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समझायें परन्तु मैं नहीं समझूगा । मुझे तो आपसे ही प्राप्त करना है। आप ही देंगे । यह मेरी बाल-हठ है ।' भक्त की यह भाषा है ।
आप भगवान के समक्ष बालक बन जाओ । भगवान आपके हैं । भगवान को प्राप्त करने के लिए बालक बनना पड़ता है। यहां विद्वानों का काम नहीं है ?
आपकी चेतना अन्यत्र लगी हुई है, इसीलिए प्रभु मिलते नहीं
'ध्यान पदस्थ प्रभावथी, चाख्यो अनुभव स्वाद ।'
- उपा. मानविजयजी-पद्मप्रभ स्तवन 'पदस्थ' अर्थात् नामरूप पद का ध्यान ।
कर्मक्षय से विदेह-मुक्ति मिलती है । भक्ति से इसी जीवन में मिलनेवाली मुक्ति जीवन्मुक्ति है । भक्त ऐसी मुक्ति का यहीं पर अनुभव करता है।
इस काल में नहीं होने पर भी भक्त को भगवान के द्वारा यह 'जीवन्मुक्ति' देनी ही पड़ती है ।
उसके बाद भक्त खुमारी से कह उठता है - 'अब मुझे मोक्ष की भी परवाह नहीं है ।' 'मोक्षोऽस्तु वा मास्तु' 'मुक्ति से अधिक तुज भक्ति मुज मन बसी'
इस काल में भी भक्ति मुक्ति को खींच सकती है ।
भक्त बन कर देखो । मीरां, नरसी मेहता आदि को उनके भगवान मिलते हैं तो क्या हमें नहीं मिलेंगे ?
यशोविजयजी महाराज को मिले तो क्या हम को नहीं मिलेंगे ?
तीर्थ है तब तक तीर्थंकर को आन्तरिक देह से यहां रहना ही पड़ता है, नाम आदि से रहना ही पड़ता है। _ 'नामाकृति द्रव्यभावैः' चार रूपों से भगवान सर्वत्र सदा सब को पवित्र कर रहे हैं ।' हेमचन्द्रसूरि यह वैसे ही तो नहीं कह रहे होंगे ।
'नामे तुं जगमां रह्यो, स्थापना पण तिमही, द्रव्ये भवमांहि वसे, पण न कले किमहि'
- ज्ञानविमलसूरि इन शब्दों पर कभी तो गहराई से सोचो । कहे कलापूर्णसूरि - १ *
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