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गुणों को प्रधानता देकर दीक्षा प्रदान की जा सकती है ।
मोह-वृक्ष के गहरे मूल विषय-कषायों पर टिके हुए है। इसीलिए विषय-कषायों के प्रति वैराग्य सर्व प्रथम होना चाहिये । यहां आकर विषय-कषाय के तूफान हों तो शासन की भयंकर अपभ्राजना होगी । आजकल तो समाचार-पत्रों का युग है । पहले भी ऐसी घटनाएं होती थी, ऐसे प्रसंग आते थे, परन्तु उनका समाचारपत्रों में प्रकाशन नहीं होता था । क्या ऐसे प्रसंग परिवार में नहीं होते? आज समाचार-पत्रों में ऐसे प्रसंग छपने से भयंकर अपभ्राजना हो रही है।
मोह की शाखाओं एवं पत्तों को काटोगे तो कुछ नहीं होगा । मूल पर प्रहार होना चाहिये । नरक के जीव शाल्मली वृक्ष के नीचे विश्राम करने जाये और उपर से तलवार जैसे पत्ते गिरें, कट मरें, विश्राम तो नहीं मिलता परन्तु... मोह तो उस शाल्मली वृक्ष से भी खतरनाक है ।
तीव्र मोह एवं तीव्र अज्ञान के कारण ही निगोद के जीव वहां पड़े हुए हैं, अन्यथा वहां हिंसा आदिमें से दिखनेवाला कोई पाप नहीं है।
अइगरुओ मोहतरू, अणाइभवभावणाइविसयमूलो । दुक्खं उम्मूलिज्जइ, अच्चंतं अप्पमत्तेहिं ॥
लुनावामें एक विशाल बरगद का वृक्ष है । दीक्षा आदि के प्रसंग पर कभी मंडप की आवश्यकता नहीं होती । वह बरगद का पैड़ तो अच्छा, परन्तु मोह का वृक्ष खतरनाक होता है ।
. जिसकी मोक्ष जाने की इच्छा नहीं है, उसे निगोद में जाने के लिए तत्पर रहना चाहिए । अन्यत्र कहीं अनन्त काल तक रहने की व्यवस्था ही नहीं है । त्रसकाय की उत्कृष्ट स्थिति दो हजार सागरोपम ही है । इतने समय में स्वसाध्य (मोक्ष) सिद्ध न हो सके तो निगोद तैयार ही है ।
. विषय की स्पृहा संसार का मूल है । अप्रमत्त साधक ही उस स्पृहा का कठिनाई से उन्मूलन कर सकता है । अतः यह गुण तो होना ही चाहिये । संसार से जो विरक्त हो वही अप्रमत्त बन सकता है, सच्चे अर्थ में साधक बन सकता है । अप्रमत्त कहे कलापूर्णसूरि - १ ***
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