________________
बन गई, भगवान की शक्ति हमारे भीतर उतर गई । व्याकरण में 'माणवकोऽग्निः' कहा है । अग्नि का ध्यान करनेवाला माणवक अर्थात् माणवक स्वयं अग्नि हैं, अर्थात् माणवक इस समय अग्नि के ध्यान में है, उस प्रकार भगवान का ध्यान करनेवाला स्वयं भगवान हैं ।
उपयोग से हमारी आत्मा अभिन्न है ।
भगवान के साथ उपयोग जुड़ने पर काम हो गया । वह उपयोग ही आपकी रक्षा करेगा, फिर भी कृतज्ञ कभी यह नहीं मानता कि मेरे उपयोग ने मेरी रक्षा की । भगवान को ही वह रक्षक मानेगा ।
बिजली का बिल आता है, सूर्य, चन्द्रमा, बादल आदि ने कभी बिल दिया है ? इन उपकारी तत्त्वों से जगत टिका हुआ
हैं
।
कृतज्ञ एवं परोपकारी सूर्य-चन्द्रमा के समान हैं । उपकार करने पर भी मानते नहीं हैं । वे ऋण - मुक्ति के लिए ही प्रयत्न करते हैं । भगवान तो कृतकृत्य हैं । उपकार की आवश्यकता नहीं होने के कारण वे जगत के जीवों पर निःस्वार्थ भाव से उपकार करते रहते हैं ।
___ "आप अपने समान अन्य व्यक्तियों को बनायें" प्रत्येक साधु साध्वीजी का यह उत्तरदायित्व है। आप यदि अचानक चले जाओगे तो यहां कैान सम्हालेगा?
दीक्षार्थी का दूसरा महत्त्वपूर्ण गुण 'विनय' है । विनय से आज्ञा-पालन आता है । जो कहोगे वह करूंगा, जो कहोगे वह शिरसावन्द्य होगा । आज्ञांकित व्यक्ति का यह मुद्रालेख होता है।
काम प्राप्त होने पर विनीत को हर्ष होता है। काम करके टैक्स नहीं चुकाना है, यह तो अपना कर्तव्य है । ज्ञान से प्राप्त होता है, उसकी अपेक्षा सेवा से बहुत मिलेगा । पढा हुआ भूला जा सकता हैं, परन्तु सेवा 'अमर बैंक' में जमा होती है । इसी कारण से सेवा को अप्रतिपाती गुण कहा हैं ।
दीक्षार्थी में अन्य गुण न्यूनाधिक चलेंगे, परन्तु विनय एवं कृतज्ञता में कम - ज्यादा नहीं चलेगा ।
६८
******************************
********* कहे कलापूर्णसूरि - १
का