Book Title: Jivsamas
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 258
________________ अन्तर-द्वार २०५ एकेन्द्रियादि हरिएयरस्य अन्तर असंखया होति पोग्गलपरहा। अपरडा पत्तेपतरुस्स उक्कोसं ॥२५२।। गाथार्थ-वनस्पति के अतिरिक्त अन्य एकेन्द्रियों का उत्कृष्ट अन्तर-काल असंख्यात पुद्गल परावर्तनकाल के समतुल्य है। प्रत्येक वनस्पतिकाय आदि का उत्कृष्ट अन्तर-काल अढाई पुद्रलपरावर्तनकाल है। विवेचन- हरितकाय (वनस्पति) से इतरकाय, पृथ्वीकाय, अपकाय, तेजस्काय, वायुकाय तथा सकाय है। वनस्पतिकाय के आंतरिक्त इन पृथ्वाकाय आदि चारों कायों में से निकलकर पुन: उसी काय में उत्पन्न होने का अन्तरकाल जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त तथा उत्कृष्टत: आलिका के असंख्यातवें भाग में रही हुई समय-राशि में जितने समय होते हैं उतने ही पुल परावर्तनकाल के समतुल्य होते हैं। २. प्रत्येक काय से आशय साधारण वनस्पतिकाय के अतिरिक्त शेष सभी (पाँचों) कायों से हैं। प्रत्येक शरीर राशि में से निकलकर जीव साधारण शरीर में उत्पन्न हो और पुनः प्रत्येक शरीर में जन्म ले तो उसका अन्तर-काल जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त है तथा उत्कृष्टत: अढाई पुद्गल परावर्तन काल जितना बताया गया है। अढाई पुद्रल परावर्तन जितने काल तक साधारण वनस्पति काय में रहने के बाद पुनः जीव प्रत्येक काय (प्रत्येक शरीर) में जन्म लेता है। प्रज्ञापनासूत्रसूत्र ५७९-५८० के अनुसार सामान्यत: पाँचों ही एकेन्द्रिय जीवों का उपपात (जन्म) निरन्तर होता है, उनमें अन्तर-काल नहीं होता है। वे उपपात-विरह से रहित हैं। बादर निगोद, तिर्य आदि बापरसुहनिओमा हरियत्ति असंखया भवे लोगा। उपहीण सबहुतं तिरियनपुंसे असण्णी य ।।२५३।। गाचार्य- बादर निगोद, सूक्ष्मनिगोद तथा वनस्पतिकाय का अन्तर-काल असंख्यात लोक परिमाण होता है। तिर्यश्चगति, नपुंसकवेद तथा असंज्ञी का अन्तरकाल शतपृथक्त्व अर्थात् (१०० से ९००) सागरोपम जितना होता है। विवेचन-निगोद-निकृष्ट गोदः इति निगोद अर्थात् सबसे निम्न स्थान निगोद का है क्योंकि निगोद में जीव नारक जीवों की अपेक्षा अधिक वेदना भोगता है। अनन्त जीवों के पिण्डभूत एक शरीर को निगोद कहते हैं, यथा जमीकन्दगाजर, मूली, अदरक, आलू आदि। सूई के अग्रभाग जितने क्षेत्र में बादर निगोद

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