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कच्छ) चातुर्मास प्रवेश, वि.सं. २०५५
२५-७-१९९९, रविवार
आषा. सु. १२
• दो प्रकार के धर्मों में से साधु-धर्म शीघ्र मोक्षप्रद है। प्रव्रज्या - प्रकृष्ट व्रजन-गमन । जो शीघ्र मोक्ष में ले जाये वह प्रव्रज्या ।
दीक्षा-चारित्र मोक्ष का प्रकृष्ट साधन होने से उसको ग्रहण करने वाला मोक्ष-मार्ग का प्रवासी कहलाता है। श्रावक धर्म को प्रव्रज्या नहीं कहा जाता, प्रव्रज्या की तैयारी कहा जाता है। सर्व प्रथम साधु-धर्म की परिभावना, उसके बाद परिपालना । देशविरति धर्म सर्व-विरति के लिए पालना है। देश-विरतिधर यदि युवराज है तो सर्व-विरतिधर महाराजा है । आज का श्रावक आनेवाले कल का साधु है, महाराजा है ।
इसीलिए तो श्रावक के लिए साधु की सामाचारी सुनने का विधान है । साधु-साध्वी के समस्त आचार को श्रावक-श्राविका भी जानते है । जानने में कोई अन्तर नहीं है, पालन करने में अन्तर है । अतः समजदार श्राविका भोजन पकाते समय कभी साधु के लिए भोजन नहीं पकाती ।
. इस विषम काल में १६ गुणों वाला दीक्षार्थी दुर्लभतम है। अन्य गुणों को गौण मानकर उनमें वैराग्य, विनय आदि भाव
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कहे