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वांकी (कच्छ) चातुर्मास प्रवेश, वि.सं. २०५५ ।
१३-७-१९९९, सोमवार
आषा. व. ३०
* मुझे जो प्राप्त हुआ है, वह मेरे बाद की पीढी को भी प्राप्त हो, सरल भाषा में प्राप्त हो, ऐसी करुणा-भावना से यशोविजयजी आदि महापुरुषों ने ग्रन्थों का सृजन किया है ।
मार्ग में आने वाले माईल के पत्थर या बोर्ड जिस प्रकार पीछे आने वालों के लिए महत्त्वपूर्ण होते हैं, उस प्रकार ग्रन्थ भी साधकों के लिए साधना के मार्ग में महत्त्वपूर्ण है, अत्यन्त ही महत्त्वपूर्ण हैं ।
मित्रा आदि चार दृष्टि में क्रमशः बहिरात्म-भाव कम होता जाता है। सम्पूर्ण बहिरात्म-भाव का नाश तो पांचवी दृष्टि में ही (चोथे गुण स्थानक) में ही होता है । चोथे में मिथ्यात्व जाता है, पांचवे में अविरति जाती है, छटे में पूर्णतः अविरति जाती है, सातवे में प्रमाद जाता है, बारहवे में कषाय-मोह जाता है (अन्तरात्म दशा) तेरहवे में अज्ञान जाता है, चौदहवे में योग जाता है (परमात्मदशा) साधना का प्रारम्भ चोथे गुण स्थानक से होता है ।
* जितने अंशों में परस्पृहा, उतने ही अंशों में दुःख है। धन, मान, पद, प्रतिष्ठा आदि अधिकाधिक दुःखी बनाने वाले है,
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