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साहुकार अंधेरे में नहीं ज्ञात होते । अविद्या - अज्ञान के अंधकार को उत्पन्न करने वाला मोहनीय है ।
* उत्तम गुरु जैसे ही उत्तम शिष्य तैयार हो । इसके लिए ही यहां सब बातें कही गइ है ।
ये समस्त गुण स्वयं में उतारने हैं । सुनकर बैठे नहीं रहना है । गुरु के गुणों में दीक्षार्थी के १६ गुणों का समावेश हो गया हैं, क्योंकि जिसने इस प्रकार विधि पूर्वक दीक्षा अंगीकार की हो वही सद्गुरु बन सकता है।
यदि हम दीक्षार्थी में समस्त १६ गुणों की अपेक्षा रखें तो शायद इस काल में एक भी शिष्य उपलब्ध नहीं होगा । नहीं उपलब्ध होगा तो क्या हुआ ? हमारा मोक्ष रुकेगा नहीं, 'मन मिला तो चेला, नहीं तो भला अकेला ।'
दो चार गुण न हों, परन्तु यदि समर्पित हो तो चला सकते हैं । गम्भीर दोष नहीं होने चाहिये ।
___ मानवजन्म, आर्यदेश, जाति, कुल से ही केवल नहीं चलता । विनय, समर्पण-भाव आदि गुण विशेषतः होने चाहिये ।
गुणवान हों तो ही गुण-प्रकर्ष हो सकता है । यदि बीज रूप में ही न हो तो अंकुर-वृक्ष कैसे बनेगा ?
विनय के साथ यह विशेषतः देखना है कि दीक्षार्थी भवविरक्त है कि नहीं ? संसार अर्थात् विषय-कषाय । उनसे जो घृणा करता हो वह भव-विरक्त कहलाता हैं ।
विषय-कषाय को संसार का मूल मानकर उन्हें नष्ट करने के लिए दीक्षा लेना चाहे वह योग्य गिना जाता है । वैराग्य से ये गुण प्रतीत होते हैं ।
मोह का वृक्ष भयंकर है । अनादिकालीन भव-वासना रूपी वृक्ष का मूल विषय-कषाय है, जिसका उन्मूलन दुष्कर है । आसक्ति - इच्छा - स्पृहा का उन्मूलन सरल नहीं हैं । अप्रमत्त जीवन से ही यह सम्भव है । दीक्षा अंगीकार करना अर्थात् पांच महाव्रतों का अप्रमत्त रूप से पालन करना ।
पांच अव्रत चार कषायों का फल है, अथवा अव्रतों से कषाय बढ़ते हैं, ऐसा भी कहा जा सकता हैं ।
*** कहे कलापूर्णसूरि - १)
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कहे