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बेंगलोर - चातुर्मास प्रवेश, वि.सं. २०५१
२७-८-१९९९, शुक्रवार
भा. व. १
* औषधि लेने से रोग अवश्य मिटता है, धर्म-सेवन (आरोग्य + बोधि + समाधि) से कर्मरोग अवश्य मिटता है ।
पूर्ण आरोग्य अर्थात् मोक्ष । इससे सिद्ध है कि हम रोगी हैं । रोगी को चाहिये वह रोग मिटाने के प्रयत्न करे ।
शारीरिक रोग का अनुभव होता है । कर्म-रोग का अनुभव नहीं होता।
सन्निपात के रोगी को यह मालुम नहीं होता कि मैं रोगी हं । शराबी को खबर नहीं होती कि मैं नशे में हूं। उस प्रकार हमें भी कर्म-रोग का ख्याल नहीं आता ।
शराबी और मोहाधीन में क्या कोई फर्क है? दोनों में बेहोशी है । एक में बेहोशी स्पष्ट दिखती है, दूसरे की बेहोशी देखने के लिए सूक्ष्म दृष्टि चाहिये ।
मिथ्यात्व मदिरा है । वह असमंजस में डालता है । शरीर ही मैं हूं। यह भान कराता रहता है ।
देह में आत्मबुद्धि ही मिथ्यात्व है ।।
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****************************** कहे