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के भाव की अनुकूलता के अनुसार उसका पालन करनेवाले । इन समस्त गुणों में विचार करने पर कार्य-कारण भी समझ में आयेगा ।
शिष्यों को उनकी योग्यता एवं रुचि के अनुसार साधना में लगाते हैं वे अनुवर्तक हैं । मूर्ख शिष्य को भी इस गुण से विद्वान बनाया जा सकता है ।
कहीं भी नहीं रह सकनेवाला साधु पू.पं. भद्रंकरविजयजी म. के पास रह सकता था, उसका स्वभाव भी बदल जाता था । उनमें अनुवर्तक गुण उत्कृष्ट रूप में था ।
१२. गम्भीर : विशाल - चित्त होते है, गम्भीर आलोचना भी थोड़ी भी बाहर न जाये, जिस प्रकार सागर में से रत्न बाहर नहीं आते ।
१३. अविषादी : परलोक के कार्य में खेद नहीं करते, परिषहों से घिरे होने पर भी छ:काय की हिंसा नहीं करे, दोष न लगने दे । किसी भी कार्य में परेशानी नहीं होती । कर्म-निर्जरा के लाभ को ही देखते है । ग्राहकों की भीड़ के समय भी व्यापारी जिस प्रकार नहीं थकता । क्योंकि सामने लाभ दिखता है न ?
अपने कार्य से अधिक कार्य करना पड़े तो थकावट आयेगी ? _ 'सेवा करने का लाभ मुझे ही प्राप्त हो । कोई भी कार्य मुझे सौंपना ।' इस प्रकार के अभिग्रह धारी मुनि भी होते हैं । कमलविजयजी महाराज इस प्रकार के साधु थे ।
वि. संवत् २०१४ में सुरेन्द्रनगर में ५५ ठाणों में सुबह वे ही जाते । तपस्वी मणिप्रभविजयजी महाराज भी ऐसे ही थे । आहार कम पड़े या बढे, दोनों में तैयार ।
१४. उपशमादि लब्धियुक्त : अन्य को भी शान्त करने की शक्ति । यह लब्धि कहलाती है । पू. पं. भद्रंकर विजयजी म. में यह शक्ति दृष्टिगोचर होती थी । वे चाहे जैसे क्रोधी व्यक्ति को भी शान्त कर देते ।
१५. उपकरण लब्धिः : सामग्री अपने आप प्राप्त हो ऐसा पुण्य होता है ।
१६. स्थिर लब्धिः : दीक्षा दें वह संयम में स्थिर हो जाये । पू. कनकसूरि महाराज में इस प्रकार की लब्धि देखी गई थी । १७. प्रवचनार्थ वक्ता : सूत्र एवं अर्थ बतानेवाले ।
**** कहे कलापूर्णसूरि - १)
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कहे