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बांकी (कच्छ) चातुर्मास प्रवेश, वि.सं. २०५५
१४-७-१९९९, बुधवार
आषा. सु. २
कोई भी शुभ क्रिया यदि अनुबन्धयुक्त नहीं बनेगी तो वह मोक्षप्रद नहीं बन पायेगी । अपुनर्बंधक भाव आने के बाद सानुबन्ध क्षयोपशम की वृद्धि होती है । अनुबन्ध विहीन वर्तमान के संयम आदि गुण भवान्तर में साथ नहीं आते । अमृतआस्वादकरी, विषक्षयकरी यह सानुबन्ध क्षयोपशम की वृद्धि होती है। वह भोग-रस से 'लिप्त नही होता, भोगों का उपभोग करें फिर भी । 'चाख्यो रे जेणे अमी - लवलेश, बीजा रे रस तेने मन नवि गमेजी ।'
- 'दर्शनपक्षोयम् अस्माकम्, यह हमारा दर्शनपक्ष है ।' यहां ज्ञानपक्ष नहीं लिखा । ऐसे शास्त्रों का अध्ययन सम्यग्दर्शन को निर्मल बनाता है।
अभी की हमारी श्रद्धा मांग मांगकर लाये गये आभूषणों के समान है, उधार है। हमारी समझ से आई हुई श्रद्धा नहीं हैं, स्वयंभू नहीं हैं । 'गुरु की, शास्त्रों की बात माननी चाहिये ।' ऐसी समझ में से उत्पन्न है । दर्शन-शास्त्रों के अध्ययन से हमारी स्वयं की समझ बनती है।
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कहे कलापूर्ण