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लगाया । हमारा घर बिच्छुओं का घर था । सफाई करते समय १०-१५ बिच्छु तो निकलते ही, परन्तु मुझे कभी बिच्छु ने काटा नहीं । 'धर्मो रक्षति रक्षितः । '
प्रत्येक क्रिया जयणापूर्वक की जानी चाहिये । जयणा न रखी तो हमें तो दोष लगा ही समझो । फिर चाहे जीव - हिंसा नहीं भी हुई हो । साधु के लिए प्रमाद ही हिंसा है ।
जिसके हृदय में प्रभु हो उसे क्या प्रमाद होगा ? प्रमाद नहीं, प्रमोद होगा । प्रभु-भक्ति आते ही प्रमाद प्रमोद में बदल जाता है ।
*+ मद्रास में बड़े-बड़े डाक्टरों को मिलना हुआ है । उनमें भगवान की भक्ति देखने को मिली । वे कहते 'हम तो निमित्त हैं । भगवान करेंगे तो अच्छा होगा । ईश्वर की प्रेरणा से हुआ । ईश्वर ने किया । हम कौन हैं ? हम तो केवल निमित्त हैं ।' ऐसे उद्गार सुने जाते हैं । हम होते तो क्या कहते ? कहने के खातिर 'देव - गुरु- पसाय' कहते हैं, परन्तु भीतर अभिमान भरा हुआ ही होता है । पड़िलेहन - विधि जैसी इस समय करते हैं, वैसी यहां 'पंचवस्तुक' में बताई गई है ।
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पड़िलेहन आदि हम बहुत जल्दी करते हैं I
हमें शीघ्रता की पड़ी है । ज्ञानियों को जीवों की पड़ी है । पड़िलेहन शीघ्र करने से मोक्ष मार्ग पर धीरे-धीरे पहुंचते हैं, धीरे करने से शीघ्र पहुंचते है । इसमें समय बिगड़ता नहीं है, सफल होता है । स्वाध्याय करके आखिर क्या करना है ? 'ज्ञानस्य फलं विरति ।'
भक्ति
पड़िलेहन भी आज्ञा रूप एक भक्ति ही है ।
प्रभु के प्रति प्रेम अर्थात् उनके गुणों के प्रति प्रेम । प्रभु के गुण अनन्त हैं, अनन्तानन्त हैं । प्रत्येक प्रदेश में ठूंसठूंस भरे हैं गुण ।
वही गुण हमारे भीतर भी हैं । अनन्त खजाना हमारे पास होते हुए भी हम प्रमाद में हैं, नींद में हैं, भगवान कहते हैं थोड़ा तो जाग कर देखो । अनन्त का खजाना आपके पास ही
कहे कलापूर्णसूरि १ ***
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