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प्रभु के ही परम प्रेम में मन सराबोर हो जाय, यही सर्वस्व एवं तारणहार है, ऐसा भाव ही भक्ति है।
पुरुषार्थ या उसकी सफलता का अभिमान, भक्ति ही चूर कर सकती है, अन्यथा सफलता का अभिमान हमें मार डालेगा । अनेक साधकों की साधना अभिमान के कारण धूल में मिल गई ।
'स्व-पुरुषार्थ से मैं आगे पहुंच जाऊंगा, यह मान कर अब आप मेरी उपेक्षा न करें । इतनी भूमिका तक आपकी कृपा से ही पहुंचा हूं। अब आप उपेक्षा करेंगे तो कैसे चलेगा ?' ये किसके उद्गार हैं ? कलिकाल सर्वज्ञ हेमचन्द्रसूरि के ।
'अहं' के बड़े पर्वत को तोड़ने के लिए भक्ति के अतिरिक्त कोई साधन नहीं है । भक्ति के वज्र से अहंता का पर्वत चूरचूर हो जाता है । अतः प्रथम 'सोहं' बन कर नहीं, परन्तु 'दासोहं' बन कर साधना करनी है।
२१. 'सेव्यो देशः सदा विविक्तश्च'
हमारी साधना में विक्षेप न पडे, ऐसा स्थान पसन्द करें, एकान्त स्थान । अधिक भीड़ से साधना में विक्षेप पड़ता है। आप यहां अधिक संख्या में नित्य आते हैं यह अच्छी बात है । कितनी ही बार आओ, मैं तो वही का वही हूं, वही वासक्षेप है। अतः आप अधिक संख्या में बार-बार न आयें तो अच्छा ।
__ परिपक्व के लिए एकान्त स्थान उचित है, अपरिपक्व के लिए नहीं । उसके लिए प्रमाद का कारण बनता हैं
२२. स्थातव्यं सम्यकत्वे 'सम्यक्त्व में स्थिर रहना'
आत्म-तत्त्व की स्पर्शना निश्चय सम्यक्त्व है। जैसा स्वरूप प्रभु का है, वैसा ही मेरा है । केवल कर्म से आच्छादित है, इस बात पर पूर्ण विश्वास-संवेदनात्मक प्रतीति सम्यग्यदर्शन कराता है। प्रभु का ध्यान निश्चय से हमारा ही ध्यान है, यही सम्यग्दर्शन हमें सिखाता है ।
भगवान ने हमें कदापि भिन्न नहीं माना । हमने अवश्य उन्हें भिन्न माने है । भगवान ने हमें भिन्न माना होता तो वे भगवान ही नहीं बनते । जिन्होंने तत्त्व नहीं समझे, वे ही भगवान
***** कहे कलापूर्णसूरि - १)
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कहे