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- सर्व विरति का हमें सूक्ष्म अभिमान है । इसीलिए स्वाध्याय पर जोर तो देते हैं, परन्तु भक्ति पर नहीं । स्वाध्याय करेंगे, पुस्तकें पढेंगे, लिखेंगे, व्याख्यान देंगे, प्रसिद्धि का यही मार्ग है न ? भगवान पर प्रेम कहां है ?
जिस प्रकार माता जबरदस्ती भी बालक को भोजन खिलाती है, उस प्रकार महापुरुष भी हमें जबरदस्ती भक्ति में जोड़ते हैं । इसीलिए तो दिन में सात बार चैत्यवन्दन करने का विधान है।
जग चिन्तामणि में नाम आदि चारों से भगवान की भक्ति हो सकती है, यदि करनी ही हो तो । जग चिन्तामणि नित्य तीन बार, चौविहार उपवास में एक बार और तिविहार उपवास में दो बार बोलते हैं, परन्तु क्या आप कभी उसके अर्थ की गहराई में उतरे हैं ? 'भक्तिर्भगवति धार्या' - यहां 'धार्या' लिखा, 'कार्या' नहीं ।
भक्ति धारण करना मतलब कि जन्म-जन्म में साथ आये, उस प्रकार भक्ति के दृढ संस्कार डालना ।
उपयोग ध्यान का ही पर्यायवाची शब्द है । उपयोग अर्थात् जागृति, सावधानी, अनुष्ठान, उपयोगयुक्त हो तो ही निरतिचार होगा ।
. ठाणेणं-कायिक, मोणेणं-वाचिक, झाणेणं-मानसिक ध्यान । इस प्रकार कार्योत्सर्ग में तीनों योगों का ध्यान आ गया ।
. पं. भद्रंकरविजयजी महाराज कहते - 'लोगस्स' समाधि सूत्र है, जिसका दूसरा नाम 'नामस्तव' और तीसरा नाम 'लोकोद्योतकर' है । यहां लोक का अर्थ लोकालोक लेना है । मीरां, कबीर, चैतन्य आदि अजैन भी प्रभुनाम-कीर्तन के माध्यम से समाधि तक पहुंच सके हैं । लोगस्स प्रभुनाम - कीर्तन का
- जगचिन्तामणि के समय 'सकलकुशलवल्ली' बोलने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि 'सकल' का भावार्थ 'जगचिन्तामणि' में आ जाता है ।
- जो अप्राप्त गुणों को प्राप्त करा दे, प्राप्त गुणों की रक्षा करे वह नाथ अथवा जो असत्प्ररूपणा से रोके, सत्प्ररूपणा में जोड़े वह नाथ, योग-क्षेम करे वह नाथ । कहे कलापूर्णसूरि - १ ***
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