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विजयजी, पू. कल्पतरु विजयजी) आठ-दस वर्ष के थे, फिर भी हम सब एकासणे में आ गये क्योंकि यहां का वातावरण ही ऐसा था । दीक्षा लेकर आने के बाद राजस्थान में अनेक व्यक्ति पूछते 'ये बाल मुनि कहां से उठा लाये ?' गुरु महाराज कहते पिता साथ हैं ।'
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अनेक व्यक्ति बाल- दीक्षा का विरोध करते, उठा ले जाने की भी बातें करते । उन सबको मुंहतोड़ जवाब दिया जाता ।
संयमी का जीवन अर्थात् असुरक्षा का जीवन । उसको फिर सुरक्षा कैसी ? अज्ञात घरों में जाना । ज्ञात घरों में तो जाने का अभी अभी शुरू हुआ है । असुरक्षा में रहने से हमारे साहस, सत्त्व, आत्म-विश्वास आदि गुणों की वृद्धि होती है ।
यहां आने के बाद शक्ति न हो तो भी तप करना ही पड़ेगा, ऐसी बात नहीं है । एक साधु वर्षी तप, ओली, मासक्षमण आदि करे, अतः दूसरों को भी करना पडे, ऐसी बात नहीं है । शास्त्रकार कहते हैं
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सो हु तवो कायव्वो, जेण मणो मंगुलं न चिंतेइ । जेण न इंदियहाणी, जेण य जोगा ण हायंति ॥ तत् हि तपः कर्त्तव्यं, येन मनोसुंदरं न चिन्तयति । येन न इन्द्रिय हानिः, येन च योगाः न हीयन्ते ॥ पंचवस्तुक २१४ जिस तप में बोतलें चढ़ानी पड़ें, इन्जैक्शन लेने पड़ें, बैठ कर क्रियाएं करनी पड़े, आंखें अशक्त हो जायें, देह सर्वथा शिथिल हो जाये, ऐसा तप करने का शास्त्रकार स्पष्ट निषेध करते हैं । साधु की भिक्षा के दो नाम हैं - गोचरी एवं माधुकरी । गाय एवं भ्रमर दोनों घास एवं पुष्पों को पीडा पहुंचाये बिना थोड़ाथोड़ा लेते हैं । अत: उनके नाम पर से गोचरी एवं माधुकरी (गो = गाय, मधुकर = भ्रमर) शब्द बने हैं ।
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साधु का जीवन ही ऐसा है । यदि उत्तम प्रकार से पालन किया तो इस जीवन में सुख और परलोक में भी सुख । जो द्रव्य-दीक्षित बन कर केवल उदरपूर्ति के लिए ही भिक्षार्थ घूमते हैं, उनका जिनेश्वर भगवान ने निषेध किया है । उनके पाप
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**** कहे कलापूर्णसूरि -