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कक) चातुर्मास प्रवेश, वि.सं. २०५५
२२-७-१९९९, गुरुवार
आषा. सु. १०
पुण्य के प्रकर्ष के बिना प्रभु-शासन प्राप्त नहीं होता, सद्गुरु प्राप्त नहीं होते । संसार-चक्रमें से मुक्त करने वाले सद्गुरु है । गुरु हमें ऐसा संयम प्रदान करते हैं जो मुक्ति-दाता होता है।
- गृहस्थता के द्वारा नहीं, संयम के द्वारा मुक्ति प्राप्त होती है । संयम अर्थात् मुक्ति का प्रमाण-पत्र । संयम की गाडी में सवार हो गये तो मुक्ति का स्टेशन आयेगा ही । शर्त इतनी ही कि आप बीच में कहीं उतरेंगे नहीं । मार्ग में अनेक आकर्षण हैं । गुरुकृपा ही आकर्षणों से हमें बचाती है ।
- ज्ञानी एवं गुणवान गुरु के द्वारा हमें भी ज्ञान एवं गुणों की प्राप्ति होती है।
गुरु में 'अनुवर्तक' गुण अत्यन्त आवश्यक है । उस गुण के द्वारा ही वे आश्रित शिष्यों की प्रकृति जान सकते है । सब की प्रकृति भिन्न-भिन्न होती है, क्योंकि सब भिन्न-भिन्न गतियोंमें से भिन्न-भिन्न संस्कार लेकर आये है । किसी को भुख होती है तो किसी को प्यास होती है । यहां की विचित्रताएं पूर्वजन्म के आधारित हैं । यदि प्रकृति के अनुरूप मार्ग-दर्शन प्राप्त हो तो तीव्र
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