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जीवसमास
है। हे भगवन्त ! पर्याप्तक, पर्याप्तक के रूप में कितने काल तक रह सकता है? हे गौतम! जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त तथा उत्कृष्टतः से साधिक सौ सागरोपम पृथक्त्य काल तक रह सकता है।
प्रश्न- इस गाथा में पर्याप्त सकलेन्द्रिय की कायस्थिति का पुनः विवेचन क्यों किया गया, जबकि यह चर्चा पूर्व गाथा में की जा चुकी थी?
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उत्तर--- पूर्वगाथा में तिर्यञ्च मनुष्य आदि के प्रसंग में यह चर्चा की गई थी, यहाँ सामान्य रूप से यह चर्चा की गई है। पुनः इस गाथा में उनकी काय स्थिति हजार सागरोपम से अधिक कही गई है, यह आगमों (प्रज्ञापना) के अनुसार नहीं है, क्योंकि प्रज्ञापनासूत्र में उनकी कार्यस्थिति साधिक सागरोपम शतपृथक्त्व बताई गई है।
प्रस्तुत गाथा में त्रस की कार्यस्थिति दो हजार सागरोपम से कुछ अधिक बताई गई है। प्रज्ञापनासूत्र में भी कहा गया है— हे गौतम! त्रसकाय की जघन्य कार्यस्थिति अन्तर्मुहूत उत्कृष्ट दिसे कुछ अधिक है।
जघन्य कायस्थिति तो सभी की अन्तर्मुहूर्त बताई गई हैं।
इस प्रकार जघन्य और उत्कृष्ट के मेदपूर्वक जीवों की कार्यस्थिति का विवेचन किया गया। अब गुणस्थानों की अपेक्षा से काल की चर्चा करेंगे। (कावस्थिति का विवचेन सम्पूर्ण हुआ)
३. गुणविभाग काल
गुणस्थानों की कालस्थिति
जीवों की अपेक्षा से विध्यादृष्टि आदि गुणस्थानों का काल मिम अविरबसप्पा देसे विरया पमतु इमरे य
नागाजीव पच्च सव्वे कालं सजोगी च ।।२१९।।
गाथार्थ - मिध्यात्व, अविरतिसम्यग्दृष्टि, देशविरत, प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत तथा सयोगीकेवली गुणस्थान अलग-अलग जीवों की अपेक्षा से सर्वकाल में होते हैं।
विवेचन- गुणविभाग काल में गुणस्थानों की अपेक्षा से काल की चर्चा की गई है। इसमें मिध्यात्वादि गुणस्थानों में रहे हुए जीवों की कालस्थिति के सम्बन्ध में चर्चा की गई है।
अनेक जीवों की अपेक्षा से मिध्यादृष्टि गुणस्थान सर्वकाल में पाया जाता है। नारकों, मनुष्यों तथा देवों में मिध्यादृष्टि जीव असंख्य हैं तथा तिर्यों में अनन्त हैं।