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को भिन्न मानते हैं ।
आज भी प्रभु हमें, सम्पूर्ण जगत् को सत्-चित्त-एवं आनन्द से परिपूर्ण मानते है । अपने जेसा ही स्थान अन्य को देना, इस प्रकार देखना क्या प्रेम का चिन्ह नहीं है ? अपने समान ही भोजन दिया जाये तो उस पर प्रेम का चिन्ह हुआ न ? भगवान हम सब पर प्रेम की वृष्टि कर रहे हैं।
इस प्रेम की अनुभूति हमारे हृदय में होनी चाहिये ।
प्रभु भी जिसे अपना स्वधर्मी बन्धु मानते हों उन छ: काय के जीवों के प्रति क्या अजयणापूर्वक व्यवहार हो सकता है ? प्रभु के परिवार का अपमान कैसे किया जा सकता है ?
सम्यग्दर्शन आते ही समस्त जीवों के प्रति आत्म-तुल्य दृष्टि आती है । जीवों की रक्षा में ही मेरी रक्षा है, यह समझा जाता है। _ 'आतम सर्व समान निधान महा सुखकन्द;
सिद्धतणा साधर्मिक सत्ताए गुणवृन्द ।' ये सम्यक्त्वी के उद्गार हैं ।
प्रभु ने जिन्हें प्रिय माना उन्हें मैं प्रिय मानकर जीवन जीउं - यही मुनि का लक्ष्य होता है। यदि ऐसा लक्ष्य नहीं हो तो समस्त द्रव्य क्रियाएं मानी जायेंगी, जो प्राण - विहीन कलेवर तुल्य है, बीज बोये बिना कृषक के परिश्रम के तुल्य है ।
२३. 'विश्वास्यो न प्रमादरिपुः ।' शत्रु बाहर नहीं है, हमारे भीतर ही है । 'खणं जाणाहि पंडिए' 'समय गोयम मा पमायए'
भगवान के ये समस्त सूत्र प्रमाद नष्ट करने के लिए ही हैं । अन्य दार्शनिक भी कहते हैं :
'प्रमाद एव मनुष्याणां शरीरस्थो महारिपुः ।'
कहे
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