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श्री.गलोर के पास, वि.सं. २०५१
१८-८-१९९९, बुधवार
श्रा. सु. ७
* आगमों पर नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि, टीकाएं न हों तो वास्तविक अर्थ समझ में नहीं आयेगा । अतः चूर्णि, टीका आदि भी आगमों के जितने ही उपकारी हैं । अर्थ को नहीं मानें तो भगवान की, सूत्र को नहीं मानें तो गणधरों की आशातना होती है, क्योंकि इनके आद्य प्ररूपक वे हैं ।
- विद्या से विवाद नहीं करना हैं, विवेक जगाना है । विवेक से वैराग्य, विरति, विज्ञान आदि प्रकट होते हैं ।
हमने यह मान लिया - वैराग्य तो मुमुक्षु को होता है, साधु को उसकी आवश्यकता नहीं है । वैराग्य के बिना चारित्र स्थिर कैसे होगा ? ज्ञान बढता है, उस प्रकार वैराग्य बढना चाहिये । दोषों की निवृत्ति एवं गुणों की प्राप्ति कराये वही सच्चा ज्ञान है । ज्ञान से यदि अभिमान आदि की वृद्धि हो तो अज्ञान किसे कहा जायेगा ? दीपक से अंधकार की वृद्धि हो तो दीपक किसे कहेंगे? प्रभु-भक्ति, वैराग्य आदि गुण ज्ञान से बढने चाहिये । ज्ञान, भक्ति, वैराग्य तीनों साधना में आवश्यक हैं। . दीक्षा अर्थात् चौरासी लाख जीवायोनि के जीवों को
******* कहे कलापूर्णसूरि - १
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