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भगवान पर प्रेम अर्थात् भगवान के गुणों (ज्ञान आदि) के प्रति प्रेम, किसी व्यक्ति पर नहीं । गुरु पर प्रेम अर्थात् गुरु तत्त्व के प्रति प्रेम । कोई व्यक्तिगत प्रेम नहीं है ।
प्रभु-भक्त के मन में भी आरोह-अवरोह होता रहता है। इसी लिए आपको किन्हीं स्तवनों में प्रभु का उत्कट प्रेम दृष्टिगोचर होगा तो किन्हीं स्तवनों में प्रभु का उत्कट विरह प्रतीत होगा ।
श्रद्धा की वृद्धि करने के लिए ज्ञान आवश्यक है । सप्तभंगी, नय, द्रव्य-गुण पर्याय आदि का ज्ञान श्रद्धा की वृद्धि करता है। श्रद्धा-ज्ञान की वृद्धि के साथ भक्ति तात्त्विक बनती जाती है । यदि उसमें चारित्र सम्मिलित हो जाये तो तो बात ही क्या करनी ?
'सुमतिनाथ गुणशुं मिलीजी' यहां भगवान के गुणों पर प्रेम अभिव्यक्त हुआ है । इष्ट वस्तु प्राप्त होने पर हमारे चेहरे पर मुस्कान आ जाती है । भक्त के लिए तो भगवान ही इष्ट वस्तु है, अन्य कुछ भी नहीं ।
जल में तेल डालो । वह फैल जायेगा । उस प्रकार हमारे हृदय में प्रभु प्रेम फैल जाना चाहिये ।
अध्यात्मयोगी, अजोड़ शासन प्रभावक, कच्छ वागड देशोद्धारक, प.पू.आ. भ. श्री कलापूर्णसूरि म.सा.नी चिर विदायथी शासनने न पूरी शकाय एवी खोट पड़ी छे ।
विश्वमां फेलायेली अशांतिमां एन्थ्रेक्ष - प्लेग अने अणुयुद्धना वादळ घेराया छे त्यारे आवा पुन्यशाळी आचार्य भगवंतनी हाजरी खूब ज जरुरी हती । जे नमस्कार मंत्रनी आराधना द्वारा आवनार संकट समये ढालरूप थया होत । ।
__गत वर्षे पालीताणाना चातुर्मासमां प.पू.आ. भ. श्रीनुं उपनिषद् माणवा मळ्युं अने वाचना द्वारा अमारा कर्णयुगलो धन्य बन्या हता ।
__ - एज... अचलगच्छीय सर्वोदयसागर (प.पू.आ.भ.श्री गुणसागरसूरि म.सा.ना शिष्य)नी वंदना
म.व. ११, देवलाली.
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कलापमारी