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आचार का विचार करते हैं परन्तु पण्डित तो आगम-तत्त्वों की समस्त प्रयत्नों से परीक्षा करते हैं - ऐसा पू. हरिभद्रसूरिजी ने षोडशक में कहा हैं । ___बाल-बुद्धि जीवों को अभिग्रह आदि की, मध्यम जीवों को आचार की, गुरु-सेवा की बात करें, जब कि पण्डित को तात्त्विक बात करें ।
बाल-जीवों की श्रद्धा में वृद्धि करने के लिए उनके समक्ष आचारों का पूर्णतः पालन करें। भले ही आप ध्यानयोग में कितने ही आगे बढ गये हों, परन्तु बाह्याचारों का परित्याग नहीं करना चाहिये ।
* उपा. यशोविजयजी में से कोई सामान्य भूल भी नहीं निकाल सकता है - एसा पू. सागरजी महाराज भी कहते थे । उनका दर्शन-पक्ष कितना सुदृढ होगा? इससे यह बात जानी जा सकती है।
उपाध्यायजी महाराज की २९ शिक्षाएं १. निन्द्यो न कोऽपि लोके, २. पापिष्ठेष्वपि भवस्थितिश्चिन्त्या ।
किसी की भी निन्दा मत करना । ज्यादा इच्छा हो जाये तो स्वयं की ही निन्दा करें ।
क्या आप यह पूछते हैं कि निन्दा से हानि क्या ? मैं कहता हूं कि निन्दा से लाभ क्या ? करनेवाले को, सुननेवाले को कि जिसकी निन्दा हो रही है उसे क्या लाभ है ? निन्दा से वह सुधरेगा तो नहीं, परन्तु उल्टा वह आपके प्रति द्वेष रखेगा ।
परन्तु पापी की. निन्दा करने की तो छुट है न ? . अविनीत, उद्धत, पापी के प्रति भी भवस्थिति का विचार करें, उसकी निन्दा न करें ।
पापियों को हम तो क्या साक्षात् तीर्थंकर भी नहीं सुधार सकते । उनके प्रति द्वेष करना या उनकी निन्दा करनी, किसी भी तरह से उचित ठहराई नहीं जा सकती ।
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कहे कल