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हम नम्र बनेंगे । हम जब सम्मुख आयेंगे, आज्ञा-पालन करने की सम्पूर्ण तत्परता बतायेंगे, तब प्रभु की अनराधार कृपा की हम पर वृष्टि होती रहेगी । तब हमें समझ में आयेगा कि भगवान तो अनराधार कृपा की वृष्टि कर ही रहे थे, परन्तु मैं ही अहंकार का छाता ओढ कर घूम रहा था । मेरा ही पात्र उल्टा था या उसमें छिद्र था ।
. जो कोइ परमात्मा है वे कभी अन्तरात्मा थे । आज अन्तरात्मा है वे कभी बहिरात्मा थे । हम यदि अन्तरात्मा है तो बहिरात्मा हमारा भूतकाल है । परमात्मा हमारा भविष्य है।
बहिरात्म दशा में प्रभु दूर है, चाहे वे समवसरण में हमारे समक्ष ही क्यों न बैठे हों । यह दूरी क्षेत्र की नहीं, भावना की है । भगवान चाहे क्षेत्र से दूर हो, परन्तु ध्यान से यहीं पर विद्यमान है, यदि हम मन-मन्दिर में प्रभु को बिठायें ।
• किसी को ध्यान सीखना नहीं पड़ता । ध्यान सीखा हुआ है । अलबत्त, अशुभ ध्यान, आर्त-रौद्र ध्यान ! अब उसे शुभ में बदलने की आवश्यकता है । 'धर्म-ध्यान, शुक्लध्यान ध्याया नहीं ।' इस पंचम काल में शुक्लध्यान का अंश भी नहीं आ सकता होता तो इस तरह लिखा न होता ।
- 'शरीर मैं हूं' : बहिरात्मा, 'आत्मा मैं हूं' : अन्तरात्मा, 'परम चैतन्य मैं हूं' : (कर्म चले गये हैं) - परमात्मा
विषय-कषायों का आवेश, तत्त्वों के प्रति अश्रद्धा, गुण-द्वेष (स्वयं में तो गुण न हों,गुणी का भी द्वेष होगा) आत्मा का अज्ञान - ये सब बहिरात्मा के लक्षण हैं ।
तत्त्वश्रद्धा, आत्मज्ञान, महाव्रतों का धारण, निरतिचार पालन, अप्रमाद, आत्म-जागृति, मोह की जय (परमात्मा को क्षय होता है) - ये समस्त अन्तरात्मा के लक्षण हैं
मोह का उदय : बहिरात्मा : १ से ३ गुणस्थानक । मोह का जय : अन्तरात्मा : ४ से १२ गुणस्थानक । मोह का क्षय : परमात्मा : १३-१४ गुणस्थानक + मुक्ति
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