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बाहर न निकालें तब तक वह ऋण नही उतरेगा । कितना भारी ऋण हैं हम पर ?
अरिहंत का कार्य है - संसारी जीवों को मोक्ष में भेजना । अरिहंत का कार्य है - शाश्वत सुख के भोक्ता बनाना । मोह का कार्य है - शाश्वत सुख के भोक्ता नहीं बनने देना ।
मोह का कार्य अनादि काल से है, उस प्रकार धर्म का कार्य भी अनादिकालीन है । मोह के अधीन रहनेवाला संसारमें रहता हैं । धर्म के अधीन रहनेवाला मोक्ष की ओर प्रयाण करता हैं । इसी कारण से तथाभव्यता की परिपक्वता के लिए प्रथम उपाय चार की शरणागति हैं ।
एक बार भी यदि अनन्य शरणागति स्वीकार कर ले तो अर्द्ध पुद्गल परावर्त काल में तो आपका मोक्ष निश्वित ही हैं ।
भव्यता समान होने पर भी, सब की तथाभव्यता भिन्न भिन्न होती है । पांच कारणों में सब से मुख्य पुरुषार्थ है । शरणागति के लिए यह पुरुषार्थ विकसित करना है । भगवान ही मोक्ष के उपाय, मोक्ष के दाता, मोक्ष के पुष्ट कारण हैं, यह मानकर उनकी शरणागति स्वीकार कर लें ।
न स्वतः न परतः, केवल परमात्मा की कृपा से ही मोक्ष संभव हो सकता हैं । गुरु की शरणागति भी अन्ततोगत्वा भगवान की ही शरणागति हैं । भगवान को कह दें :
यावन्नाप्नोमि पदवी, परां त्वदनुभावजाम् । तावन्मयि शरण्यत्वं, मा मुञ्च शरणं श्रिते ॥
भगवान यह कभी नहीं कहेंगे कि 'तू योग्य नहीं है मेरी शरण के लिए' । कृतज्ञता गुण से ही ऐसी शरणागति आ सकती हैं । जब कर्म का जोर प्रबल हो, हमारा जोर न चले, तब भगवान की शरण लेनी चाहिये । उनका बल ही हमारे तरने का उपाय हैं । जिस समय आप भगवान का स्मरण करते हैं, उसी समय भगवान आपके भीतर आते हैं । अनेक जीव याद करते हैं तो भगवान की शक्ति घटेगी । भगवान कितनों को तारेंगे? ऐसा न मानें ।
भगवान की शरण स्वीकार करने पर हमारी चेतना भगवन्मयी
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