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वांकी (कच्छ) चातुर्मास प्रवेश, वि.सं. २०५५
१७-७-१९९९, शनिवार
आषा. सु. ५
तीर्थ के आलम्बन से अनेक व्यक्ति तर गये, तर रहे हैं ओर तरेंगे । उस तीर्थ को स्थायी रखने के लिए हमारे पूर्व आचार्यों ने अत्यन्त ही परिश्रम किया है। उसके द्वारा जो आत्मिक आनन्द प्राप्त किया, वह आनन्द सभी को प्राप्त हो, उसके लिए अनेक ग्रन्थों की रचना की गई, जिनमें हरिभद्रसूरिजी के ग्रन्थ सर्वोपरि हैं।
श्री संघने यशोविजयजी को 'लघु हरिभद्र' के रूप में सम्मानित किया है। उनके ग्रन्थ भी आज प्रकाश-स्तम्भ के रूप में गिने जाते हैं ।
१०. कोपोऽपि च निन्दया जनैः कृतया (न कार्यः) - लोगों की निन्दा के कारण क्रोध नहीं करना ।
स्तुति से प्रसन्न नहीं होना है और निन्दा से क्रोधित नहीं होना है। दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं । यदि आप स्तुति से प्रसन्न होंगे तो निन्दा से क्रोधित होगें ही । जहां एक हो वहां दूसरा न हो, ऐसा प्रायः होता नहीं है ।
हमारी प्रशंसा शायद लोगों के लिए कल्याणकारी सिद्ध हो, परन्तु हम यदि अभिमान करने लगे तब तो डूब गये समझो ।
पर-निन्दा से भी स्व-प्रशंसा कराना, सुनना, सुनवाना अमुक
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