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जितने प्रवीण भागवतकार, कथाकार हों परन्तु वे भैंसों को एकत्रित करके कथा नहीं करते । भैंसे चाहे जितना सिर हिलायें, परन्तु समझती कुछ नहीं ।
महानिशीथ का असाध्य रोगी का उदाहरण : सुसढ नामक साधु को जयणा के साथ स्नान-सूतक का भी सम्बन्ध नहीं था । इसी लिए 'कहं चरे कहं चिट्ठे' आदि जयणा का स्वरूप सर्व प्रथम साधुओं को समझाना चाहिये । सुसढ उग्र तप करता परन्तु वह समस्त असंयम स्थानों में वर्तन करता था ।
गुरु - 'हे महासत्त्वशील । अज्ञानता दोष के कारण तू संयमजया जानता नहीं है । उस कारण से तेरा यह सब व्यर्थ जाता है । तू आलोचना लेकर सब शुद्धकर ।' उसने आलोचना शुरू की परन्तु जीवन में थोड़ा भी सुधार नहीं हुआ । उसने संयमजया का उचित प्रकार से पालन नहीं किया । छट्ठ-अट्ठम से छः माह तक तप किया परन्तु जयणा का 'ज' नहीं था ।
कार्य किया कि नहीं ? मृत्यु उसकी राह नहीं देखती । वह अचानक आ धमकती है । मर कर वह सामानिक देव, वासुदेव होकर, सातवीं नरक में गया। वहां से हाथी बनकर अनन्त काल के लिये निगोद में चला गया ।
अठारह हजार शीलांग के अखण्ड पालन को जयणा कहते हैं । यह बात वह समझा नहीं । अतः पुन्यहीन सुसढ निगोद में गया । काय - क्लेश किया उससे आधा कार्य भी उसने पानी के लिए किया होता, अर्थात् पानी के लिए उपयोग रखा होता तो उसका मोक्ष हो जाता । पानी, तेउ और मैथुन ये तीन महा दोष हैं, यह वह समझा नहीं । वह साधु पानी का उपयोग अधिक करता था । ये तीनों महा पाप - स्थानक हैं, क्योंकि तीनों में अनन्त जीवों का उपघात है । अत: पानी में ‘जत्थ जलं तत्थ वणं' के सूत्र से अनेक जीव हैं । अग्नि को 'सर्व भक्षी 'कहा है । उससे छ काय की विराधना होती है । मैथुन में संख्यात - असंख्यात जीवों का संहार होता है । तीव्र राग के बिना मैथुन नहीं होता । ऐसा साधु प्रथम व्रत का पालन नहीं कर सकता । प्रथम व्रत गया तो समझो कि शेष चार भी चले गये ।
(कहे कलापूर्णसूरि १ ********
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