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१७-८-१९९९, मंगलवार
श्रा. सु. ६
" नाथ अर्थात् अप्राप्त गुणों की प्राप्ति कराने वाले तथा प्राप्त गुणों की रक्षा करने वाले एवं दुर्गति में जाते जीवों को बचाने वाले । छोटे बच्चों की तरह हाथ पकड़ कर वे बचाते नहीं हैं। वे अपने परिणामों की रक्षा करके हमें बचाते हैं। हमारे परिणाम तीव्र अशुभ बने उससे पूर्व ही भगवान हमें शुभ अनुष्ठानों में जोड़ देते हैं ।
राग-द्वेष के निमित्तों से ही दूर रहें तो तत्सम्बन्धी विचारों से कितने बच सकते हैं ? आत्मा निमित्तवासी है। हम जैसे मनुष्यों के साथ रहते हैं उसका वैसा प्रभाव तो होने वाला ही है । जो हम पढते हैं उन ग्रन्थों का प्रभाव पड़ेगा ही । जहां रहते है उस स्थान का भी प्रभाव पड़ेगा ही।
. प्रतिकूलता के समय भी सहनशीलता का अभ्यास रखा होगा तो चाहे जितने दुःखों के समय भी हम विचलित नहीं होंगे । लोच, विहार आदि ऐसे अभ्यास के लिए ही हैं । पढना ही अभ्यास नहीं है। विहार, लोच, गोचरी आदि भी उत्कृष्ट प्रकार के अभ्यास हैं ।
दीक्षा ली तब मैं तो तीस वर्ष का था, परन्तु ये (पू. कलाप्रभ (कहे कलापूर्णसूरि - १ *
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