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प्रयत्न करते हैं । 'श्रुत-अनुसार नवी चाली शकीये, सुगुरु तथाविध नवी मिले रे, क्रिया करी नवी साधी शकीये, ए विखवाद चित्त सघले रे ॥'
इस प्रकार पूर्व महापुरुष स्वयं बोलते हैं तब 'मैं ही शास्त्रानुसारी हूं, अन्य सब मिथ्यात्वी हैं।' इस प्रकार तो कोई मूढ ही बोल सकता है।
. प्रश्न : भाव नमस्कार होने के पश्चात् गणधर नमुत्थुणं आदि के द्वारा क्यों नमस्कार करते है । ' उत्तर अभी तक उच्च कक्षा का नमस्कार (सामर्थ्य योग का) शेष हैं, इस लिए करते हैं, अभी तक लक्ष्य तक पहुंच नहीं. पाये हैं इसलिए करते हैं ।
* अप्काय, तेउकाय और चौथे व्रत की विराधना अनन्त संसारी बनाती है, इस प्रकार महानिशीथ में जोर देकर कहा गया है । 'जत्थ जलं तत्थ वणं' (अनन्तकाय) । अतः जल में महादोष है । अग्नि सर्वतोभक्षी है। अब्रह्म महामोहरूप है । विराधना से बंधनेवाले कर्मों से यदि नहीं चेतेंगे तो हमारा क्या होगा ?
' अमुक कर्म ज्ञान, ध्यान या तप से नहीं, परन्तु भोगने से ही जाते हैं । कर्म बंधने में कोई विलम्ब नहीं लगता, केवल अन्तर्मुहूर्त में बंध सकते हैं ।
* परम्परा का भंग करना अत्यन्त ही भारी दोष है ।
चतुर्दशी को नवकारसी करनेवाले, नित्य आधाकर्मी का सेवन करनेवाले जोग कैसे कर सकते हैं ? अब उनका स्वास्थ्य किस प्रकार सुधर गया ?
तिथि का भी बहुमान गया ? प्रणालिका का भंग करना महान दोष है । आगामी पीढी सब उस मार्ग पर चले, जिसका पाप पहल करनेवाले को लगता हैं ।
. दूसरे कोई मुझे कह दे - तू लघुकर्मी है, निकट मुक्तिगामी है, उसमें मुझे विश्वास नहीं है । प्रभु यदि मुझे कह दे - 'तू भव्य है तो मैं प्रसन्न हो जाऊं ।' इस प्रकार पू. देवचन्द्रजी महाराज जैसे भी कहें तो हमारी प्रार्थना कैसी होनी चाहिये ?
कहे
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