Book Title: Jivsamas
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 262
________________ अन्तर-द्वार २०१ विवेचन - मिध्यात्व त्याग कर सम्यक्त्व को पाने वाला उत्कृष्टतः पुनः मिथ्यात्व को कितने समय बाद प्राप्त करता है यह इस गाथा में बताया गया है। साधिक दो छियासठ सागरोपम काल अर्थात् एक सौ बत्तीस सागरोपम में अन्तरमुहूर्त से इसे इस प्रकार जानना चाहिये कोई मिध्यात्व से ( क्षायोपशमिक ) सम्यक्त्व में जाने वाला छियासठ सागरोपम तक सम्यक्त्व में रहे फिर अन्तर्मुहूर्त मिश्रगुणस्थान को प्राप्त कर पुनः सम्यक्त्व को प्राप्त कर छियासठ सागरोपम काल तक उसमें रहे। उसके बाद या तो वह सिद्ध हो जाता है अथवा मिथ्यात्वी । इस आधार पर कुछ आचार्य मिथ्यात्व का उत्कृष्ट विरह काल दो छियासठ सय से अन्तर्मुहूर्त कम मानते हैं। चतुर्थ गुणस्थान में औपशमिक सम्यक् दर्शन को प्राप्त कर क्रमश: उसका अनुगमन करता हुआ देशविरत प्रमत्तसंयत या सर्वविरत अप्रमत्तसंयत अपूर्वकरण, अनिवृत्ति- करण, सूक्ष्म- सम्पराय तथा उपशान्त- मोह नामक ग्यारहवें गुणस्थानवर्ती जीव सम्यक् - दर्शन का वमन कर पुनः उसे अवश्य प्राप्त करते हैं, इसका उत्कृष्टतः अन्तर- काल अर्धपुद्गल परावर्तन है। सम्यक्त्वानुगत अर्थात् चतुर्थ गुणस्थान से लेकर ग्यारहवें गुणस्थान तक औपशमिक सम्यक् दर्शन का अनुगमन वाला जीव इन सभी गुणस्थानों को छोड़ने के बाद अर्धमुगल परावर्तन कालपर्यन्त संसार परिभ्रमण कर पुनः उन्हें अवश्य प्राप्त करता है। क्षायिक सम्यक्त्व वाले अर्थात् क्षपक, क्षीणमोही तथा सयोगी केवली जीवों में मिथ्यात्व एवं सम्यक्त्व का अन्तर काल नहीं होता, क्योंकि इन सभी का पतन संभव नहीं है। अतः सम्यक्त्व सम्पन्न होते हुए भी इनका मिथ्यात्व या सम्यक्त्व के अन्तर काल के परिगणन का समावेश नहीं किया गया है। नोट- मुहूर्त अड़तालीस मिनिट : इसमें एक समय कम होने पर इसे अन्तर्मुहूर्त कहा जाता है। अतः एक समय से लेकर अड़तालीस मिनिट से एक स्वमय कम तक का सम्पूर्ण काल अन्तर्मुहूर्त में ही परिगणित किया जाता हैं। जघन्यकाल सासाणुवसमसम्म पल्लासंखेञ्जभागमवरं तु । अंतोद्भुतमियरे खवगस्स उ अंतरं नति । १२५८ ॥ गाथार्थ — सास्वादन गुणस्थान और औपशमिक सम्यक्त्व का जघन्य अन्तर- काल पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग है इतर (अन्य ) गुणस्थानों का जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त परिमाण है। क्षपक का अन्तर काल नहीं है।

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