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साधु का सुख अनारोपित होता है ।
ऐसा सुख कितना होता है उसका भगवती में वर्णन किया गया है । एक वर्ष में तो अनुत्तर विमान के देवों के सुख से भी बढ जाये, वैसा सुख साधु के पास होता है ।
अध्यात्मसार - भक्ति पानी पियें तो शीतलता प्राप्त होती ही है, पानी के सरोवर के पास बैठने मात्र से भी शीतलता प्राप्त होती है। इसी प्रकार से भगवान के सान्निध्य मात्र से इन्द्रभूति गौतम के अहंकार आदि के ताप टल गये ।
यहां आपको उष्णता की अनुभूति होती है कि शीतलता की ? भगवान के साथ निकटता का अनुभव करने से इस काल में भी हम आत्मिक सुख की शीतलता का अनुभव कर सकते है।
इसीलिए यशोविजयजी कहते हैं - 'भक्ति भगवति धार्या ।'
यदि दृढतापूर्वक भक्ति की धारणा करें तो भवान्तर में भी वह साथ चलती है । धारणा का काल असंख्यात वर्ष बताया गया है। वज्रनाभ चक्रवर्ती के भव में दीक्षा अंगीकार करके आदिनाथ का जीव अनुत्तर में गया । उसके बाद वे तीर्थंकर के रूप में अवतरित हुए । वहां अध्ययन किया हुआ चौदह पूर्व का ज्ञान साथ चला । यह धारणा है । (अष्टांग योगमें 'धारणा' छट्ठा योग है ।)
जब जब अरति हो, तब तब आत्म-निरीक्षण करें कि किस कारण से मुझे यह हो रहा है ? राग से, द्वेष से या मोह से ?
जो दोष दृष्टिगोचर हो रहा हो, उसके निवारणार्थ उपाय सोचें ।
तीनों दोषों की एक ही औषधि बताऊँ ? प्रभु की भक्ति ! भक्ति के प्रभाव से तीनों दोष मिट जाते हैं । भक्ति अर्थात् पूर्ण शरणागति ! सम्पूर्ण समर्पण !
विनय समस्त गुणों की जननी हैं। भक्ति परम विनय स्वरूप है।
प्रभु के प्रति हमें व्यक्ति-राग नहीं है, गुणों का राग है । शनैः शनैः हमें प्रभु के गुणों के प्रति प्रगाढ राग होता जायेगा ।
भक्ति की धारणा अत्यन्त ही दृढ बनायें ।
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