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जीवसमास ईशान देवलोक मे भी देवों की संख्या सौधर्मवत ही होती है फिर भी ईशानदेव सौधर्म देवों की तुलना में संख्यात गुणा कम ही होते हैं ऐसा प्रज्ञापना के महादण्डक में उल्लेख है।
ईशान के ऊपर के छ: देवलोको अर्थात् सनत, माहेन्द्र, ब्रह्मलोक, लान्तक, महाशुक्र और सहस्रार देवलोकों में घन किये हुए लोक की एक प्रदेशात्मक श्रेणी के असंख्यातवें भाग जितने आकाश-प्रदेश होते हैं उतनी ही संख्या में प्रत्येक देवलोक में देवता होते हैं।
आनत, प्राणत, आरण एवं अच्युत इन चार देवलोकों में, अध:, मध्यम, उपरिवेयकों में तथा पाँच अनुत्तर विमानों में देवों की संख्या पल्योपम के असंख्यातवें भाग में जितने आकाश-प्रदेश होते हैं उतनी होती हैं।
यहाँ कोई प्रश्र करे कि भवनपति देवों की संख्या रत्नप्रभा नारकी के आकाश प्रदेशों के समतुल्य, सौधर्मेशान देवलोकों के देवों की संख्या प्रतर के असंख्यातवें भाग की असंख्यात श्रेणियों के आकाश-प्रदेशों के समरूप होती हैं ऐसा आप पूर्व में कह चुके हैं परन्तु प्रतर के असंख्यातवें भाग की असंख्यात श्रेणियों भी असंख्यात कोटा-कोटी योजन परिमाण होती है तो क्या इस माप की श्रेणियों इसमें ग्रहण करना या अन्य माप की श्रेणियाँ इसमें ग्रहण करना उचित है? इस शंका के निवारणार्थ भवनपति आदि देवों की संख्या सम्बन्धी विचारणा के अन्तर्गत श्रेणी का परिमाण निम्न प्रकार से बताया गया है। नारक व देव परिमाण
सेतीसूइपमाणं भवणे घम्मे तहेव सोहम्मे ।
अंगुलपदम वियतियस-मणंतरवग्गमूलगुणं ।। १५७।। गाभार्थ-भवनपति देवों, धम्मानरक के नारकी तथा सौधर्म देवलोक के देवों की संख्या श्रेणी-सूची परिमाण हैं। उसमें भी भवनपति देवों की संख्या अंगुल के आकाश-प्रदेशों की संख्या के प्रथम वर्गमूल का समानान्तर वर्गमूल के साथ गुणाकार करने पर जो संख्या आती है उसके समतुल्य तथा धम्मा नरक-नारकियों की संख्या उसके दूसरी वर्गमूल से समानान्तर संख्या का गुणा करने पर जो संख्या आती है उसके समरूप की संख्या तथा सौधर्म देवों की संख्या तीसरे वर्गमूल के साथ समानान्तर संख्या का गुणा करने पर जो संख्या आती है उसके समान होती है।
विवेचन-प्रतर से पूर्व उर्ध्वगामी असंख्यात प्रदेशों की पंक्ति को श्रेणी कहा जाता है तथा तिर्यगामी असंख्यात प्रदेशों की पंक्ति सूची कही जाती है। पूर्व