________________
मधुर-हितकर वचन हैं ।
आसन-प्राणायाम इत्यादि करने मात्र से पवित्रता नहीं आती । थोड़ी आभासी स्थिरता आयेगी, परंतु अधिक समय तक स्थिर नहीं रहेगी । योग की कक्षाएं चलाकर योग के नाम से कुछ आसन, प्राणायाम सिखाकर वे जेबें भर कर चले जायेंगे, परन्तु आपका मन पवित्रता से नहीं भरेगा । इससे पूर्व के दो अंग ‘यम एवं नियम' भुला दिये गये हैं । जिसके जीवन में यम-नियम न हों, उसमें पवित्रता नहीं आती । निर्मल चित्त ही स्थिर बनता है।
___ अहिंसा आदि पांच यम है । स्वाध्याय आदि पांच नियम है । वे आज भूला दिये गये हैं । निर्मलता के लिए ही प्रातः मंदिर में पहले भक्ति एवं उसके बाद माला गिनवाता हूं ।
वस्त्र मैले हो जाने का भय है, परन्तु दुराचार से देह, असत्य आदि से वचन, दुर्विचारों से मन मलिन हो जायेगा, उसका कोई भय नहीं है।
अन्य दर्शनों में भी ध्यान से पूर्व नाम संकीर्तन की भक्ति अत्यन्त ही प्रसिद्ध है । 'हरे राम, हरे कृष्ण' धुन गाने के बाद जाप आदि में प्रवेश कराया जाता है। उदाहरणार्थ 'गौरांग चैतन्य महाप्रभु का सम्प्रदाय ।' स्वाध्याय, स्तोत्र आदि से वाणी पवित्र बनती है ।
मैत्री आदि से मन पवित्र बनता है । इस प्रकार क्रमशः हमें काया, वचन एवं मन की पवित्रता प्राप्त करनी है । काया एवं वचन की पवित्रता प्राप्त किये बिना सीधे ही आप मन की पवित्रता प्राप्त नहीं कर सकते । यह क्रम है । सर्व प्रथम सदाचार आदि से देह को पवित्र बनायें । उसके बाद सत्य आदि से वाणी एवं उसके बाद मन की बारी रखें । शौच-पवित्रता के बाद ही स्थिरता आती है अतः -
१४. बाद में लिखा स्थैर्यम् - स्थिरता होनी चाहिये ।
१५. उक्त स्थिरता भी दम्भहीन होनी चाहिये, अतः लिखा : अदम्भः । साधक का जीवन दम्भ-विहीन खुली पुस्तक के समान होना चाहिये । कहे कलापूर्णसूरि - १ ***
१******************************८७