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जीवसमास
पञ्चसंग्रह
वेयण कसाय वेअव्वय मारणंतिओ समुग्धाओ।
तेजाऽऽहारो छटो सत्तमओ केवलीणं च ।। १९६ ।। नरक में अन्तरकाल जीवसमास
खउवीस मुत्ता सत्त दिवस पक्खो य मास दुग चउरो।
छम्मासा रयणाइस बउवीस मुहस सण्णियरे ।। २५० ।। पञ्चसंग्रह
पणमालीस मुहमा पक्खो मासो य विणि खउमासा।
छम्मास परिसमेय व अंतरं होइ पुढवीणं ।। २०६ ।।
(१) नरक (२] नरक (३) नरक (५. नरक (4) नरक ६) नरक १७ नरक जीवसमास २४ मुहूर्त ७ दिन १ पभ १ मास २ भास ४ मास मास।।२५०|| पतसंग्रह ४५ मुहूर्त १ पक्ष 4 मास २ मास ५ मास मास १ वर्ष ।।२०६।। सम्यक्त्वादि का विरहकाल जीवसमास
सम्मत्त सत्तगं खलु विरयाविराई होइ चौदसगं।
विए पनरसगं विरहिय कालो अहोरसा।। २६२ ।। पञ्चसंग्रह
सम्मले सप्त दिणा विरदाविरदे य उदसा होति।
विरदेस य पण्णरसं विरहियकालो य बोहव्यो ।। २०५ ।। दोनों गाथा का अर्थ समान है। मात्र शब्दों का अन्तर है। विषयवस्तु
जीवसमास की प्रारम्भिक गाथाओं में ही यह स्पष्ट कर दिया गया है कि इस ग्रन्थ में चार निक्षेपों, छह एवं आठ अनुयोगद्वारों और चौदह मार्गणाओं के आधार पर जीव के स्वरूप का एवं उसके आध्यात्मिक विकास की चौदह अवस्थाओं का अर्थात् चौदह गुणस्थानों का विवेचन किया गया है। सम्पूर्ण ग्रन्थ २८७ प्राकृत गाथाओं में निबद्ध है और निम्न आठ द्वारों में विभक्त किया गया है- (१) सत्पदप्ररूपणा, (२) द्रव्य-परिमाण, (३) क्षेत्र, (४) स्पर्शना, (५)