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१८. स्वगुरुप्रदत्तपद : गुरु न हो तो दिगाचार्य के द्वारा पद प्राप्त किये हुए हों । ऐसे गुरु ही दीक्षा देने के अधिकारी हैं । काल के दोष से ऐसे गुरु न मिलें तो २-४ गुणन्यून गुरु भी चलते हैं ।
एतादृशेन गुरुणा सम्यक् विधिना प्रव्रज्या दातव्या, न तु स्वपर्षवृद्धयाशया । पानकादिवाहको मे भविष्यति इति आशयः न सम्यक् ।
ऐसे गुरु सम्यक् विधिपूर्वक दीक्षा प्रदान करें। अपना शिष्यपरिवार बढाने के आशय से अथवा 'पानी आदि लाने के लिए काम में आयेगा' इस आशय से दीक्षा नहीं प्रदान करनी चाहिये ।
शिष्य के अनुग्रह के लिए ही (स्वार्थ के लिए नहीं) तथा उसका मैं सहायक बनूंगा तो मेरे कर्मों का भी क्षय होगा, इसी आशय से दीक्षा प्रदान करते हैं ।
आजे १०.३० वागे सु. ४ ना आचार्य भगवंतना काळधर्मना समाचार मळ्या । जो के एमनी साधना अति उत्तम कोटिनी हती । तेथी सद्गति तो चोक्कस पाम्या ज छे ।
तमो बधाने आनाथी अपरिमित दुःख थयुं हशे । बधाने ज दुःख थाय ते स्वाभाविक छ । छतां भवितव्यता आगळ, कर्म आगळ कोईनुं चालतुं नथी।
तमो सर्वने हुं भारपूर्वक जणायूँ छु के तमो निराश न थता । तमो अमारी साथे ज छो । अमे तमारी साथे छीए । अमारी हूंफ राखी उत्तम कोटिनी शासननी आराधना करशो । जेथी उत्तम स्थाने पधारेला आचार्य भगवंत पण विशिष्ट रूपे प्रसन्न थशे अने शासन, संघमां सहायक थशे ।
___ अग्निसंस्कार श्री शंखेश्वर महातीर्थमां थाय ते विशेष इच्छनीय छे तो शक्य प्रयत्न करशो । - एज... विजय जयघोषसूरिनी अनुवंदना
म.सु. ४, नडियाद.
कहे कलापूर्णसूरि - १ ******
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