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* विधिकथनं विधिरागो विधिर्मागस्थापनं विधीच्छूनाम् ।
अविधिनिषेधश्चेति, प्रवचनभक्तिः प्रसिद्धा नः ॥ विधि बतानी, विधि के प्रति राग रखना, विधि के अभिषालियों को विधि मार्ग में जोड़ना, अविधि का निषेध करना, यही हमारी प्रवचन-भक्ति है, यह कहनेवाले यशोविजयजी में हमें उत्कट श्रद्धा के दर्शन होते हैं। उन्होंने उस युग के ढुंढक, बनारसीदास आदि के कुमतों का खण्डन करने के लिए ग्रन्थ लिखकर अविधि का निषेध किया है।
* विधि के प्रति राग अर्थात् आगम, भगवान एवं गुरु के प्रति राग समझें ।
. पूर्ण पद की अभिलाषा तब सत्य मानी जाये, जब हम अपने तप, ज्ञान, दर्शन आदि को यथासम्भव पूर्णकक्षा तक पहुंचाने का प्रयत्न करें ।
शुद्धि के केवल पक्षपात से नहीं चलता, यथासम्भव हमें उसे जीवन में उतारना चाहिये ।
. जो साधु-साध्वी बाह्यक्रिया के आडम्बर से, मैले कपड़ों या शुद्ध गोचरी या उग्र विहार से अभिमान धारण करते हैं, वे न तो ज्ञानी हैं और चारित्र से भी भ्रष्ट हैं, यह मानें ।
जिन व्यक्तियों में ज्ञान का परिणमन न हुआ हो, वे ही बाह्यक्रिया के आडम्बर का अभिमान रखते हैं । अभिमानी व्यक्ति निन्दक भी होंगे ही।
एक महात्मा गोचरी लिये बिना चले गये । दूसरे और तीसरे महात्मा गोचरी ग्रहण कर के गये । तीसरे महात्मा को भिक्षा प्रदान करने के बाद पूछने पर उन्होंने कहा, 'गोचरी ग्रहण नहीं करनेवाले ढोंगी हैं । हम जैसे है वैसे हैं ।
इन में भिक्षा ग्रहण नहीं करनेवाले सत्य संयमी थे। दूसरे गोचरी ग्रहण करने वाले संविग्नपाक्षिक थे । तीसरे दम्भी, ढोंगी एवं निन्दक थे ।
* बालबुद्धि लोग बाह्य क्रियाओं के रसिक होते हैं । वे अन्तःकरण की परीक्षा करनेवाले नहीं होते ।
बाल-बुद्धि जीव केवल वेष देखते हैं, मध्यम बुद्धि केवल कहे कलापूर्णसूरि - १ ******
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