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सम्यक्त्व, विरति, अप्रमाद, अकषाय, शुभयोग मोक्ष-मार्ग हैं । हमें किस मार्ग पर चलना है ? मार्ग अनेक दृष्टिगोचर होंगे । उस समय मस्तिष्क सन्तुलित रखकर एक जिनोपदिष्ट निश्चित मार्ग पर चलने का निर्णय करना होगा ।
• हमारे देह को हम कितना सम्हालते हैं ? उसे थोड़ा भी कष्ट न हो उसका पूरा ध्यान रखते हैं। ऐसा ही व्यवहार यदि जगत् के समस्त-जीवों के साथ, छ:काय के जीवों के साथ हो तो ही पडिलेहन आदि क्रियाएं जयणापूर्वक हो सकती हैं ।
न्याय, योग एवं चौदह विद्याओं के पारगामी ब्राह्मण कुल में उत्पन्न होते हुए भी हरिभद्रसूरिजी जिनाज्ञा, आज्ञा-विहित अनुष्ठानों के प्रति ऐसे समर्पित थे कि उन्होंने प्रत्येक अनुष्ठान का बहुमानपूर्वक वर्णन किया है । चाहे पडिलेहन का हो या अन्य कोई अनुष्ठान हो । आज बड़े-बड़े साधक भी कहते हैं - प्रभु भी कब तक ? कभी न कभी तो छोड़ने ही पड़ेंगे । आखिर तो आत्मा में ही लीन बनना है, परन्तु मैं कहता हूं कि भगवान कभी भी छोड़ना नहीं है । भगवान छोड़ने पड़े ऐसी स्थिति यहां नहीं आयेगी । समग्र भारत में यह प्रचार हैं । दिगम्बरों में तो खास, परन्तु श्वेताम्बरों ने बराबर भक्ति-मार्ग पकड़ रखा है।
चौदह गुणस्थानक भी प्रभु की सेवा है ।
निमित्तकारण का आलम्बन नहीं लिया जाये तो शुद्धात्मप्राप्तिरूप कार्य कहां से मिलेगा? देवचन्द्रजीकृत चन्द्रप्रभस्वामी का स्तवन देखें ।
जहाज के बिना समुद्र पार नहीं किया जा सकता, उस प्रकार भगवान के बिना संसार से पार नहीं जाया जा सकता । धर्मस्थापना करके भगवान तारते हैं, उस प्रकार हाथ पकड़ कर भी तारते हैं। भगवान मार्ग दर्शक हैं, उस प्रकार स्वयं मार्ग-रूप.(मग्गो) भी हैं, भोमिया-रूप भी हैं ।
ज्ञान, दर्शन, चारित्र मोक्षमार्ग है यह बराबर है, परन्तु यदि प्रभु के प्रति प्रेम न हो तो ज्ञान, दर्शन, चारित्र प्राप्त ही नहीं होंगे ।
यशोविजयजी यहां तक कहते हैं कि 'ताहरूं ध्यान ते समकितरूप, तेहि ज ज्ञान ने चारित्र तेह छेजी,' भगवान का ध्यान ही दर्शन, ज्ञान एवं चारित्र है । [२०२ ****************************** कहे कलापूर्णसूरि - १)