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उन्होंने उन्हें साधु महाराज के पास भेजा । वे वहां गये । अर्थ बताने के लिए निवेदन किया । 'इसके लिए दीक्षा ग्रहण करनी पड़ती है। दीक्षित हुए बिना हम आगमों के अर्थ नहीं समझाते ।' गुरु की इस बात से हरिभद्र जैनी दीक्षा के लिए तैयार हो गये । इस प्रकार दीक्षित हरिभद्रसूरिजी ने पंचवस्तुक ग्रन्थ की रचना की है।
मुमुक्षु की परीक्षा -
मुमुक्षु की - साधु की जीवदया की परिणति जानने के लिए जघन्य से छ: महिने तक परीक्षा करे, अधिक से अधिक दो वर्षों तक परीक्षा करें । आवश्यकता प्रतीत हो तो चार वर्षों तक भी परीक्षा करें ।
दीक्षा की विधि के समय शिष्य को बांयी ओर रखे ।
दीक्षा-विधि के समय सूत्रों का शुद्धतापूर्वक उच्चारण होना चाहिये।
रजोहरण अर्थात् ? हरइ रयं जीवाणं बज्झं अब्भंतरं च जं तेणं ।
रयहरणंति पवुच्चइ कारणकज्जोवयाराओ ॥ हरति रजो जीवानां बाह्यम् आभ्यंतरं च यत् तेन । रजोहरणमिति प्रोच्यते कारणे कार्योपचारात् ॥
पंचवस्तुक गाथा - १३२ जिससे बाह्य एवं आभ्यंतर रज का हरण हो वह रजोहरण कहलाता है। आभ्यंतर कर्म-रज दूर करने के लिए 'ओघा' कारण है। कारण में कार्य का उपचार करने से उसे 'रजोहरण' कहा जाता है।
दीक्षा ग्रहण करने के समय चैत्यवन्दन आदि आवश्यक हैं । यह भक्तियोग है । प्रभु की भक्ति से उत्तम भाव स्थिर रहते हैं । यदि उत्तम भाव न हो तो जागृत होते हैं ।
दीक्षा के बाद भी नूतन मुनि को तुरन्त मन्दिर में ले जाया जाता है । ईशान कोण में माला गिनवाई जाती हैं । बाद में भी नित्य कमसे कम सात बार चैत्यवन्दन करना पड़ता है। यह सब भक्तियोग की प्रधानता दिखाता है ।
बड़े बड़े संघों में सिपाही आदि की आवश्यकता होती है। उसी प्रकार से यहां दीक्षा-विधि में भी शासनदेवता आदि का स्मरण करना आवश्यक हैं ।
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