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जीवसमास
उत्तर - जीव के औपशमिक क्षायोपशमिक, क्षायिक, औदायिक तथा पारिणामिक - ये पाँच प्रकार के भाव हैं।
आठद्वार
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संतपथपरूवणया दव्यमाणं व खिसफुसणा य ।
काभावो
अब
दाराई ॥५१॥
गाथार्थ - १. सत्पदप्ररूपणा (अस्तित्व), २. द्रव्यपरिमाण (मात्रा या संख्या), ३. क्षेत्र, ४ स्पर्शना, ५. काल, ६ अन्तर ७. भाव (अवस्थाएँ) और ८. अल्पबहुत्व - ये आठ अनुयोगद्वार हैं जिनके द्वारा किसी तत्त्व की विवेचना की जाती है।
विशेषार्थ - प्रस्तुत गाया में निम्न आठ अपेक्षाओं के आधार पर जीवद्रव्य का निरूपण किया गया है।
१. सत्पद - सत्पद अर्थात् अस्तित्व गुण की अपेक्षा से जीवादि तत्त्व हैं। २. द्रव्य - द्रव्य की अपेक्षा से आत्म- द्रव्य कितने हैं? आत्म- द्रव्य अनन्त हैं।
३. क्षेत्र जीव कितने क्षेत्र में निवास करते हैं? मुक्तजीव लोक के असंख्यातवें भाग में अथवा लोकाम में निवास करते हैं, किन्तु संसारी जीव सम्पूर्ण लोक में रहे हुए
हैं।
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४. स्पर्श - मुक्तजीवों ने कितने स्थान को स्पर्शित कर रखा है? मुक्त जीवों की स्पर्शना लोक के असंख्यातवें भाग जितनी है।
५. काल - मुक्तजीव मोक्ष में कितने काल तक रहेंगे? एक जीव की अपेक्षा से सादि - अनन्त काल तक तथा समस्त मुक्तजीवों की अपेक्षा से अनादि काल से मुक्तजीव वहाँ रहे हुए हैं और अनन्त काल तक वहाँ रहेंगे।
६. अन्तर- एक जीव के सिद्ध होने से दूसरे जीव के सिद्ध होने तक अधिक से अधिक कितना अन्तर रहता हैं? सिद्ध जीवों में अधिक से अधिक अन्तर छः मास का हो सकता है।
७. भाव- सिद्धों में कौनसे भाव हैं? सिद्धों में क्षायिक एवं पारिणामिक भाव हैं।
८. अल्प - बहुत्व - सिद्धों में अल्प - बहुत्व की विवेचना किस प्रकार की जाती है? जैसे नपुंसक सबसे कम स्त्रियाँ उससे ज्यादा तथा पुरुष उससे अधिक सिद्ध होते हैं।
नोट- प्रस्तुत कृति में इन आठ द्वारों का विस्तृत विवेचन किया गया है। तत्त्वार्थसूत्र (१/८ ) में भी इन्हीं आठ द्वारों का उल्लेख मिलता है।