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घर-घर भिक्षार्थ घूमते, लोच कराते, चिलचिलाती धूप में नंगे पांव घूमते जैन साधु को देखकर कोई अजैन व्यक्ति पाप का उदय मान ले, यह स्वाभाविक है ।
आचार्यश्री उत्तर देते हुए कहते हैं कि जो भोगते हुए संक्लेश हो वह पाप, संक्लेश न हो वह पुन्य । गृहस्थ को तो पल-पल में संक्लेश है । सर्व प्रथम गृहस्थ को धन चाहिये । धन की कोई खान नहीं है । व्यापार, कृषि अथवा मजदूरी सर्वत्र कठोर परिश्रम करना पड़ता है तो क्या यहां संक्लेश नहीं होता ? क्या कोई ऐसा कह सकेगा कि धन उपार्जन करते समय संक्लेश नहीं होता है ? अशान्ति नहीं होती है ? आपने ही कहा है कि जहां संक्लेश होता है वहां दुःख है । तो अब गृहस्थ के लिए पाप का उदय है कि नहीं ?
चाहे जितना मिला हो, फिर भी अधिक प्राप्त करने की तृष्णा है तो यह संक्लेश हुआ कि नहीं ? इच्छा, आसक्ति, तृष्णा - ये सब संक्लेश के ही घर हैं ।
साधु को ऐसा संक्लेश नहीं होता । सब परिस्थितियों में सन्तोष होता है । सन्तोष ही परम सुख है ।
जिस लक्ष्मी के प्रति आसक्ति हो तो मान लें कि वह पापानुबंधी पुण्य के प्रभाव से मिली हुई है ।
मूर्छा स्वयं दुःख है । मूर्छा महान् संक्लेश है । इस अर्थ में बड़े राजा-महाराजा भी दुःखी हैं । व्यक्ति जितना बड़ा होगा, संक्लेश भी, उतना ही बड़ा होगा, संक्लेश जितना बड़ा होगा, दुःख भी उतना ही बड़ा होगा । आप बड़े-बड़े नेताओं का जीवन देख लीजिये ।
प्राचीन काल में राजाओं को चिन्ता रहती, 'शत्रु राजा ने आक्रमण। कर दिया तो ? चलो, बड़ा किला बना लें, शत्रु को ललकारें ।'
आज प्रतिपक्षी राजनेता को पराजित करने के लिए, उसे चुनौती देने के लिए, मत (वोट) प्राप्त करने के लिए, विपक्षी देश को परास्त करने के लिए, अणुबम बनाना आदि अनेक संक्लेश दृष्टिगोचर होते ही हैं ।
प्रश्न : साधुत्व इतना ऊंचा हैं फिर भी उसे ग्रहण करने (कहे कलापूर्णसूरि - १ ****************************** १४९)