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से अहिंसा पालन में सहायता मिलती है ।
दूसरे व्रत के लिए भाषा समिति । उपयोगपूर्वक बोलने से असत्य विरमण व्रत अच्छी तरह पाला जा सकता हैं ।
तीसरे व्रत के लिए एषणा-समिति । निर्दोष गोचरी से साधु अचौर्य व्रत का अच्छी तरह पालन कर सकता है ।
चौथे व्रत के लिए आदान भण्डमत्त निक्षेपण समिति । वस्तु लेते-रखते दृष्टि निरन्तर नीची रहे तो स्त्री-सम्बन्धी अनेक दोषों से बचा जा सकता हैं ।
पांचवे व्रत के लिए पारिष्ठापनिका । वस्तु का त्याग करने के समय मूर्छा टालने के संस्कार पड़े । इस प्रकार पांच समिति पांच व्रतों के पालन में सहायक हैं ।
- शम, संवेग आदि क्रम प्रधानता की अपेक्षा से हैं । उत्पत्ति की अपेक्षा से आस्तिक्य से उत्क्रम समझना है । प्रथम आस्तिकता, फिर अनुकम्पा आदि उल्टा समझें ।
प्रथम व्रत से सम्यक्त्व प्रकट होता है । हिंसा सम्यक् दर्शन का नाश करती है । प्रथम व्रत से दया रचनात्मक बनती है । अहिंसा सम्यक्त्वी व्यक्ति के हृदय में होती हैं, परन्तु व्रतधारी के अमल में आती हैं ।
विरतिग्रहण करने के बाद यदि जयणा आदि में कोई उपयोग न रखें, तीन-चार दिन में काप निकालें, अनाप-सनाप पानी ढोलें तो कहां रहा प्रथम व्रत ?
जयणा के बिना जीव का उद्धार नहीं है । 'महानिशीथ' में उल्लेख हैं कि एक उग्र तपस्वी निगोद में गया क्योंकि उसे जयणा का ज्ञान नहीं था ।
जयणा-अजयणा का ज्ञान ही न हो तो वह किस तरह जयणा का पालन करेगा ? पाप कर्म का बंध अजयणा से नहीं रुकता ।
अठारह हजार शीलांग के पालन से अजयणा रुकती हैं ।
उस तपस्वी को गुरु ने अजयणा के लिए सचेत किया प्रायश्चित्त दिया, परन्तु वह नहीं ही माना । हां, वह गुरु द्वारा दिये गये प्रायश्चित्त को तप के द्वारा पूर्ण करता, परन्तु जयणा जीवन में नहीं थी ।
अतः वह मर कर प्रथम देवलोक में गया । वहां से वह ७२ ****************************** कहे
कहे कलापूर्णसूरि - १)