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चातुर्मास प्रवेश, वि.सं. २०५५
३१-७-१९९९, शनिवार
श्रा. व. ३
धण्णा य उभयजुत्ता धम्मपवित्तीइ हुंति अन्नेसि । जं कारणमिह पायं, केसिंचि कयं पसंगेणं ॥१०८॥
• भौतिक सुखों की अपेक्षा संयम जीवन में अधिक आनन्द नहीं होता तो चक्रवर्ती अपना राज्य त्याग कर संयम ग्रहण नहीं करता । इन्द्रियों के सुख मात्र काल्पनिक हैं । वस्तुतः कुछ भी नहीं है । मृगतृष्णा के जल में हिरन को पानी दिखाई देता है। मूढ को संसार में सुख प्रतीत होता है, अमूढ को नहीं । यह बात अल्प संसारी को ही समझ में आती है, भवाभिनंदी-दीर्घसंसारी को नहीं, कठोर-कर्मी को नहीं, हलुकर्मी को समझ में आती है । हलुकर्मी शब्द से ही मुझे देवजीभाई (गांधी धाम) याद आ जाते हैं । उनके गुणों से ध्यान आ जाता है । देवजीभाई को हमने कभी आवेश में देखे ही नहीं है । यह हमारे संसार का मापदण्ड है । सर्वज्ञ भले नहीं है, परन्तु शास्त्र हैं, गुरु हैं । उसके द्वारा हम योग्यता जान सकते हैं।
• अयोग्य को दीक्षित करने से क्या होगा ? । दिगम्बर-मत-प्रवर्तक सहस्रमल्ल प्रारम्भ से ही, संसारी जीवन
कहे कलापूर्णसूरि - १
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