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वलसाड से पूर्व 'अतुल' में मैं गिर पड़ा । भयंकर पीड़ा होने लगी, परन्तु चौबीस घंटे तक तो किसी को बात तक नहीं की । यदि प्रतिकूलता सहन करने की आदत न हो तो ?
प्रतिकूलता सहन करने की आदत से अन्त में परम सुख का, अनुभव होता है । तेजोलेश्या की अभिवृद्धि का अनुभव इसी जन्म में हो सकता है ।
'तेजोलेश्याविवृद्धिर्या...
बारह महिने के पर्याय में तो संसार के सुख की मर्यादा आ गई । अनुत्तर विमान का सुख उच्च कक्षा का है, परन्तु साधु का सुख तो उससे भी आगे जाता है । उसकी कोई मर्यादा नहीं है । स्वयंभूरमण समुद्र का तो किनारा है, परन्तु आत्मिक सुख का कोई किनारा ही नहीं है । तेजोलेश्या अर्थात् सुखासिका ! 'मग्गदयाणं' के पाठ में मार्ग का अर्थ सुखासिका किया है । सुखासिका अर्थात् सुखड़ी ! आत्मा जिसका आस्वादन प्राप्त कर सके वह सुखासिका ! अध्यवसायों की निर्मलता से ऐसी सुखासिका का आस्वाद मिलता है ।
अन्य सुख संयोगों से मिलते हैं, इच्छा से मिलते हैं यह सुख संयोगों के बिना, इच्छा के बिना मिलता है । अरे, मोक्ष की इच्छा भी चली जाती है ।
'मोक्षोस्तु वा मास्तु'
हेमचन्द्रसूरि मोक्ष का सुख यहीं प्राप्त होता है, अतः अब उसकी परवाह नहीं है ।
भक्ति की यह खुमारी हैं अथवा तो कहो कि आत्म-विश्वास है : मोक्ष प्राप्त होगा ही । अब किस बात की चिन्ता है ?
ऐसे सुखी साधु को पाप का उदय मानना क्या बुद्धि का दिवाला नहीं है ? पाप के उदय से गृहस्थ जीवन मिला है । चारित्र मोहनीय कर्म प्रकृति अशुभ कि शुभ ?
मुक्ति का सुख परोक्ष है । जीवन्मुक्ति का सुख प्रत्यक्ष है । जिसे मुक्ति का सुख चाहिये, उसे जीवन्मुक्ति के सुख का अनुभव करने के लिए प्रयत्न करना चाहिये । उसके लिए प्रभु भक्ति आवश्यक है ।
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****** कहे कलापूर्णसूरि -