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भक्ति * जितना प्रभु का प्रेम बढता है, उतना पुद्गल का प्रेम घटता है ।
- 'मुनिसुव्रत जिन वंदतां, अति उल्लसित तन-मन थाय रे। वदन अनुपम निरखतां, मारा भव-भवना दुःख जाय रे । 'दिङेवि तुह मुह कमले, तिन्निवि नट्ठाइं निरवसेसाई ।
दारिदं दोहग्गं जम्मंतर - संचियं पावं ॥' 'निशदिन सूतां-जागतां, हैडा थी न रहे दूर रे । जब उपकार संभारिये, तब उपजे आनन्द पूर रे ।'
भगवान के उपकारों को याद न करो तो आनन्द कहां से आये ? निगोद में से बाहर किसने निकाला ? इस स्तर तक किसने पहुंचाया ? मेरे अन्तर में एक भी अवगुण प्रविष्ट नहीं होता, यह स्थिति आपने ही तो दी है। क्या यह आपका कम उपकार है ?
भगवान के प्रभाव से एक-एक गुण आता जाये तो कितने गुण बढ जायेंगे ? एक से ग्यारह, ग्यारह से एक सौ ग्यारह । इस प्रकार दस गुने होते जायेंगे ।
यदि एक विनय आ जाये तो ? विनय के बाद विद्या, विवेक, विरति आदि आते ही जायेंगे । इसे गुणानुबंध कहते हैं ।
केवलज्ञान से भगवान विभु हैं ही, किन्तु समुद्घात के चौथे समय में भगवान सच्चे अर्थ में विभु होते हैं, सर्व लोकव्यापी होते हैं । इस चिन्तन से मन को सर्वव्यापी बनाया जा सकता
. प्रश्न : छोटा सा परमाणु ! उस पर अनन्त सिद्धों की दृष्टि कैसे समा सकती है ?
उत्तर : नाच रही एक नृत्यांगना पर दस हजार मनुष्यों की दृष्टि पड़ सकती हैं। वह कैसे समाती है ?
दूर-दर्शन के माध्यम से तो करोड़ों की दृष्टि पड़ सकती है। यदि पौद्गलिक दृष्टि पुद्गल पर पड़ सकती है तो केवलज्ञान की दृष्टि क्यों न पहुंचेगी ?
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