्तु उस ओर एक कदम भी नहीं बढाओ तो क्या आप इष्ट स्थान पर पहुंच सकेंगे ? हम सब कुछ जाने किन्तु कुछ भी करने को तत्पर न हों तो क्या इष्ट सिद्ध होगा ?
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कहे