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का उदय है, यह अवश्य कहा जा सकता है । ऐसे न तो साधु हैं, न गृहस्थ हैं, वे उभयभ्रष्ट हैं ।
'लहे पाप- - अनुबंधी पापे, बल- हरणी जन- भिक्षा | पूरव भव व्रत खण्डन फल ए, पंचवस्तुनी शिक्षा ॥'
३५० गाथा का स्तवन इसी पंचवस्तुक का भाव यशोविजयजी म. ने इस प्रकार प्रदर्शित किया है ।
गृहस्थ जीवन में ध्यान की स्थिरता नहीं आने के कारण उस सम्बन्ध में कहते हैं 'अधिकतर गृहस्थ चिन्ता में पड़े होते हैं
धन की, सरकार की, गुण्डों की, चोरों की आदि अनेक प्रकार की अन्य हजारों चिन्ताओं के कारण ध्यानमें स्थिरता आना कठिन है ।
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अब बात रही परोपकार की । गृहस्थ केवल अन्नदान करते हैं, जबकि साधु अभयदान देते हैं | अभयदान से कोई बड़ा दान नहीं है । गृहस्थ जीवन में सम्पूर्ण अभयदान देना सम्भव नहीं है । अभयदान के लिए चोर की प्रसिद्ध वह कथा बाद में कहेंगे । भक्ति : चैत्यवन्दन भक्तियोग है, स्वाध्याय ज्ञानयोग है । चारित्रयोग का पालन करना है तो भक्तियोग और ज्ञानयोग क्यों ? ये दोनों चारित्र को पुष्ट करने वाले हैं। यदि आप भक्ति एवं ज्ञान छोड़ दें तो चारित्र रुष्ट होकर चला जायेगा । वह कहेगा उन दोनों के बिना मैं आपके पास रह नहीं सकता ।
जिनालय में आप केवल १५ मिनिट ही निकालते हैं ? सात चैत्यवन्दन कैसे करते हैं ? उनका निरीक्षण करें । भक्ति के बिना चारित्र कैसे टिकेगा ?
स्वयं को एकान्त में पूछें है ? किसके प्रति राग रखने से * आत्मा स्वामी है, देह सेवक है । इस समय किराये पर रखा है । इसे एकाध समय भोजन, थोड़ा सा आराम देना ऐसा तय किया है । अब यदि सेवक ही सेठ बन जाये तो क्या विचारणीय नहीं है ? घोड़ा ही यदि घुड़सवार का स्वामी बन रहा हो तो क्या विचारणीय नहीं है ? इन्द्रियों के घोड़े की लगाम हमारे हाथ में है ? (कहे कलापूर्णसूरि - १ ***
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तुझे किसके प्रति अधिक राग अधिक लाभ है ?