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जीवसमास संखेसमासधासा सपा सहस्सा य सपसहस्सा या
दुसु२ तिसु २ पंचसु अणुतरे पल्लऽ संखइमा।। २५६।। गाथार्थ- प्रथम एवं दूसरे देवलोक का नौ दिन बास महतं, तीसरे एवं चौथे देवलोक का बारह दिन दस मुहूर्त, पाँचने, छठे एवं मातवें देवलोक का साढ़े बाईस दिन, आठवें, नवें एवं दसवें देवलोक का पैतालीस दिन, ग्यारहवें देवलोक का असर दिन तथा बारहवें देवलोक का सौ दिन . (२५५)
दो (आनत-प्राणत) मे सख्यातमास. दो (आरण-अच्युत) में संख्यात वर्ष, तीन (अधोग्रैवेयक) में सौ वर्ष, तीन (मध्य- ग्रैवेयक) में हजार वर्ष, तीन (ऊपरी अवेयक) मे लाख वर्ष तथा पांच अनुत्तर में पान्योपम का असंख्यातवा भाग (उत्कृष्ट विरह-काल) है।
विवेचन-इन गाथाओं में देवलोकों का उत्कृष्ट विरह-काल बताया गया है। बृहदसंग्रहणी (गाथा १५१) एवं प्रज्ञापनासूत्र (सूत्र-५७६ से ६.६) के अनुसार देवों का उत्कृष्ट अन्तरकाल इस प्रकार बतलाया गया है
१. भवनवासी, २. व्यंतर, ३. ज्योतिष्क तथा '४. वैमानिकों में तथा मौधर्म से ईशान तक- जघन्य से एक समय तथा उत्कृष्ट चौबास महतं है। उसके बाद सभी का उत्कृष्टत: अन्तर-काल इस प्रकार है सनत्कुमार--- नौ दिन बीस मुहूर्ता, माहेन्द्र बारह दिन दस मुहूर्त, ब्रह्मलोक साढ़े बाईस दिन, लान्तक- पैंतालीस दिन, महाशुक्र- अस्सरी दिन, सहस्त्रार- सौ दिन, आनत एवं प्राणत- सख्यात मास, आरण एवं अच्युत- संख्यात वर्ष!
अवेयको में- अधः तीन अयेयक संख्यात सौ वर्ष। मध्य तीन अवेयक संख्यात सहस्र वर्ष। ऊपरि तीन ग्रंवेयक संख्यात लाख वर्ष है।
अनुत्तर में— विजय, वैजबन्त, जयन्त तथा अपराजित असंख्यात वर्ष तशा सर्वार्थसिद्ध में पल्योपम का संख्यातवा भाग है। मिथ्यात्व का अन्तर-काल
मिच्छसि उहिनामा बे छापली परं तु देसूणा।
सम्मत्तमणुगग्रस्स य पुग्गलपरियट्टमदपो।। २५७।। गाथार्थ-मिथ्यात्व का परित्याग करके पुनः मिथ्यात्व को ग्रहण करने का उत्कृष्ट का अन्तर-काल मुहूर्त से कुछ कम दो छियासठ (६६-६६) अर्थात एक सौ बत्तीस सागरोपम है, अन्य कुछ विचारकों के अनुसार इससे भी कम है। किन्तु सम्यक्त्व का दमन कर पुन: समक्त्व को प्राप्त करने का उत्कृष्ट अन्तर-काल अर्धपुद्गलपरावर्तन है।