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भक्ति भक्ति दर्शनाचार में आती है, जो अन्य चारों में सहायक बनती है । भक्तिजानकारी में मिलेतोसम्यग्ज्ञान,विश्वास में मिलेतोसम्यग्दर्शन, कार्य में मिले तो सम्यक्चारित्र, तथा तपमें मिले तोसम्यकतपबने ।
भक्ति तीनों सामायिकों (श्रुत, सम्यक्त्व एवं चारित्र सामायिक) को लाने वाली है। इसी कारण से कोई भी सामायिक ग्रहण करते समय भगवान की भक्ति (देववन्दन आदि) की जाती है ।
भगवान, अभय, चक्षु, मार्ग आदि के दाता हैं । अभय अर्थात् चित्त-स्वास्थ्य ।
मन नहीं लगना, अस्तव्यस्त रहना भय है । यह शिकायत भगवान ही दूर कर सकते हैं । चित्त की विह्वलता भय से ही आती है - सूक्ष्म निरीक्षण करने पर यह ज्ञात होगा । 'भय चंचलता हो जे परिणामनी रे.'
- आनन्दघनजी 'भय मोहनीय चउदिशिए' चारों ओर भय है, केवल एक भगवान का भक्त निर्भय है। प्रसन्नता अभय में से ही उत्पन्न होती है ।
जब चित्त अप्रसन्न हो तब भगवान की भक्ति करके देखो, प्रसन्नता रुमझुम करती हुई आयेगी ।
खून करने वाला अथवा चोरी करने वाला स्वयमेव भयभीत होता है । रात्रि में नींद नहीं आती, यह बड़ा भय है, परन्तु छोटेछोटे भय तो हम सब में हैं ही ।
चित्त स्वस्थता अभय है । स्व में रहना स्वस्थता है । स्व अर्थात् आत्मा । भगवान स्व में रहना सिखाते है । आत्मदेव हमारे पास ही है, हम स्वयं ही हैं ।
जिस प्रकार राजा के दर्शन करना हो तो द्वारपाल रोकता है, उस प्रकार आत्मा के दर्शन दर्शनावरणीय रोकते हैं। भगवान कहते हैं - आप अपने आत्मदेव के दर्शन करें । उसके लिए भगवान स्वयं आपको आंखें प्रदान करते हैं । भगवान चक्षु-दाता हैं । 'हृदय नयन निहाले जगधणी, महिमा मेरु समान'
- आनन्दघनजी ।
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