Book Title: Jivsamas
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Vidyapith
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पार्श्वनाथ विद्यापीठ ग्रन्थमाला : ९९ प्रधान सम्पादक डॉ०सागरमल जैन अज्ञातपूर्वधर आचार्य द्वारा विरचित जीवनमान अनुवादिका साध्वी श्री विद्युतप्रभाश्री जी सम्पादन एवं भूमिका डॉ० सागरमल जैन पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी-५ १९९८ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय जीवसमास जैनधर्म-दर्शन का प्राचीनतम ग्रन्थ है। इसके रचयिता कोई अज्ञात पूर्वधर आचार्य हैं, जिनका समय पाँचवीं-छठी शताब्दी के लगभग रहा होगा। प्रस्तुत कृति की विशेषता यह है कि इसमें जैन खगोल, भूगोल, सृष्टि-विज्ञान के साथ-साथ तत्कालीन प्रचलित विविध प्रकार के तौल-माप, जीवों की विभिन्न प्रजातियाँ आदि का विस्तृत विवेचन उपलब्ध होता है। विवेच्य विश्वय को देखते हुए इसकी प्राचीनता और महत्ता को नकारा नहीं जा सकता। मूलत: यह ग्रन्थ प्राकृत भाषा में निबद्ध है। वर्तमान में यद्यपि यह कृति प्राकृत और उसकी संस्कृत टीका सहित उपलब्ध थी, किन्तु हिन्दी भाषा-भाषी पाठकों के लिए इस महान् ग्रन्थ का उपयोग कर पाना कठिन था। इस दृष्टि को ध्यान में रखते हुए पार्श्वनाथ विद्यापीठ ने इस ग्रन्थ को हिन्दी अनुवाद के साथ प्रकाशित किया है। इस अनुपम ग्रन्थ के हिन्दी अनुवाद का महनीय कार्य साध्वीवर्या श्रीमणिप्रभाश्री जी म.सा. की सुशिष्या साध्वी श्री विद्युत्प्रभाश्री जी ने किया है, अत: हम वंदनीया साध्वीश्री जी के कृतज्ञ हैं। विस्तृत भूमिका के साथ-साथ ग्रन्थ का सम्पादन जैनधर्म-दर्शः, मर्मज्ञ मनीषी एवं पार्श्वनाथ विद्यापीठ के निदेशक (इमेरिटस) डॉ० सागरमल जी जैन ने किया है, अत: हम उनके हृदय से आभारी हैं। साध्वीश्री एवं डॉ० सागरमल जी जैन के अथक परिश्रम का ही परिणाम है कि यह ग्रन्थ सुधीजनों के सम्मुख उपस्थित है। प्रन्थ का प्रफ संशोधन डॉ. शिवप्रसाद, डॉ. विजय कुमार जैन एवं डॉ० सुधा जैन ने किया है, अत: वे धन्यवाद के पात्र हैं। प्रकाशन व्यवस्था का पूर्ण दायित्व डॉ. विजय कुमार जैन ने वहन किया है, एतदर्थ वे पुनः धन्यवाद के पात्र हैं। उत्तम अक्षर-संयोजन के लिए श्री अजय कुमार चौहान, सरिता कम्प्यूटर्स सुन्दर मुद्रण के लिए वर्द्धमान मुद्रणालय, वाराणसी के भी हम आभारी है। भूपेन्द्रनाथ जैन मानद सचिव पार्श्वनाथ विद्यापीठ वाराणसी Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वकथ्य साहब “विचक्षण-व्याख्यानमाला, रायपुर चातुमांस १९९४ के अन्तर्गत जब आगमज्ञ एवं आचरण सम्पन्न डॉ. सागरमल जी साहब का आगमन हुआ, तब परमपूज्या गुरुवर्या श्री मणिप्रभाश्री जी महाराज सा. ने चर्चा के दौरान डॉ. के सम्मुख साध्वी वर्ग को उनसे अध्ययन हेतु पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी भेजने की भावना अभिव्यक्त की। डॉ. साहब की स्वीकृति तथा पूज्या गुरुवर्या श्री की प्रेरणास्वरूप हम तीन साध्वियाँ मैं मृदुलाश्री जी एवं अतुलप्रभाश्री जी ने बैतूल (म.प्र.) से पदयात्रा करते हुए बनारस की ओर प्रस्थान किया । + २५ मई १९९५ को बनारस, पार्श्वनाथ विद्यापीठ में प्रवेश हुआ। दो दिन भेलूपुर, रामघाट आदि मन्दिरों के दर्शन कर पुनः २८ मई को संस्थान में आ गये। मैंने लेखन कार्य हेतु अपनी अभिरुचि डॉ. सागरमल जी साहब के सम्मुख व्यक्त की। सम्माननीय डॉ. साहब ने अतिप्राचीन एवं पूर्वधर अज्ञात आचार्य द्वारा विरचित जीवसमास की प्रताकार प्रति मुझे अनुवाद हेतु दी। दो-तीन दिन में ही इसके प्रथम सत्प्ररूपणाद्वार की गाथाओं का अर्थ करने के पश्चात् अनुवाद में कठिनाई प्रतीत होने लगी, परन्तु डॉ. साहब की सहायता से यह कार्य आगे बढ़ता रहा। संयोग से इसी बीच डॉ. साहब के माध्यम से जीवसमास, मुनिप्रवर श्री अमितयश विजय की गुजराती अनुवाद की पुस्तक मुझे प्राप्त हो गयी। शब्दानुवाद काफी हद तक सरल हो गया। यह ग्रन्थ इस हिन्दी अनुवाद में विशेष उपयोगी रहा है, अतः मैं गुजराती अनुवादकर्ता मुनि श्री अमितयशविजय जी के प्रति विशेष आभार व्यक्त करती हूँ । भाषानुवाद की कठिनाई का भी किसी सोमा तक समाधान इससे हुआ, किन्तु कुछ विषयों को लेकर काफी असमंजस की स्थिति बनी रही, फिर भी मैं और डॉ. साहब जिस सीमा तक विषय को समझ सके, उस आधार पर यह कार्य पूर्ण किया । त्रुटियाँ हो सकती हैं, विद्वानों के निर्देश मिलने पर अग्रिम संस्करण में सुधारने का ध्यान रखेंगे। जीवसमास शब्द जो पाँचवीं शती में गुणस्थान के लिए प्रयोग किया जाता था, उसका इसमें विस्तार से वर्णन है। इसमें सत्प्ररूपणा आदि आठ द्वारों और चौदह मार्गणाओं का चौदह गुणस्थानों में सह-सम्बन्ध घटित किया गया है। गुणस्थानों की विशिष्ट जानकारी के लिए यह विस्तृत ग्रन्थ काफी सन्तोषप्रद है। इसके रचयिता के प्रति मन कृतज्ञता से भर जाता है, जब उनकी निस्पृह उदारता Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवसमास का अनुभव होता है। वे आचार्य भगवन भव्य जीवा के प्रति उपकार की भावना रखते हुए स्वयं की नामस्पृहा के प्रति पूर्णत: विरक्त रहे। यही कारण है कि आजतक इस ग्रन्थकर्ता के सम्बन्ध में कुछ भी जानकारी नहीं है, फिर भी उन अज्ञात आचार्य भगवन् के चरणों में मन अहोभाव से नमन करता है। स्वल्पमति होने पर भी इस कार्य को मैंने सम्पन्न किया। इसमें विश्वप्रेम प्रचारिका, समन्वय साधिका, अध्यात्म रस निमग्ना, जैन कोकिला, स्वर्गीया पूज्या प्रवर्तिनीधी विचक्षण श्री जी महाराज सा. की परोक्ष कृपा, मरूधर-ज्योति, प्रखर ओजगुण व्याख्यातृ सरस्वती स्वरूपा, जिनशासनरत्ना पूज्या श्री मणिप्रभाश्री जी महाराज सा. की प्रेरणा व प्रत्यक्ष कृपा एवं समाजरत्न डॉ, सागरमल जी साहब का आत्मीय निर्देश एवं सहयोग है, मैं इन सबके प्रति अपनी कृतज्ञता ज्ञापित करती हूँ। बनारस आगमन के विचार-विमर्श में सुयोग्या लघुगुरुभगिनी श्री हमप्रज्ञाश्री जी का भी सहयोग रहा, अत: उन्हें भी धन्यवाद देती हूँ। वाराणसी में साथ में अध्यनरत सखिस्वरूपा. मृदुभाषिणी परमपूज्या श्री प्रियदर्शनाश्री जी म.सा.. सेवाभावी श्री मृदुलाश्री जी. पी-एच. डी. हेतु कार्यरत सुयोग्या श्री सौम्यगुण्णाश्री जी, अध्ययनप्रियाश्री अतुलप्रभाजी, श्री स्थितप्रज्ञाश्री जी एवं श्री सिद्धप्रज्ञाश्री जी के आत्मीय सम्बन्धों, स्नेहिल सहयोग एवं सद्भावमय परिवेश में यह कार्य सम्पूरित हुआ, अत: वे सभी धन्यवाद के पात्र हैं। पुनः इस कार्य में प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से जो भी सहयोगी रहे हैं, उन सभी के प्रति आभार व्यक्त करती हूँ। खरतरगच्छीया साध्वी श्री विचक्षणमणिपद रेणु विधुतप्रभा श्री Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रमणिका विषय पृष्ठ संख्या भूमिका मालाचरण जीवसमास निक्षेप छह अनुयोगद्वार आठ अनुयोगद्वार मार्गणास्थान जीवस्थान (जीव के चौदह भेद) गुणस्थान भाग १ सत्प्ररूपणा-द्वार १. गति-मार्गणा चारगतियों का सामान्य उल्लेख नरकगति तिर्यञ्चगति मनुष्यगति देवगति चारों गतियों में गुणस्थान २. इन्द्रिय-मार्गणा ऐन्द्रिक विकास एवं गुणस्थान पर्याप्तियाँ .. काय-मार्गणा काय-मार्गणा एवं गुणस्थान पृथ्वीकाय के भेद अपकाय के भेद तेजसकाय के भेद वायुकाय के भेद दनस्पतिकाय के भेद Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवसमास गाथा पृष्ठ संख्या ५० ४५ ३७ ४८ ३८ 43 विषय त्रसकाय के भेट कुल (जीवों की उपजातियाँ) योनि (जीवों की जातियाँ) संघनन संस्थान शरीर ४. योग-मार्गणा योगद्वार एवं गुणस्थान ५. वेद-मार्गणा वेद (कामवासना} कषाय-मार्गणा कषाय एवं गुणस्थान ७. मान-मार्गणा पञ्चज्ञान ज्ञान-मार्गणा एवं गुणस्थान ८. संयम-मार्गणा संयम मार्गणा एवं गुणस्थान श्रमणों के प्रकार ९. दर्शन-मार्गमा दर्शन-मार्गणा एवं गूणस्थान ६१ ५३ ७० 4E ७१ ६० ७२ १०. लेश्या-मार्गणा लेश्या एवं गुणस्थान पृथ्वीकाय आदि में लेश्या सातों नरकों में लेश्या वैमानिक देवों में लेश्या देव एवं नारकी जीवों में लेश्या ११. भव्यत्व-मार्गणा भव्यत्व-मार्गणा तथा गुणस्थान ७४ ६१ ७५ ६२ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रमणिका विषय गाथा पृष्ठ संख्या ७७ १२. सम्यक्त्व-मार्गणा सम्यग्दर्शन सम्यग्दर्शन एवं गुणस्थान १३. साही-मार्गमा संजी-मार्गणा व गुणस्थान १४. आहार-मार्गणा आहार-मार्गणा और गुणस्थान उपयोग के प्रकार अजीवद्रव्य के प्रकार ८२ ७२ ७४ ७५ ७ / 9 ८१ २ भाग २ परिमाण-द्वार १. द्रव्य-परिमाण २. क्षेत्र-परिमाण भेत्र-परिमाण के भेद उत्सेधांगुल-प्रमाणांगुल एवं आत्मांगुल सूच्यांगुल प्रतरांगुल व घनांगुल उत्सेधांगुल का स्वरूप परमाणु के प्रकार व्यावहारिक परमाणु प्रमाणांगुल आत्मांगुल ३. काल-परिमाण श्वासोच्छवास-परिमाण लव का परिमाण दिन का परिमाण मुहूर्त का परिमाण पूर्व का परिमाण पूर्वांग का परिमाण असंख्यात काल का परिमाण पत्योपम के प्रकार बाहर उद्धार पल्योपम का परिमाण ८४ १०१ १०३ १०५ १०६ ८७ ८७ ८८ ८८ १०७ १०८ १०५ ११० ११३ ११६ ११७ १२० ८८ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवसमास गाथा पृष्ठ संख्या १२२ १२३ १२५ १२६ विषय सुक्ष्म उद्धार पल्योपम का परिमाण सागरोपम का परिमाण बादर अद्धा पल्योपम का परिमाण सूक्ष्म अद्धा पल्योपम परिमाण अद्धा सागरोपम परिमाण उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी काल पुद्गल परावर्तन का काल कर्मस्थिति, कायस्थिति, भवस्थिति क्षेत्र पल्योपम का परिमाण क्षेत्र सागरोपग का परिमाण १७ १२८ १२५ १३० १३१ १३२ १३४ १३५ १३६ १०० १०० १३७ ४. भाव-परिमाण श्रुत एवं गणितीय संख्या गणितीय संख्या असंख्यात के प्रकार अनन्त के प्रकार संख्यात्त का निरूपण असंख्यात का निरूपण अनन्त का निरूपण ज्ञान दर्शन एवं चारित्र नयों के प्रकार १३८ १३९ १०० १०४ १३५ १३५ १०५ १०७ १४५ १०५ १४३ १४३ ११३ १४४ १२० १४५ १२० जीवद्रव्य-परिमाण सास्वादन एवं मिश्र गुणस्थानवी जीवों का परिमाण अविरति, सम्यग्दृष्टि, देशविरति, प्रमत्त संयत व अप्रमत्तसंयत जीवों का परिमाण उपशामक जीवों का परिमाण क्षपक जीवों का परिमाण नरक में मिथ्यादृष्टि जीवों का परिमाण तिर्यञ्च पञ्चेन्द्रिय में मिथ्यादृष्टि जीवों का परिमाण वैक्रियलब्धिधारी मिथ्यादृष्टि जीवों का परिमाण १४६ १४७ १४८ १४५ १२१ १२१ १२३ १२४ १५० १२६ १५१ १२७ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रमणिका विषय पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च का परिमाण पर्याप्त अपर्याप्त मनुष्य परिमाण मनुष्य का अन्य प्रकार से निरूपण भुवनपति व्यन्तर एवं ज्योतिष्क देवों का परिमाण बादर तेजस् एवं वायुकाय के जीवों का परिमाण सात राशियों का परिमाण वायुकाय में उत्तर वैक्रियवालो का परिमाण द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय तथा पञ्चेन्द्रिय पर्याप्तपर्याप्त का परिना ग्यारह राशियों का परिमाण उपसंहार अजीव द्रव्य का परिमाण १५६ वैमानिक देवों का परिमाण १५६ भुवनपति आदि देवों की श्रेणियों का परिमाण १५७ १५८ नारकों व सनत्कुमारादि देवों का परिमाण बादर पृथ्वी, अप् एवं वनस्पतिकाय के जीवों के परिमाण भाग ३ क्षेत्र द्वार चारों गतियों के जीवों का देहमान नारकी जीवों की ऊँचाई द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रिय तथा वनस्पतिकाय का देहमान तिर्यग्वों का देहमान एकेन्द्रिय का देहमान, मनुष्य का देहमान देवों का देहमान चौदह गुणस्थानों में अवगाहना का क्षेत्रपरिमाण गाथा एकेन्द्रिय क्षेत्र परिमाण बादर पर्याप्त वायुकाय का क्षेत्र परिमाण १५२ १५३ १५४ १६९ १६०-१६१ १६२ १६.३ १६० १६५ १६६ १६७ १६८ १६९ १७० १७१ १७६ १७७ १७८ १७९ १८० vii पृष्ठ संख्या १२८ १२९ १२९ १३० १३१ १३२ १३४ १३५ १३६ १३७ १३८ १३८ १३९ १४१ १४१ १४२ १४२ १४३ १४४ १४७ १४७ १४८ १४९ १४९ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ vili जीवसमास गाथा पृष्ठ संख्या विषय बादर पर्याप्त वायुकाय की क्षेत्र स्पर्शना अजीव द्रव्यों का क्षेत्र-परिमाण १८१ १५० १५० १८२ १८४ १८५ १८६ भाग ४ स्पर्शन-द्वार लोक का संस्थान (आकार) तिर्यक लोक विवेचन जम्बूद्वीप पातकी खण्ड पुष्करा असंख्यातद्वीप समुद्र अधोलोक विवेचन ऊर्ध्वलोक विवेचन मनुष्यों में सात समुद्घात अन्य जीवों में समुदयात केवली समुद्घात मिथ्यात्वी, सासादनी, मिश्र सम्यग्दृष्टि तथा देशविरति गुणस्थानवर्ती की स्पर्शना प्रमत्तसंयत की स्पर्शना गुणस्थान की अपेक्षा देवों की स्पर्शना गुणस्थानों की अपेक्षा मनुष्य, तिथंच तथा विकलेन्द्रिय जीवों की स्पर्शना अजीव द्रव्यों की स्पर्शना १५१ १५२ १५३ १५४ १५४ १५५ १५६ १८७ १८८ १८९ १५० १९२ १५३ १९४ १५७ १६१ १६१ १९५ १९६ १९७ १६१ १६३ १६३ १९८ १६४ १६५ २०० २०१ १६६ १६६ भाग ५ काल-द्वार १. मवायुकाल नारकी जीवों का भवायु काल नारक एवं देव की जघन्यायु देवों का भदायु काल एकेन्द्रिय की भवायु काल द्वीन्द्रिय का भवायु काल पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च का भवायु काल सर्व तिर्यञ्चों का जघन्य आयु काल २०३ २०४ २०७ २०८ २०५ २१५ १६७ १६७ १७० १७० १७० १७१ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रमणिका ____ix पृष्ठ संख्या १७१ १७२ १७४ १७५ १७६ १७७ १७७ १७९ विषय गाथा सर्व जीवों एवं मनुष्यों का जघन्य आयु काल २१२ २. कायस्थिति काल सर्वपञ्चेन्द्रिय जीवों की कायसिन 147 एकेन्द्रिय जीवों की स्थिति २१४ विकलेन्द्रियादि जीवों की कायस्थिति २१६ पञ्चेन्द्रिय, तिर्यञ्च व मनुष्य की कायस्थिति २१७ ३. गुणविभाग काल गुणस्थानों का काल २१९ सासादन एवं मिश्र गुणस्थान का काल २२० मिथ्यात्व गुणस्थान काल २२२ अविरत सम्पग्दृष्टि एवं देशविरत गुणस्थान का काल २२३ क्षपकादि का काल २२४ प्रमत्ताप्रमत्त, उपशम, उपशान्तमोह गुणस्थान काल २२५ नारकी में मिथ्यात्व गुणस्थानकाल २२६ तिर्यञ्च एवं मनुष्य का मिथ्यात्वकाल २२७ मनुष्य में सासादन एवं मिन गुणस्थान काल २२८ काययोग स्त्रीवेद एवं पुरुषवेद का उत्कृष्टकाल २३० योग, उपयोग, कषाय तथा लेश्या का उत्कृष्ट काल २३१ ज्ञान, चारित्र का काल २३२ विभंगज्ञान, चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन का काल २३३ भव्यादि का काल २३४ काययोगादि तीन योगों का काल २३५ वेदादि का काल २३६ चारित्र का जघन्य काल २३७ चारित्र का उत्कृष्ट काल (अनेक जीवाश्रयी) २३८ वैक्रिय, आहारक एवं मिश्रकाययोगकाल २३९ अजीवों का स्थितिकाल १८० १८० १८२ १८३ १८४ २२१ १८५ १८५ १८६ १८७ १८५ १९० १९१ १९३ १९३ ११५ १९६ २४२ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवसमास सिषय गाथा पृष्ठ संख्या ११७ १९९ २०२ २०४ २०५ २०५ भाग अन्तर-द्वार उपपात स्थान अन्तर या विरहकाल नरक एवं मनुष्य का अन्तरकाल अस एवं एकेन्द्रिय का अन्तरकाल वनस्पतिकाय का अन्तरकाल तिर्यञ्च एवं नपुंसक वेदादि का अन्तरकाल ईशानादि देवों का अन्तरकाल देवगति का विरहकाल मिथ्यात्व का विरह-अन्तरकाल सासादनाांदे का विरहकाल आहारक, वैक्रियमित्र की अन्तरकाल चारित्र का विरहकाल सम्यक्त्वादि का विरहकाल अजीव द्रव्य का विरहकाल २४४ २४७ २५० २५१ २५२ २५३ २५४ २५५ २५७ २५८ २६० २६१ २०७ २०७ २०८ २०२ २११ २१२ २१३ २६४ २१४ २६५ २७० २१६ २२१ भाव-द्वार जीव के भाव अजीव के भाव भाग ८ अल्पबहुत्व-द्वार चारगति में अल्पबहुत्व नरक एवं तिर्यत गति का अल्पबहुत्व देवगति में अल्पबहुत्व गुणस्थानों में अल्पबहुत्व अजीव द्रव्यों में अल्पबहुत्व उपसंहार २२३ २७१ २७३ २७४ २७७ २२४ २२५ २२६ २८२ २८६ २३२ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका जीवसमास रचयिता एवं रचनाकाल जीवसमास नाम से ही स्पष्ट हो जाता है कि यह जीवों की विभिन्न अवस्थाओं की विवेचना करने वाला ग्रन्थ है। यह किसी पूर्वधर आचार्य द्वारा रचित एवं जैन दर्शन का एक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। इसके वास्तविक रचयिता कौन हैं, यह तथ्य मूलग्रन्थ के आधार पर कहीं भी स्पष्ट नहीं होता है। इसकी अन्तिम प्रशस्ति में इसे पूर्व साहित्य के आधार पर रचित माना गया है। इससे इतना तो अवश्य स्पष्ट हो जाता है कि इसके रचयिता पूर्वो के ज्ञाता थे। यह मन्य किसने और कब बनाया इसका ज्ञान हरिभद्र (८वीं शती) जैसे प्राचीन आचार्य को भी नहीं था । नन्दीसूत्र एवं पाक्षिकसूत्र में उस काल तक रचित आगम ग्रन्थों के उल्लेख मिलते हैं, किन्तु उनमें कहीं भी जीवसमास का उल्लेख नहीं है। इससे यही सिद्ध होता है कि जीवसमास की रचना नन्दीसूत्र के पश्चात् ही हुई होगी । नन्दीसूत्र की रचना लगभग विक्रम की पांचवीं शती में हुई. अतः जीवसमास पांचवीं शती के पश्चात् निर्मित हुआ। सातवीं शताब्दी में या उसके पश्चात् रचित ग्रन्थों में जीवसमास का उल्लेख पाया जाता है, अतः जीवसमास की रचना विक्रम संवत् की पांचवीं शती के पश्चात् और सातवीं शती के पूर्व अर्थात् लगभग छटी शताब्दी में हुई होगी। प्रस्तुत कृति लगभग छठीं शती की रचना है, इसके कुछ अन्य आधार भी हैं, सर्वप्रथम इसमें नयों की चर्चा के प्रसंग में सात मूल नयों की प्रचलित अवधारणा के स्थान पर नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र और शब्द- ये पाँच ही मूलनय माने गये हैं, यह अवधारणा हमें तत्त्वार्थसूत्र में भी मिलती है। जीवसमास में समभिरूढ़ और एवंभूत- इन दो नयों का कोई उल्लेख नहीं हैं, जबकि उपास्वाति समभिरूढ़ एवं एवंभूत- इन दो नयों का शब्द नय के दो भेदों के रूप में उल्लेख करते हैं। सिद्धसेनदिवाकर ने नैगम को तो स्वीकार नहीं किया, किन्तु समभिरूढ़ एवं एवंभूत को मूलनय मानकर छह नय मान हैं। ऐसा लगता है कि सप्त नयों की स्पष्ट अवधारणा लगभग छठी शती के उत्तरार्द्ध में विकसित हुई है, क्योंकि तत्त्वार्थसूत्र की सर्वार्थसिद्धि टीका (छठी शती) के मूलपाठ में सर्वप्रथम भाष्यमान पाठ के पाँच मूल नयों के स्थान पर सात मूलनयों का निर्देश हैं। जीवसमास में पाँच नयों का यह उल्लेख इतना Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवसमास तो अवश्य सिद्ध करता है कि प्रस्तुत कृति सप्तनयों की अवधारणा के विकसित एवं सुस्थापित होने के पूर्व अर्थात् छठी शती के पूर्वार्द्ध को रचना होनी चाहिए। यद्यपि गुणस्थानों ही सर्वधारणा की स्थिति के आधार पर यह कति तत्वार्थसूत्र से परवर्ती है फिर भी नयों के सन्दर्भ में यह उस धारा का प्रतिनिधित्व करती है, जो प्राचीन रही है। ज्ञातव्य है कि षडण्डागम मूल में भी सर्वत्र इन्हीं पाँचों नयों का निर्देश हैं (५/६/३, पृ० ७१८, ४/१/४८-५०, ४/१/५६-५९. ४/२।२-४, ४/३/१-४)। जीवसमास की प्राचीनता का दुसरा आधार उसका ज्ञान-सिद्धान्त है। इसमें ज्ञान के पाँच प्रकारों की चर्चा के प्रसंग में तत्त्वार्थसूत्र के समान ही मतिज्ञान और श्रुतज्ञान को परोक्षज्ञान ही माना गया है। यह अवधारणा भी तत्त्वार्थसूत्र के समान ही है, किन्तु मतिज्ञान के अन्तर्गत इन्द्रियप्रत्यक्ष को स्वीकार कर लेने से यह स्पष्ट हो जाता है कि ज्ञान चर्चा के प्रसंग में जीवसमास की स्थिति तत्त्वार्थसूत्र से परवर्ती है और नन्दीसूत्र के समान ही है— नन्दीसूत्र का काल लगभग पाँचवी शतो हैं। नन्दीसूत्र में ही सर्वप्रथम मतिज्ञान के एकभेद के रूप में इन्द्रियप्रत्यक्ष को व्यावहारिक प्रत्यक्ष के रूप में मान्य किया गया है। पुनः प्रमाणों की चर्चा के प्रसंग में भी इसमें – प्रत्यक्ष, अनुमान, शब्द और उपमान इन चार प्रमाणों की ही चर्चा हुई है। जैन दर्शन में चार प्रमाणों की यह चर्चा भी आगमिक युग (५वीं शती) की देन है और न्यायदर्शन से प्रभावित है, समवायांग और नन्दीसूत्र में भी इन्हीं चार प्रमाणों की चर्चा मिलती है। इसमें स्मृति, प्रत्यभिज्ञा और तर्क इन तीन प्रमाणों की चर्चा का, जो तार्किक युग की देन है, पूर्ण अभाव है। जैनदर्शन में इन तीनों को प्रमाणों के रूप में स्वीकृति सर्वप्रथम अकलंक के काल (लगभग ८वीं शती) से प्रारम्भ होती है। अत: इससे भी इतना तो सुनिश्रित होता है कि जीवसमास ५वीं शती के पश्चात् और ८वीं शती के पूर्व अर्थात् छठी-सातवीं शती में कमी निर्मित हआ होगा। किन्तु सातवीं शती से जीवसमास के निर्देश उपलब्ध होते हैं, अतः यह छठी शती में निर्मित हुआ होगा, इस तथ्य को मान्य किया जा सकता है। तीसरे जीवसमास में चौदह गुणस्थानों का भी स्पष्ट उल्लेख मिलता है इससे भी यही स्पष्ट होता है कि यह ग्रन्थ ५वीं शताब्दी के बाद की ही रचना है। तत्वार्थसूत्र और उसके स्वोपज्ञभाष्य (लगभग तीसरी-चौथो शती) में गुणस्थान 'सिद्धान्त का कोई उल्लेख नहीं है। अत: इतना तो निश्चित है कि यह ग्रन्थ तभी अस्तित्व में आया, जब चौदह गुणस्थानों की अवधारणा अस्तित्व में आ चुकी थी। चौदह गुणस्थानों का उल्लेख आगम साहित्य में सर्वप्रथम समवायांग और आवश्यकनियुक्ति की दो प्रक्षिप्त गाथाओं में पाया जाता है। किन्तु उनमें ये गाथाएँ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका सम्भवत: वल्लभीवाचना के समय या उसके भी पश्चात् कभी संग्रहणीसूत्र से प्रक्षिप्त की गई होंगी, क्योकि आवश्यकनियुक्ति की टीका में आचार्य हरिभद्र ने इन दोनों गाथाओं को नियुक्ति की गाथा न मानकर संग्रहणीसूत्र की गाथा कहा है। आज संग्रहणीसूत्र की अनेक गाथाएँ आगमों एवं नियुक्तियों में उपलब्ध होतो हैं। यह निश्चित है कि गुणस्थान की अवधारणा लगभग पाँचवों शतो के उत्तरार्द्ध और छठी शती के पूर्वाद्ध में कभी अस्तित्व में आयी है। अत: गुणस्थानों के आधार पर जीव की चौदह मार्गणाओं और आठ अनुयोगद्वारों की चर्चा करने वाला यह ग्रन्थ उसके पश्चात् ही लगभग छठी शती के उत्तरार्द्ध में निर्मित हुआ होगा। यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि प्रस्तुत ग्रन्थ के प्रारम्भ में चौदह गुणस्थानों को जीवसमास के नाम से अभिहित किया गया है। चौदह गुणस्थानों को समवायांगसूत्र में मात्र जीवस्थान के नाम से तथा षटूखण्डागम के प्रारम्भ में जीवसमास के नाम से और बाद में गुणस्थान के नाम से अभिहित किया गया है। षदखण्डागम के समान ही प्रस्तुत कृति में भी गुणस्थान को पहले जीवसमास और बाद में गुणस्थान के नाम से अभिहित किया गया है। पुनः प्रस्तुत कृति की घटखण्डागम के सत्पदप्ररूपना नामक प्रथम खण्ड से भी अनेक अर्थों में समानता है जिसकी चर्चा हम आगे करेंगे। इससे ऐसा लगता है कि यह कृति षट्खण्डागम की समकालिक या उससे किञ्चित पूर्ववर्ती या परवर्ती ही रही होगी। फिर भी इतना निश्चित हैं कि प्रस्तुत कृति उसी प्रारम्भिक काल की रचना है, जब गुणस्थानों की अवधारणा जीवसमास के नाम से प्रारम्भ होकर गुणस्थान सिद्धान्त के रूप में अपना स्वरूप ले रही थी। इसमें गुणस्थानों और मार्गणाओं के सह-सम्बन्ध की चर्चा से यह भी फलित होता है कि यह लगभग छठी शताब्दी के उत्तरार्द्ध की रचना है, क्योंकि छठी शताब्दो के उत्तरार्द्ध से न केवल जीवसमास या जीवस्थान, गुणस्थान के नाम से अभिहित होने लगे थे, अपितु जीवस्थान, मार्गणास्थान और गुणस्थान के एक-दूसरे से पारस्परिक सह-सम्बन्ध भी निश्चित हो चुके थे। जीवसमास नामक प्रस्तुत कृति में जीवस्थानों, मार्गणास्थानों और गुणस्थानों के पारस्परिक सम्बन्ध की जो स्पष्ट चर्चा है, उससे यही फलित होता है कि यह कृति लगभग छठी शती के उत्तरार्द्ध की रचना होकर षटखण्डागम के समकालिक होनी चाहिए। इस प्रसंग में गुणस्थान सिद्धान्त के उद्भव और विकास की यात्रा को समझ लेना आवश्यक है, क्योंकि जीवसमास नामक इस कृति में 'जीवसमास' के नाम से गुणस्थानों की ही चर्चा की गई है और इन गुणस्थानों के सन्दर्भ में मार्गणाओं आदि का सह-सम्बन्ध स्पष्ट करना ही इसका प्रतिपाद्य है। Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवसमास गुणस्थान सिद्धान्त का उद्भव एवं विकास व्यक्ति की आध्यात्मिक शुद्धि के विभिन्न स्तरों का निर्धारण करने के लिए सर में गुगना की अम्मा से प्रस्तुत गिर गया है। यद्यपि गुणस्थान की अवधारणा जैन धर्म की एक प्रमुख अवधारणा है. तथापि प्राचीन स्तर के जैन-आगमों यथा- आचारांग, सूत्रकृत्तांग, उत्तराध्ययन, ऋषिभाषित, दशवेकालिक, भगवती आदि में इस सिद्धान्त का कोई निर्देश उपलब्ध नहीं है। सर्वप्रथम समवायांग में जीवस्थान के नाम से इन गुणस्थानों का उल्लेख हुआ है। समवायांग में यद्यपि चौदह गुणस्थानों के नामों का निर्देश हुआ है, किन्तु उन्हें गुणस्थान न कहकर जीवस्थान (जीवठाण) कहा गया हैं। (समवायांग, सम्पादक- मधुकरमुनि, १४/९५) समवार्याग के पश्चात् श्वेताम्बर परम्परा में गुणस्थानों के इन चौदह नामों का निर्देश आवश्यकनियुक्ति में उपलब्ध है, किन्तु उसमें भी उन्हें गुणस्थान न कहकर जीवस्थान ही कहा गया है। ज्ञातव्य है कि नियुक्ति में भी ये गाथाएँ प्रक्षिप्त हैं। आचार्य हरिभद्र (आठवीं शती) ने अपनी आवश्यकनियुक्ति की टीका में इन्हें संग्रहणीसूत्र से उद्धृत बताया है। आगमों के समान प्रकीर्णको में भी गुणस्थान की अवधारणा का अभाव है। श्वेताम्बर परम्परां में इन चौदह अवस्थाओं के लिए "गणस्थान" शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग हमें आवश्यकचूर्णि (७वीं शती) में मिलता है, उसमें लगभग तीन पृष्ठों में इसका विवरण दिया गया है। जहाँ तक अचेल परम्परा का प्रश्न है उसमे कसायपाहुड को छोड़कर षट्खण्डागम, मूलाचार और भगवती आराधना जैसे तत्वज्ञान एवं आचारप्रधान अन्थों में तथा तत्त्वार्थसूत्र की पूज्यपाद देवनन्दी को सर्वार्थसिद्धि टीका, भट्ट अकलंक के राजवार्तिक, विद्यानन्दी के श्लोकवार्त्तिक आदि दिगम्बर आचार्यों के टीका ग्रन्थों में इस सिद्धान्त का विस्तृत विवेचन हुआ है। ज्ञातव्य है कि मात्र षट्खण्डागम में इन्हें जीवसमास कहा गया है। शेष सभी अन्यों में इन्हें गुणस्थान के नाम से ही अभिहित किया गया है। हमारे लिए आश्चर्य का विषय तो यह है कि आचार्य उमास्वाति (लगभग तीसरी-चौथी शती) ने जहाँ अपने तत्त्वार्थसूत्र में जैन धर्म एवं दर्शन के लगभग सभी पक्षों पर प्रकाश डाला है। वहां उन्होंने चौदह गुणस्थानों का स्पष्ट रूप से कहीं भी निर्देश नहीं किया है। अत: यह प्रश्न स्वाभाविक रूप से उपस्थित होता है कि क्या तत्त्वार्थसूत्र के रचनाकाल तक जैन धर्म में गुणस्थान की अवधारणा का विकास नहीं हुआ था? और यदि उसका विकास हो चुका था Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका तो उमास्वाति ने अपने मूल ग्रन्थ तत्वार्थसत्र में या उसको स्वोपज्ञ टीका तत्त्वार्थभाष्य में उसका उल्लेख क्यों नही किया? जबकि उन्होंने तत्त्वार्थसत्र के नवें अध्याय में आध्यात्मिक विशुद्धि (कर्म-निर्जरा) की दस अवस्थाओं को सूचित करते हुए एक लम्बा सूत्र बनाया है। यदि उनके सामने गुणस्थान की अवधारणा होती तो निश्चय ही वे उस सूत्र के स्थान पर उसका प्रतिपादन करते. क्योंकि प्रस्तुत सूत्र में जिन दस अवस्थाओं का निर्देश है उनमे और गुणस्थानों के नामकरण एवं क्रम में बहुत कुछ समानता है। मेरी दृष्टि में तो इन्हीं दस अवस्थाओ के आधार पर ही गुणस्थान सिद्धान्त का विकास हुआ है। इस सूत्र में गुणस्थान की अवधारणा से सम्बन्धित कुछ पारिभाषिक शब्द-- जैसे दर्शन-मोह-उपशमक, दर्शन-मोह-क्षपक (चारित्र-मोह) उपशमक, (चारित्र-मोह) क्षपक, उपशान्तमोह, क्षीणमोह, केवली (जिन) आदि उपलब्ध होते हैं। इससे ऐसा लगता है कि तत्त्वार्थसूत्र और उसके स्वीपज्ञभाष्य के रचनाकाल तक जैन परम्परा में गुणस्थान की अवधारणा का विकास नहीं हो पाया था, यद्यपि इस अवधारणा के मूल बीज उपस्थित थे, तिहासिक दृष्टि से यह बात भी महत्त्वपूर्ण हैं कि समवायांग और षट्खण्डागम के प्रारम्भ में १४ गुणस्थानों के नामो का स्पष्ट निर्देश होकर भी उन्हें गुणस्थान नाम से अभिहित नहीं किया गया है। जहाँ समवाांग उन्हें जीवस्थान कहता है वहाँ प्रस्तुत जीवसमास एवं षट्खण्डागम में उन्हें जीवसमास कहा गया है। इससे यह सिद्ध होता है कि जीवसमास और षट्खण्डागम- ये दोनों ग्रन्थ प्राचीन स्तर के श्वेताम्बर आगमों, कसायपाहुडसुत्त, तत्त्वार्थसूत्र और तत्त्वार्थभाष्य से परवर्ती हैं और इन अवस्थाओं के लिए गुणस्थान शब्द का स्पष्ट उल्लेख करने वालो श्वेताम्बर-दिगम्बर रचनाओं से पूर्ववर्ती हैं। साथ ही ये दोनों ग्रन्थ समकालीन भी हैं, क्योंकि हम देखते हैं कि छठी शताब्दी उत्तरार्द्ध और उसके पश्चात् के श्वेताम्बर-दिगम्बर ग्रन्थों में विशेष रूप से कर्म-सिद्धान्त सम्बन्धी ग्रन्थों तथा तत्त्वार्थसूत्र को टीकाओं में इन अवस्थाओं के लिए गुणस्थान शब्द का प्रयोग स्पष्टतया किया जाने लगा था। इससे यह भी फलित होता है कि जैन परम्परा मे लगभग तीसरी-चौथी शताब्दी तक गुणस्थान की अवधारणा अनुपस्थित थी। लगभग पाँचवीं शताब्दी में यह सिद्धान्त अस्तित्व में आया, किन्तु तब इसे गुणस्थान न कहकर जीवस्थान या जीवसमास कहा गया। लगभग छठी शताब्दी से इसके लिए गुणस्थान शब्द रूढ़ हो गया। जिस प्रकार जीवसमास की प्रथम गाथा में गणस्थान के लिए 'गुण' का प्रयोग हुआ है, उसी प्रकार मूलाचार में भी इनके लिए 'गुण' शब्द का प्रयोग हुआ है। उसमें चौदह गुणस्थानों का उल्लेख भी है। भगवती आराधना में यद्यपि Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ vi जीवसमास · एक साथ चौदह गुणस्थानों का उल्लेख नहीं है, किन्तु ध्यान के प्रसंग में ७ वें से १४वें गुणस्थान तक की मूलाचार की अपेक्षा विस्तृत विवेचना हुई हैं। उसके पश्चात् देवनन्दी की सर्वार्थसिद्धि टीका में गुणस्थान ( गुणद्वाण ) का विस्तृत वर्णन मिलता है। पूज्यपाद देवनन्दी ने तो सर्वार्थसिद्धि टीका में सत्प्ररूपणा आदि द्वारों की चर्चा में मार्गणाओं की चर्चा करते हुए प्रत्येक मार्गणा के सन्दर्भ में गुणस्थानों का विस्तृत विवरण दिया है, यह विवरण आंशिक रूप से जीवसमास एवं षट्खण्डागम से समानता रखता है। आचार्य कुन्दकुन्द की ही यह विशेषता है कि उन्होंने सर्वप्रथम नियमसार, समयसार आदि में मग्गणाठाण, गुणठाण और जीवठाण का उनके भिन्न-भिन्न अर्थों में प्रयोग किया है। इस प्रकार जीवठाण या जीवसमास शब्द जो समवायांग एवं षट्खण्डागम के काल तक गुणस्थान के पर्यायवाची के रूप में प्रयुक्त होते थे, वे अब जीव की विभिन्न योनियों के सन्दर्भ में प्रयुक्त होने लगे । कुन्दकुन्द के प्रन्थों में जीवस्थान का तात्पर्य जीवों के जन्म ग्रहण करने की विविध योनियों से है। इसका एक फलितार्थ यह है कि भगवती आराधना, मूलाचार तथा कुन्दकुन्द के काल तक जीवस्थान और गुणस्थान दोनों की अलग-अलग स्पष्ट धारणाएँ बन चुकी थी और इन दोनों के विवेच्य विषय भी अलग हो गये थे। जीवस्थान या जीवसमास का सम्बन्ध जीवया नियो / जीवजातियों से और गुणस्थान का सम्बन्ध आत्मविशुद्धि / कर्मविशुद्धि से माना जाने लगा था। ज्ञातव्य है कि आचारांग आदि प्राचीन ग्रन्थों में जहाँ गुण शब्द का प्रयोग बन्धक तत्त्व के रूप में हो रहा था, वहाँ गुण शब्द का प्रयोग गुणस्थान में आत्मविशुद्धि का वाचक बन गया। इस प्रकार यदि गुणस्थान सिद्धान्त के ऐतिहासिक विकासक्रम की दृष्टि से विचार करें तो मूलाचार, भगवती आराधना, सर्वार्थसिद्धि टीका एवं कुन्दकुन्द के समयसार नियमसार आदि सभी ग्रन्थ लगभग छठी शती उत्तरार्द्ध या उससे भी परवर्ती ही सिद्ध होते हैं। निश्चय ही प्रस्तुत जीवसभास और षट्खण्डागम उनसे कुछ पूर्ववर्ती है। इन समस्त चर्चा से ऐसा लगता है कि लगभग पाँचवीं शताब्दी के अन्त में जब सर्वप्रथम गुणस्थान की अवधारणा सुव्यवस्थित हुई, तब उसे जीवस्थान या जीवसमास के नाम से अभिहित किया जाता था---- गुणस्थान शब्द का प्रयोग अभी प्रचलित नहीं हुआ था । लगभग छठी शती से इसके लिए गुणस्थान शब्द रूढ़ हुआ और छठी शती के उत्तरार्द्ध में जीवस्थानों, मार्गणास्थानों और गुणस्थानों के सह-सम्बन्ध निश्चित हुए। गुणस्थान के इस ऐतिहासिक विकासक्रम को समझने के लिए नीचे हम दो सारणियाँ प्रस्तुत कर रहे हैं Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 भूमिका गुणस्थान सिद्धान्त का उद्भव एवं विकास सारिणी क्रमांक तत्वार्थ एवं तस्वार्थ कसायमाहुहसुत्त भाष्य " उरी-४थी शती २ ४थी शती गुणस्थान, जीव- गुणस्थान, जीवस्था समास, जीवस्थान, न जीवसमास आदि मार्गणा आदि शब्दों शब्दों का अभाव, का पूर्ण अभाव | किन्तु मार्गणा शब्द पाया जाता है। समवायांग / षट् खण्डागम / जीव समास ३ ५वीं-छठी शती समवायांग में गुण थान शब्द का अभाव किन्तु जीवठाण का उल्लेख है, जबकि जीवसमास एवं षट् खण्डागम में प्रारम्भ में जीवसमास और बाद मैं गुणस्थान के नाम से १४ अवस्था. ओं का चित्रण | कर्मविशुद्धि या कर्मविशुद्धि या आ. आध्यात्मिक विकास ध्यात्मिक विकास की की दस अवस्थाओं दृष्टि से मिध्यादृष्टि का चित्रण, मिथ्यात्व की गणना करने पर का अन्तर्भाव करने प्रकार भेद से कुल.. पर ११ अवस्थाओं १३ अवस्थाओं का का उल्लेख उल्लेख। vii श्वेताम्बर - विगम्बर तत्वार्थ की टीकाएँ एवं आराधना, मूलाधार, समयसार, नियमसार आदि। ४ छठी शती या उसके पश्चात् गुणस्थान शब्द की स्पष्ट उपस्थिति । १४ अवस्थाओं का १४ अवस्थाओं का उल्लेख है। उल्लेख है। सास्वादन, सम्यक् सास्वादन (सासादन) सास्वादन सम्यक् उल्लेख है। मिध्यादृष्टि और और अयोगी केवली मिथ्यादृष्टि (मिश्रअयोगी केवली दशा अवस्था का पूर्ण दृष्टि और अयोगी का पूर्ण अभाव । अभाव, किन्तु सम्य- केवली आदि का मिथ्यादृष्टि की उल्लेख है। उपस्थिति। Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ viji अप्रमतसंयत अपूर्व अप्रमत्तसंयत, अपूर्व उल्लेख हैं करण (निवृत्तिबादर) करण (निवृत्तिबादर) अनिवृत्तिकरण (अ अनिवृत्तिकरण (अनिवृत्तिबादर) जैसे निवृत्तिबादर) जैसे नामों का अभाव। नामों का अभाव है। उपशम और क्षय का विचार है, किन्तु ८वें गुणस्थान से उपशम और क्षायिक श्रेणी से अलग-अलग आरोहण होता है ! ऐसा विचार नहीं है। पतन की अवस्था का कोई चित्रण नहीं है। तस्यार्थसूत्र (तीसरी चौथी शती) जीवसमास मिथ्यात्व (इस सन्दर्भ में इसे परिगणित नहीं किया, उपशम और क्षपक अलग-अलग श्रेणी का विचार है, किन्तु विचार उपस्थित | ८वें गुणस्थान से उपशम श्रेणी और क्षपक श्रेणी से अलग अलग आरोहण होता है। ऐसा विचार नहीं है। पतन की अवस्था का कोई चित्रण नहीं है। जीवस्थान, मार्गणा जीवस्थान मार्गणाः समाधां धूप स्थान और गुणस्थान स्थान और गुणस्थान में जीवस्थान और है। के सह-सम्बन्ध की के सह-सम्बन्धों की चर्चा का अभाव है। कोई खर्चा नहीं है। गुणस्थान दोनों को जीवस्थान ही कहा गया है। इसमें इनके सह-सम्बन्ध की कोई चर्चा नहीं है. किन्तु जीवसमास एवं षट् कसायपाहूक (४थी गली उत्तरार्ध) मिच्छादिट्टि (मिध्यादृष्टि) सारिणी संख्या : २ पलन आदि का मूल इन व्याख्या ग्रन्थों में पाठ में चित्रण नहीं पतन आदि का है | चित्रण है। खण्डागम मूल में इनके सह-सम्बन्धों की चर्चा है। उल्लेख है समवायांग/ षट्याण्डागम (लगभग ५वीं शती) अलग-अलग श्रेणीविचार उपस्थित | मिच्छाविट्ठ ( मिथ्यादृष्टि) सहज बन्धकी चर्चा तत्वार्थ की टीकाएँ (लगभग छठी शती) मिथ्यादृष्टि Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. सम्यग्दृष्टि २. श्रावक ३. विरस ४. अनन्तवियोजक ६. ( चारित्रमोह) उपशमक ७. उपशान्त चारित्रमोह ८. चारित्रमोह क्षपक ५. दर्शनमोह क्षपक दंसणमोह ९. क्षीणमोह १०. जिन सम्मा-मिच्छाइको (मिस्सगं) भूमिका सम्माइट्ठी ( सम्यक्- अविरय सम्मादिडी दृष्टि) अविरदीए | सास्वादन सम्यकदृष्टि (सासायण-सम्मदिनी) (दर्शनमोह क्षपक) सम्मा-मिच्छादिट्ठी (सम्यकृमिथ्यादृष्टि) खवगेनिअट्टिबायरे विरदाविरद्ध विरत विरयाविरए (विरत देशविरत अविरत ) देसविरधी अविरत ) (सागार)संजमासंजम विरद (संजम) पमत्तसंजए दंसणमोह उवसागमे अपमत्तसंजय (दर्शनमोह उपशामक) चरितमोहस्स उपसा अनि अट्टिबायरे मगे (उवसामण्णा) सुडुमरागो सुहुम- संपराए उवसंत कसाय खडगे उवसंत मोहे खीणमोह (छदुमत्थो खीणमोरे वेदगो है कि चूर्णि में 'सजोगिजिणो' शब्द है, मूल में नहीं है। | जिण केवली सव्वण्डू सजोगी केवली सव्यदरिसी (ज्ञातव्य सास्वादन सम्य मिथ्यादृष्टि (मिश्र दृष्टि) सम्यग्दृष्टि प्रमत्तसंयत अप्रमत्तसंयत अपूर्वकरण अनिवृत्तिकरण सूक्ष्म- सम्पाराय उपशान्त- मोह क्षीणमोह ix सयोगी केवली Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवसमास चूर्णि में योगनिरोध | अयोगी केटली अयोगी केवली का उल्लेख है, किन्तु मूल में नहीं हैं अन्य की भाषा एवं शैली जहाँ तक जीवसमास की भाषा का प्रश्न है, वह स्पष्टतया महाराष्ट्री प्राकृत है। इससे इसके सम्बन्ध में दो बातें निश्चित होती हैं- एक तो यह कि इसकी रचना सौराष्ट्र और राजस्थान में ही कहीं हुई होगी, क्योंकि यदि इसकी रचना मगध या शौरसेन में हुई होती तो इसकी भाषा में आर्ष अर्द्धमागधी अथवा शौरसेनी प्राकृत होती। इससे यह भी स्पष्ट होता है कि इसकी रचना संघभेद के पश्चात् वेताम्बर परम्परा में हुई है,क्योंकि इस युग के दिगम्बर ग्रन्थ प्रायः शौरसेनी या पहाराष्ट्री प्रभावित शौरसेनी में पाये जाते हैं। यद्यपि प्रस्तुत कृति महाराष्ट्री प्राकृत की रचना हैं, फिर भी इसमें कहीं-कहीं आर्ष अर्धमागधी के प्रयोग देखे जाते हैं। ___जहाँ तक जीवसमास की शैली का प्रश्न है, निश्चय ही यह पखण्डागम के समरूप प्रतीत होती है, क्योंकि दोनों ही ग्रन्थ चौदह मार्गणाओं एवं छह और आठ अनुयोगद्वारों के आधारों पर चौदह गुणस्थानों की चर्चा करते हैं। यद्यपि षटूखण्डागम की जीतपणा से अनेल. अर्थो में भिन्नता है, जहाँ षट्खण्डागम सामान्यतया शौरसेनी में लिख गया है, वहाँ जीवसमास सामान्यतया महाराष्ट्री प्राकृत में लिखा गया है। पुन; जहाँ षट्खण्डागम गद्य में हैं वहाँ जीवसमास पद्य में है। जहाँ जीवसमास संक्षिप्त है, यहाँ षट्खण्डागम व्याख्यात्मक है। फिर भी विषय प्रस्तुतीकरण की शैली एवं विषयवस्तु को लेकर दोनों में पर्याप्त समरूपता भी है। पखण्डागम के प्रारम्भिक खण्ड जीवस्थान के समान इसका भी प्रारम्भ सत्-अरूपणा से होता है। इसमें भी गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कवाय, ज्ञान, दर्शन, संयम, लेश्या, भव, सम्यक् संज्ञा और आहार--- इन चौदह मार्गणाओं के सन्दर्भ में चौदह गुणस्थानों की चर्चा है। षट्खण्डागम के प्रथम जोवस्थान के समान इसमें भी वही नाम वाले आठ अन्योगद्वार हैं- १. सत्-प्ररूपणाद्वार, २. परिमाणद्वार, ३. क्षेत्रद्वार, ४. स्पर्शनाद्वार, ५. कालद्वार, ६. अन्तरि, ७. भावद्वार, ८. अल्पबहुत्वद्वार। ' इस प्रकार विषय प्रतिपादन में दोनों में अद्भुत शैलीगत समरूपता है। फिर भी पटखण्डागम की अपेक्षा जीवसमास संक्षिप्त है। ऐसा लगता है कि षखण्डागम का प्रथम खण्ड जीवसमास की ही व्याख्या हो। जीवसमास के आधारभूत अन्य जीवसमास ग्रन्थ वस्तुतः दृष्टिवाद से उद्धृत किया गया है, क्योंकि उसकी Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका अन्तिम गाथा में स्पष्ट रूप से यह उल्लेख है कि जिनोपदिष्ट बहुभंग वाले दृष्टिवाद के दृष्टि स्थान से जीवसमास नामक यह ग्रन्थ उद्धृत किया गया है। यद्यपि जीवसमास की विषयवस्तु से सम्बन्धित अनेक विषयों की चर्चा भगवती, प्रज्ञापना, जीवाजीवाभिगम, अनुयोगद्वार आदि श्वेताम्बर मान्य आगमों में मिलती हैं, किन्तु यह कहना कठिन है कि इस ग्रन्थ की रचना इन ग्रन्थों के आधार पर हुई है, क्योंकि अनेक प्रश्नों पर प्रस्तुत ग्रन्थ का मत भगवती, प्रज्ञापना आदि से भिन्न प्रतीत होता है। इसमें वर्णित अनेक विषय, जैसे मार्गणाओं और गुणस्थानों के सह-सम्बन्ध आदि ऐसे हैं, जिनका श्वेताम्बर मान्य इन आगमों में कोई उल्लेख ही नहीं हैं, किन्तु आगमों को वलभी वाचना से परवर्ती चन्द्रर्षि महत्तर के प्राचीन कर्ममन्थों (छठी शती) में ये विषय चर्चित है। इससे यही सिद्ध होता है कि अन्यकार ने जो दृष्टिवाद से इसको अवतरित करने की बात कही वह आंशिक सत्य अवश्य हैं, क्योंकि कर्मों के बन्ध, उदय, क्षयोपशम आदि का विषय कम्मपयडी आदि पूर्व साहित्य के अंगीभूत ग्रन्थों में ही अधिक सूक्ष्मता से विवेचित था। जैन परम्परा में अंगधरों के समान ही पूर्वधरों की एक स्वतन्त्र परम्परा रही है और कर्म- साहित्य विशेष रूप से पूर्व साहित्य का अंग रहा है। पुनः आगमिक मान्यताओं की अपेक्षा इसके मन्तव्यों का कर्मग्रन्थकारों के अधिक निकट होना भी इस तथ्य की पुष्टि करता है। आगमों, कर्मग्रन्थों और जीवसमास के मन्तव्यों में कहाँ समरूपता है और कहाँ मतभेद है, यह सब विस्तार से अन्वेषणीय है। xi षट्खण्डागम और जीवसमास जैसा कि हमने पूर्व में अनेक स्थलों पर संकेत किया कि जीवसमास की सम्पूर्ण विषयवस्तु अपने वर्णित विषय और शैली की दृष्टि से षट्खण्डागम के प्रथम खण्ड जीवस्थान से पूर्णतः समरूपता रखती है। मात्र अन्तर यह हैं कि जहाँ जीवसमास में यह वर्णन मात्र २८६ गाथाओं में किया गया है, वही वर्णन षट्खण्डागम के जीवस्थान में १८६० सूत्रों के द्वारा किया गया। दूसरा महत्त्वपूर्ण अन्तर षट्खण्डागम और जीवसमास में यह हैं कि प्रत्येक अनुयोगद्वार की प्रत्येक प्ररूपणा के आधारभूत तथ्यों की जो विस्तृत चर्चा लगभग १११ गाथाओं में जीवसमास में की गई है, वह षट्खण्डागम के जीवस्थान में तो नहीं हैं, किन्तु उसकी धवला टीका में अवश्य उपलब्ध होती हैं। इस आधार पर यह कल्पना की जा सकती हैं कि क्या जीवसमासकार ने षट्खण्डागम के आधार पर ही तो इसकी रचना नहीं की है ? किन्तु ऐसा नहीं है। इस सम्बन्ध में हम अपनी ओर से कुछ न कहकर षट्खण्डागम के विशिष्ट विद्वान् उसके सम्पादक और भूमिका लेखक पं० हीरालाल जी शास्त्री Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवसमास का मन्तव्य, उनकी षट्खण्डागम की भूमिका से उद्धृत करके अविकल रूप से दे रहे हैं। उनके निबन्ध का निष्कर्ष यही है "किसी पूर्ववेत्ता आचार्य ने दिन पर दिन क्षीण होती हुई लोगों की बुद्धि और धारणा शक्ति को देखकर ही प्रवचन - वात्सल्य से प्रेरित होकर इसे गाथा रूप में निबद्ध कर दिया है और वह आचार्य परम्परा से प्रवहमान होता हुआ परसेनाचार्य को प्राप्त हुआ है। उसमें जो कथन स्पष्ट था, उसकी व्याख्या में अधिक बल न देकर जो अप्ररूपित मार्गणाओं का गूढ़ अर्थ था, उसका उन्होंने भूतबलि और पुष्पदन्त को विस्तार से विवेचन किया और इन्होने भी उसी गूढ़ रहस्य को अपनी रचना में स्पष्ट करके कहना या लिखना उचित समझा।" xit मात्र इतना ही नहीं दिगम्बर परम्परा के बहुश्रुत विद्वान् आदरणीय पण्डित जी ने अपनी भूमिका के उपसंहार में इस तथ्य को स्पष्ट रूप से स्वीकार किया हैं कि जीवसमास षट्खण्डागम के जीवद्वाण प्ररूपणाओं का आधार रहा है। बे लिखते है — इस प्रकार जीवसमास की रचना देखते हुए उसकी महत्ता हृदय पर स्वत: ही अंकित हो जाती हैं और इस बात में कोई सन्देह नहीं रहता कि उसके निर्माता पूर्ववेत्ता थे, या नहीं? क्योंकि उन्होंने उपर्युक्त उपसंहार गाथा में स्वयं ही 'बहुभंगदिट्टियाए' पद देकर अपने पूर्ववेत्ता होने का संकेत कर दिया है। समग्र जीवसमास का सिंहावलोकन करने पर पाठकगण दो बातों के निष्कर्ष पर पहुँचेंगे — एक तो यह कि विषय वर्णन की सूक्ष्मता और महत्ता की दृष्टि से यह बहुत ही महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है और दूसरी यह कि यह षट्खण्डागम के जीवद्वाण प्ररूपणाओं का आधार रहा है।" मात्र इतना ही नहीं वे इस तथ्य को भी स्वीकार करते हैं कि श्वेताम्बर संस्थाओं से प्रकाशित 'पूर्वभृत्सूरिसूत्रित' जीवसमास प्राचीन है और षट्खण्डागम के जीवस्थान और दिगम्बर प्राकृत पञ्चसंग्रह के जीवसमास का किसी रूप में उपजीव्य भी रहा है। मात्र आदरणीय पण्डित जी ने षट्खण्डागम की भूमिका के अन्त में यह अवश्य माना है कि जीवसमास में एक ही बात खटकने जैसी है, वह यह कि उसमें सोलह स्वर्गों के स्थान पर १२ स्वर्गों के ही नाम हैं। वे लिखते हैं- " यद्यपि जीवसमास की एक बात अवश्य खटकने जैसी है कि उसमें १६ स्वर्गों के स्थान पर १२ स्वर्गों के ही नाम हैं और नव अनुदिशों का भी नाम निर्देश नहीं हैं, तथापि जैसे तत्त्वार्थसूत्र के 'दशाष्टपञ्चद्वादशविकल्पाः ' इत्यादि सूत्र में १६ के स्थान पर १२ कल्पों का निर्देश होने पर भी इन्द्रों की विवक्षा करके और 'नवसु 'ग्रैवेयकेषु विजयादिषु' इत्यादि सूत्र में अनुदिशों के नाम का निर्देश नहीं होने पर भी उसकी 'नवसु पद से सूचना मान करके Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका xiii समाधान कर लिया गया है उसी प्रकार से यहाँ भी समाधान किया जा सकता हैं।" यद्यपि आदरणीय पण्डित जी ने दिगम्बर परम्परा की दृष्टि से यहाँ इस समस्या का समाधान तत्त्वार्थसूत्र के उस सूत्र की, सर्वार्थसिद्धि की व्याख्या के आधार पर करने का किया है। किन्तु यहाँ मेरा दृष्टिकोण कुछ भिन्न है। षट्खण्डागम में ऐसे अनेक तथ्य पाये जाते हैं,जो दिगम्बर परम्परा की आज की मूलभूत मान्यताओं से अन्तर रखते हैं। यदि हम यहाँ स्त्री में सातवें गणस्थान की सम्भावना और स्त्री-पुक्ति के समर्थक उसके प्रथम खण्ड सूत्र ९३ की विवादास्पद व्याख्या को न भी लें, तो भी कुछ प्राचीन मान्यताएँ पखण्डागम की ऐसी हैं, जो प्रस्तुत जीवसमास से समरूपता रखती हैं और दिगम्बर परम्परा की वर्तमान मान्यताओं से भिन्नता। आदरणीय पण्डित जी ने यहाँ यह प्रश्न उठाया है कि जीवसमास में १२ स्वर्गों की ही मान्यता है, किन्तु स्वयं पट्खण्डागम में भी १२ स्वर्गों की ही मान्यता हैं। उसके वर्गणाखण्ड के प्रकृति अनुयोगद्वार को निम्न गाथाएँ १२ स्वर्गों का ही निर्देश करती है सक्कीसाणा पठमं दोव्वं तु सणक्कुमार• माहिंदा। तच्च तु सम्ह-लतय सुक्क-सहस्सारया चोत्या।। --५/५/७०; पृष्ठ सं०- ७०५ आणद-पाणदवासी सह आरण-अच्छुदा य जे देवा। पस्संति पंचमखिदि छट्ठिम गेवज्जया देवा।। - ५/५/७१ सव्वं च लोगणालि पसंति अणुतरेसु जे देवा। सोते य सकम्मे रूपगदमणंतभागं च।। -- ५/५/७२, पृष्ठ सं०- ७०६ मात्र यह ही नहीं, जिस प्रकार जीवसमास में पाँच ही मल नयों की चर्चा हुई है, उसी प्रकार पखण्डागम में भी सर्वत्र उन्हीं पाँच नयों का निर्देश हुआ है। तत्वार्थसूत्र की प्राचीन भाष्यमान परम्परा भी पाँच मूल नयों का ही निर्देश करती है, जबकि सर्वार्थसिद्धि मान्य पाठ में सात नयों की चर्चा है। वस्तुतः तत्त्वार्थसूत्र का भाष्यमान पाठ षट्खण्डागम और जीवसमास किसी प्राचीन धारा का प्रतिनिधित्व करते हैं। चाहे हम परम्परांगत आधारों पर इन्हें एक-दूसरे के आधार पर बनाया गया न भी मानें तो भी इतना तो निश्चित ही है कि उनका मूल आधार पूर्वसाहित्य की परम्परा रही है। Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवसमास श्वेताम्बर जीवसमास और दिगम्बर जीवसमास प्रस्तुत जीवसमास के समान ही दिगम्बर परम्परा में प्राकृत पञ्चसंग्रह के अन्तर्गत जीवसमास पाया जाता है। दोनों के नाम साम्य को देखकर स्वाभाविक रूप से यह जिज्ञासा होती है कि इन दोनों में कितना साम्य और वैषम्य है और कौन किसके आधार पर निर्मित हआ है। इस सम्बन्ध में भी यदि मैं अपनी ओर से कुछ कहता हूँ तो शायद यह समझा जायेगा कि मुझे कुछ पक्ष व्यामोह है। अत; इस सम्बन्ध में भी अपनी ओर से कुछ न कहकर पुन: दिगम्बर परम्परा के बहुश्रुत विद्वान् पण्डित हीरालाल जी शास्त्री की पञ्चसंग्रह की भूमिका से ही कुछ अंश अधिकल रूप से उद्धृत कर रहा हूँ। आदरणीय पण्डित जी लिखते हैं - "पञ्चसंग्रह के प्रथम प्रकरण का नाम जीवसपास है। इस नाम का एक ग्रन्थ श्री ऋषभदेवजी केशरीमलजी श्वेताम्बर संस्था रतलाम की ओर से सन् १९२८ में एक संग्रह के भीतर प्रकाशित हुआ है, जिसकी गाथा संख्या २८६ है। नाम-साम्य होते हुए भी अधिकांश गाथाएँ न विषय-गत समता रखती हैं और न अर्थगत समता ही। गाथा-संख्या की दृष्टि से भी दोनों में पर्याप्त अन्तर है। फिर भी जितना कुछ साम्य पाया जाता है, उनके आधार पर एक बात सुनिश्चित रूप से कही जा सकती है कि सेताम्बर संस्थाओं से प्रकाशित जीवसमास प्राचीन है। पञ्चसंग्रहकार ने उसके द्वारा सूचित अनुयोगद्वारों में से १.२ अनुयोगद्वार के आधार पर अपने जीवसमास प्रकरण की रचना की है। इसके पक्ष में कुछ प्रमाण निम्नप्रकार है १. श्वेताम्बर संस्थाओं से प्रकाशित जीवसमास को 'पूर्वमत्सरिसत्रित माना जाता है। इसका यह अर्थ है कि जब जैन परम्परा में पूर्वो का ज्ञान विद्यमान था, उस समय किसी पूर्ववेत्ता आचार्य ने इसका निर्माण किया है। अन्य-रचना को देखने से ऐसा ज्ञात होता है कि यह अन्य मृतबलि और पुष्पदन्त से भी प्राचीन है और वह पखण्डागम के जीवाण नामक प्रथम खण की आठों प्ररूपणाओं के सूत्र निर्माण में आधार रहा है, तथा यही अन्य प्रस्तुत पक्षसंग्रह के जीवसमास नामक प्रथम प्रकरण का भी आधार रहा है। इसकी साक्षी में उक्त ग्रन्थ की एक गाथा प्रमाण रूप से उपस्थित की जाती है,जो कि श्वेताम्बर जीवसमास में मंगलाचरण के पश्चात् ही पाई जाती है। वह इस प्रकार है णिक्नेव-णितत्तीहिं म छहिं अहिं अणुओगदारोहिं। गइआइमग्गणाहि य जीवसमासाऽणुगंतबा ।।२।। Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका इसमें बतलाया गया है कि नामादि निक्षेपों के द्वारा; निरुक्ति के द्वारा, निर्देश, स्वामित्व आदि छह और सत्, संख्या आदि आठ अनुयोग-द्वारों से तथा गति आदि चौदह मार्गणा-द्वारों से जीवसमास को जानना चाहिए। इसके पश्चात् उक्त सूचना के अनुसार ही सत्-संख्यादि आठों प्ररूपणाओं आदि का मार्गणास्थानों में वर्णन किया गया है। इस जीवसमास प्रकरण की गाथा-संख्या की स्वल्पता और जीवट्ठाण के आठां प्ररूपणाओं की सूत्र-संख्या की विशालता हो उसके निर्माण में एक-दूसरे की आधार-आधेयता को सिद्ध करता है। जीवसमास की गाथाओं और घट्खण्डागम के जीवस्थानखण्ड को आठों प्ररूपणाओं का वर्णन-क्रम विषय की दृष्टि से कितना समान है, यह पाठक दोनों का अध्ययन कर स्वयं ही अनुभव करें। प्रस्तत पञ्चसंग्रह के जीवसमास- प्रकरण के अन्त में उपसंहार करते हुए जो १८२ अंक-संख्या वाली गाथा पायी जाती है, उससे भी हमारे उक्त कथन की पुष्टि होती है। वह गाथा इस प्रकार हैं णिक्खेवे एपढे णयप्पमाणे णिरुक्ति-अणिओगे। मगइ वीसं भेए सो साणा जीवसम्मा।। अर्थात् जो पुरुष निक्षेप, एकार्थ, नय, प्रमाण, निरुक्ति और अनुयोगद्वारों से मार्गणा आदि बीस भेदों में जीव का अन्वेषण करता है, वह जीव के यथार्थ सद्भाव या स्वरूप को जानता है। पाठक स्वयं ही देखें कि पहली गाथा को बात को हो दूसरी गाथा के द्वारा प्रतिपादित किया गया है। केवल एक अन्तर दोनों में है। वह यह कि पहली गाथा उक्त प्रकरण के प्रारम्भ में दी है, जबकि दूसरी गाथा उस प्रकरण के अन्त में। पहले प्रकरण में प्रतिज्ञा के अनुसार प्रतिपाद्य विषय का प्रतिपादन किया गया है, जब कि दूसरे प्रकरण में केवल एक निर्देश-अनुयोगद्वार से १४ मार्गणाओं में जीव की विंशतिविधा सत्प्ररूपणा की गई है और शेष संख्यादि प्ररूपणाओं को न कहकर उनको जानने की सूचना कर दी गई है। २. पृथिवी आदि षदकायिक जीवों के भेद प्रतिपादन करने वाली गाथाएँ भी दोनों जीवसमासों में बहुत कुछ समता रखती हैं। ३. प्राकृत वृत्तिवाले जीवसमास की अनेक गाथाएँ उक्त जीवसमास में ज्यों-की-त्यों पाई जाती है। उक्त समता के होते हुए भी पञ्चसंग्रहकार ने उक्त जीवसमास-प्रकरण की अनेक गाथाएँ जहाँ संकलित की हैं, वहाँ अनेक गाथाएँ उन पर भाष्यरूप से Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवसमास रची है और अनेक गाथाओं का आगम के आधार पर स्वयं भी स्वतन्त्र रूप ३७) फिर भी यह सत्य हैं कि दोनों जीवसमासी अनुवादिका साध्वी श्री विद्युत्प्रभाश्री जी के सहयोग से जो कुछ समान गाथाएं हमें प्राप्त हो सकीं वे नीचे दी जा रही हैं से निर्माण किया है। ( पृ० में कुछ गाथायें समान हैं। जीवसमास पञ्चसंग्रह : तुलनात्मक अध्ययन xvi (१) मार्गणा जीवसमास गइ इन्दिय काए जोए वेए कसाथ नाणे य संजय दंसण लेसा भव सम्मे सन्नि आहारे ।। ६ ।। पञ्चसंग्रह गइ इन्दियं च काए जोए वेए कसाब णाणे य संजय दंसण लेस्सा भविया सम्मत सणि आहारे ।। ५७ ।। (२) जीव के भेद जीवसमास एगिंदिया य वायरसुहुया पज्जतमा अपज्जत्ता । बिघतिय चरिंदिन दुविह भेय पज्जत इयरे य।। २३ ।। पंचिन्दिया असण्णी सण्णी पज्जत्तया अपज्जता । पंचिदिएस बोस मिच्छदिठ्ठि भवे सेसा ।। २४ ।। पखसंग्रह बायरमेगिंदिय वि-ति चउरिंदिप असण्णी सण्णीय | मज्जत्ताधज्जत्ता एवं चौसा होति ।। ३४ ।। (३) गुणस्थान जीवसमास --- मिच्छाssसायण मिस्सा अविरयसम्मा य देसविरया य विरया पमत्त इयरे अपुष्व अणियट्टि सुतुमा य ।। ८ ।। अवसंत खीणमोहा सजोगी केवलिजिणो अजोगी थ चौदस जीवसमासा कमेण एएऽणुगंतव्वा ।। ९ ।। Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका xvii पञ्चसंग्रह मिच्छोसासण मिस्सो अविरदसम्मो य देसविरदो या विरदो पमत्त इमरो अमुख अणियट्टि सुहमो य।। ४ ।। उपसंत खीणमोहो सगोगिकेवली जिणो अजोगी य। चौदस गुणडाणाशि एकोण शिक्षा : यया । . . । (४) पर्याप्त जीवसमास-- आहार सरीरिंदिय पज्जत्ती आणपाण भासमणे। अत्तारि पंचछप्पिय एगिदिय विगल सपणीणं।। २५ ।। पञ्चसंग्रह आहारसरीरिदियपज्जत्ती आणपाणभासमणो। चतारि पंच छप्पि य एइंदिय-वियल-सण्णीण।। ४४ ।। (१) पृथ्वीकाय जीवसमास पुडवी य सक्कर बालुया य उवले सिला य लोणूसे। अयतंब तउय सीसय रूपा सुषण्णे य बहर य।। २७ ।। पञ्चसंग्रह पुढवी य सक्करा बालुगा य उवले सिलाइ छत्तीसा। पुढवीमया हू जीवा णिदिवा जिणवरिंदेहि ।। ७७ ।। (२) अप्पकाय जीवसमास ओसा य हिमं महिमा हरतणु सुद्धोदए घणोए या घण्णाईहि य मेया सामाणं नस्थि ते प्रेया।। ३१ ।। पञ्चसंग्रह ओसा य हिमिय महिला हरदणु सुद्धोदयं घणुदयं च। एदे दु आउकाया जीवा जिणसासणे दिवा।। ७८ ।। Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ xviii (३) जीवसमास इंगाल जाल अच्ची मुम्मुर सुद्धागणी व अगणी य वाईहि य भेया सहुमाणं नयि ते भेया ।। ३२ ।। पश्चसंग्रह इंगाल जाल अच्ची मुम्पुर सुद्धागणी य अगणी य अण्णेवि एकमाई ते क्काया समुदिठ्ठा ।। ७९ ।। (४) वायुकाय जीवसमास— वाउमा ऊक्कलि मंडलिगुंजा महाश्रणतणु या । वाईहि य भेया सुहुमाण नत्थि ते भेया ।। ३३ ।। पञ्चसंग्रह— जीवसमास दाउन्भामो उक्कलि मंडलि गुंजा महाघण तणू य एदे दु वाउकाया जीवा जिणसासणे दिवा ।। ८० ।। (५) वनस्पतिकाय जीवसमास मूलग्गपोरखीया कंदा तह खंथवीय बीयरूहा। संभुच्छिमा य भणिया पत्तेम अनंतकाया या ।। ३४ ।। पञ्चसंग्रह — मूलग्रापोरणीया कंदा तह खंध बीय बीयरूहा । सम्मुच्छिमा य भणिया पत्तेयाणंतकाया य ।। ८१ ।। नरकों में लेश्या जीवसमास— काऊ काऊ तह काऊनील नीला व नीलकिव्हा य किण्ा च परमकिण्हा लेसा रणम्यभाङ्गणं ।। ७२ ।। पञ्चसंग्रह — काऊ काऊ तह काउ णील णीला थ णील किण्हा य किन्हा थ परमकिण्हा लेसा रथणादि- पुढवीसु ।। १८५ ।। - Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ′′ देवों में लेश्या जीवसमास पञ्चसंग्रह — भव्यत्व जीवसमास- आहारक तेऊ तेऊ तह तेऊ पम्ह पम्हा य पम्हसुक्का य सुक्का य परमनुक्का सक्कादिविमाणवासीणं ।। ७३ ।। तेक तेऊ वह तेउ पम्ह पम्मा य पम्म- सुक्का य सुक्का य परमसुक्का लेसा भवणाइदेवाणं ।। १८९ ।। पञ्चसंग्रह समुदूधात मिच्छदिट्टि अभव्वा भवसिद्धाया य सव्वठाणेसु । सिद्धा नेव अभव्या नवि भव्या हुंति नायव्वा ।। ७५ ।। भूमिका जीवसमास ण य जे भव्वाभव्या मुत्तिसुहा होति तीदसंसारा । ते जीवा णायव्वा णो भव्वा णो अभव्या य ।। ९५७ ।। पचसंग्रह विग्गहगइमावना केवलिणो समुहया अजोगी य सिद्धा य अणाहारा सेसा आहारगा जीवा ।। ८२ ।। विग्गहगमावण्णा केवलियो समुहदो अजोगी य। सिद्धा य अणाहारा सेसा आहारया जीवा ।। १७७ ।। जीवसमास --- xix वेयण कसाय मरणे वेडब्धि य तेयए य आहारे । केवल य समुग्धाए सत्तय मणुएस नायव्वा । । ९९२ ।। Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ XX जीवसमास पञ्चसंग्रह वेयण कसाय वेअव्वय मारणंतिओ समुग्धाओ। तेजाऽऽहारो छटो सत्तमओ केवलीणं च ।। १९६ ।। नरक में अन्तरकाल जीवसमास खउवीस मुत्ता सत्त दिवस पक्खो य मास दुग चउरो। छम्मासा रयणाइस बउवीस मुहस सण्णियरे ।। २५० ।। पञ्चसंग्रह पणमालीस मुहमा पक्खो मासो य विणि खउमासा। छम्मास परिसमेय व अंतरं होइ पुढवीणं ।। २०६ ।। (१) नरक (२] नरक (३) नरक (५. नरक (4) नरक ६) नरक १७ नरक जीवसमास २४ मुहूर्त ७ दिन १ पभ १ मास २ भास ४ मास मास।।२५०|| पतसंग्रह ४५ मुहूर्त १ पक्ष 4 मास २ मास ५ मास मास १ वर्ष ।।२०६।। सम्यक्त्वादि का विरहकाल जीवसमास सम्मत्त सत्तगं खलु विरयाविराई होइ चौदसगं। विए पनरसगं विरहिय कालो अहोरसा।। २६२ ।। पञ्चसंग्रह सम्मले सप्त दिणा विरदाविरदे य उदसा होति। विरदेस य पण्णरसं विरहियकालो य बोहव्यो ।। २०५ ।। दोनों गाथा का अर्थ समान है। मात्र शब्दों का अन्तर है। विषयवस्तु जीवसमास की प्रारम्भिक गाथाओं में ही यह स्पष्ट कर दिया गया है कि इस ग्रन्थ में चार निक्षेपों, छह एवं आठ अनुयोगद्वारों और चौदह मार्गणाओं के आधार पर जीव के स्वरूप का एवं उसके आध्यात्मिक विकास की चौदह अवस्थाओं का अर्थात् चौदह गुणस्थानों का विवेचन किया गया है। सम्पूर्ण ग्रन्थ २८७ प्राकृत गाथाओं में निबद्ध है और निम्न आठ द्वारों में विभक्त किया गया है- (१) सत्पदप्ररूपणा, (२) द्रव्य-परिमाण, (३) क्षेत्र, (४) स्पर्शना, (५) Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका काल, (६) अन्तर, (७) भाव और (८) अल्पबहुत्व। इन आठ अनुयोगदारो को आधार बनाकर प्रत्येक द्वार में जोव के तत्सम्बन्धी पक्ष की चर्चा की गई हैं। आठ अनुयोगद्वारो के उल्लेख के पश्चात् ग्रन्थ में चौदह मार्गणास्थानों, चौदह जीवस्थानों और चौदह गुपयानों के गम का निर्देश किया गया है। माना वह है जिसके माध्यम से जीव अपनी अभिव्यक्ति करता है। जीव की शारीरिक, ऐन्द्रिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक शक्तियों की अभिव्यक्तियों के जो मार्ग है के ही मार्गणा कहे जाते हैं। मार्गणाएं निम्न हैं- (१) गति-मार्गणा, (२) इन्द्रियमार्गणा, (३) काय-मार्गणा, (४) योग-मार्गणा, (५) वेद-मार्गणा, (६) कषायपार्गणा, (७) ज्ञान-मार्गणा, (८) संयम-मार्गणा, (९) दर्शन-मार्गणा, (१०) लेश्या-मार्गणा, (११) भव्यत्व-मार्गणा, (१२) सम्यक्त्व-पार्गणा (१३) संझीमार्गणा और (१४) आहार-मार्गणा। इसी क्रम में आगे चौदह गुणस्थानों का जीवसमास के नाम से निर्देश किया गया हैं। वे चौदह गुणस्थान निम्न हैं (१) मिथ्यात्व गुणस्थान, (२) सास्वादन गुणस्थान, (३) मित्र गुणस्थान, (४) अविरत सम्यादृष्टि गुणस्थान, (५) देश-विरत गुणस्थान, (६) प्रमत्तसंयत गुणस्थान, (७) अप्रमत्तसंयत गुणस्थान, (८) अपूर्वकरण गुणस्थान. (९) अनिवृत्तिबादर गुणस्थान, (१०) सूक्ष्मसम्पराय गुणस्थान, (११) उपशान्तमोह गुणस्थान, (१२) क्षीणमोह गुणस्थान, (१३) सयोगीकेवली गुणस्थान और (१४) अयोगीकेवली गुणस्थान। इन प्रारम्भिक निर्देशों के पश्चात् जीवसमास के प्रथम सत्पदप्ररूपणाद्वार में उपर्युक्त चौदह मार्गणाओं के सन्दर्भ में उनकी भेद-प्रभेदों की चर्चा करते हुए यह स्पष्ट किया गया है कि किस मार्गणा के किस भेद अथवा प्रभेद में कितने गुणस्थान उपलब्ध होते हैं। वस्तुत: प्रथम सत्पदप्ररूपणा-द्वार चौदह मार्गणाओं और चौदह गुणस्थानों के पारस्परिक सह-सम्बन्धों को स्पष्ट करता है। हमारी जानकारी में अचेल परम्परा में षट्खण्डागम और सचेल परम्परा में जीवसमास ही वे प्रथम ग्रन्थ है जो गुणस्थानों और मार्गणाओं के सह-सम्बन्ध को स्पष्ट करते हैं। ज्ञातव्य है कि आचार्य कुन्दकुन्द ने अपने अन्य नियमसार में जीवस्थान, मार्गणास्थान और गुणस्थान तीनों को स्वतन्त्र सिद्धान्तों के रूप में प्रतिस्थापित किया है। ऐसा लगता है कि आचार्य कुन्दकुन्द के समय में ये तीनों अवधारणायें न केवल विकसित हो चुकी थीं, अपितु इनके पारस्परिक सम्बन्ध भी सुस्पष्ट किये जा चुके थे। यदि हम इस सन्दर्भ में जीवसमास की स्थिति का विचार करे तो हमें स्पष्ट लगता है कि जीससमास के रचनाकाल तक ये अवधारणाएँ अस्तित्व में तो आ चुकी थीं, किन्तु इनका नामकरण संस्कार नहीं हुआ था। जीवसमास की गाथा छह में चौदह मार्गणाओ के नामों का निर्देश है, किन्तु Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ xxii जीवसमास यह निर्देश नहीं हैं कि इन्हें पार्गणा कहा जाता हैं। इसी प्रकार गाथा आठ और नौ में चौदह गुणस्थानों के नामों का निर्देश हैं, किन्तु वहां इन्हें गुणस्थान न कहकर जीवसमास कहा गया है। उसी काल के अन्य दो ग्रन्थ समवायांग और षट्खण्डागम भी गुणस्थानो के लिए गुणास्थान शब्द का प्रयोग न कर क्रमश: जीवस्थान और जीवसमास शब्द का प्रयोग करने हैं। आचार्य कुन्दकुन्द हो प्रथम व्यक्ति हैं जो इन तानी अवधारणाओं को स्पष्टतया अलग-अलग करते हैं। इसी आधार पर प्रोल ढाकी आदि कुछ विद्वानो की यह मान्यता है कि कुन्दकुन्द का काल छन्त्री शताब्दी के पश्चात् ही मानना होगा, जब ये तीनों अवधारणाएं एक-दूसरे से पृथक्-पृथक् स्थापित हो चुकी थीं और इनमें से प्रत्येक के एक-दूसरे से पारस्परिक सम्बन्ध को भी सुनिश्चित रूप से निर्धारित कर दिया गया था। प्रस्तुत कृति में चौदह गणस्थानों के नाम निर्देश के पश्चात् जीव के प्रकारों की चर्चा हुई है, उसमें सर्वप्रथम यह बताया गया है कि अयोगी केवली दो प्रकार के होते हैं- सभव और अभव। अभव को ही सिद्ध कहा गया है। पुन: सांसारिक जीवों में उनके चार प्रकारों की चर्चा हुई है- (५) नारक, (२) तिर्यश्च, (३) मनुष्य और (४) देवता। इसके पश्चात् प्रस्तुत कृति में नारकों के सात भेदों और देवों के भवनवासी व्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक ये चार भेद किये गये हैं। इसके पश्चात् इनके उपभेदों की भी चर्चा हुई हैं। गुणस्थान सिद्धान्त के सन्दर्भ में उपरोक्त चारों गतियों की चर्चा करते हुए यह बताया गया है कि देव और नारक योनियों में प्रथम चार गुणस्थान पाये जाते हैं। तिर्यश्चगति में प्रथम पांच गुणस्थान पाये जाते हैं, जबकि मनुष्य गति में चौदह ही गुणस्थान पाये जाते हैं। ज्ञातव्य है कि प्रस्तुत प्रसंग में इनके लिए गुणस्थान शब्द का प्रयोग न करते हुए जीवस्थान शब्द का ही प्रयोग किया गया हैं। इसके पश्चात् पर्याप्त और अपर्याप्त की चर्चा में यह बताया गया है कि अपर्याप्त में मिथ्यावृष्टि गुणस्थान होता है। पर्याप्त में उनकी गति के अनुसार गुणस्थान पाये जाते हैं। इसके पश्चात् इन्द्रियों की दृष्टि से चर्चा की गई है। इसमें एकेन्द्रिय से लेकर पञ्चेन्द्रिय तक के जीवों की चर्चा है। इसमें चतुरिन्द्रिय तक केवल मिथ्यात्व गुणस्थान होता है, जबकि पछेन्द्रिय में चौदह गुणस्थान पाए जाते हैं। इसके पश्चात् प्रस्तुत कृति में इन्द्रिय-मार्गणा की चर्चा करते हुए एकेन्द्रिय से लेकर पञ्चेन्द्रिय तक के जीवों के भेद-प्रभेदों की विस्तार से चर्चा की गई हैं। इसमें यह बताया गया है कि एकेन्द्रिय जीव, बादर (स्थूल) और सूक्ष्म ऐसे दो प्रकार के होते हैं। पुनः इन दोनों ही प्रकारों के पर्याप्त और अपर्याप्त ऐसे Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका दो-दो उपभेद होते हैं। द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवों के भी पर्याप्त और अपर्याप्त ऐसे दो भेद होते हैं। पञ्चेन्द्रियों के पर्याप्त, अपर्याप्त तथा संज्ञी और असंज्ञी ऐसे उपभेद होते हैं। इनमे पर्याप्त संज्ञी पञ्चेन्द्रिय में चौदह गुणस्थान होते हैं, शेष सभी जीवों में मात्र मिथ्यादृष्टि गुणस्थान होता है। ज्ञातव्य है कि इसी सन्दर्भ में जीवसमाल में आहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छ्वास, भाषा और मन—- ये छ: पर्याप्तिर्या बताई गयी हैं और यह बताया गया हैं कि एकेन्द्रिय जीवों में चार, विकलेन्द्रिय में पाँच और संज्ञी पञ्चेन्द्रिय में छ: पर्याप्तियाँ होती हैं। xxiii - कार की बचा करते हुए इसमें जीवनिकायों और उनके भेद-प्रभेदों की विस्तार से चर्चा की गई है। षट्जीवनिकायों के भेद-प्रभेदो की यह चर्चा मुख्यतः उत्तराध्ययन सूत्र के छत्तीसवें अध्ययन के समान ही हैं। यद्यपि यह चर्चा उसको अपेक्षा संक्षिप्त है, क्योंकि इसमें त्रस - जीवो की चर्चा अधिक विस्तार से नहीं की गई है। इसी काय मार्गणा की चर्चा के अन्तर्गत ग्रन्थकार ने जीवों के विभिन्न कुलों (प्रजातियों) एवं योनियों (जन्म ग्रहण करने के स्थान ) की भी चर्चा की गई हैं। योनियों की चर्चा के प्रसंग में संवृत्त, विवृत्त, संवृत्त - विवृत तथा सजीव, निर्जीव और सजीव-निर्जीव एवं शांत, उष्ण तथा शीतोष्ण योनियों की चर्चा है। इसी क्रम में आगे छह प्रकार के संघयण तथा छह प्रकार के संस्थानों की भी चर्चा की है। इसी क्रम में इस सबकी भी विस्तार से चर्चा की गई है। कि किन-किन जीवों की कितनी कुलकोटियाँ होती है। वे किस प्रकार की योनि में जन्म ग्रहण करते हैं। उनका अस्थियो का ढाँचा अर्थात् संघहन किस प्रकार का होता है तथा उनको शारीरिक संरचना कैसी होती हैं? इसी क्रम में आगे पाँच प्रकार के शरीरों की भी चर्चा की गई है और यह बताया गया है कि किस प्रकार के जीवों को कौन-कौन से शरीर प्राप्त होते हैं। योग- मार्गणा के अन्तर्गत मन, वचन और काययोग की चर्चा की गई हैं और यह बताया गया है कि किस प्रकार के योग में कौन-सा गुणस्थान पाया जाता है। योग-मार्गणा के पश्चात् वेद मार्गणा की चर्चा की गई हैं। जैन परम्परा में वेद का तात्पर्य स्त्री, पुरुष अथवा नपुंसक की काम वासना से है। वेदमार्गणा की चर्चा के पश्चात् कषाय-मार्गण्या की चर्चा हैं। इसमें क्रोध. मान, माया और लोभ- इन चार कषायों में प्रत्येक के अनन्तानुबन्धी अप्रत्याख्यानी-प्रत्याख्यानी एवं संज्वलन ऐसे चार-चार विभाग किये गये हैं और यह बताया गया है कि किस गुणस्थान में कौन से प्रकार के कषाय पाये Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ xxiv जीवसमास जाते हैं। अग्रिम ज्ञान-मार्गणा के अन्तर्गत पाँच प्रकार के ज्ञानों की चर्चा है। इसमें मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिशान और मनःपर्यवज्ञान के भेद-प्रभेद भी बताये गये हूँ तथा यह बताया गया है कि केवलज्ञान का कोई भेद नहीं होता है। आगे इसी प्रसंग में कौन से ज्ञान किस गुणास्थान में पाये जाते हैं, इसका भी संक्षिप्त दिवेशन लि. सन्द है संयम-मार्गणा के अन्तर्गत पाँच प्रकार के संयमों की चर्चा की गई है और यह बताया गया है कि किस गुणस्थान में कौन-सा संयम पाया जाता है। इसी चर्चा के प्रसंग में पुलाक, बकुश, कुशील, निर्धन्य और स्नातक ऐसे पांच प्रकार के श्रमणों का भी उल्लेख किया गया है। दर्शन-मार्गप्पा के अन्तर्गत चार प्रकार के दर्शनों का उल्लेख करते हुए यह बताया है कि किस गुणस्थान में कितने दर्शन होते हैं। लेश्या-मार्गणा के अन्तर्गत छ: लेश्याओं का विस्तृत विवेचन उपलब्ध होता है। इसी क्रम में लेश्या और गणस्थान के सह-सम्बन्ध को भी निरूपित किया गया है। इसमें यह भी बताया गया है कि नारकीय जीवों और देवताओं में किस प्रकार लेश्या पायी जाती है, किन्तु यहाँ हमें ध्यान रखना चाहिए कि नारकीय जीवों और देवो के सम्बन्ध मे जो लेश्या की कल्पना है, वह द्रव्य-लेश्या को लेकर है, उनमें भाव-लेश्या तो छहीं ही सम्भव हो सकती हैं। वस्तुत: यहाँ द्रव्य-लेश्या स्वभावगत विशेषता को सूचक है। भव्यत्व मार्गणा के अन्तर्गत भव्य और अभव्य ऐसे दो प्रकार के जीवों का निर्देश है। जैन दर्शन में भव्य से तात्पर्य उन आत्माओं से है जो मोक्ष को प्राप्त करने में समर्थ हैं। इसके विपरीत अभव्य जीवों में मोक्ष को प्राप्त करने की क्षमता का अभाव होता है। गुणस्थानों की अपेक्षा से अभव्य जीवों में मात्र मिथ्यादृष्टि गुणस्थान होता है, जबकि भव्य जीवों में चौदह ही गुणस्थान सम्भव हैं। भव्यत्व-मार्गणा के पश्चात् प्रस्तुत कृति में सम्यक्त्व-मार्गणा का निर्देश किया गया है। सम्यक्त्व-मार्गणा के अन्तर्गत औपशमिक, वेदक, क्षायिक और क्षायोपशामिक ऐसे चार प्रकार के सम्यक्त्व की चर्चा है। इसमें यह भी बताया गया है कि किस-किस गुणस्थान में किस प्रकार का सम्यक्त्व पाया जाता है। संज्ञी-मार्गणा के अन्तर्गत संज्ञी और असंज्ञी— ऐसे दो प्रकार के जीवों का निर्देश किया गया है। जिनमें हेय, ज्ञेय और उपादेय का विवेक करने की Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका xxv सामर्थ्य होती है, उसे संज्ञा कहा जाता है। गुणस्थानो की अपेक्षा से यहाँ यह बताया है कि असंज्ञो जीवों में मात्र मिथ्यात्व गुणस्थान होता है. जबकि संज्ञी जीवों में सभी गुणस्थान सम्भव होते है। ___ आहार-मार्गणा के अन्तर्गत जीवों के दो भेद किये गये हैं- (१) आहारक, (२) अनाहारक। इसमे यह भी बताया गया है कि पुनर्जन्म ग्रहण करने हेतु विग्रहगति से गमन करने वाले जीव, केवली-समुदघात करते समय केवली तथा अयोगी केवली और सिद्ध ये अनाहारक होते हैं। शेष सभी आहारक होते हैं। इस प्रकार जीवसमास के इस प्रथम सत्पदप्ररूपणा-द्वार में चौदह मार्गणाओं का चौदह गुणस्थानों से पारस्परिक सम्बन्ध स्पष्ट किया गया है। यधपि गम्भीरता से देखने पर यह लगता है कि जीवसमास उस प्रारम्भिक स्थिति का प्रन्थ है, जब मार्गणाओं और गुणस्थानों के सह-सम्बन्ध निर्धारित किये जा रहे थे। जीवसमास का दूसरा द्वार परिमाणद्वार है इस द्वार में सर्वप्रथम परिमाण के द्रव्य-परिमाण, क्षेत्र-परिमाण, काल-परिमाण और भाव-परिमाण ये चार विभाग किये गये हैं। पुनः द्रव्य-परिमाण के अन्तर्गत मान, उन्मान, अवमान, गनिम और प्रतिमान-- ऐसे पाँच विभाग किये गये हैं जो विभिन्न प्रकार के द्रव्यों (वस्तुओं) के तौलमाप से सम्बन्धित हैं, क्षेत्र-परिमाण के अन्तर्गत अंगुल, वितस्ति, कक्षी, धनुष, गाऊ, श्रेणी आदि क्षेत्र को मापने के पैमानों की चर्चा की हैं। इसी क्रम में अंगल की चर्चा करते हुए उसके उत्सेधांगुल, प्रमाणांगुल और आत्मांगुल ऐसे तीन भेद किए हैं। पुनः इनके भी प्रत्येक के सूच्यंगुल, प्रतरांगुल, घनांगुल ऐसे तीन-तीन भेद किये गये हैं। सूक्ष्म क्षेत्रमाप के अन्तर्गत परमाणु, उर्ध्वरेणू, बसरेणू, रथरेणू, नालाग्र, लीख, जूं और जव की वर्चा की गई है और बताया गया है कि आठ जनों से एक अंगुल बनता है। पुन: छ: अंगल से एक पाद, दो पाद से एक वितस्ति तथा दो वितस्ति का एक हाथ होता है, ४ हाथों का एक धनुष होता है, २००० हाथ या ५०० धनुष का एक गाऊ (कोश) होता है। पुन: ४ गाऊ का एक योजन होता है। ___ काल-परिमाण की चर्चा करते हुए यह बताया गया है कि काल की सबसे सूक्ष्म इकाई समय है। असंख्य समय की एक आवलिका होती है। संख्यात आवलिका का एक श्वासोच्छ्वास अर्थात् प्राण होता है। सात प्राणों का एक स्तोक होता है। सात स्तोकों का एक लव होता है। साढ़े अड़तीस लव की एक नालिका होती है। दो नालिकाओं का एक मुहूर्त होता है। तीस मूहूर्त का एक अहोरात्र (दिवस) होता है। पन्द्रह अहोरात्र का एक पक्ष होता है। दो पक्ष का एक मास होता है। दो मास की एक ऋत होती हैं। तीन ऋतुओं का एक अयन होता है। दो अयन का एक वर्ष होता है। चौरासी लाख वर्षों का एक पूर्वाङ्ग होता Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ xxvi जीवसमास है। चौरासी लाख वर्षों को चौरासी लाख-लाख वर्षों से गुणित करने पर एक पूर्व होता हैं। पूर्व के आगे नयूतांग, नयूत नलिनांग, नलिन आदि की चर्चा करते हुए अन्त में शीर्ष - प्रहेलिका का उल्लेख किया गया है। इसके आगे का काल संख्या के द्वारा बताना सम्भव नहीं होने से उसे पल्योपम, सागरोपम आदि उपमानों से स्पष्ट किया गया है। जीवसा में न आपके प्रकारों और उनके उपमाओं के द्वारा मापने की विस्तृत चर्चा की गई हैं। इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन दर्शन में काल के पैमानों की अतिविस्तृत और गम्भीर चर्चा उपलब्ध होती हैं। द्रव्य-परिमाण नामक इस द्वार के अन्त में भाव-परिमाण की चर्चा है। इसमें संख्यात, असंख्यात और अनन्त के भेद प्रमेदों का अत्यन्त ही सूक्ष्म विवेचन किया गया है। भाव - परिमाण की इस चर्चा के अन्त मे जीवसमास में प्रत्यक्ष और परोक्ष ऐसे दो प्रमाणो की चर्चा हुई हैं। इसमें इन्द्रिय प्रत्यक्ष अनुमान, उपमान और आगम ऐसे चार प्रमाणों को दो भागों में विभक्त किया गया हैं। इन्द्रिय प्रत्यक्ष, अनुमान और उपमान को मतिज्ञान के अन्तर्गत तथा आगम को श्रुतज्ञान के अन्तर्गत वर्गीकृत किया गया है। आगे नय प्रमाण की चर्चा करते हुए मूल ग्रन्थ में मात्र नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र और शब्द ऐसे पाँच नयों का उल्लेख हुआ है। इसी क्रम में इस द्रव्य-परिमाण द्वार के अन्तर्गत विभिन्न गुणस्थानों में और विभिन्न मार्गणाओं में जीवों की संख्या का परिमाण बतलाया गया हैं। जीवसमास में प्रथम सत्प्ररूपणाद्वार की चर्चा लगभग ८५ गाथाओं में की गई है, वहीं दूसरे द्रव्य परिमाण द्वार की चर्चा भी लगभग ८२ गाथाओं में पूर्ण होती हैं। उसके बाद क्षेत्र द्वार आदि शेष छः द्वारों की चर्चा अत्यन्त संक्षिप्त रूप में की गई है। - - तीसरे क्षेत्र द्वार में सर्वप्रथम आकाश को क्षेत्र कहा गया है और शेष जीव, पुद्गल, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और काल को क्षेत्रीय अर्थात् उसमें रहने वाला बताया गया हैं। इस द्वार के अन्तर्गत सर्वप्रथम चारों गति के जीवों के देहमान की चर्चा की गई है। प्रस्तुत कृति में देहमान की यह चर्चा पर्याप्त विस्तार के साथ उपलब्ध होती हैं। यह बताया गया हैं कि किस गुणस्थानवर्ती जीव लोक के कितने भाग में होते हैं। मिध्यादृष्टि जीव सम्पूर्ण लोक में पाये जाते हैं, शेष गुणस्थानवर्ती जीव लोक के असंख्यातवें भाग में होते हैं, यद्यपि केवली समुद्घात करते समय सम्पूर्ण लोक में व्याप्त होते हैं। इस चर्चा के पश्चात् इसमें यह बताया गया है कि सूक्ष्म एकेन्द्रिय और अपर्याप्त बादर जीव सर्वलोक में होते हैं, शेष जीवलोक के भाग विशेष में होते हैं। यहाँ वायुकायिक जीवों को स्व-स्थान की अपेक्षा से तो लोक के भाग विशेष में ही माना गया है, किन्तु उपपात अथवा Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका xxvii समुद्घात की अपेक्षा से वे भी सर्वलोक में होते हैं। जीव स्वस्थान, समुद्धात तथा उपपात की अपेक्षा से जिस स्थान विशेष में रहता है, वह क्षेत्र कहलाता है, किन्तु भूतकाल में जिस क्षेत्र में वह रहा था उसे स्पर्शना कहते है। स्पर्शना को चर्चा अग्रिमद्वार में की गई हैं। क्षेत्र-द्वार के अन्त में यह बताया गया है कि आकाश को छोड़कर शेष पांचों द्रव्य लोक में होते हैं, जबकि आकाश लोक और अलोक दोनो मे होता है। चतुर्थ स्पर्शनाद्वार के अन्तर्गत सर्वप्रथम लोक के स्वरूप एवं आकार का विवरण दिया गया है। इसी क्रम मे उछलोक, अधोलोक और तिर्यकलोक का विवेचन किया गया है। तिर्यक्लोक के अन्तर्गत जम्बूद्वीप और मेरुपर्वत का स्वरूप स्पष्ट किया गया है और उसके पश्चात् द्विगण-द्विगण विस्तार वाले लवण समुद्र, धातकीखण्ड, कालोदधि समद्र, पुष्करद्वीप और उसके मध्यवर्ती मानुषोत्तर पर्वत की चर्चा है। इसी चर्चा के अन्तर्गत यह भी बताया गया है कि मनुष्य मानुषोत्तर पर्वत तक ही निवास करते हैं, यद्यपि इसके आगे भी द्विगुणित-द्विगुणित विस्तार वाले असंख्य द्वीप-समुद्र हैं। सबके अन्त में स्वयम्भूरमण समुद्र हैं। इस द्वार के अन्त में निम्न सात समुद्घातों को चर्चा की गई है.-- (१) वेदनासमुद्घात, (२) कषाय समुद्धात. (३) मारणान्तिक समुद्घात, (४) वैक्रिय समुद्घात, (५) तेजस् समुदघात, (६) आहारक समुद्घात और (७) केवली समुद्घात। समुद्घात का तात्पर्य आत्म-प्रदेशों को शरीर से बाहर निकालकर लोक में प्रसरित कर विभिन्न कर्मों की निर्जरा करना है। इसी क्रम में आगे यह बताया गया है कि किन जीवों में कितने समुद्घात सम्भव होते है। इसके पश्चात् इस स्पर्शन नामक द्वार में विभिन्न गुणस्थानवों जीव लोक के कितने भाग की स्पर्शना करते हैं, यह बताया गया है। अन्त में चारों गति के जीय लोक के कितने-कितने माग का स्पर्श करते हैं, इसकी चर्चा की गई है। पाँचवें काल-द्वार के अन्तर्गत तीन प्रकार के कालों की चर्चा की गई है- (१) भवायु काल, (२) कास्थिति काल, (३) गुणविभाग काल और इसमें भवायु काल के अन्तर्गत चारों गतियों के जीवों की अधिकतम और न्यूनतम आयु कितनी होती है, इसकी विस्तार से चर्चा की गई हैं। यह चर्चा दो प्रकार से की गई है। जीव विशेष की अपेक्षा से और उन-उन गति के जीवों के सर्वजीवों की अपेक्षा से यह बताया गया है कि अपर्याप्त मनुष्यों को छोड़कर नारक, तिर्यश्च, देवता और पर्याप्त मनुष्य सभी कालों में होते हैं। इस चर्चा के पश्चात् प्रस्तुत द्वार में कायस्थिति की चर्चा की गयी है। किसी जीव विशेष का पुन:-पुन: Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ xxviii जीवसमास निरन्तर उसी काय मे जन्म लेना कायस्थिति है। इस अपेक्षा से देव और नारक पुनः उसी काय में जन्म नहीं लेते हैं। अतः उनकी कास्थिति एकभवपर्यन्त ही होती है। पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च को छोड़कर शेष तिर्यश्च जीवों की कायस्थिति भव की अपेक्षा से अनन्तभव और काल की अपेक्षा से अनन्तकाल तक मानी गई है। जहाँ तक मनुष्य और पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च का प्रश्न है, उनकी स्थिति सात-आठ भव तक होती है। काल की अपेक्षा से यह कायस्थिति तीन पल्योपम और नौ करोष्ट्र पूर्व वर्ष की हो सकती है। कायस्थिति की चर्चा के बाद काल-द्वार में गुणविभाग काल की चर्चा है। इसमें विभित्र गुणस्थानों के जघन्य और उत्कृष्ट काल की सीमा बतायी गयी है। इसी क्रम में सम्यक्त्व, ईलेट, गरुषवेद, लेश्या एवं नादि साँप ज्ञान को काल मर्यादा की चर्चा भी प्रस्तुत द्वार में मिलती है। इसी क्रम में चक्षदर्शन और अनक्षदर्शन के काल मर्यादा की चर्चा करते हुए चक्षुदर्शन का काल दो हजार सागरोपम और अचक्षुदर्शन का काल अनादि-अनन्त, अनादि-सान्त और सादि-सान्त ऐसा तीन प्रकार का बताया गया है। यद्यपि आगम में उसके प्रथम दो प्रकारों का ही निर्देश मिलता है। इसके पश्चात् इस द्वार में मव्यत्व-अभव्यत्व आदि की अपेक्षा से भी उत्कृष्ट काल की चर्चा हुई है। द्वार के अन्त में विभिन्न मार्गणाओ और गणस्थानों की अपेक्षा से उत्कृष्ट-जघन्य काल की चर्चा भी विस्तारपूर्वक की गई हैं। अन्त में अजीव द्रव्य के काल की चर्चा करते हुए धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय को अनादि-अनन्त बताया है। काल सामान्य दृष्टि से तो अनादि-अनन्त है, किन्तु विशेष रूप से उसे भूत, वर्तमान और भविष्य- ऐसे तीन विभागों में बाँटा जाता है। पुद्गल द्रव्य में परमाणु एवं स्कन्धों का जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्ट काल असंख्यात अवसर्पिणी-उत्सर्पिणी पर्यन्त बताया है। छठा अन्तरद्वार-जीव जिस गति अथवा पर्याय को छोड़कर अन्य किसी गति या पर्याय को प्राप्त हुआ हो, बह जब तक पुन: उसी गति या पर्याय को प्राप्त न कर सके, तब तक का काल अन्तरकाल कहा जाता है। प्रस्तुत द्वार के अन्तर्गत सर्वप्रथम चार गतियों के जीवों में कौन, कहाँ, किस गति में जन्म ले सकता है, इसकी चर्चा की गई। उसके पश्चात् एकेन्द्रिय, उसकाय एवं सिद्धों के सामान्य अपेक्षा से निरन्तर उत्पत्ति और अन्तराल के काल की चर्चा की गई है। तत्पश्चात् सिद्धोकी निरन्तरता और अन्तराल की चर्चा करते हुए चारों गतियों, पांचों इन्द्रियों, षट् जीवनिकायों आदि की अपेक्षा से भी अन्तरकाल की चर्चा की गई है। Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ I I भूमिका M सातवे भाव द्वार के अन्तर्गत सर्वप्रथम औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक, औदयिक, पारिणामिक एवं सन्निपातिक ऐसे छ: भागों की चर्चा की गई हैं। उसके पश्चात् आठ कर्मों की अपेक्षा से विभिन्न भावों की चर्चा को गई है। इसमें यह बताया गया है कि मोहनीय कर्म में चार भाव होते हैं, शेष तीन घाती कर्मों में औदयिक क्षायिक और क्षायोपशमिक ऐसे तीन भाव होते हैं। शेष अघाती कर्मों में मात्र औदयिक भाव होते हैं। पारिणामिक भाव तो जीव का स्वभाव है। अतः वह सभी अवस्थाओं में पाया जाता हैं। अजीव द्रव्यों में धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय और काल में पारिणामिक भाव हैं. किन्तु यहाँ पारिणामिक भाव का तात्पर्य परिणमन ही समझना चाहिए, क्योंकि भाव तो चेतनागत अवस्था हैं। पुगल में पारिणामिक और औदयिक दोनों भाव होते हैं, क्योंकि पुगल कर्मवर्गणा के रूप मे उदय में भी आते हैं। xxix आठवें अल्पबहुत्व द्वार में सर्वप्रथम चारों गतियों एवं सिद्धों की अपेक्षा से अल्पबहुत्व की चर्चा हुई है, उसमें बताया गया हैं कि सबसे अल्प मनुष्य हैं, मनुष्यों से असंख्यात गुणा अधिक देवता है, देवों से असंख्यात गुणा अधिक सिद्ध या मुक्त आत्मा हैं और सिद्धों से अनन्त गुणा अधिक तिर्यंच हैं। स्त्री- पुरुष के अल्पबहुत्व को बताते हुए कहा गया हैं कि मानव स्त्री सबसे कम है, उनकी अपेक्षा पुरुष अधिक हैं पुरुषों से अधिक नारकीय जीव हैं, उनसे असंख्यात गुणा अधिक पंचेन्द्रिय तिरियखिणि हैं, उनसे असंख्यात गुणा अधिक देवियाँ हैं। इसी क्रम में आगे विभिन्न नरकों की पारस्परिक अपेक्षा से और देव गति में विभिन्न देवों की अपेक्षा से भी अल्पबहुत्व का विचार हुआ है। इसी क्रम में आगे विभिन्न कायों की अपेक्षा से अल्पबहुत्व का विचार किया गया है। अन्त में विभिन्न गुणस्थानों की अपेक्षा से भी अल्पबहुत्व का विचार किया गया है। इस प्रकार इस द्वार में विभिन्न मार्गणाओं की अपेक्षा से अल्पबहुत्व का विचार हुआ है। अन्त में अजीव द्रव्यों और उनके प्रदेशों के अल्पबहुत्व का विचार करते हुए प्रस्तुत कृति समाप्त होती है, अन्तिम दो गाथाओं में जीवसमास का आधार दृष्टिवाद को बतलाते हुए जीवसमास के अध्ययन के फल को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि जो इसका अध्ययन करता है उसकी मति विपुल होती हैं तथा वह दृष्टिवाद के वास्तविक अर्थ का ज्ञाता हो जाता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि जीवसमास का वर्ण्य विषय विविध आयामो वाला है। उसमें जैन, खगोल, भूगोल, सृष्टि-विज्ञान के साथ-साथ उस युग में प्रचलित विविध प्रकार के तौल-भाप, जीवों की विभिन्न प्रजातियाँ आदि का विवेचन उपलब्ध होता है। गुणस्थान सिद्धान्त को आधार बनाकर आठ अनुयोगद्वारों के माध्यम से उसकी व्याख्या करने वाला श्वेताम्बर परम्परा में यह Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ XXX जीवसमास प्रथम ग्रन्थ है। इसकी प्राचीनता और महत्ता को नकारा नहीं जा सकता। इसपर सर्वप्रथम मलधार- गच्छीय श्री हेमचन्द्रसूरि की वृत्ति है। यह मूलग्रन्थ सर्वप्रथम ऋषभदेव केशरीमल संस्थान, रतलाम के द्वारा ई० सन् १९२८ में प्रकाशित हुआ था। इसके भी पूर्व हेमचन्द्रसूरि की वृत्ति के साथ यह ग्रन्थ आगमोदय समिति बम्बई द्वारा ई० सन् १९२७ में मुद्रित किया गया था। जिनरत्नकोष से हमें यह भी सूचना मिलती हैं कि इसपर मलधारगच्छीय हेमचन्द्रसूरि की वृति के अतिरिक्त शीलांकाचार्य की एक टीका भी उपलब्ध होती है, जो अभी तक अप्रकाशित है। यद्यपि इसकी प्रतियाँ बड़ौदा आदि विभिन्न ज्ञान भण्डारों में उपलब्ध होती हैं। इसी प्रकार इसकी एक अन्य टीका बृहद्वृत्ति के नाम से जानी जाती है,जो मलधारगच्छीय हेमचन्द्रसूरि के शिष्य अभयदेवसूरि के द्वारा विक्रम संवत् ११६४ तदनुसार ई० सन् ११०७ में लिखी गई थी। इस प्रकार यद्यपि मूलग्रन्थ और उसकी संस्कृत टीका उपलब्ध थी, किन्तु प्राकृत और संस्कृत से अनभिज्ञ व्यक्तियों के लिए इसके हार्द को समझ पाना कठिन था। इसका प्रथम गुजराती अनुवाद, जो मलधारगच्छीय हेमचन्द्रसूरि की टीका पर आधारित है, मुनि श्री अमितयश विजय की महाराज ने किया, जो जिनशासन आराधना ट्रस्ट, बम्बई के द्वारा ई० सन् १९८५ में प्रकाशित हुआ। फिर भी हिन्दी भाषा-भाषी जनता के लिए इस महान् ग्रन्थ का उपयोग कर पाना अनुवाद के अभाव में कठिन ही था। ई० सन १९९५ में खरतरगच्छीया महत्तरा अध्यात्मयोगिनी--पूज्याश्री विचक्षणश्री जी म०मा० की सुशिष्या एवं साध्वीवर्या मरुधरज्योति पूज्या मणिप्रभाश्री जी की नेश्रायवर्तिनी साध्वी श्री विद्युतप्रभाश्रीजी, पार्श्वनाथ विद्यापीठ में अपनी गुरु भगिनियों के साथ अध्ययनार्थ पधारी, उनसे मैंने इस ग्रन्थ के अनुवाद के लिए निवेदन किया, जिसे उन्होंने न केवल स्वीकार किया अपितु कठिन परिश्रम करके अल्पावधि में ही इसका अनुवाद सम्पन्न किया। उसके सम्पादन और संशोधन में मेरो व्यस्तता एवं स्वास्थ्य सम्बन्धी कारणों से अपेक्षा से कुछ अधिक ही समय लगा, किन्तु आज यह ग्रन्थ मुद्रित होकर लोकार्पित होने जा रहा है, यह अतिप्रसन्नता और सन्तोष का विषय है। सम्पादन एवं भूमिका लेखन में हुए विलम्ब के लिए मैं साध्वीश्री जी एवं पाठकों से क्षमाप्रार्थी हूँ। भाषणपूर्णिमा शाजापुर डॉ सागरमल जैन निदेशक मेटिन्स) पार्श्वगाय विद्यापीठ वाराणसी Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्खण्डागम का जीवस्थान और जीवसमास -- पं. हीरालाल जी शास्त्री षट्खण्डागम मुलतः यापनीय परम्परा का ग्रन्थ है, किन्तु आज वह दिगम्बर परम्परा में आगम तुल्य ग्रन्थ के रूप में मान्य है और उस पर लिखी गई धवला और टीका आज दिगम्बर जैन समाज का आधारभूत ग्रन्थ है। प्रस्तुत लेखांश दिगम्बर जैन परम्परा के वरिष्ठ विद्वान पं० हीरालालजी शास्त्री की षट्खण्डागम की भूमिका से लिया गया है। इसमें आदरणीय पण्डित जी ने यह प्रतिपादित किया है कि षट्खण्डागम के जीवस्थान का उपजीव्य जीवसमास रहा है। - सम्पादक घट्खण्डागम के जीवस्थान का आधार जीवसमास पखण्डागम के छह खण्डों में पहला खण्ड जीवस्थान है। इसका उद्गम धवलाकार ने महाकम्मपयडिपाहुड के छठे बन्धन नामक अनुयोगद्वार के चौथे भेद बन्धविधान के अन्तर्गत विभिन्न भेद-प्रभेद रूप अवान्तर अधिकारों से बतलाया है, यह बात हम प्रस्तावना के प्रारम्भ में दिये गये चित्रादियों के द्वारा स्पाट कर चुके हैं। जीवस्थान का मुख्य विषय सन्, संख्यादि आठ प्ररूपणाओं के द्वारा जीव की विविध अवस्थाओं का वर्णन करना है। इसमें तो सन्देह ही नहीं कि जीवस्थान का मूल उदगमस्थान महाकम्मपडिपाहुए था ओर यत: कर्मबन्ध करने के नाते उसके बन्धक जीव का जबतक स्वरूप, संख्यादि न जान लिए जावें, तबतक कर्मों के भेद-प्रभेदों का और उनके स्वरूप आदि का वर्णन करना कोई महत्त्व नहीं रखता, अत: भगवत् पुष्पदन्त में सबसे पहले जीवों के स्वरूप आदि का सत्, संख्यादि अनुयोगद्वारों से वर्णन करना ही उचित समझा। इस प्रकार जीवस्थान नामक प्रथम खण्ड की रचना का श्रीगणेश हुआ। पर जैसाकि मैंने वेदना और वर्गणाखण्ड में आई हुई सूत्र-गाथाओ के आधार पर षट्खण्डागम से पूर्व-रचित विभिन्न ग्रन्थों में पाई जाने वाली गाथाओं *. पट्खण्डागम, सम्पा०- ब्र०प०सुमतिबाई शहा, श्री श्रुतभांडार व अन्य प्रकाशन समिति, फलटण, १९६५ की पं० हीरालाल शास्त्री की प्रस्तावना' से साभार। Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ xxxii जीवसमास के तुलनात्मक अवतरण देकर यह बताया है कि महाकम्मपडिपाहुड का विषय बहुत विस्तृत था, और वह संक्षेप रूप से कण्ठस्थ रखने के लिए गाथा रूप 4 प्रथित या गुम्फित होकर आचार्य-परम्परा से प्रवहमान होता हुआ चला आ रहा था, उसका जितना अंश आचार्य शिवशर्म को प्राप्त हुआ, उसे उन्होंने अपनी 'कम्मपयडी-संग्रहणी' में संग्रहित कर दिया। इसी प्रकार उनके पूर्ववर्ती जिस आचार्य को जो विषय अपनी गुरु परम्परा से मिला, उसे उन-उन आचार्यों ने उसे गाथाओं में गुम्फित कर दिया, ताकि उन्हें जिज्ञासु जन कण्ठस्थ रख सकें। समस्त उपलब्ध जैन वाङ्मय का अवलोकन करने पर हमारी दृष्टि एक ऐसे अन्य पर गई, जो पट्खण्डागम के प्रथम खण्ड जीवस्थान के साथ रचना शैली से पूरी-पूरी समता रखता है और अद्यावधि जिसके कर्ता का नाम अज्ञात है, किन्तु पूर्वभृत्-सूरि-सूत्रित के रूप में विख्यात है, उसका नाम है जीवसमासा इसमें कल २८६ गाथाएँ है और सत्प्ररूपणा, द्रध्यप्रमाणानुगम आदि उन्हीं आठ अनुयोगद्वारों में जीव का वर्णन ठीक उसी प्रकार से किया गया है, जैसाकि षट्खण्डागम के जीवस्थान नामक प्रथम खण्ड में। भेद है, तो केवल इतना ही, कि आदेश से कथन करते हुए जीवसमास में एक-दो मार्गणाओं का वर्णन करके यह कह दिया गया है कि इसी प्रकार से धीर, वीर और श्रुतज्ञजनों को शेष मार्गणाओं का विषय अनुमार्गण कर लेना चाहिए। तब षट्खण्डागम के जीवस्थान में उन सभी मार्गणा स्थानो का वर्णन खूब विस्तार के साथ प्रत्येक प्ररूपणा में पाया जाता है। यही कारण है कि यहां जो वर्णन केवल २८६ गाथाओं के द्वारा किया गया है, वहाँ वहीं वर्णन जीवस्थान में १८६० सूत्रों के द्वारा किया गया है। जीवसमास में आठों प्ररूपणाओं का ओध और आदेश से वर्णन करने के पूर्व उस-उस प्ररूपणा की आधारभूत अनेक बातों की बड़ी विशद चर्चा की गई है, जो कि जोवस्थान में नहीं है। हाँ, धवला टीका में वह अवश्य दृष्टिगोचर होती है। ऐसी विशिष्ट विषयों की चर्चा वाली सब मिलाकर लगभग १११ गाथाएँ हैं। उनको २८६ में से पटा देने पर केवल १७५ गाथाएँ ही ऐसी रह जाती हैं, जिनमें आठों प्ररूपणाओं का सूत्ररूप में होते हुए भी विशद एवं स्पष्ट वर्णन पाया जाता है। इसका निष्कर्ष यह निकला कि १७५ गाथाओं का स्पष्टीकरण षद्खण्डागमकार ने १८६० सूत्रों में किया है। यहाँ यह शंका की जा सकती हैं कि सम्भव है षखण्डागम के उक्त जीवस्थान के विशद एवं विस्तृत वर्णन का जीवसमासकार ने संक्षेपीकरण किया हो। जैसा कि धवला-जयधवला टीकाओं का संक्षेपीकरण गोम्मटसार के रचयिता Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका sxxiii नेमिचन्द्राचार्य ने किया है। पर इस शंका का समाधान यह है कि पहले तो गोम्मटसार के रचयिता ने उसमें अपना नाम स्पष्ट शब्दों में प्रकट किया है, जिससे कि वह परवी रचना सिद्ध हो जाती है। पर यहाँ तो जीवसमासकार ने न तो अपना नाम कहीं दिया है और न परवर्ती आचार्यों ने ही उसे किसी आचार्य-विशेष की कृति बताकर नामोल्लेख किया है। प्रत्युत् उसे 'पूर्वभृत-सूरि-सूत्रित' हो कहा है, जिसका अर्थ यह होता है कि जब यहाँ पर पूर्वो का ज्ञान प्रबहमान था, तब किसी पूर्ववेत्ता आचार्य ने दिन पर दिन क्षीण होती हुई लोगो की बुद्धि और धारणाशक्ति को देखकर ही प्रवचन-वात्सल्य से प्रेरित होकर इसे गाथारूप में निबद्ध कर दिया है और वह आचार्य परम्परा से प्रवहमान होता हुआ धरसेनाचार्य को प्राप्त हुआ है। उसमें जो कथन स्पष्ट था, उसकी व्याख्या में अधिक बल न देकर जो अप्ररूपित मार्गणाओं का गूढ़ अर्थ था, उसका उन्होंने भूतबलि और पुष्पदन्त को विस्तार से विवेचन किया और उन्होंने भी उसी गढ़ रहस्य को अपनी रचना में स्पष्ट करके कहना या लिखना उचित समझा। दूसरे इस जीवसमास की जो गाथाएँ आठ प्ररूपणाओ की भूमिका रूप हैं, वे धवलाटीका के अतिरिक्त उत्तराध्ययन, मूलाचार, आचासंग-नियुक्ति, प्रज्ञापनासूत्र, प्राकृत पञ्चसंग्रह आदि अनेक ग्रन्थो में पायी जाती हैं। जीवसमास की अपने नाम के अनुरूप विषय की सुगठित विगतवार सुसम्बद्ध रचना को देखते हुए यह कल्पना असंगत-सी प्रतीत होती है कि उसके रचयिता ने उन-उन उपर्युक्त प्रन्यों से उन-उन गाथाओं को छांट-छांट कर अपने ग्रन्थ में निबद्ध कर दिया हो। इसके स्थान पर तो यह कहना अधिक संगत होगा कि जीवसमास के प्रणेता वस्तुतः श्रुतज्ञान के अंगभूत ११ अंगों और १४ पूर्वो के वेत्ता थे। भले ही वे श्रुतकेवली न हों, पर उन्हें अंग और पूर्वो के बहुभाग का विशिष्ट ज्ञान था, और यही कारण है कि वे अपनी कृति को इतनी स्पष्ट एवं विशद बना सके। यह कृति आचार्य-परम्परा से आती हुई धरसेनाचार्य को प्राप्त हुई, ऐसा मानने में हमें कोई बाधक कारण नहीं दिखाई देता। प्रत्युत् प्राकृत पञ्चसंग्रह की प्रस्तावना में जैसाकि मैंने बतलाया, यही अधिक सम्भव अँचता है कि प्राकृत पञ्चसंग्रहकार के समान जीवसमास धरसेनाचार्य को भी कण्ठस्थ था और उसका भी व्याख्यान उन्होंने अपने दोनों शिष्यों को किया है। यहाँ पर जीवसमास का कुछ प्रारम्भिक परिचय देना अप्रासंगिक न होगा। पहली गाथा में चौबीस जिनवरों (तीर्थङ्करों) को नमस्कार कर जीवसमास कहने की प्रतिज्ञा की गई है। दूसरी गाथा में निक्षेप, निरुक्ति, (निर्देश-स्वामित्वादि) छह अनुयोगद्वारों से, तथा (सत्-संख्यादि) आठ अनुयोगद्वारों से गति आदि Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ xxxiv जीवसमास मार्गणाओं के द्वारा जीवसमास अनुगन्तव्य कहे हैं। तीसरी गाथा के द्वारा नामादि चार वा बहुत प्रकार के निक्षेपों की प्ररूपणा का विधान है। चौथी गाथा में उक्त छह अनुयोगद्वारों से सर्वभाव (पदार्थ) अनुगन्तव्य कहे हैं। पांचवीं गाथा में सत्-संख्यादि आठ अनुयोगद्वारों का निर्देश है, जो कि इस प्रकार है संतपयपरूवणया दव्वपमाणं च खित्त-फुसणा य। कालंतरं च भावो अप्याबहुअं च दारा ।। ५ ।। पाठकगण इस गामा के साथ पसाहः म स खण्ड 'संतपरूवणा' आदि सातवें सूत्र से मिलान करें। तत्पश्चात् छठी 'गइ इंदिए य काए' इत्यादि सर्वत्र प्रसिद्ध गाथा के द्वारा चौदह मार्गणाओं के नाम गिनाये गये हैं, जो कि ज्यों के त्यो षट्खण्डागम के सूत्रांक ४ मे बताये गये हैं। पुन: सातवीं गाथा में 'एतो उ नउदसण्ह इहाणुगमणं करिस्सामि' कहकर और चौदह गुणस्थानों के नाम दो गाथाओं में गिनाकर उनके क्रम से जानने की प्रेरणा की गई है। जीवसमास की ५वी गाथा से लेकर ९वी गाथा तक का वर्णन जीवस्थान के रे सूत्र से लेकर २२वें सूत्र तक के साथ शब्द और अर्थ की दृष्टि से बिल्कुल समान है। अनावश्यक विस्तार के भय से दोनों के उद्धरण नहीं दिये जा इसके पश्चात् ७६ गाण्याओं के द्वारा सत्प्ररूपणा का वर्णन ठीक उसी प्रकार से किया गया है, जैसाकि जीवस्थान की सत्प्ररूपणा में है। पर जीवसमास मे उसके नाम के अनुसार प्रत्येक मार्गणा से सम्बन्धित सभी आवश्यक वर्णन उपलब्ध हैं। यथा- गतिमार्गणा में प्रत्येक गति के अवान्तर भेद-प्रभेदों के नाम दिये गये हैं। यहाँ तक कि नरकगति के वर्णन में सातों नरकों और उनकी नामगोत्र वाली सातों पृथिबियों के, मनुष्यगति के वर्णन में कर्मभूमिज, भोगभूमिज, अन्तद्वोपज और आर्य-म्लेच्छादि भेदों के तथा देवगति के वर्णन में चारों जाति के देवों के तथा स्वर्गादिकों के भी नाम गिनाये गये हैं। इन्द्रिय-मार्गणा में गणस्थानों के निर्देश के साथ छहों पर्याप्तियों और उनके स्वामियों का भी वर्णन किया गया है। जबकि यह वर्णन जीवट्ठाण में योगमार्गणा के अन्तर्गत किया गया है। कायमार्गणा में गुणस्थानों के निर्देश के अतिरिक्त पृथिविकायिक आदि पांचों स्थावर कायिकों के नामों का विस्तार से वर्णन है। इस प्रकार की ‘पुढवी य सक्करा वालुया' आदि १४ गाथाएँ वे ही हैं, जो धवल पुस्तक १ के पृ० २७२ आदि में, तथा मूलाचार में २०६वीं गाथा से आगे, तथा उत्तराध्ययन, आचारांगनियुक्ति, प्राकृत पञ्चसंग्रह और कुछ गो. जीवकाण्ड में ज्यों की त्यों Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका पाई जाती हैं। इसी मार्गणा के अन्तर्गत सचित्त- अचित्तादि योनियों और कुलकोडियों का वर्णन कर पृथिवीकायिक आदि जीवों के आकार और प्रतकायिक जीवों के संहनन और संस्थानों का भी वर्णन कर दिया गया है, जो प्रकरण को देखते हुए जानकारी की दृष्टि से बहुत उपयोगी है। योगमार्गणा से लेकर आहारमार्गणा तक का वर्णन षट्खण्डागम के जीवस्थान के समान ही है। जीवसमास में इतना विशेष है कि ज्ञानमार्गणा में आभिनिबोधिक शाम के अदद का संघमा में पुलाक, बकुशादिका, लेश्यामार्गणा में द्रव्यलेश्या का और सम्यक्त्वमार्गणा में क्षायोपशमिक सम्यक्त्व आदि के प्रकरणवश कर्मों के देशघाती, सर्वघाती आदि भेदों का भी वर्णन किया गया है। अन्त में साकार और अनाकार उपयोग के भेदों को बतलाकर और 'सव्वे तल्लक्खणा जीवा' कहकर जीव के स्वरूप को भी कह दिया गया है। यहाँ पर पाठकों की जानकारी के लिए दोनों के समतापरक एक अवतरण को दे रहे हैं जीवसमास अस्सणि अमणपंचिंदियंत सण्णी व समण छतमत्वा । नो सर्पिण नो असण्णी केवलनाणी व विपणेआ ।। ८१ ।। XXXV जीवस्थान सणिबाणुवादेण अस्थि सण्णी असण्णी ।।१७२ ।। सपणी मिच्छाडिप्पहूडि जाव खीण कसायवीयरामछदुमत्या सि३ । १७३ ।। असण्णी एइंदिप्यहुडि जाव असण्णिापंविंदिया त्ति ।। १७४ । । पाठकगण इन दोनों उद्धरणों की समता और जीवसमास की कथन शैली की सूक्ष्मता के साथ 'नो संज्ञी और नो असंज्ञी' ऐसे केवलियों के निर्देश की विशेषता का स्वयं अनुभव करेंगे। दूसरी संख्याप्ररूपणा या द्रव्यप्रमाणानुगम का वर्णन करते हुए जीवसमास में पहल प्रमाण के द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावरूप चार भेद बतलाये गये हैं। तत्पश्चात् द्रव्यप्रमाण में मान, उन्मानादि भेदों का क्षेत्रप्रमाण में अंगुल (हस्ते) धनुष आदि का कालप्रमाण में समय, आवली, उच्छ्वास आदि का और भावप्रमाण में प्रत्यक्ष-परोक्ष ज्ञानों का वर्णन किया गया है। इनमें क्षेत्र और कालप्रमाण का वर्णन खूब विस्तार के साथ क्रमशः १४ और ३५ गाथाओं में किया गया है। जिसे कि धवलाकार ने यथास्थान लिखा ही है। इन चारों प्रकार Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवसमास के प्रमाणों का वर्णन करने वाली गाथाएँ दिगम्बर और श्वेताम्बर सम्प्रदाय के प्रन्थों में ज्यों की त्यों या साधारण से शब्दभेद के साथ मिलती हैं, जिनसे कि उनका आचार्य परम्परा से चला आना ही सिद्ध होता है। इन चारों प्रकार के प्रमाणों का वर्णन षट्खण्डागमकार के सामने सर्वसाधारण में प्रचलित रहा है, अत: उन्होंने उसे अपनी रचना में स्थान देना उचित नहीं समझा है। xxxvi इसके पश्चात् मिथ्यादृष्टि आदि जांवों को संख्या बतलाई गई हैं, जो दोनो ही अन्थों में शब्दश: समान है। पाठकों की जानकारी के लिए यहाँ एक उद्धरण दिया जाता है— जीवसमास - गाथा मिच्छा दव्यमणंता कालेोसप्पिणी अनंताओ। खेतेण भिज्जमाणा हवंति लोगा अनंता ओ ।। १४४ । । षट्खण्डागम-सूत्र ओषेण मिच्छाइट्टी दव्वपमाणेण केवडिया ? अनंता ||२|| अणंताणंताहि ओसप्पिणि उस्सप्पिणीहि ण अवहिरंति कालेन ||३|| खेत्तेण अणंताणंता लोगा । । ४ । । ( षट्खण्डागम, पृ० ५४-५५) पाठकगण दोनों के विषय प्रतिपादन की शाब्दिक और आर्थिक समता का स्वयं ही अनुभव करेंगे। इस प्रकार से जीवसमास में चौदह गुणस्थानों की संख्या को, तथा गति आदि तीन मार्गणाओं की संख्या को बतलाकर तथा सान्तरमार्गणाओं आदि का निर्देश करके कह दिया गया है कि -- एवं जे जे भावा जहिं जहिं हंति पंचसु गईसु । से ते अणुमग्गित्ता दव्वयमाणं नए धीरा ।। १६६ ।। अर्थात् मैंने इन कुछ मार्गणाओं में द्रव्यप्रमाण का वर्णन किया हैं, तदनुसार पांचों ही गतियों में सम्भव शेष मार्गणास्थानों का द्रव्यप्रमाण धीर वीर पुरुष स्वयं ही अनुमार्गण करके ज्ञात करें। ऐसा प्रतीत होता है कि इस संकेत को लक्ष्य में रखकर ही षट्खण्डागमकार ने शेष ११ मार्गणाओं के द्रव्यप्रमाण का वर्णन पूरे ९० सूत्रों में किया है। क्षेत्रप्ररूपणा करते हुए जीवसमास में सबसे पहले चारों गतियों के जीवों के शरीर की अवगाहना बहुत विस्तार से बताई गई है, जो प्रकरण को देखते Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका हुए वहाँ बहुत आवश्यक हैं। अन्त में तीन गाथाओं के द्वारा सभी गुणस्थानों और मार्गणास्थानों के जीवों की क्षेत्रप्ररूपणा कर दी गई है। गुणस्थानों में क्षेत्रप्ररूपणा करने वाली गाथा के साथ षट्खण्डागम के सूत्रों की समानता देखिये vxxsii जीवसमास- गाथा मिच्छा उ सव्वलोए असंभागे य संसया हुति । केवलि असंखभागे भागे व सव्वलोए वा । १७८ ।। षट्खण्डागम सूत्र ओघेण मिच्छाइट्ठी केवडि खेते ? सव्वलोगे ||२|| सासणसम्माइद्विप्पहुडि जाव अजोगिकेवलित्ति केवडि खेते? लोगस्स असंखेज्जदिभाए ।। ३ ।। सजोगिकेवली केवड खेत्ते ? लोगस्स असंखेज्जदिभाए, असंखज्जेसु वा भागेसु, सन्चलोगे वा ||४|| ( षट्खं० पृ० ८६-८८ ) " स्पर्शनप्ररूपणा करते हुए जीवसमास में पहले स्वस्थान, समुद्घात और उपपादपद का निर्देश कर क्षेत्र और स्पर्शन का भेद बत्तलाया गया हैं। तत्पश्चात् किस द्रव्य का कितने क्षेत्र में अवगाह हैं, यह बतलाकर अनन्त आकाश के मध्यलोक का आकार सुप्रतिष्ठित संस्थान बताते हुए तीनों लोकों के पृथक् आकार बताकर उसकी लम्बाई-चौड़ाई बताई है। पुनः मध्यलोक के द्वीप समुद्रो के संस्थान - संनिवेश आदि को बताकर उर्ध्व और अधोलोक की क्षेत्र सम्बन्धी घटा-बढ़ा का वर्णन किया गया है। पुनः समुद्घात के सातों भेद बताकर किस गति में कितने समुद्घात होते हैं, यह बताया गया है। इस प्रकार सभी आवश्यक जानकारी देने के पश्चात् गुणस्थानों और मार्गणास्थानों के स्पर्शन की प्ररूपणा की गई हैं। गुणस्थानों की स्पर्शनप्ररूपणा जीवसमास में डेढ़ गाथा में कहीं गई हैं, जबकि षट्खण्डागम में वह ९ सूत्रों में वर्णित है। दोनों का मिलान कीजिए -... जीवसमास-गाध्या मिच्छेहिं सव्वलोओ सासण- मिस्सेहि अजय देसेहिं । पुट्ठा चउदसभागा बारस अट्ठट्ठ छच्चेव ।। १९५ ।। सेसेल संभागो फुसिओ लोगो सजोगिकेवलिहिं । षट्खण्डागम- सूत्र ओघेण मिच्छादिड्डीहिं केवडियं खेत्तं फोसिद ? सव्वलोगो ।। २ ।। सारणसम्मादिट्ठीहि केवडियं खेतं फोसिदं ? लोगस्सा असंखेज्जदिभागो ।। ३ ।। Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ xxxviiii जीवसमास अट्ठ बारह चोद्दस भागा वा देसूणा।। ४ ।। सम्मामिच्छाइट्ठि- असंजदसम्मादिट्ठीहि केवडियं खेतं फोसिद? लोगस्स असंखेज्जदिभागो ।।५।। अट्ठ चोद्दस भागा वा देसूणा।। ६ ।। संजदासंजदेहि केवडियं खेतं फोसिद? लोगस्स असंखेजदिमागो।। ७ ।। छ चौद्दस भागा वा देसूणा।। ८ ।। पमत्तसंजदप्पडि जीब अजोगिकेवलीहि केवडियं खेत्तं फोलिदं? लोगस्स असंखेज्जदिभागो सजोगिकेवलीहि केवडियं खेतं फोसिदं? लोगस्स असंखेज्जदिमागो असंखेज्जा या भागा सबलोगो वा ।। १० ।। (षटी०, पृ० १०१-१०४) कालप्ररूपणा करते हुए जीवसमास में सबसे पहले चारों गति के जीवों की विस्तार के साथ भवस्थिति और कास्थिति बताई गई है, क्योंकि उसके जाने बिना गणस्थानों और मार्गणास्थानों की काल-प्ररूपणा ठीक-ठीक नहीं जानी जा सकती है। तदनन्तर एक और नाना जीवों की अपेक्षा गुणस्थानों और मार्गणास्थानों की कालप्ररूपणा की गई है। गणस्थानों की प्ररूपणा जीवसमास में ७।।। गाथाओं में की गई है तब षट्खण्डागम में वह ३१ सूत्रों में की गई है। विस्तार के भये से यहाँ दोनों के उद्धरण नहीं दिये जा रहे हैं। जीवसमास में कालभेद वाली कुछ मुख्य-मुख्य मार्गणाओं की कालप्ररूपणा करके अन्त में कहा गया है एत्य य जीवसमासे अणुमग्गिय सुहम-निउणमाकुसाले। सुहमं कालविभागं विमएज्ज सुम्मि उवजुत्तो।। २४० ।। अर्थात् सूक्ष्म एवं निपुण बुद्धिवाले कुशल जनों को चाहिए कि वे जीवसमास के इस स्थल पर श्रुतज्ञान में उपयुक्त होकर अनुक्त मार्गणाओं के सूक्ष्म काल-विभाग का अनुमार्गण करके शिष्य जनों को उसका भेद प्रतिपादन करें। अन्तर-प्ररूपणा करते हुए जीवसमास में सबसे पहले अन्तर का स्वरूप बतलाया गया है, पुनः चारों गतिवाले जीव मरण कर कहाँ-कहाँ उत्पन्न होते हैं, यह बताया गया है। पुन: जिनमें अन्तर सम्भव है, ऐसे गुणस्थानों और मार्गणास्थानों का अन्तरकाल बताया गया है। पश्चात् तीन गाथाओं के द्वारा गुणस्थानों की अन्तरप्ररूपणा की गई है, जबकि वह षट्खण्डागम में १९ सूत्रों के द्वारा वर्णित है। तदनन्तर कुछ प्रमुख मार्गणाओं की अन्तरप्ररूपणा करके कहा गया है कि भव-भावपरित्तीणं काल विभाग कमेणऽणुगमित्ता। भावेण समुवउत्तो एवं कुण्डतराणुगम।। २६३ ।। Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका xxxix अर्थात् अनुक्त शेष मार्गणाओं के भव और भाव-परिवर्तन-सम्बन्धी काल-विभाग को क्रम से अनुमार्गण करके भाव से समुपयुक्त (अतिसावधान) होकर इसी प्रकार से शेष मार्गणाओं के अन्तरानुगम को करना चाहिए। भावप्ररूपणा जीवसमास में केवल छह गाथाओं के द्वारा की गई है, जबकि षट्रवाष्टायम के टीनाशात पे दर १२ मृगों में वर्णित है। जीवसमास की संक्षेपता को लिए हुए विशेषता यह है कि इसमें एक-एक गाथा के द्वारा मार्गणास्थानो में औदयिक आदि भावों का निर्देश कर दिया गया है। यथा गह काय वेय लेस्सा कसाय अनाण अजय असण्णी। मिच्छाहारे उदया, जियभवियर त्तिय सहायो।। २६९ ।। अर्थात् गति, काय, वेद, लेश्या, अज्ञान, असंयम, असंज्ञी, मिथ्यात्व और आहारमार्गणाएँ औदयिकभावरूप हैं। जीवत्व, भव्यत्व और इतर (अभव्यत्व) ये तीनों स्वभावरूप अर्थात् पारिणामिक भावरूए हैं। जीवसमास में अल्पबहुत्व को प्ररूपणा एक खास ढंग से की गई है, जिससे षट्खण्डागम के प्रथम खण्ड जीवट्ठाण और द्वितीय खण्ड खदाबंध इन दोनों खण्डों की अल्पबहुत्वप्ररूपणा के आधार का सामञ्जस्य बैठ जाता है। अल्पबहुत्व की प्ररूपणा में जीवसमास के भीतर सर्वप्रथम जो दो गाथाएँ दी गई हैं, उनका मिलान खुद्दाबंध के अल्पबहुत्व से कीजिएजीवसमास-mथा थोवा नरा नरेहि य असंखगुणिया हवंति णेरइया। तत्तो सुरा सुरेहि य सिद्धाऽणंता तओ तिरिया।। २७१।। थोबाठ मणुस्सीओ नर-नरय-तिरिक्खिओ असंखगुणा। सुर-देवी संखगुणा सिद्धा तिरिया अणंतगुणा।।२७२।। खुदावन्य-सूत्र अप्पानहगाणुगमेण गदियाणुवादेण पंच गदीओ समासेण।।१।। सव्वत्योवा मणुसा।।२।। गेरइया असंखेज्जगुणा।। ३।। देवा असंखेज्जगुणा।।४।। सिद्धा अणंतगुणा।।५।। (खुद्दाबंध-अल्पब०, पृ. ४५१) अगदीओ समासेण ।।७।। सच्चत्योवा मणुस्सिणीओ ||८|| मणुस्सा असंखेज्जगुणा।।९।। णेरड्या असंखेजगुणा।।१०।। पंचिदियतिरिक्खजोणिणीओ असंखेज्जगणाओ ।।११।। देवा संखेजगुणा ।।१२।। देवीओ संखेज्जगुणाओ।।१३।। सिद्धा अणंतगुणा।।१४।। तिरिक्खा अणंतगुणा।।१५।। (खुद्दाबं० अल्पब०, पृ. ४५१) Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवसमास दोनों ग्रन्थों के दोनो उद्धरणों से बिल्कुल स्पष्ट हैं कि खुदाबन्ध के अल्पबहुत्व का वर्णन उक्त दोनों गाथाओं के आधार पर किया गया हैं। इसी प्रकार खुद्दाबन्ध के अल्पबहुत्व-सम्बन्धी सू० १६ से २१ तक का आधार जीवसमास को २७५वीं गाथा है, सू० ३८ से ४४ तक का आधार २७६वीं गाथा हैं। xl खुदाबन्ध मे मार्गणाओं के अल्पबहुत्व की प्ररूपणा के पश्चात् जो अल्पब्दण्डक है. उसके लेकर ४६ सूत्र तक की अल्पबहुत्व - प्ररूपणा का आधार जीवसमास की गा० २७३ और २७४ है। जीवस्थान के भीतर गुणस्थानों के अल्पबहुत्व का जो वर्णन सू० २ से लेकर २६ वें सूत्र तक किया गया है, उसका आधार जीवसमास की २७७ और २७८वी गाथा है। पुनः मार्गणास्थानों में गतिमार्गणा का अल्पबहुत्व गुणस्थानों को साथ कहा गया है। इन्द्रिय और कायमार्गणा के अल्पबहुत्व की वे ही गाथाएँ आधार हैं, जिनकी चर्चा अभी खुद्दाबन्ध के सूत्रों के साथ समता बताते हुए कर आए हैं। अन्त में शेष अनुक्त मार्गणाओं के अल्पबहुत्व जानने के लिए २८१वीं गाथा में कहा गया हैं कि 'एवं अप्पाबहुयं दव्वपमाणेहि साहेज्जा' । अर्थात् इसी प्रकार से नहीं कही हुई शेष सभी मार्गणाओं के अल्पबहुत्व को द्रव्यप्रमाणानुगम (संख्याप्ररूपणा) के आधार से सिद्ध कर लेना चाहिए। जीवसमास का उपसंहार करते हुए सभी द्रव्यों का द्रव्य की अपेक्षा अल्पबहुत्व और प्रदेशों की अपेक्षा अल्पबहुत्व बतलाकर अन्त में दो गाथाएँ देकर उसे पूरा किया है, जिससे जीवसमास नामक प्रकरण की महत्ता का बोध होता है। वे दोनों गाथाएं इस प्रकार हैं १ ) बहुभंगदिद्विवाए दिल्याणं जिनवरोवड्डाणं । धारणधत्तट्टो पुण जीवसमासत्य उवजुत्तो ।। २८५ ।। एवं जीवाजीवे वित्यरमिहिए समासनिदिने । उवजुतो जो गुणए तस्स मई जायए विउला ।। २८६ ।। २) अर्थात् जिनवरों के द्वारा उपदिष्ट और बहुभेद वाले दृष्टिवाद में दृष्ट अर्थों की धारणा को वह पुरुष प्राप्त होता है, जो कि इस जीवसमास में कहे गये अर्थ को हृदयङ्गम करने में उपयुक्त होता है। इस प्रकार द्वादशाङ्ग श्रुत में विस्तार से कहे गये और मेरे द्वारा समास (संक्षेप) से कहे गये इस ग्रन्थ में जो उपयुक्त Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका xli होकर उसके अर्थ का गुणन (चिन्तन और मनन) करता है, उसकी बुद्धि विपुल (विशाल) हो जाती है। उपसंहार इस प्रकार जोवसमास की रचना देखते हुए उसकी महत्ता हृदय पर स्वतः ही अंकित हो जाती है और इस बात में कोई सन्देह नहीं रहता कि उसके निर्माता पर्ववेत्ता थे, ण नहीं क्योंकि उन्होंने उपर्यत उपसंहार गाथा में स्वयं ही 'बहुभंगदिठिवाए' पद देकर अपने पूर्ववेत्ता होने का संकेत कर दिया है। समग्न जीवसमास का सिंहावलोकन करने पर पाठकगण दो बातों के निष्कर्ष पर पहुँचेंगे- एक तो यह कि वह विषय वर्णन की सूक्ष्मता और माता की दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण प्रन्य है और दूसरी यह कि षट्खण्डागम के जीवडाण-प्ररूपणाओं का वह आधार रहा है। यद्यपि जीवसमास की एक बात अवश्य खटकने जैसी है कि उसमें १६ स्वर्गों के स्थान पर १२स्वर्गों के ही नाम हैं और नव अनुदिशों का भी नाम-निर्देश नहीं है, तथ्यापि जैसे तत्त्वार्थसूत्र के ‘दशाष्टपञ्चद्वादशविकल्पाः ' इत्यादि सूत्र में १६ के स्थान पर १२कल्पों का निर्देश होने पर भी इन्द्रों की विवक्षा करके और 'नवसु ग्रैधेयकेषु विजयादिषु' इत्यादि सूत्र में अनुदिशों के नाम का निर्देश नहीं होने पर भी उसकी 'नवसु' पद से सूचना मान करके समाधान कर लिया गया है उसी प्रकार से यहाँ भी समाधान किया जा सकता है। षट्खण्डागम के पृ० ५७२ से लेकर ५७७ तक वेदनाखण्ड के वेदनाक्षेत्रविधान के अन्तर्गत अवगाहना-महादण्डक के सू० ३० से लेकर ९९वें सूत्र तक जो सब जीवों की अवगाहना का अल्पबहुत्व बतलाया गया है, उसके सूत्रात्मक बीज यद्यपि जीवसमास की क्षेत्रप्ररूपपणा में निहित है, तथापि जैसा सीधा सम्बन्ध, गो० जीवकाण्ड में आई हुई 'सुहमणिवाते आम्' इत्यादि (गा० ९७ से लेकर १०१ तक की) गाथाओं के साथ बैठता है, वैसा अन्य नहीं मिलता। इन गाथाओं की रचनाशैली ठीक उसी प्रकार की है, जैसी कि वेदनाखण्ड में आई हुई चौसठ पदिकवाले जघन्य और उत्कृष्ट अल्पबहुत्व की गाथाओं की है। यत: गो० जीवकाण्ड में पूर्वाचार्य-परम्परा से आने वाली अनेकों गाथाएँ संकलित पायी जाती हैं, अत: बहुत सम्भव तो यही है कि ये गाथाएँ भी वहाँ संगृहीत ही हों। और, यदि वे नेमिचन्द्राचार्य रचित हैं, तो कहना होगा कि उन्होंने सचमुच पूर्व गाथा-सूत्रकारों का अनुकरण किया है। Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अज्ञात पूर्वधर आचार्य द्वारा विरचित जीवसमास (चौदह-गुणस्थान विवेचन) दस चोइस य जिणवरे घोडस गुणजाणए नमंसिता। घोहस जीवसमासे समासओऽणुक्कमिस्सामि।।१।। गाथार्थ- दस और चौदह अर्थात् चौबीस श्रेष्ठ जिनों को, जो चौदह गुणस्थानों के ज्ञाता हैं, नमस्कार करके मैं चौदह जीवसमासों (चौदह गुणस्थानों) का अनुक्रम से संक्षेप में विवेचन करूंगा। विवेघन-ग्रन्थकार अपनी रचना की निर्विघ्न समाप्ति हेतु रचना के प्रारम्भ, मध्य और अन्त में मङ्गलाचरण करते हैं। प्रस्तुत कृति में रचनाकार ने प्रथम गाथा में चौबीस जिनेश्वरों को नमस्कार किया है एवं उन्हें चौदह गुणस्थानों का ज्ञाता बताया है। यहाँ प्रश्न यह उठता है कि तीर्थकर तो सर्वज्ञ, सर्वदशी होते हैं फिर उन्हें मात्र चौदह गुणस्थानों का ज्ञाता ही क्यों कहा गया है? इसका प्रथम उत्तर तो यह है कि समस्त जीवराशि चौदह गुणस्थानों में वर्गीकृत है, अत: चौदह गुणस्थानों के ज्ञान में समस्त लोक के जीव-जगत् का और उनके सम्बन्ध से समस्त लोकालोक का ज्ञान निहित है। इस प्रकार इससे उनकी सर्वज्ञता की ही पुष्टि होती है। इसका दूसरा उत्तर यह भी हो सकता है कि रचनाकार अपनी रचना में चौदह गुणस्थानों का विवेचन करने जा रहा है, अतः तीर्थकर भगवान को चौदह गुणस्थानों का झाता कहकर रचनाकार यह स्पष्ट करना चाहता है कि वह अपनी इस कृति में जिन चौदह गुणस्थानों का विवेचन कर रहा है वे उनके द्वारा ज्ञात एवं प्रशप्त हैं। इस प्रकार वह एक ओर अपनी विनम्रता और दूसरी ओर अपने विवेचन की प्रामाणिकता को ही पुष्ट करता है। प्रस्तुत गाथा की एक विशेषता यह भी है कि इसमें गुणस्थान और जीव-समास को पर्यायवाची माना गया है। Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवसमास निक्षेप निक्खेवनिरुत्तीहि छहि अट्ठहिं याणुओगदारेहि। गड्याइमग्गणाहि य जीवसमासाऽणुगतव्या ।।२।। गाथार्थ-इस जीवसमास को निक्षेपों, नियुक्तियों, छ: या आठ अनुयोगद्वारों तथा गति आदि चौदह मार्गणाओं के द्वारा समझना चाहिए। विवेचन-अभिधानराजेन्द्रकोश, भाग ४, पृष्ठ २०२७ में निक्षेप का अर्थ बताया है- "निक्षेपणं निक्षेप:'। नाम, स्थापना, द्रव्य, भाव आदि के द्वारा आगमिक शब्दों के अर्थ का निरूपण या व्याख्या करना निक्षेप है। सामान्यतया नाम, स्थापना, द्रव्य तथा भाव- ये निक्षेपों के चार प्रकार बताये गये हैं। यद्यपि आगमों में इनके अन्य भेदों की चर्चा भी उपलब्ध होती है। नियुक्ति- शब्द के अर्थ की व्युत्पत्तिपरक व्याख्याएँ नियुक्ति कही जाती हैं, यथा— जो जीता है वह जीव है। अनुयोगदार- शब्द की व्याख्या जिन-जिन अपेक्षाओं से की जा सकती है उन्हें अनुयोगद्वार कहते हैं। अग्रिम गाथा में इन पर विस्तार से विचार किया गया है। मार्गणा-- गति, इन्द्रिय आदि चौदह मार्गणाएँ हैं। जिनके आधार पर जीव की विभिन्न स्थितियों का विचार किया जाता है। प्रस्तुत कृति के प्रथम विभाग की गाथा तीन मे निक्षेपों की, गाथा चार में छ; अनुयोगद्वारों की तथा गाथा पाँच में सत्पदप्ररूपणा आदि आठ अनुयोगद्वारों की चर्चा है, पुन: गाथा ग्यारह से छियासी तक चौदह मार्गणाओं की चर्चा है। नामं ठवणा दव्वे भावे य चडबिहो उ निक्लेवो। कत्था य पुण बहुविहरे तयासयं पप्प काययो।।३।। गाथार्थ- नाम, स्थापना, द्रव्य तथा भाव- ये निक्षेप के चार प्रकार हैं। तथापि वक्ता के आशय एवं शब्द को प्रयोग शैली के आधार पर उसके अनेक भेद भी कहे जाते हैं। विवेचन-'सामान्यतया निक्षेप के चार प्रकार बताये गये हैं, किन्तु वक्ता के आशय एवं शब्द की प्रयोग शैली आदि की अपेक्षा से अनेक प्रकार के निक्षेप भी घटित हो सकते हैं। आगमिक व्याख्याओं में द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, भव, तद्भव, भोग, संयम, आधार, ओध, यशकीर्ति आदि दस निक्षेपों का भी उल्लेख मिलता है। यदि व्यक्ति सभी निक्षेपों को न जान सके तो कम से कम उसे चार निक्षेप तो जानना ही चाहिए। इसी प्रकार अनुयोगद्वारों के सम्बन्ध में भी अनेक प्रकार के दृष्टिकोण उपलब्ध होते हैं Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मङ्गलाचरण (क) कसायपाहुड (३/३-२२/७/३) में यह प्रश्न उपस्थित किया गया है कि अनुयोगद्वार किसे कहते हैं? इसके उत्तर में बताया गया हैं कि कहे जाने वाले अर्थ को जानने के उपायभूत अधिकार को अनुयोगद्वार कहते हैं। अनुयोग के चार प्रकार हैं- १. प्रथमानुयोग, २. करणानुयोग, ३. चरणानुयोग तथा ४. द्रव्यानुयोग। (ख) स्याहादमञ्जरी (श्लोक-२८/ पृष्ठ-३०९/पंक्ति-२२) में उपक्रम आदि चार अनुयोग बताते हुए कहा गया है- प्रवचन महानगर के अनुयोग रूप चार द्वार हैं- १. उपक्रम, २. निक्षेप, ३. अनुगम और ४, नय। (ग) तत्त्वार्थसूत्र (१/७) में निर्देश, स्वामित्व आदि छः प्रकार के अनुयोग बताये गये हैं। (घ) पखण्डागम की धवलाटीका में (१११, १, १/१८/३४) में बताया गया है कि- किं, कस्स, केण, कत्थ, केवचिर तथा कदिविध - इन छ: अनुयोगद्वारों से सम्पूर्ण पदार्थो का ज्ञान करना चाहिए। . इन्हीं छ: अनुयोगद्वारों को आगे गाथा चार में स्पष्ट किया गया है। छः अनुयोगद्वार किं कस्स केण कत्य व केवधरं कहविहो उ भावोत्ति। छहिं अणुओगवारेहिं सव्वे भावाऽणुगंतवा।।४।। गाथार्थ- क्या, किसका, किससे, कहाँ, कितने समय तक और कितने प्रकार के भाव वाला है, इन छ: अनुयोगद्वारों से जीव आदि तत्त्वों की सभी अवस्थाओं का विवेचन करना चाहिए। जैसे प्रश्न-जीव क्या है? अथवा जीव का लक्षण क्या है? उत्तर- जीव का लक्षण उपयोग है। प्रश्न- जीव किसका स्वामी है? उसर- जीव स्वयं के ज्ञानादि गुणों का स्वामी है। प्रश्न- जीव किसके द्वारा बंधा हुआ है? उत्तर-संसारी जीव कर्मों से बंधा हुआ है। प्रश्न-जीव कहाँ-कहाँ है? उत्तर-सशरीरी संसारी जीव चौदह राजूलोक में है और सिद्धजीव लोकान में सिद्धशिला के ऊपर स्थित है। प्रश्न-जीव कब से है और कब तक रहेगा? उत्तर- जीव अनादि काल से है और अनन्तकाल तक रहेगा। प्रश्न-जीव के भाव कितने प्रकार के हैं? Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवसमास उत्तर - जीव के औपशमिक क्षायोपशमिक, क्षायिक, औदायिक तथा पारिणामिक - ये पाँच प्रकार के भाव हैं। आठद्वार ४ संतपथपरूवणया दव्यमाणं व खिसफुसणा य । काभावो अब दाराई ॥५१॥ गाथार्थ - १. सत्पदप्ररूपणा (अस्तित्व), २. द्रव्यपरिमाण (मात्रा या संख्या), ३. क्षेत्र, ४ स्पर्शना, ५. काल, ६ अन्तर ७. भाव (अवस्थाएँ) और ८. अल्पबहुत्व - ये आठ अनुयोगद्वार हैं जिनके द्वारा किसी तत्त्व की विवेचना की जाती है। विशेषार्थ - प्रस्तुत गाया में निम्न आठ अपेक्षाओं के आधार पर जीवद्रव्य का निरूपण किया गया है। १. सत्पद - सत्पद अर्थात् अस्तित्व गुण की अपेक्षा से जीवादि तत्त्व हैं। २. द्रव्य - द्रव्य की अपेक्षा से आत्म- द्रव्य कितने हैं? आत्म- द्रव्य अनन्त हैं। ३. क्षेत्र जीव कितने क्षेत्र में निवास करते हैं? मुक्तजीव लोक के असंख्यातवें भाग में अथवा लोकाम में निवास करते हैं, किन्तु संसारी जीव सम्पूर्ण लोक में रहे हुए हैं। - ४. स्पर्श - मुक्तजीवों ने कितने स्थान को स्पर्शित कर रखा है? मुक्त जीवों की स्पर्शना लोक के असंख्यातवें भाग जितनी है। ५. काल - मुक्तजीव मोक्ष में कितने काल तक रहेंगे? एक जीव की अपेक्षा से सादि - अनन्त काल तक तथा समस्त मुक्तजीवों की अपेक्षा से अनादि काल से मुक्तजीव वहाँ रहे हुए हैं और अनन्त काल तक वहाँ रहेंगे। ६. अन्तर- एक जीव के सिद्ध होने से दूसरे जीव के सिद्ध होने तक अधिक से अधिक कितना अन्तर रहता हैं? सिद्ध जीवों में अधिक से अधिक अन्तर छः मास का हो सकता है। ७. भाव- सिद्धों में कौनसे भाव हैं? सिद्धों में क्षायिक एवं पारिणामिक भाव हैं। ८. अल्प - बहुत्व - सिद्धों में अल्प - बहुत्व की विवेचना किस प्रकार की जाती है? जैसे नपुंसक सबसे कम स्त्रियाँ उससे ज्यादा तथा पुरुष उससे अधिक सिद्ध होते हैं। नोट- प्रस्तुत कृति में इन आठ द्वारों का विस्तृत विवेचन किया गया है। तत्त्वार्थसूत्र (१/८ ) में भी इन्हीं आठ द्वारों का उल्लेख मिलता है। Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मालाचरण चौदहमार्गणा गा इंदिए य काए जोए वेए कसाय नाणे य । संजम दंसण लेसा भव सप्मे सन्नि आहारे ।।६।। गावार्थ-१. गति, २. इन्द्रिय, ३. काय (शरीर), ४. योग, ५. वेद, ६. कषाय, ७. ज्ञान, ८. संयम, ९. दर्शन, १०. लेश्या, ११. भव्यत्व, १२. सम्यक्त्व, १३, संज्ञा तथा १४. आहार—ये चौदह जीव मार्गणाएं हैं। विवेचन- इन चौदह मार्गणाओं से मोक्ष-तत्त्व की विचारणा इस प्रकार करनी चाहिए १. गति- चार गतियों में से मोक्ष में ले जाने वाली गति कौन सी है? मनुष्य गति। २. इन्द्रिय- कितनी इन्द्रियो वाले जीव मोक्ष जा सकते हैं? पञ्चेन्द्रिय जीव ही मोऽय ला सकते हैं। ३. काय- षट्जीवनिकायों में कौनसी काया मोक्ष की प्राप्ति में सहायक है? त्रसकाय। ४. योग-किस योग से जीव मोक्ष जाते हैं? किसी भी योग से नहीं, अपितु अयोगी होकर ही जीव मोक्ष जाते हैं। ५. वेद-मोक्ष अवस्था में कौन सा वेद (वासना-भाव) रहता है? मोक्ष अवस्था में कोई भी वेद (वासना-भाव) नहीं होता है। स्त्री, पुरुष और नपुंसक सम्बन्धी वासना से रहित होकर ही मोक्ष प्राप्त किया जाता है। ६. कवाय- मोक्ष में जाने वाले को कितने कषाय रहते हैं? मुता म. में कोई भी कषाय नहीं रहते। ७. ज्ञान-मोक्ष में कौनसा ज्ञान है? मोक्ष में मात्र केवलज्ञान (अनन्त-भाम) होता है। ८. संयम-किस प्रकार के संयम या चारित्र से युक्त होकर जीव मोक्ष जाते हैं? यथाख्यात-चारित्र से युक्त होकर ही जीव मोक्ष जाते हैं। ९. दर्शन- मोक्ष में कौन सा दर्शन होता है? मोक्ष में मात्र केवलदर्शन है। १०. लेश्या-मोक्ष में कौनसी लेश्या होती है? मोक्ष में कोई भी लेश्या नहीं होती। ११. भव्य-मोक्ष में भव्य जीव जाते हैं या अभव्य? मात्र भव्य जीव ही मोक्ष जाते हैं।। Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवसमास १२. सम्यक्त्व- मोक्ष में कौन सा सम्यक्त्व होता है? मोक्ष में क्षायिक-सम्यक्त्व होता है। १३. संझा-मोक्ष संज्ञा (विवेकशील) जीव को प्राप्त होता है या असंज्ञी जीव को? मोक्ष मात्र संज्ञी जीव को ही प्राप्त होता है। १४. आहार-मोक्ष में जीव आहारक है या अनाहारक? मोक्ष में जीव अनाहारक होता है। इसी प्रकार अन्य तत्त्वों पर भी इन मार्गणाओं की अपेक्षाओं से विवेचन किया जा सकता है। पन: यह विवेचन भी गाथा पाँच में बताये गये आठ अनुयोगद्वारों में से मात्र प्रथम सत्प्ररूपणा नामक अनुयोगद्वार के आधार पर किया गया है। अन्य अनुयोगद्वारों के आधार पर भी इस सम्बन्ध में विवेचन सम्भव है। जीव के चौदह भेद आहारमध्वजोगाइएहि एगुसरा बहू भेया। एत्तो उ उदसण्हं हाणुगमणं करिस्सामि ।।७।। गाथार्थ-आहार, भव्यत्व, योग आदि की अपेक्षा से जीवों के एक से लेकर क्रमशः दो, तीन, चार आदि अनेक भेद होते हैं, किन्तु यहाँ पर इन अनेक भेदों में से मात्र चौदह भेदों का ही वर्णन किया जा रहा है। विवेचन___ (१) उपयोग अर्थात् चेतना लक्षण की अपेक्षा से सभी जीव एक प्रकार सार मुक्तजीव २) आहारक-अनाहारक, सशरीरी-अशरीरी, संसारी-मुक्त, स-स्थावर आवर द्विविध अपेक्षाओ से जीवों के दो प्रकार होते हैं। (३) भव्य, अभव्य एवं भव्य-अभव्य-व्यतिरिक्त अर्थात् सिद्ध अथवा एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय एवं सकलेन्द्रिय इस प्रकार से जीवों के तीन प्रकार भी होते है। (४) मनोयोग, वचनयोग, काययोग तथा अयोग की अपेक्षा से अथवा स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद तथा अवेदी की अपेक्षा से जीव चार प्रकार के होते हैं। (५) क्रोध कषाय, मान कषाय, माया कषाय, लोभ कषाय एवं अकषाय की अपेक्षा से अथवा मनुष्यगति, देवगति, नरकगति, तिर्यञ्चगति एवं सिद्धगति की अपेक्षा से जीव पांच प्रकार के होते हैं। Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मङ्गलाचरण (६) मिथ्यात्व, सास्वादन, औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक एवं मिश्र भाव की अपेक्षा से अथवा पांच इन्द्रियों एवं मन की अपेक्षा से अथवा षद्जीव. निकाय की अपेक्षा से जीव छः प्रकार के होते है। (७) छ: लेश्या एवं अलेश्या की अपेक्षा से जीव सात प्रकार के हैं। (८) सात समुद्रात तथा असमुद्धात की अपेक्षा से जीव आठ प्रकार (१) शीत, उष्ण, शीतोष्ण, सचित्त, अचित्त, सचित्ताचित्त, संवृत, विवृत्त तथा संवृतविवृत्त इन नौ योनियों की अपेक्षा से जीव नौ प्रकार के होते हैं। (१०) पांच स्थावर, तीन विकलेन्द्रिय, पञ्चेन्द्रिय तथा अनिन्द्रिय की अपेक्षा से जीवों के दस प्रकार होते हैं। (११) पांच प्रकार के पर्याप्त, पांच प्रकार के अपर्याप्त (एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय वीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय एवं पंचेन्द्रिय) एवं पर्याप्ति रहित इस अपेक्षा से जीव के ग्यारह प्रकार भी होते हैं। (१२) पांच ज्ञान, तीन अज्ञान, चार दर्शन इन बारह उपयोगों की अपेक्षा से जीव बारह प्रकार के होते हैं। (१३) षट्जीवनिकाय के पर्याप्त एवं अपर्याप्त ऐसे बारह भेद तथा तेरहवाँ अकाय (सिद्ध) इस तरह जीवों के तेरह भेद होते हैं। (१४) चौदह गुणस्थानों की अपेक्षा से जीवों के चौदह प्रकार होते हैं। साधना की अपेक्षा से अधिक उपयोगी होने के कारण प्रस्तुत कृति में इन चौदह भेदों का उल्लेख किया गया है। इसी प्रकार अन्य-अन्य अपेक्षाओं से जीवों के इससे अधिक भेद भी किये जा सकते हैं। पंचसंग्रह (११३३) में जीवस्थानो को जीवसमास के नाम से अभिहित करते हुए जीवों के क्रमश: चौदह, इक्कीस, तीस, बतास, छत्तीस, अड़तालीस, चौपन तथा सत्तावन भेद भी बताये गये हैं। जैनेन्द्रसिद्धान्तकोश (भाग २, पृष्ठ ३४१) में- जीवसमासो के अनेक भेद-प्रभेद बताये गये हैं- वे भेद क्रमश: इस प्रकार हैं- चौदह, चौबीस, तीस, बत्तीस, चौतीस, छत्तीस, अड़तीस, अड़तालीस, चौपन, सत्तावन, पचासी, अट्ठानवे तथा चार सौ छः। जीवविचारप्रकरण में जीव के पांच सौ तिरसठ (५६३) भेद भी बताये गये हैं। Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवसमास गुणस्थान विकास मिला अधिरयसम्मा ४ च देसविरया ५ य। विरया पमल पावरे ७ अपुष्य ८ अणियष्टि ९ सहमा १० य ।।८।। अवसंत ११ खीणमोहा १२ सजोगिकेवलिजिणो १२ अजोगी १४ य। धोइस जीवसमासा कमेण एएऽणुगंतव्या।।९।। गाथार्थ- १. मिथ्यात्व, २. सासादन (सास्वादन), ३. मिश्र (सम्यक्मिथ्या), ४, अविरत--- सम्यक्-दृष्टि, ५. देशविरत, ६. सर्वविरत प्रमत्तसंयत, ७. अप्रमत्तसंयत, ८. अपूर्वकरण, ९. अनिवृत्तिकरण, १०, सूक्ष्मसम्पराय, ११. उपशान्तमोह, १२. क्षीणमोह, १३. सयोगीकेवली तथा १४ अयोगीकेवली। इन चौदह जीवसमासों (गुणस्थानों) को क्रमश: जानना चाहिए। विवेचन गुणस्थान का सामान्य लक्षण-दर्शनमोहनीयादि कमों के उदय, उपशम, क्षय, क्षयोपशम आदि अवस्थाओं के होने पर उत्पन्न होने वाले जिन भावों से जीव-लक्षित किये जाते हैं उन्हें सर्वदर्शियों ने “गुणस्थान" संज्ञा से निर्दिष्ट किया है। --(पंचसंग्रह १/३) मोहनीयकर्म के उदय, उपशम, क्षयोपशम एवं क्षय के कारण और मन, वचन तथा काय की प्रवृत्ति के कारण जीव के अंतरंग परिणामों (भावों) में प्रतिक्षण होने वाले उतार-चढ़ाव का नाम गुणस्थान है। परिणाम (भाव) यद्यपि अनन्त हैं, परन्तु सर्वाधिक मलिन परिणामों से लेकर उत्कृष्ट विशुद्ध परिणामों तक तथा उससे ऊपर जघन्य वीतराग-परिणाम से लेकर उत्कृष्ट वीतराग-परिणाम तक की • अनन्त वृद्धियों के क्रम को वक्तव्य बनाने के लिए जीवों को जिन चौदह श्रेणियों में विभाजित किया गया है, वे चौदह श्रेणियाँ गुणस्थान कहलाती हैं। (जैनेन्द्रसिद्धान्तकोस, भाग २, पृष्ठ २४५) आत्मशक्तियों अथवा गुणों के क्रमिक विकास को गुणस्थान कहते हैं। आत्मा की अवस्था किसी समय अज्ञानपूर्ण होती है। यह अवस्था सबसे प्रथम होने के कारण निकृष्ट है। उस अवस्था से आत्मा अपने सम्यक-दर्शन, सम्यकचारित्र आदि गुणों के विकास द्वारा धीरे-धीरे ऊपर चढ़ता है। धीरे-धीरे उन आध्यात्मिक गुणों का विकास करता हुआ विकास की चरम सीमा तक पहुँच जाता है। विकासक्रम के समय होने वाली आत्मा की इन भिन्न-भित्र अवस्थाओं को चौदह भागों में विभाजित कर इन्हें चौदह गुणस्थानों के नाम से जाना जाता है। (आध्यात्मिक विकासक्रम- पं. सुखलाल जी) Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मङ्गालाचरण समवायांग के १४वें समवाय के सूत्र ५० में कर्मों की विशुद्धि की अपेक्षा से चौदह जीवस्थान (गुणस्थान) कहे गये हैं। जैन विचारधारा में नैतिक एवं आध्यात्मिक विकासक्रम की चौदह अवस्थाएँ मानी गई हैं, जिन्हें चौदह गुणस्थानों के नाम से जाना जाता है। 'गुण' शब्द प्राचीन काल में धागे के अर्थ में भी प्रयोग किया जाता था। धागे का कार्य हैं बांधना। जीव के बंधन से विमुक्ति के बीच की जो चौदह अवस्थाएँ हैं, वे ही गुणस्थान हैं। इन बौदह अवस्थाओं को प्राप्त जीव संसार में रहता हैं और इन अवस्थाओं को पार करने वाला जीव मुक्त या सिद्ध कहलाता है। १. मिश्यादृष्टि गुणस्थान- यह जीव अनादि काल से मिथ्याभावों, मिथ्या आकांक्षाओं एवं मिथ्या आग्रहों से जकड़ा हुआ है। ऐसी स्थिति में वह सत्यानुभूति से वंचित रहता है। उसकी दृष्टि मात्र बहिर्जगत् की ओर रहती है। यथार्थ बोध के अभाव में वह सतत बाह्य सुखों की प्राप्ति की कामना करता है। इस गुणस्थान में रहा जोव दिग्भ्रमित होकर इधर-उधर भटकता रहता है। इस गुणस्थान में जीव की जीवादितत्त्वों के प्रति सम्यक श्रद्धा नहीं होती। ऐसा जीव सांसारिक विषयों का ज्ञाता होने पर भी आत्मस्वरूप का ज्ञाता न होने से अज्ञानी कहा जाता है तथा मोह की प्रबलता के कारण उसमें अपने आध्यात्मिक विकास की इच्छा और प्रयत्नों का अभाव होता है। ऐसी निम्नतम स्थिति वाले जीव मिथ्यात्वगुणस्थानवीं कहे जाते हैं। २. सासादन या सास्वादन गुणस्थान-स अर्थात् सहित तथा आस्वादन अर्थात् अनुभूति। अत: जिन जीवों में सम्यक् दर्शन का आस्वादन शेष रहता है, वे सास्वादन गुणस्थानवर्ती कहे जाते हैं। विकासक्रम में इसे द्वितीय स्थान प्राप्त हैं फिर भी यह गुणस्थान आत्मा को पतनोन्मुख अवस्था का ही घोतक है। प्रथम गुणस्थानवर्ती कोई भी आत्मा इसमें नहीं जाती वरन् जब कोई आत्मा चतुर्थ गुणस्थान से पतित होती है, तब वह खायी हुई खीर के वमन के समय होने वाले आस्वादन तुल्य एक समय से लेकर उत्कृष्ट छ: आवलिका काल तक बमन किये गये सम्यक्त्य के आस्वादन से युक्त रह सकता है। जीव की इस पतनोन्मुख दशा का नाम सास्वादन गुणस्थान है। कुछ आचार्य इसकी व्याख्या इस प्रकार करते हैं कि “जीव सम्यक्त्व की आसादना (आसातना/विराधना) करके गिरता है इसलिए इसे सासादन सम्यग्दृष्टि गुणस्थान कहा जाता है। सम्यक्त्वरूपी पर्वत के शिखर से च्युत, मिथ्यात्व रूपी भूमि के समभिमुख और सम्यक्त्व के नाश को प्राप्त जीव को सासादन नाम वाला जानना चाहिए।" (पञ्चसंग्रह, दिगम्बर, १/७) Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवसमास ३. मिन गुणस्थान (सभ्य-मिथ्यादष्टि गुणस्थान)-- व्यामिश्र अर्थात् अच्छी तरह से मिश्रित दही तथा गुड़ के समान ही सम्यक्त्व और मिथ्यात्व के मिश्रित भाव को सम्यक्-मिथ्यात्व जानना चाहिए। यह गुणस्थान आत्मा की मिश्रित अवस्था का परिचायक है। इस अवस्था में जीव सम्यक्त्व एवं मिथ्यात्व के मध्य झूलता रहता है। उसमें सद्-असद् का संघर्ष चलता रहता है। यदि जीव का सद् पक्ष प्रबल ही जाता है तो वह सम्यक्-दर्शन प्राप्त कर लेता है और यदि असद् पक्ष प्रबल हो जाता है तो वह मिथ्यात्व में चला जाता है। इस गुणस्थान का काल अन्तर्मुहूर्त है। अड़तालीस मिनिट की समयावधि को एक मुहूर्त कहा जाता हैं। अन्तर्मुहूर्त की समयावधि कम से कम एक समय तथा अधिक से अधिक एक समय कम अड़तालीस मिनट होती है। सामान्यतया यह गुणस्थान पतनोन्मुख जीवों को होता हैं किन्तु जिन जीवों ने एक बार सम्यग्दर्शन प्राप्त कर लिया है, वे सम्यक्त्व के वमन (त्याग) के पश्चात् मिथ्यात्व को प्राप्त कर, पुनः विकासक्रम में इस गुणस्थान को प्राप्त कर सकते हैं। ४. अविरत सम्यक्-दृष्टि गुणस्थान -दर्शनमोहनीय कर्म का उपशम, क्षय या क्षयोपशम करके जीव सम्यक्-दृष्टि बनता है। इस जीव को जिनोक्त तत्त्व पर श्रद्धा तो होती है परन्तु वह पाँच इन्द्रियों के विषयों के सेवन से तथा त्रस-स्थावर जीवों की हिंसा से विरत नहीं हो पाता। उसका ज्ञानात्मकंपक्ष या मनोभूमिका सम्यक् होने पर भी आचरणात्मक पक्ष मिथ्या ही होता है। वह सत्य को समझते हुए भी असत्य को छोड़ नहीं पाता। वे उस अपंग व्यक्ति की भांति होते हैं, जो सत्यमार्ग को देखते हुए भी उस पर चल नहीं पाते। जैन दर्शन के अनसार अविरत सम्यक-दृष्टि जीव जब निम्न सात प्रकृतियों का उपशम, क्षयोपशम अथवा क्षय कर लेता है तब वह सम्यक्-दृष्टि कहलाता है- १. अनन्तानुबंधी क्रोध, २. अनन्तानुबंधी मान, ३. अनन्तानुबंधी माया, ४. अनन्तानुबंधी लोभ, ५, मिथ्यात्वमाह, ६. मिश्रमोह तथा ७, सम्यक्त्वमाह। जब साधक इन सातों प्रकृतियों को पूर्णत: नष्ट कर देता है तब क्षायिक सम्यक्त्व और जब सातों प्रकृतियों को दबा देता है तब औपशमिक सम्यक्त्व तथा जब सातों प्रकृतियों या उनके अंशों में से कुछ को दबा देता है तथा कुछ को नष्ट कर देता है, तब वह क्षायोपशमिक सम्यक्त्व प्राप्त करता है। क्षायिक सम्यक्त्व अनन्त काल तक, क्षायोपशभिक सम्यक्त्व अधिकतम छियासठ सागरोपम तक तथा औपरामिक सम्यक्त्व अन्तर्मुहूर्त काल तक रहता है। वत ग्रहण न कर पाने के कारण वह अविरत तथा सम्यक्-दर्शन प्राप्त कर लेने के कारण सम्यक्-दृष्टि, इस प्रकार अविरत सम्यक्-दृष्टि कहलाता है। Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मङ्गलाचरण यह गुणस्थान चारो गतियों के संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक जीव प्राप्त कर सकते हैं। ५. देशविरत गुणस्थान- जब सम्यक्-दृष्टि जीव अप्रत्याख्यानी (अनियंत्रणीय) कषायचतुष्क का उपशम, क्षयोपशम या क्षय कर देता है तब वह त्रस जीवों की हिंसा आदि स्थूल पापों से विरत होता है किन्तु स्थावर जीवों की हिंसादि सूक्ष्म पापों से अविरत ही रहता है। विकास क्रम की यह पांचवीं श्रेणी नैतिक आचरण की प्रथम सीढ़ी है जहाँ से साधक नैतिकता के पथ पर चलना प्रारम्भ करता है। चतुर्थ गुणस्थान में वह सचि- अनुति को गारो हुए भी चारित्र के मार्ग पर आरूढ़ नहीं हो पाता, जबकि पंचम गुणस्थान में यथाशक्ति सम्यक् आचरण का प्रयास प्रारम्भ कर देता है। देशविरति का अर्थ है वासनामय जीवन से आंशिक रूप में नित्ति। इसमें वह यथाशक्ति अहिंसा, सत्य, अचौर्य आदि अणुव्रतों को ग्रहण करता है। ६. प्रमत्तसंयत गुणस्थान- जब उक्त सम्यक-दृष्टि जीव के प्रत्याख्यानीय (नियंत्रणीय) कषायचतुष्क का उपशम या क्षयोपशम हो जाता है तब वह स्थूल एवं सूक्ष्म सभी हिंसादि पापों का त्याग कर महाव्रतों को अर्थात् सकल संयम को धारण करता है। फिर भी संज्वलन कषाय और नोकषाय का उदय होने से प्रमाद तो बना ही रहता है। ऐसे साधकों में क्रोधादि कषायों को बाह्य अभिव्यक्ति का तो अभाव हो जाता है, यद्यपि आन्तरिक रूप में एवं बीज रूप में वे बनी रहती हैं अत: यदा-कदा क्रोधादि कषायवृत्तियाँ उनके अन्तर मानस को झकोरती रहती हैं। ऐसी दशा में भी साधक अशुमाचरण और अशुभ मनोवृत्तियों पर पूर्णत: विजय प्राप्त करने के लिए दृढ़तापूर्वक आगे बढ़ने का प्रयास करता है। जबजब वह कषाय आदि प्रमादों पर विजय प्राप्त कर लेता है तब-तब वह आगे के गुणस्थान (अप्रमत्तसंयत गुणस्थान) में चला जाता है और जब-जब कषाय आदि प्रमाद उस पर हावी हो जाते हैं तब-तब वह पुन: लौट कर इसी वर्ग में आ जाता है। वस्तुत: यह उन साधकों का विश्रान्ति स्थल है जो साधना के पथ पर प्रगति तो करना चाहते हैं लेकिन यथेष्ट शक्ति के अभाव में आगे नहीं बढ़ पाते। अत: इस वर्ग में रहकर विश्राम करते हुए कषायरूपी शत्रुओं को समूल नष्ट करने हेतु शक्ति संचय करते हैं। इस गुणस्थान में बाह्य आचरण की शुद्धि के साथ-साथ भावशुद्धि का प्रयास भी चलता रहता है। इस स्थान में आत्म-कल्याण के साथ-साथ लोक-कल्याण की भावना और तदनुरूप प्रवृत्ति भी होती है। यहाँ आत्मा पुद्गलासक्ति या कर्तृत्व भाव का त्याग Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवसमास कर विशुद्ध ज्ञाता एवं द्रष्टा के स्वरूप में अवस्थित होने का प्रयास तो करता है लेकिन देहभाव या प्रमाद उसमें अवरोध उपस्थित करता है। अत: इस अवस्था में पूर्ण आत्म-जागृति संभव नहीं होती। इसलिए साधक को प्रमाद के कारणों का उन्मूलन या उपशमन करना होता है और जब वह उसमें सफल हो जाता है तब वह विकास की अग्रिम श्रेणी में प्रविष्ट हो जाता है। ७. अप्रपत्तसंयत गुणस्थान--जो व्यक्त और अव्यक्त रूप से समस्त प्रकार के प्रमाद से रहित हैं, साधना के क्षेत्र में महाव्रत तथा मूलगुण और उत्तर गुणों से मण्डित हैं, स्व-पर के ज्ञान से युक्त है जो कषायों को दबाते या उपशम करते हुए या क्षय करते हुए ध्यान में लीन रहता हे वह अप्रमत्तसयत गुणस्थानवत्ती होला हैं। विशेष यहकि पांचवें गुणस्थान से ऊपर के सभी गुणस्थान मात्र मनुष्यों को ही होते हैं और सातवे से ऊपर के सभी गुणस्थान उत्तमसंघनन के धारक तथा मोक्षगामी जीवों को ही होते हैं। सातवें गुणस्थान से ऊपर दो श्रेणियाँ होती हैं- १. उपशमश्रेणी एवं २. क्षपकश्रेणी, सातवें से लेकर बारहवें गुणस्थान तक सभी गुणस्थानों का काल अन्तर्मुहूर्त है। आत्म-साधना में सजग वे साधक ही इस वर्ग में आते हैं, जो देह में रहते हुए भी देहातीत भाव से युक्त हो आत्मस्वरूप में रमण करते हैं। फिर भी दैहिक उपाधियाँ विचलन तो पैदा करती ही हैं, अतः इस गुणस्थान में साधक का निवास मात्र अन्तर्मुहूर्त काल तक ही रहता है। इस गुणस्थान की उपमा घड़ी के पैण्डुलम से या झूले से दी गयी है। संयम या पंचमहाव्रत स्वीकारने के बाद जो आत्मा सतत जागरूक बन आत्मलीन बनता है वह आत्मभावों की निर्मलता के कारण अप्रमत्त गुणस्थान को प्राप्त करता है परन्तु ऐसे साधक को भी संज्वलन कषाय के उदय से बीच-बीच में बाधाएँ आती हैं। बाधा के काल को प्रमत्तसंयत तथा आत्मरमणता के काल को अप्रमत्तसंयत गुणस्थान कहा गया है। जैसे उछाले जाने पर गेंद एक बार ऊपर जाती है पर पुन: नीचे आ जाती है वही स्थिति सातवेंछठे गुणस्थानवती साधकों की है। गुणस्थान आरोहण क्रम में भी तीर्थकर आदि उच्च साधक दीक्षा के समय पहले सातवां गुणस्थान फिर छठा गुणस्थान प्राप्त करते हैं। ८. अपूर्वकरण गुणस्थान- इस गुणस्थानवी जीवों के आध्यात्मिक परिणामों में भिन्नता होती है एवं संज्वलन कषायों का उदय बना रहता है अत: इसे निवृत्ति बादर गुणस्थान कहते हैं यहाँ निवृत्ति का अर्थ मनोभावों का वैविध्य है। इस गुणस्थान में साधक पूर्व में अप्राप्त ऐसे अपूर्व परिणामों (मनोभावों) वाला Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मङ्गलाचरण होता है, अतः इसे अपूर्वकरण भी कहते हैं। इन अपूर्व परिणामों में स्थित जाव मोहकर्म का क्षय या उपशम करने को उद्यत होता है। इस अवस्था में साधक अधिकांश वासनाओं से मुक्त होता है। यद्यपि इस नवें गुणस्थान में अवशिष्ट वासनारूपी शत्रुओं पर भी विजय प्राप्त कर ली जाती है फिर भी उनका राजा सूक्ष्म लोभ छद्म रूप से बच निकलता है। अग्रिम दसवें गुणस्थान में उस पर विजय प्राप्त करने का प्रयास किया जाता है। चूँकि वह विजय यात्रा दो रूप में चलती है, एक तो शत्रु सेना को नष्ट करते हुए आगे बढ़ता है तथा दूसरा उसे उपशमित करते हुए, दबाते हुए आगे बढ़ता है। इन्हें क्रमशः क्षायिक एवं औपशमिक श्रेणी कहते हैं। उपशमित विजय यात्रा विशेष लाभकर नहीं होती हैं, क्योकि समय पाकर वासनारूपी शत्रु-सैनिक पुनः एकत्रित होकर उस विजेता आत्मा पर आक्रमण कर उसे पराजित कर देने हैं। वह ग्यारहवे गुणस्थानवती उपशान्त मोह को अवस्था है जहाँ से साधक पतित हो जाता है लेकिन जो विजेता शत्र सेना का निर्मल करता हुआ आगे बढ़ता है वह अन्त में माह रूपी शत्रु पर पूर्ण विजय को प्राप्त कर लेता हैं। यह अवस्था क्षीणमोह नामक बारहवें गणस्थान में प्राप्त होता है। चारित्रमोह के उपशमन या क्षय में उद्यत. अपूर्वकरण से युक्त साधक इस गुणस्थान में अपूर्व प्रक्रियाओ से जुड़ता है- इन प्रक्रियाओं को जैन पारिभाषिक शब्दों में- १. स्थितिघात, २. रसघात, ३. गुणश्रेणी, ४. गुण-संक्रमण और ५. अपूर्वस्थितिबंध कहा गया है। बंधनों से बंधा हुआ कोई भी व्यक्ति बंधनो के शिथिल या जीर्ण-शीर्ण होने पर प्रसन्नता का अनुभव करता है। साथ ही पूर्व में वह जिन बंधनो को स्वशक्ति से तोड़ने में असमर्थ था अब वह अपनी शक्ति सं उन बधनों को तोड़ने की कोशिश करता है और बंधन- मुक्ति की निकटता से प्रसन्न होता हैं। ठीक इसी प्रकार अधिकांश बंधनों के नाश होने पर भावो की विशुद्ध रूप अपूर्व आनन्द की अनुभूति करता है तथा शेष कमों को नष्ट करने का प्रयास करता है और इस प्रयास में स्थितिधात (कर्मों की स्थिति में कमी) रसधात (कर्मों की तीव्रता में कमी), गुण-श्रेणी (कर्म दलिकों का अपने ढंग से आयोजन), गुण-संक्रमण (कर्मप्रकृतियों का अपने ढंग से संयोजन) और अपूर्व स्थितिबंध (अल्पतम स्थिति का बंध) आदि की प्रक्रिया करता है। इस अवस्था में साधक मुक्ति को अपने अधिकार क्षेत्र की वस्तु मान लेता है और उसकी प्राप्ति का प्रयास करता है। .९. अनिवत्तिकरण गुणस्थान- इस गणस्थान मे अवस्थित जीवों के परिणामों की अपेक्षा परस्पर निवृत्ति (भेद या भिन्नता) न होने से इसे अनिवृत्ति करण गुणस्थान कहते हैं। इस गुणस्थान में जीवों का परिणाम प्रति समय एक सा होता है। यहाँ साधक सूक्ष्म लोभ को छोड़ चारित्रमोह की शेष सभी कर्म Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ जीवसमास प्रकृतियों को अतिविमल ध्यान रूप अग्नि से जला डालते हैं या फिर उन्हें उपशमित कर देते हैं। साधक के कामवासनात्मक भाव जिन्हें जैन परिभाषा में 'वेद' कहा जाता हैं, उनका भी यहाँ उन्मूलन हो जाता है। १०. सूक्ष्मसम्पराय गुणस्थान- जिस प्रकार कोसुंभ भीतर से अत्यल्प लालिमा वाला होता हैं उसी प्रकार सूक्ष्मराग सहित जीव को सूक्ष्मसम्पराय गुणस्थानवर्ती जानना चाहिए। इसमें उपशम एवं क्षायिक दोनों ही श्रेणी वाले जीव होते हैं। उपशम श्रेणी वाला जीव सूक्ष्म लोभ का उपशम कर ग्यारहवें गुणस्थान में पहुँचता है और क्षपक श्रेणी वाला उसका क्षय करके बारहवें गुणस्थान में पहुँचता है। यहाँ सम्पराय से आशय कषाय से हैं। डॉ० नथमल टाटिया के शब्दों में आध्यात्मिक विकास की उच्चता में रहे हुए इस सूक्ष्म लोभ की व्याख्या अववेतन रूप में शरीर के प्रति रहे हुए राग के अर्थ मे की जा सकती है। ११. उपशान्तमोह गुणस्थान- कतकफल सहित जल अथवा शरद्काल में सरोवर में मिट्टी आदि के तली में बैठ जाने के कारण जिस प्रकार पानी निर्मल प्रतीत होता है उसी प्रकार जिसका सम्पूर्ण मोहकर्म सर्वथा उपशान्त हो गया हैं ऐसा जीव अत्यन्त निर्मल परिणाम वाला होता है । इस गुणस्थान का काल अत्यल्प अर्थात् अन्तर्मुहूर्त होता है। इसके समाप्त होते ही वह नीचे गिरता हुआ सातवें गुणस्थान को प्राप्त होता हैं यदि उसका संसार परिभ्रमण शेष हैं तो वह मिथ्यात्व गुणस्थान तक भी पहुँच जाता है। ऐसी आत्मा पुनः प्रयास से प्रगति कर आगे बढ़ सकती हैं। उपशमन या दमन के द्वारा आध्यात्मिक उत्कर्ष की यह चरम सीमा है। परन्तु उपशमन या दमन साधना का सच्चा मार्ग नहीं है, क्योंकि उसमें स्थायित्व नहीं होता। दुष्ट प्रवृत्तियों को दबा देने या उपशमित कर देने से वे निर्मूल नहीं होतीं अपितु द्विगुणित वेग से विस्फोट करती हैं। अतः यहाँ से साधक का पतन अवश्यम्भावी है, निश्चित है। इसको उपमा राख में दबी हुई अग्नि अथवा पानी में नीचे बैठी हुई मिट्टी के समान है जो कभी भी समय पाकर प्रकट हो सकती है। गीता कहती है कि दमन में विषयों का निवर्तन तो हो जाता है परन्तु वृत्तियों का निवर्तन नहीं होता । वृत्तियों के निर्मूल न होने से कुसंस्कारों के पुनः प्रकट होने की सम्भावना बनी रहती हैं। १२. क्षीणमोह गुणस्थान - मोहकर्म के सम्पूर्णत: क्षय हो जाने से जिसका चित्त स्फटिक के भाजन में रखे हुए स्वच्छ जल के समान निर्मल हो गया है, ऐसे वीतराग साधक को क्षीण कषायी कहा गया है। जिस प्रकार निर्मली ( कतकफल), फिटकरी आदि से स्वच्छ किये हुए जल को स्फटिक के भाजन में Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मङ्गलाचरण १५ छानकर, निकाल कर रखने से उसके पुनः दूषित होने का भय नहीं रहना हैं अथवा जिस प्रकार अग्नि को जल से पूर्णतः बुझा देने के बाद उसके पुनः प्रकटन का कोई भय नहीं रहता ठीक उसी प्रकार इस गुणस्थान मे पहुँचे जीव को किसी प्रकार के पतन का भय नहीं रहता है। यह नैतिक विकास की पूर्ण अवस्था है। यहाँ पहुँचने पर साधक की साधना को विराम मिल जाता है। इस गुणस्थान में व्यक्ति सहज रूप से ज्ञानावरण की पाँच, दर्शनावरण की नौ तथा अन्तराय की पाँच— कुल उन्नीस कर्म प्रकृतियों को क्षय करके केवलदर्शन और केवलज्ञान को प्राप्त कर तेरहवें गुणस्थान में पहुँच जाता है। १३. सयोगीकेवली गुणस्थान- केवलज्ञान रूपी दिवाकर (सूर्य) की किरणों के समूह से जिनका अज्ञानरूपी अन्धकार सर्वथा नष्ट हो गया हैं, जिन्होंने नौ केवललब्धियों के उद्गम से "परमात्मा" रूपी संज्ञा को प्राप्त कर लिया है। ऐसे योग युक्त भगवान को सयोगी जिन कहा गया है। केवली को राग-द्वेष नहीं होता अतः उनके नवीन कर्मों का बन्ध भी नहीं होता । मात्र योग के कारण उन्हें ईर्यापथिक आस्रव और बन्ध होता है, जो तत्काल ही निर्जरित होता रहता है। जिस प्रकार सूखी भित्ति पर आकर लगी हुई बालू तत्क्षण झड़ जाती हैं, उसी प्रकार योग के सद्भाव से आये हुए कर्म परमाणु भी कषाय के अभाव में तत्काल झड़ जाते हैं। ये सयोगी जिन धर्मदेशना देते हुए जन-कल्याण करते हैं। इस गुणस्थान वाले व्यक्ति को कृतकृत्य हो जाने से साधक नहीं कहा जा सकता, किन्तु चार घाती कर्म क्षय हो जाने पर भी चार अघातो कर्म शेष रहने से उन्हें सिद्ध भी नहीं कहा जा सकता हैं। यहाँ बंधन के पाँच कारणों में से १. मिध्यात्व २. अविरति ३ प्रमाद तथा ४ कषाय इन चार के समाप्त होने पर भी मन-वचन और काय की प्रवृत्तिरूप पाँचवा कारण योग शेष रहता है। इसीलिए इन्हें सयोगी- जिन, अर्हत्, सर्वज्ञ, वीतराग एवं केवली कहा जाता है। इस अवस्था की तुलना वेदान्त की जीवन्मुक्ति या सदेहमुक्ति की अवस्था से की जा सकती है। १४. अयोगी केवली - जो जीव शैलेशी अवस्था को प्राप्त हुए हैं अर्थात् शैल (पर्वत) के समान स्थिर योग वाले हैं, मन, वचन एवं काय की प्रवृत्तियोंयोगों के निरुद्ध कर देने से जिनका आस्रव सर्वथा रुक गया है, जो कर्मरज से विप्रमुक्त हैं और योग से रहित हो चुके हैं ऐसे भगवान को अयोगी केवली Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ जीवसमास कहते हैं। इस गुणस्थान का काल अ, इ, उ, ऋ, लृ इन पाँच ह्रस्व अक्षरों के उच्चारण में लगने वाले काल के समान होता है। प्रारब्ध कर्म भोगे बिना छुटकारा नहीं, इस कारण जब जीवन का अन्तिम समय निकट होता है अर्थात् अन्तर्मुहूर्त शेष रहता है तो आवश्यकता पड़ने पर केवली पहले समुद्घात करते हैं फिर शैलेशीकरण कर योग निरोधकर मोक्ष को प्राप्त करते हैं। यही सर्वांगीण पूर्णावस्था है, जिसे मोक्ष, मुक्ति, निर्वाण, सिद्धि, शिवपद और परमात्मावस्था कहा गया है। अष्ट कर्मों के नष्ट होने से जीव अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, वीतरागता, अनन्तवीर्य अव्याबाधसुख, अक्षयस्थिति, अमूर्तता, अगुरुलघुता आदि आठ गुणों को प्राप्त करता है। गुणस्थानातीत सिद्धों का स्वरूप- जो अष्टविध कर्मों से रहित हैं, अत्यन्त शान्तिमय हैं, निरंजन हैं, नित्य हैं, क्षायिकसम्यक्त्वादि आठ गुणों से युक्त हैं. कृतकृत्य हैं और लोक के अग्रभाग पर निवास करते हैं, वे सिद्ध कहलाते हैं। सम्यग्दृष्टि के लिए जो असंयत विशेषण दिया गया है वह अन्तदीपक है। वह अपने से नीचे के सभी गुणस्थानों के असंयत्तपने का निरूपण करता है तथा जो सम्यग्दृष्टि शब्द है वह ऊपर के समस्त गुणस्थानों में पाया जाता है। प्रमत्त शब्द भी अन्तदीपक है इसलिए वह छठे से पूर्व सभी गुणस्थानों में प्रमाद के अस्तित्व को सूचित करता हैं अर्थात् छठे गुणस्थान तक जीव प्रमत्त हैं उसके ऊपर सातवें गुणस्थान से सब अप्रमत्त हैं। बादर पद भी अन्तदीपक है वह पूर्ववतीं समस्त गुणस्थानों के बादर होने का निर्देश करता है। छद्यस्थ पद को भी इसी प्रकार से जानना चाहिए। सयोगी पद भी अपने से नीचे के सभी गुणस्थानों को सयोगी प्रतिपादित करता है। अयोगी के भेद दुविहा होति अजोगी सभवा अथवा निरुद्धजोगी ब । इह सभवा अथवा उण सिद्धा जे सव्वभवमुक्का ।।१०।। गाथार्थ - जिन्होंने अपने योगों को निरुद्ध कर लिया ऐसे अयोगी केवली दो प्रकार के होते हैं-- १. समय अयोगी तथा २. अभव अयोगी। इसमें सभव अयोगी सिद्धत्व से कुछ न्यून होते हैं क्योंकि योग निरोध कर लेने पर भी अभी शरीर युक्त होने से संसार में हैं। जो सभी प्रकार से भव (संसार) से मुक्त हैं वे अभवसिद्ध होते हैं। १. प्रस्तुत विवेचन 'पञ्चसंग्रह और डॉ. सागरमल जैन के ग्रन्थ "जैन, बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन के आधार पर किया गया है। Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७ मंगलाचरण विवेचन-प्रस्तुत गाथा में अयोगी के दो प्रकर बताये गये है- १. सशरीरी (सभव) २. अशरीरी (अभव)। चौदहवें गुणस्थानवी जीव सशरीरी अयोगी होते हैं। वे देह त्यागकर अभी सिद्ध नहीं बने हैं। उन्हें सिद्ध बनने मे अ, इ, उ, ऋ, लू के उच्चारण में जितना समय लगता है उतना काल शेष रहता है। योग निरोध कर लेने पर भी उन्हें सिद्ध से कुछ कम योग्यता वाला माना गया है। जिन्होंने शरीर का त्याग कर अष्टकर्म को नष्ट कर दिया है तथा जो सिद्ध-शिला पर पहुंच गये हैं ऐसे अयोगी सिद्ध को प्रस्तुत गाथा में अभव-अयोगी संज्ञा से अभिहित किया गया है। अन्न, यहाँ पर नाद योगी के भी दो सपव अयोगी तथा अभव अयोगी के रूप में बताये गये हैं। Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्पदप्ररूपणा-द्वार १. गति मार्गणा निरयगई तिरि मणुया देवगा चेव होइ सिद्धि गई । नेइया उण नेया सप्तविहा पुढविभेएण।।११।। ___गाथार्थ- १. नरकगति, २. तिर्यञ्चगति, ३. मनुष्यगति, ४. देवगति तथा ५. सिद्धगति- ऐसी पाँच गतियाँ होती हैं। पृथ्वियों (नरकों) के भेद से नरक गति भी सात प्रकार की है। विवेचन- सामान्यतः गतियाँ चार ही मानी जाती हैं किन्तु यहाँ सिद्धगति को सम्मिलित करके पाँच गतियाँ बताई गई हैं। संसारी जीवों की अपेक्षा से तो गतियाँ चार ही हैं, पांचवीं गति के अधिकारी तो मात्र सिद्ध हैं। नरक गति यम्मा वंसा सेला होइ तहा अंजणा य रिहाय । मघवत्ति माधवत्ति प पुढवीणं नामधेयाई।।१२।। रयणप्पभा य सक्करबालुयपंकप्पभा य धूमपहा। होइ तम तम-तमाधिय पुढवीणं नामगोत्ताई ।।१३।। गाथार्थ-१. धम्मा, २. वंशा, ३. शैला, ४. अञ्जना, ५. रिटा, ६. मघवा और ७. माघवती नाम वाली (सात) पृथ्वियाँ (नरक) हैं। इन पृध्वियों के १. रत्नप्रभा, २. शर्कराप्रमा, ३. बालुकाप्रभा,४. पंकप्रमा, ५, धूमप्रभा, ६. तमःप्रभा, ७, तमस्तमप्रभा- ये सात गोत्र (विशेषता) जानने चाहिए। विवेचन- रत्नों के प्रकाश को प्रभा कहते हैं। जिस नरक में प्रकाश रत्न के प्रकाश के समान हो उसे रत्नप्रभा नाम दिया गया है। जिसमें शर्करा कणों के समान कान्ति है, उसे शर्कराप्रभा नाम दिया गया है। इसी तरह क्रमश: सभी नरकों के विषय में जानना चाहिए। तिर्यझगति तिरियगईया पंचिंदिया य पज्जसया तिरिक्खीओ। तिरिया य अपज्जत्ता मनुया पजस इयरे य ।।१४।। Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्पदप्ररूपणाद्वार गाथार्थ-तिर्यञ्चगति में उत्पन्न होने वाले एकेन्द्रिय से लेकर पञ्चेन्द्रिय तक के जीव तिर्यश्च कहे जाते हैं। इनमें भी संज्ञीपश्चेन्द्रियतिथंच एवं तिर्यश्चिणियाँ पर्याप्त तथा अपर्याप्त ऐसे दो प्रकार के होते हैं। इसी प्रकार मनुष्य भी पर्याप्त तथा अपर्याप्त ऐसे दो प्रकार के होते हैं। विवेचन-- मनुष्यों के अतिरिक्त एकेन्द्रिय से लेकर पश्चेन्द्रिय पर्यन्त सभी प्राणी तिर्यञ्च कहलाते हैं। इनमें पञ्चेन्द्रियसंज्ञीतिर्यञ्च (पशु-जगत् के) जीवों में तिर्यञ्च तथा तिरियञ्चिनी अर्थात पुरुष तथा स्त्रो का पर्याय भेद होता है। ___ मनुष्यों में भी मात्र संज्ञीमनुष्यो में स्त्री-पुरुष का पेद होता है, सम्मूछिम मनुष्यों में नहीं। मनुष्यगति ते कम्मभोगभूमिय अंतरदीवा य खितपविभत्ता। सम्मुच्छिमा य गम्भय आरिमिलक्खुसि य सभेया ।।१५।। ___गाथार्थ- ये मनुष्य भी कर्मभूमिज, भोगभूमिज तथा अन्तरद्वीपज के रूप में क्षेत्रों के आधार पर प्रविभक्त किये गये हैं। ये सम्मूच्छिम और गर्भज तथा आर्य और म्लेच्छ भेद वाले भी होते हैं। विवेचन- मनुष्यों का यह त्रिविध विभाजन तीन प्रकार की भूमियों में उत्पत्र होने की अपेक्षा से किया गया है। १. कर्मभूमि-जहाँ व्यक्तियों को कर्म करने से ही भोग-उपभोग की सामग्री प्राप्त होती है अर्थात् जहाँ असि, मसि और कृषि से जीवन व्यवहार चलता है, ऐसी कर्मभूमियाँ पन्द्रह है- पाँच भरत, पाँच ऐरावत तथा पाँच महाविदेह। इन कर्मभूमियों से जीव मोक्ष-मार्ग की साधना करके मोक्ष जा सकते हैं तथा इन्हीं में तीर्थंकर, चक्रवर्ती, वासुदेव, बलदेव आदि शलाका पुरुष जन्म लेते हैं। इन भूमियों से पाँचों. गतियों में जाना सम्भव है। महाविदेह क्षेत्र सदा कर्मभूमि के रूप में रहता है। शेष भरत, ऐरावत क्षेत्रों में कभी कर्मभूमि होती है और कभी मांगभूमि होती है। २. अकर्मभमि (भोगभूमि)-भोगमि को अकर्मभूमि भी कहा जाता है। जहाँ व्यक्ति बिना कर्म किये ही अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति कर लेता है, जहाँ अति-मसि-कृषि आदि का व्यवहार नहीं होता तथा मानव कल्पवृक्ष के द्वारा ही अपना जीवनयापन करता है। जहाँ मनुष्य युगल के रूप में जन्म लेता है और साथ ही मरण प्राप्त करता है। ऐसी अकर्मभूमियों या भोगभूमियाँ तीस हैं। पाँच हिमवन्त, पाँच हरिवर्ष, पाँच देवकुरु, पाँच उत्तरकुरु, पाँच रम्यक् तथा पाँच हैरण्यवत्। अकर्म भूमि से मरकर मनुष्य देवगति में ही जाते हैं। Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवसमास विशेष - भरत तथा ऐरावत क्षेत्र में अवसर्पिणी के प्रथम तीन आरों से कुछ कम तथा उत्सर्पिणी के अन्तिम तीन आरों से कुछ कम समय- अकर्मभूमि के रूप में ही होता हैं। इस अवसर्पिणी काल में भरत क्षेत्र में सर्वप्रथम ऋषभदेव के समय से असि मसि - कृषि (कर्म) की व्यवस्था प्रारम्भ हुई थी, उससे पूर्व यह क्षेत्र अकर्मभूमि थी। २० ३. अन्तरद्वीप -- ये द्वीप लवण समुद्र के अन्दर होने से अन्तरद्वीप कहलाते हैं। लवण समुद्र में चारों ओर हाथी दाँत तुल्य दो-दो दाढाए हैं। इस प्रकार चार तरफ दो-दो दादा होने से कुल आठ दाढाएँ होती है। एक-एक दादा में सात-सात द्वीप होने से छप्पन (८४७= ५६ ) अन्तरद्वीप होते हैं। गर्भज - स्त्री और पुरुष के संयोग से उत्पन्न होने वाले जीव गर्भज कहे जाते हैं। आर्य- आर्य क्षेत्र अर्थात् जहाँ तीर्थंकर आदि का जन्म होता है और उनके द्वारा धर्म-प्रवर्तन होता है- ऐसे क्षेत्रों को आर्यक्षेत्र कहते हैं ऐसे क्षेत्रों मे जन्म लेने वाले मनुष्य आर्य कहलाते हैं। ये आर्य भी नौ प्रकार के हैं- १. क्षेत्र - आर्य, २. जाति - आर्य, ३. कुल-आर्य, ४. कर्म आर्य, ५. शिल्प-आर्य, ६. भाषा - आर्य, ७. ज्ञान - आर्य, ८. दर्शन-आर्य और ९ चारित्र- आर्य आर्य अर्थात् सुसंस्कारित । प्रज्ञापनासूत्र (पृ. १०२) में निम्न २५ ई देशों के निवासी "क्षेत्रआर्य" कहे गये हैं राजधानी १. २. ३. ४. देश मगध अंग बंग कलिंग काशी कोशल राजगृह चम्पा ताम्रलिप्ति कंचनपुर वाराणसी साकेत अयोध्या हस्तिनापुर शौरीपुर ५. ६. ७. कुरु ८. कुशार्त ९. पंचाल १०. जांगल ११. सौराष्ट्र १२. विदेह २५. लाठ २५ केकयार्द्ध श्वेताम्बिका काम्पिल्यपुर अहिच्छत्रा द्वारिका मिथिला कोटिवर्ष देश १३. वत्स १४. शांडिल्य १५. मलय १६. मत्स्य १७. वरण १८. दशार्ण १९. चेट्टीदेश २०. सिंधु - सौवीर २१. शूरसेन २२. भंग २३. परिवर्त २४. कुणाल राजधानी कौशाम्बी नंदीपुर भद्दिलपुर वैराट आच्छा मृत्तिकावती शुलिपति वीतभयपत्तन मथुरा पावापुरी मासापुरी श्रावस्ती Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनानारूपानाहा इनके अतिरिक्त महाविदेह क्षेत्र में विजयों के मध्य खण्डवर्ती क्षेत्र आर्य देश जानना। (क्षेत्र-आर्य के अतिरिक्त अन्य आर्यों की जानकारी हेतु देखेंप्रज्ञापनासूत्र- प्रश्न १०३ से प्रश्न १३८ तक) अनार्य या म्लेच्छ- धर्म के स्वरूप को नहीं जानने वाले भक्ष्याभक्ष्य एवं कृत्याकृत्य को नहीं समझने वाले अनार्य या म्लेच्छ कहे जाते हैं। ये म्लेच्छ शक, यवन, शबर, बर्बर, किरात आदि देश में जानना। ये कठोर निर्दयी, धर्मरहित रौद्र परिणामी होते है। (विस्तार हेतु देखें- प्रज्ञापनासूत्र -प्रश्न ९८) आर्य-अनार्य का यह भेदमात्र कर्मभूमि में है भोगभूमि में नहीं। अकर्मभूमि के समान ही ५६ द्वीप में रहने वाले मनुष्य भी १० प्रकार के कल्पवृक्षों से ही अपने इष्ट पदार्थों को प्राप्त करते हैं। इन द्वीपों में रहने वाले मनुष्य बज्रऋषभनाराच सङ्घनन वाले, समचतुस संस्थान वाले एवं देवतुल्य लावण्य वाले होते हैं। ये मनुष्य स्वभाव से भद्र, विनयी, प्रशान्त, अल्पकषायी, अल्प इच्छावाले, अल्प ममत्ववाले, वेदनारहित, एक दिन के अन्तर से आहार करने वाले होते हैं तथा एक युगल को जन्म देकर ७९ दिन पालन करके देवलोक को प्राप्त करते हैं। __ भोग भूमि में जन्म लेने वाले पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च भी अवर स्वभाव वाले होते हैं। वे भी मरकर देवलोक में जाते हैं। इन द्वीपों में विकलेन्द्रियों का सर्वथा अभाव होता है। (विस्तृत विवेचन हेतु देखें- जीवाजीवाभिगमसूत्र) अकर्मभूमियों व अन्तरद्वीपों का कोष्ठक स्थान देहमान | आयुष्य आहारदिन आहार परिमाण |पसली | अपत्य पालन ५६ अन्तरद्वीप ०० धनुष बल्योपम का एक दिन के आंवले के ४ ०९दिन असंख्यमाग अन्तराल से बराबर हिमवन्त, हिरण्यवंत ५ गाउ |१ पल्यापम |एक दिन के आंवले के ६४ ७९दिन अन्तराल से बराबर हरिवर्ष, रम्यक् वर्ष| २ गाउ २ पल्योपम | दो दिन के बेर के १२८ ६४दिन अन्तराल से बराबर देवकुरु, उत्तरकुरु . इ गाउ | ३ पल्योपम | तीन दिन के | तुअर के २५६ ४९दिन अन्तगल से | दाने के बराबर सम्भूसिम मनुष्य-प्रज्ञापनासूत्र– प्रश्नसंख्या-९५ में यह पूछा गया है कि- भगवन्। सम्मूछिम मनुष्य कैसे होते हैं? वे कहाँ उत्पन्न होते हैं? उत्तर में भगवान ने कहा हे गौतम! मनुष्य क्षेत्र के अन्दर, पैंतालीस लाख योजन विस्तृत द्वीप-समुद्रों में, पन्द्रह कर्मभूमियों में, तीस अकर्मभूमियों में एवं छप्पन अन्तरद्रोपों Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवसमास में गर्भज मनुष्य के १. माल (विष्टा) २ पेशाब, २ कफ. ४, नाक का मैल, ५, वमन (उल्टी), ६. पित्त, ७. मवाद, ८, रक्त ९. शुक्र (वीर्य) १०. सूखे हुए शुक्र के पुद्गल के गीला होने पर, ११. मृत कलेवर १२. स्त्री पुरुष के संभोग, १३. नगर की नालियों तथा १४. समस्त अशुचि स्थानों में स्वतः (बिना गर्भ के) सम्मच्छिम मनुष्य पैदा होते हैं। सम्मूछिम मनुष्य एक साथ असंख्य उत्पन्न होते हैं तथा वैसे ही मर जाते हैं। इनकी आयु अन्तर्मुहूर्त एवं देह अंगुल के असंख्यातवें भाग जितनी होती है। ये नियम से असंज्ञी तथा अपर्याप्त ही होते हैं। देवगति देवा य भवणवासी वंतरिया जोइसा य वेमाणी । कप्योवगा य नेया विज्जाणुतरसुराय ।।१६।। गाथार्थ-भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिष्क तथा वैमानिक देव कल्पोपपन्न हैं। प्रैवेयक तथा अनुत्तरविमानों के देव कल्पातीत कहे जाते हैं। विवेचन- इस गाथा में देवों के चार प्रकार बताये गये हैं। भवनपति.. दस प्रकार के भवनपतियों के नाम आगे गाथा में बताये गये हैं। ये देव जम्बूद्वीपवर्ती सुमेरुपर्वत के नीचे उसके दक्षिण और उत्तरमाग में तिरछे अनेक लक्ष योजन तक रहते हैं। असुरकुमार प्राय: आवासों में और कभी भवनों में बसते हैं तथा नागकुमार आदि सब प्रायः भवनों में ही बसते हैं। इनके आवास रत्नप्रभा पृथ्वी के ऊपर-नीचे के एक-एक हजार योजन को छोड़कर बीच में एकलाख अठहतर हजार (१,७८,०००) योजन के भाग में सब जगह हैं पर भवन तो रत्नप्रभा के नीचे नब्बे हजार योजन के भाग में ही होते हैं। इनके आवास बड़े मण्डप जैसे तथा भवन नगर के समान होते हैं। भवन बाहर से गोल भीतर से समचतुष्कोण और तल में पुष्करकर्णिका के समान होते हैं। ये देव क्रीड़ा-प्रिय तथा दिखने में मनोहर होते हैं। व्यन्तर-सभी व्यन्तर, देव ऊर्ध्व, मध्य और अधः तीनों लोकों में विविध गिरि-कन्दराओं, शून्यगृहों, वृक्षों, वापिकाओं तथा वनों के अन्तराल में निवास करते हैं। इसी कारण उन्हें व्यन्तर कहा जाता है। व्यन्तरों के आठ भेद आंगे गाथा में बताये गये हैं। सामान्यत: भूत, प्रेत आदि की गणना व्यन्तर जाति के देवों में की जाती हैं। ज्योतिष्क-मेरु के समतल भू-भाग से सात सौ नब्ने योजन की ऊँचाई पर ज्योतिषचक्र का क्षेत्र आरम्भ होता है। आठ सौ योजन की ऊँचाई पर सूर्य के विमान हैं। सूर्य विमान से अस्सी योजन की ऊँचाई पर अर्थात् तल से आठ सौ अस्सी योजन की ऊँचाई पर चन्द्र के विमान हैं। यहाँ से बीस योजन अर्थात् Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्पदाप्ररूपणाद्वार तल से नौ सौ योजन की ऊंचाई पर ग्रह, नक्षत्र और तारागण हैं। मनुष्य लोक के ज्योतिष्क सदा मेरु के चारो ओर भ्रमण करते रहते हैं। मनुष्य लोक में एक सौ बत्तीस सूर्य तथा इतने ही चन्द्र है। मनुष्य लोक से बाहर के सूर्य, चन्द्र आदि ज्योतिष्क देवों के विमान स्थिर हैं और संख्या में असंख्यात हैं। वैमानिक- वैमानिक देवी के दो भेद हैं (अ) कल्पोपपन्न तथा (ब) कल्पातीत। कल्प अर्थात् एक प्रशासनिक व्यवस्था के अधीन रहने वाले कल्पोपपन्न तथा प्रशासनिक व्यवस्था से परे रहने वाले कल्पातीत कहलाते हैं। इन वैमानिक देवों के विमान एक दूसरे के ऊपर-ऊपर स्थित है। सौधर्म से अच्युतकल्प तक के देव कल्पोपपन्न हैं और इनसे ऊपर के सभी देव कल्पातीत हैं। कल्पोपपन्न देवों में स्वामो-सेवक भाव होता है, किन्तु कल्पातीत में नहीं। कल्पातीत देव भी दो प्रकार के हैं (अ) प्रैवेयक तथा (ब) अनुत्तर। जो चौदह रज्जुप्रमाण लोकपुरुष के ग्रीवा प्रदेश में हैं, वे ग्रेवेयक देव हैं। इनकी संख्या नौ है तथा ये देवगति से तो मनुष्य गति में हो उत्पन्न होते हैं किन्तु कालान्तर में चारों गति के अधिकारी हो सकते हैं क्योंकि नववेयक तक अभव्य जीव भी जा सकते हैं। अभव्य जीव कभी मोक्ष के अधिकारी न होने से वे चारों गतियों में भ्रमण करते रहते हैं। इनसे ऊपर वाले देव अनुत्तरविमानवासी हैं, जिनकी संख्या पाँच है। इनमें सर्वार्थसिद्ध विमानवासी देव एक भवतारी होते हैं तथा शेष चार अनुत्तर विमानवासी देव दो या तीन भव करके नियमत: मोक्ष जाते हैं। पवनपति देवों के मेद असुरा नागसुवन्ना दीवोदहिथणियविजुदिसिनामा । वायग्गिकुमाराविय दसेव मणिया भवणवासी ।।१७।। गाथार्थ- १. असुरकुमार, २. नागकुमार, ३. सुवर्णकुमार, ४. द्वीपकुमार, ५. उदधिकुमार, ६. स्तनितकुमार, ७. विद्युतकुमार, ८. दिशिकुमार, ९.वायुकुमार और १० अग्निकुमार- ये भवनवासी देवों के दस प्रकार कहे गये हैं। व्यन्तरों के भेद किंनरपुिरिसमुहोरगा य गंधव्य रखसा जम्खा । भूया य पिसायाविय अविहा वाणमंतरिया ।।१८।। गाथार्थ-- १. किन्नर, २. किंपुरुष, ३. महोरग, ४. गन्धर्ष, ५. राक्षस, ६. यक्ष, ७. भूत तथा ८. पिशाच- ये वाणव्यन्तर देवों के आठ प्रकार हैं। विशेष- किनर दस प्रकार के, किंपुरुष दस प्रकार के, महोरग दस प्रकार Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ जीवसमास के, गन्धर्व बारह प्रकार के, राक्षस सात प्रकार के, यक्ष तेरह प्रकार के, भूत नौ प्रकार के तथा पिशाच पन्द्रह प्रकार के होते हैं। ज्योतिष्क ' चंदा सूरा व गहा नक्खत्ता तारगा य पंचविहा जोई सिया नरलोए गहरयओ संठिया सेसा ।। १९ ।। गाथार्थ - सूर्य, चन्द्र, ग्रह, नक्षत्र तथा तारे-ये पाँच प्रकार के ज्योतिष्क देव मनुष्य लोक में तो गतिशील हैं, किन्तु मनुष्य लोक से आगे सभी सूर्य चन्द्र स्थित हैं। वैमानिकों के भेद- सोहम्मीसाणसणं कुमारमाहिंदबंभलंतयया I सुक्क सहस्साराणयपाणय तह आरणच्यया ।। २० ।। हेडिममज्झिमउवरिमगेविज्जा तिण्णि तिथिण तिष्णेव । सव्वविजयविजयंतजयंत अपराजिया अवरे । । २१ । । गाथार्थ - १. सौधर्म, २. ईशान, ३. सनत्कुमार, ४ माहेन्द्र, ५. ब्रह्म, ६. लान्तक, ७. शुक्र, ८. सहस्रार, ९ आनंत १० प्राणत, ११. आरण तथा १२. अच्युत - ये बारह प्रकार के वैमानिक कल्पोपपत्र हैं। अधोग्रैवेयक, मध्यमैवेयक एवं ऊर्ध्वमैवेयक इन तीनों स्थानों में ( समानान्तर रूप से) तीन-तीन अर्थात् कुल नौ ग्रैवेयक हैं। विजय, वैजयन्त, जयन्त, अपराजित एवं सर्वार्थसिद्ध – ये पाँच अनुत्तर विमान हैं। इन ग्रैवेयकों तथा अनुत्तरविमानों के निवासी देव कल्पातीत कहे जाते हैं। विवेचन – कल्पोपपन्न एवं कल्पातीत की परिभाषा तत्त्वार्थसूत्र केटीकाकारों ने इस प्रकार से दी है— विमानेषु भवा वैमानिकाः । कल्पोपपन्ना इन्द्रादिदशतया कल्पनात् कल्पाः सौधर्मादयोऽच्युतान्ताः तेषूपपन्ना कल्पोपपन्नाः । कल्पानतीता: कल्पातीताः उपरिष्टाः सर्वे ग्रैवेयकविमानपंचकाधिवासिनः । ( तत्त्वार्यसूत्र ४ / १७ - १८ टीका सिद्धसेनगणि) तत्त्वार्थसूत्र ४ / ३ की सर्वार्थसिद्धि टीका में पूज्यपाद देवनन्दी कहते हैंकल्प इस संज्ञा का क्या कारण है? जहाँ इन्द्रादि दस प्रकार के देवों की व्यवस्था होती है वे कल्प कहलाते हैं। इस प्रकार इन्द्रादि की कल्पना ही कल्प संज्ञा का कारण है। यद्यपि इन्द्रादिक भेदों की कल्पना भवनवासियों में भी संभव है फिर भी रूढ़ि से कल्प शब्द का व्यवहार वैमानिकों में ही किया जाता है। संक्षेप में जो Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्पदप्ररूपणाद्वार कल्पों में उत्पन्न होते हैं वे कल्पोपपत्र कहनाते हैं। तत्त्वार्थसूत्र की हिन्दी टीका में पं० सुखलाल जी लिखते हैं कि देवों के दो भेद हैं १. कल्पोपपन्न और २. कल्पातीत। कल्प (व्यवस्था) में रहने वाले कल्पोपपन्न और कल्प से ऊपर रहने वाले कल्पातीत हैं। नववेयक- तत्वार्थसूत्र की सर्वार्थसिद्धि टीका (४/१९) में पूज्यपाद देवनन्दी लिखते हैं कि "नवसु अवेयकेषु" में नव शब्द का कथन अलग से क्यों किया गया है? क्योंकि अनुदिश नामक नौ विमान हैं। इससे नौ अनुदिशा का ग्रहण कर लेना चाहिए। तत्त्वार्थसूत्र (४/२०) की टीका में सिद्धसेनगणि लिखते हैं कि तत् अवेयकानिनवोपर्युपरि। भाष्य-प्रैवेयकास्तु लोकपुरुषस्य ग्रीवाप्रदेश विनिविष्टा ग्रीवाभरणभूता अवा प्रीव्या अवैया अवेयका इति। तत्त्वार्थसूत्र की टीका पंचममा जी (35 खिले हैं झायों में ऊपर-ऊपर अनुक्रम से नौ विमान हैं जो लोकपुरुष के ग्रीवा स्थानीय भाग में होने से अवेयक कहलाते हैं। सबसे ऊपर स्थित होने के कारण अन्तिम पाँच विमान अनुत्तर विमान कहलाते हैं। घारगतियों में गुणस्थान सुरनारएस घडरो जीवसमासा 3 पंच तिरिए । मणुयगईए चउदस मिच्छठिी अपज्जत्ता ।।२२।। गाथार्थ- देव तथा नारक में चार, तिर्यंच में पांच, मनुष्य में चौदह तथा अपर्याप्त जीवों में मात्र मिथ्यादृष्टि नामक एक जीवसमास (गुणस्थान) होता है। विवेचन-देव तथा नारकी में विरति संभव न होने से चार गुणस्थान ही होते हैं। तिर्यच गति में अणुव्रतों की संभावना होने से पाँच गुणस्थान कहे गये है। मनुष्य में चौदह गुणस्थान संभव हैं तथा लब्धिअपर्याप्ततियच तथा लब्धिअपर्याप्तमनुष्य में मात्र प्रथम गुणस्थान ही संभव है। २ इन्द्रिय मार्गणा इन्द्रियों के आधार पर जीवों के भेद एवं गुणस्थान एगिदिया य वायरसुहमा पज्जत्तया अपम्जता । बियतियचाउरिदिय दुविहमेय पज्जत योग ।।२३।। परिदिया असण्णी सण्णी पाजतया अपज्जत्ता । पंचिदिएस चोरस मिच्छदिडी भवे सेसा ।।२४।। Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवसमास गाथार्थ- एकेन्द्रिय के बादर, सूक्ष्म, पर्याप्त तथा अपर्याप्त- ये ४ भेद होते हैं। द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरेन्द्रिय- इन तीनों के पर्याप्त तथा अपर्याप्त, ऐसे ६ भेद होते हैं। पंचेन्द्रिय जीवों के संज्ञी, असंज्ञी, पर्याप्त तथा अपर्याप्त, ऐसे ४ भेद हैं। इनमें पंचेन्द्रिय जीवों में चौदह गुणस्थान तथा शेष सभी में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान हैं। विवेचन-उपर्युक्त गाथा में जीव के १४ भेद बताये गये हैं। इन्हें इस प्रकार भी बताया जा सकता है- १. सूक्ष्म एकेन्द्रिय २. बादर एकेन्द्रिय ३. द्वीन्द्रिय ४. बीन्द्रियी ५. चतुरेन्द्रिय ६. असंज्ञी पंचेन्द्रिय तथा ७. संज्ञी पंचेन्द्रिय। इन सातों में प्रत्येक के पर्याप्त तथा अपर्याप्त ऐसे दो-दो भेद करने से जीव के १४ भेद होते हैं। गाल, देद लगा गिच में पाये जाने वाले गणस्थानों की चर्चा गतिमार्गणानामक गाथा २२ में की जा चुकी है। इन्द्रियों की अपेक्षा से पंचेन्द्रिय संज्ञी मनुष्यों में १४ गुणस्थान संभव हैं तथा शेष सभी अर्थात् एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय, चतुरेन्द्रिय तथा असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों में मात्र मिथ्यात्व गुणस्थान ही होता है। प्रश्न- यहाँ शंका उपस्थित होती है कि करण अपर्याप्त बादर पृथ्वीकाय, अपकाय, वनस्पतिकाय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरेन्द्रिय में सासादन गुणस्थान है, उसे यहाँ क्यों नहीं लिया गया है? उसर-करण अपर्याप्त को दूसरा गुणस्थान होने की संभावना है पर उसका काल अत्यल्प होने से उसकी यहाँ चर्चा नहीं की। पर्याप्तावस्था में तो सभी असंझीजीव मिथ्यात्व में आ जाते हैं, अत: पंचेन्द्रिय को छोड़ सभी को मिथ्यात्व गुणस्थान कहा गया है। __गाथा २२,२३,२४ में लब्धि एवं करण अपर्याप्त की चर्चा होने से प्रसंगानुसार यहाँ लब्धि और करण-अपर्याप्त तथा पर्याप्त का विवेचन किया जा रहा है। अपर्याप्त जीवों के दो प्रकार हैं १, लब्धि अपर्याप्त और २. करण-अपर्याप्त। इसी प्रकार पर्याप्त जीवों के भी दो प्रकार हैं १. लब्धिपर्याप्त तथा २. करणपर्याप्त। १. लब्धिअपर्याप्त-अपर्याप्त नामकर्म के उदय से जो जीव स्वयोग्य सभी पर्याप्तियों को पूर्णत: प्राप्त किये बिना ही मर जाते हैं, वे लब्धि अपर्याप्त है। २. करणअपर्याप्त-करण अपर्याप्त के विषय में यह बात नहीं है। में पर्याप्त नामकर्म उदयवाले भी होते हैं अर्थात् चाहे उन्हें अपर्याप्त नामकर्म का उदय हो, चाहे पर्याप्त नामकर्म का—पर जब तक वे अपने करण (प्रयत्न) से शरीर, Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्पदप्ररूपणाद्वार २७ इन्द्रिय आदि पर्याप्तियों को पूर्णतः प्राप्त नहीं कर लेते तब तक वे करण अपर्याप्त कहे जाते हैं। ३. लब्धिपर्याप्त- जिन्हें पर्याप्त नामकर्म का उदय हो तथा जो स्वयोग्य पर्याप्तियों को पूर्ण करने के बाद ही मरते हैं, उससे पहले नहीं, उन्हें लब्धि पर्याप्त कहा जाता है। ४. करणपर्याप्त - जिसने शरीर पर्याप्ति पूर्ण की है, परन्तु इन्द्रिय पर्याप्ति पूर्ण नहीं की हैं, वह भी किसी अपेक्षा से करण अपर्याप्त ही कहा जा सकता है। वह शरीर रूप करण पूर्ण करने से 'करणपर्याप्त' और इन्द्रिय रूप करण पूर्ण न करने से 'करणअपर्याप्त' कहा जा सकता हैं। इस प्रकार श्वेताम्बर सम्प्रदाय की दृष्टि से आहार पर्याप्ति से लेकर मनः पर्याप्ति पर्यन्त पूर्व-पूर्व पर्याप्ति के पूर्ण होने पर 'करणपर्याप्त तथा उत्तरोत्तर पर्याप्ति के पूर्ण न होने से 'करण-अपर्याप्त' कह सकते हैं। परन्तु जब जीव स्वयोग्य सम्पूर्ण पर्याप्तियों को पूर्ण कर लेता है तभी उसे 'करण-पर्याप्त' कहा जाता है। (कर्मग्रन्थ ४ गाथा ३ का परिशिष्ट) पर्याप्ति आहारसरीरिंदियपज्जती आणपाण भासमणे 1 चारि पंच छप्पिय एगिंदियदि गलसण्णीणं ।। २५ ।। गावार्थ - १. आहार, २. शरीर, ३. इन्द्रिय, ४. श्वासोच्छ्वास, ५. भाषा और ६. मन ये छः प्रकार की पर्याप्तियाँ हैं। इनमें से चार पर्याप्त एकेन्द्रिय को, पाँच पर्याप्ति विकलेन्द्रिय को तथा छः पर्याप्ति संज्ञी पञ्चेन्द्रिय जीव को होती है। विवेचन -- पर्याप्ति किसे कहते हैं? पुगल को ग्रहण कर उसका तद्रूप परिणमन करना पर्याप्ति है। यह छः प्रकार की है १. आहार पर्याप्ति- उत्पत्ति स्थान में ग्रहण किये हुए आहार का रसादि के रूप में परिवर्तित करने वाली शक्ति को आहारपर्याप्ति कहते हैं। २. शरीरपर्याणि - आहार से रस, खून, मांस, मेद (चर्बी), हड्डी, मज्जा, तथा शुक्र बनाकर शरीर रचना करने वाली शक्ति को शरीरपर्याप्ति कहते हैं। ३. इन्द्रिय पर्याप्ति-शरीर रचना के क्रम में इन्द्रियों को बनाने वाली शक्ति इन्द्रियपर्याप्ति कही जाती हैं। ४. श्वासोच्छवासपर्याप्ति श्वासोच्छवास लेने की क्षमता का विकसित हो जाना श्वासास पर्याप्त हैं। Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवसमास ५. भाषापर्याप्ति - भाषा - योग्य पुद्रलों को ग्रहण कर उन्हें भाषा रूप में परिणत करने वाली शक्ति को भाषापर्याप्ति कहते हैं। २८ ६. मनः पर्याप्ति मनोवर्गणा रूपी पुद्गलों को एकत्रित कर उन्हें मन रूप में परिणत करने वाली शक्ति को मन पर्याप्ति कहते हैं। एकेन्द्रिय जीवों को प्रथम चार, असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय एवं विकलेन्द्रिय जीवों को मनः पर्याप्त छोड़कर शेष पाँच तथा संज्ञी पञ्चेन्द्रिय जीवों को छः पर्याप्तियाँ होती हैं। ३. काय मार्गणा कायमार्गणा एवं गुणस्थान पुढविदगअगणिमारुय साहारणकाड़या चउदा उ पत्तेय तसा दुविहा चोइस तस लेसिया मिच्छा 4 ।। २६ ।। गावार्थ- पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय वायुकाय तथा साधारणवनस्पतिकाय के चार-चार प्रकार हैं। प्रत्येक वनस्पति तथा त्रसकाय के दो-दो प्रकार हैं। इनमें से त्रसकाय में चौदह गुणस्थान होते हैं शेष में मात्र मिध्यात्व गुणस्थान होता है। विवेचन - प्रत्येक वनस्पतिकाय को छोड़कर शेष सभी पांचों कायों के चार-चार भेद हैं— सूक्ष्म, बादर (स्थूल), पर्याप्त तथा अपर्याप्त । प्रत्येक वनस्पतिकाय तथा त्रस के दो भेद हैं- पर्याप्त तथा अपर्याप्त। वस अर्थात् पंचेन्द्रिय जीवों में चौदह गुणस्थान सम्भव हैं तथा शेष सभी में मात्र मिध्यात्व गुणस्थान होता है। पाँचों ही कायों के दो भेद हैं- सूक्ष्म तथा बादर । बादर वे हैं जो चर्म चक्षुओं से दिखाई देते हैं तथा सूक्ष्म वे हैं जो चर्मचक्षुओं से दिखाई नहीं देते, छेदने से छिद्रते नहीं, भेदने से भिदते नहीं, जलाने से जलते नहीं, ये पाँचों ही सूक्ष्म काय सम्पूर्ण लोकाकाश में व्याप्त हैं अर्थात् ठसाठस भरे हुए हैं। केवली कथन से ही इसे मान्य किया जाता है। अब पाँचों कायों के भेद बताते हैं— पृथ्वीकाय के भेद पुढवी य सक्करा वालुया व उबले सिला व लोणूसे । अयतं तठयसीसय रुम्पसुवणे य वइरेय ।। २७ ।। Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्पदप्ररूपणाद्वार हरियाले हिंगुलए मणोसिला सासगंजणपवाले । अन्मपाडलउम्मवालय बाघरकाए मणिविहाणा ।। २८।। गोमेज्जए य सयए अंके फलिहे य लोहियक्खे य । चंदप्यह वेलए जलकंत सूरकंते य ।।२९।। गेरुय चंदण वध (प्प) मे भुगमोए तह मसारगल्ले य । वण्णाईहि य मेदा सहपाणं वस्थि ते(मे) भेषा ।।३।। गाथार्थ- पृथ्वीकाय के कंकर, रेत, पत्थर, शिला, नमक, लोहा, ताँबा, सीसा, चौदी, सोना, हीरा, हरिताल, हिंगुल, मैनसिल, सास (धातु विशेष), रङ्गन, प्रवाल, अभ्रकपरत, अभ्रकबाल, मणि आदि बादर पृथ्वीकाय के प्रकार हैं। गोमेद, रुचक, अंक, स्फटिक, लोहिताक्ष, चन्द्रप्रभ, वैदूर्य, जलकान्त, सूर्यकान्त- ये सभी रत्नों के भेद हैं। गेरू, चन्दन, वधक, मुजमोचक, मसारगल्ल तथा इनके वर्णादि के अनेक भेदों के कारण बादर (स्थूल) पृथ्वीकाय के अनेक भेद हैं। सूक्ष्म पृथ्वीकाय का कोई भेद नहीं है।।२७-३०।। विवेसन-पृथ्वी ही है काया जिनकी, उसे पृथ्वीकाय कहते हैं। जब तक यह मिट्टी, धातु आदि खदान में रहती है तब तक सजीव होती हैं, परन्तु खदानादि से निकलने के बाद वे धातु आदि अचित/निर्जीव हो जाती है। धातुओं में सोना, चाँदी, जस्ता, ताँबा, काँसा, लोहा आदि जब तक खदानों में हैं वे सजीव पृथ्वीकाय है। रत्नों में माणिक्य, मूंगा, पन्ना, पुखराज, हीरा आदि भी खदानों में होने तक पृथ्वीकाय के अन्तर्गत आते हैं। उत्तराध्ययन के छत्तीसवें अध्ययन (गाथा ७३-७४-७५) में भी पृथ्वीकाय का यथावत् वर्णन है, किन्तु यहाँ "चन्दन" को पृथ्वीकाय का भेद माना गया है। संभवत: सूखे चन्दन वृक्ष की जड़ों को पृथ्वी में से खोदकर निकाले जाने के कारण पृथ्वीकाय माना गया हो अथवा चन्दन के समान सुगंधित मिट्टी का कोई प्रकार हो। अप्काय के भेद ओसाय हिम महिगा हरतणु सुखोदए घणोए य। घण्णाईहि य प्रेया सुहमाणं नत्यि से मेवा ।।३१।। गाथार्थ- ओस, हिम, धूअर का पानी, वनस्पति पर स्थित पानी, शुद्ध पानी, घनोदधि (पत्थर तुल्य जमा हुआ पानी अर्थात् बर्फ)- ये अपकाय के भेद Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० जीवसम्मस हैं। वर्णादि के भेद से अपकाय भी अनेक प्रकार के होते हैं। सूक्ष्म अप्काय के कोई भेद नही होते हैं। विवेचन - अप् अर्थात् पानी ही काया है जिनकी ऐसे जीव अप्काय कहे जाते हैं। इनके अनेक भेद बताये गये हैं--- जैसे आकाश से गिरने वाला पानी, कूएँ, बावड़ी, तालाब एवं समुद्र का पानी एवं स्त्रोतों का पानी आदि अनेक प्रकार का पानी जानना चाहिए। तेजस्काय के भेद इंगाल जाल अच्वी मुम्मुर सुद्धागणी व अगणी व वपणहि य भेया सुहुमाणं नत्थि ते भैया ।। ३२।। गाथार्थ - अंगारे, ज्वाला, चिनगारी, भोभर, शुद्धाग्नि आदि और इनके वर्णादि के भेद से बादर अग्निकाय के अनेक भेद हैं। सूक्ष्म अग्निकाय के कोई भेद नहीं होते हैं। r विवेचन - अग्नि ही हैं काया जिनकी, उन्हें तेजस्काय कहा जाता है। उल्कापात, आकाश में चमकने वाली विद्युत् आदि वे सभी वस्तुएँ जो प्रज्वलित हैं, तेजस्काय के ही रूप हैं। वायुकाय के भेद वाजम्मा उक्कलिमंडलिगुंजा महा घणतणू या I वण्णाईहि य भेया सुहुमाणं नत्थि ते भेया १।३३।। गाथार्थ - उद्भ्रामक, (ऊपर की ओर जाने वाली वायु); उत्कालिक (नीचे की ओर बहने वाली वायु), मंडलिक (गोलाकार चलने वाली वायु); गुंज (गुंजार करने वाली वायु); महावायु (तूफानादि) घनवात (ठोस वायु) तनुवात (हल्की वायु ) आदि वर्णादि के भेद से बादर बायुकाय के अनेक भेद जानना चाहिए। सूक्ष्म वायुकाय के कोई भेद नहीं होते हैं। वनस्पतिकाय के भेद - भूलग्गपोरबीया कंदा तह खंथनीय बीयरुहा । संमुच्छिमा य भणिया प्रत्तेय अणंतकाया य । । ३४ । । गाथार्थ - मूलबीज, अग्रबीज, सम्मूच्छिम आदि वनस्पतियों के भेद हैं। बादर वनस्पतिकाय के हैं। पर्वबीज कंदबीज, स्कन्धबीज, बीजरुह प्रत्येक और अनन्तकाय — ऐसे दो प्रकार · Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्पदनरूपणाद्वार विवेचन-मूल अर्थात् जड़ ही है बीज जिसका वह मूलबीज है, यथाकमल का कांड। अग्रभाग ही जिसका बीज हो वह अग्रबीज है, यथा--- कोरन्टक नागरवेल। पर्व (गांठ) ही है बीज जिनका ऐसा गन्ना पर्वबीज है। कन्द हो है बीज जिनका वे कन्दबीज हैं, यथा— सूरन, आलू आदि। स्कन्ध ही है बीज जिनका, ऐसे मय डील होते हैं, जैसे-.. , मेंही। ज से उगने वाली वनस्पतियाँ जैसे- गेहूँ, मूंग, धान चनादि बीजरुह हैं। उपर्युक्त समस्त प्रकारों से भित्र, भूमि, जलादि में अपने आप (स्वतः) उत्पन्न हो जाय ऐसी काई आदि सम्भूछिम वनस्पति कहलाती है। प्रत्येक तथा अनन्तकाय ये दोनों बादर वनस्पति काय के भेद हैं। प्रत्येककाय-जिसके प्रत्येक शरीर में एक जीव की स्वतन्त्र सत्ता हो, बह प्रत्येक वनस्पति है। यथा- गेहूँ, चना, आम आदि। अनन्तकाष- एक ही पिण्ड में जहाँ अनन्त जीव हों वह अनन्तकाय कहा जाता है, यथा— शकरकन्द, मूली आदि। कंदा मूला छल्ली कट्ठा पत्ता पचाल पुष्फ फला। गुच्छा गुम्मा वल्ली तणाणि तह पव्वया व ।।३५।। गाथार्थ- कन्द, मूल, छाल, काष्ठ, पत्ता, अंकुर, फूल, फल, गुच्छा, गुल्म, बेल, घास, पर्वज ये सभी वनस्पतियों के भेद हैं। विवेचन- कन्द अर्थात् समूह। जो जमीन के अन्दर पिण्ड रूप में होती हैं ऐसी वनस्पत्तियाँ जमीकन्द कहलाती हैं, यथा— सूरन आदि। मूल-वृक्ष आदि की जड़ें मूल कही जाती हैं अथवा जो मूल (जड़) पर जीवित रहते हैं, वे मूल हैं। छाल- केले आदि छाल प्रधान वनस्पति हैं। काष्ठ- खदिर आदि काष्ठ प्रधान माने जाते हैं। पत्र-- नागर, बेल आदि पत्र प्रधान वनस्पति हैं। प्रवाल अंकुर या कोपल-प्रधान हैं। फूल- जूही, चम्पा, चमेली आदि फूल प्रधान वनस्पतियाँ हैं। फल- बेर, आम आदि के पेड़ फल प्रधान हैं। गुच्छ--- जामुन आदि वनस्पतियाँ गुच्छ प्रधान है। गुल्म-- जहाँ लताओं का एक प्रासाद। जाल बन जाता है वह गुल्म कहलाता है। नवमल्लिका आदि गुल्म प्रधान वनस्पतियाँ हैं। बेल- ककड़ी बेल प्रधान वनस्पति है। घास- श्यामक (ब) घास प्रधान वनस्पति है। पर्व अर्थात् गाँठ- गन्ना गाँठ प्रधान वनस्पति है। कन्द के नाम-उत्तराध्ययन सूत्र (३६/९६-९९) में जमीकन्दों के नाम इस प्रकार बताये गये हैं.- हिरिलीकंद, सिरिलीकंद, जावईकंद, कदलीकंद, प्याज, लहसुन, कन्दली, कुस्तुबक, लोही, स्निहू, कुहक, कृष्ण, वनकंद, सूरकंद, अवकर्णी, सिंहकरणी, भुसुंडी, हरिद्रा (हल्दी), आलू, मूली शृंगबेर (अदरक) आदि। Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवसमास प्रत्येक वनस्पतिकाय-उत्तराध्ययनसूत्र (३६.९४,९५) में गुच्छ (बैगन), गुल्म (नवर्माल्लकादि), लता (चम्पकलतादि), वल्ली (भूमि पर फैलने वाली ककड़ी आदि की बेल), तृण (दूब), लतावलय (केलादि), पर्वज (ईख), कुहण (भूमिस्फोट, कुकुरमुत्ता) जलरुह (कमल) आदि को प्रत्येक वनस्पतिकाय कहा गया गुल्म और गुच्छे में अन्तर-गुच्छ वह होता है जिसमें पत्तियाँ या केवल पतली टहनियां फैली हों जैसे--- बैंगन, तलसी आदि। गुल्म वे हैं जो एक जड़ से कई तनों के रूप में निकले जैसे- कटसरैया, कैर आदि। लता और वाल्ली में अन्तर- लता किसी बड़े पेड़ से लिपट कर ऊपर फैलती है, जबकि बल्ली भूमि पर ही फैल कर रह जाती है जैसे- माधवी, अतिमुक्तक आदि लता है तथा ककड़ी, खरबूजे की वल्ली (बेल) होती है। प्रज्ञापनासूत्र (गाथा ५४/१-११ एवं ५५/१-३) में साधारण वनस्पतिकाय की विस्तार से चर्चा करते हुए साधारण व प्रत्येक वनस्पतिकाय का भेद बताया गया है- मूल, कन्द, स्कन्ध, छाल, शाखा, प्रवाल (कोपल), पत्ते, पुष्पादि यदि समभंग वाले हों तथा उनकी छाल मोटी हो तो उसे अनन्तकाय समझना चाहिए। इसके विपरीत जिसका भंग विषम हो, जो असम टूटे उसे प्रत्येक वनस्पति समझना चाहिए। स्थानांगसूत्र (तृतीयस्थान, प्रथम उद्देश्यक सूत्र १०४ में।) तृणवनस्पतिकाय के तीन प्रकार के बताये गये हैं१. संख्यात जीव वाले– नस से बंधे हुए पुष्प, फूल-फलादि। २. असंख्यात जीव वाले– वृक्ष के मूल, कन्द, स्कन्ध, त्वक्, छाल, शाखा और प्रवाल। ३. अनन्त जीव वाले- पनक, फफूंदी, लीलन-फूलन, जमीकन्द आदि। सेवालपणकिण्हग कषया कुहुणा य हायरो काओ । सध्यो य सहुमकाओ सम्वत्र जलस्थलागासे ।। ३६।। गाथार्थ-सेवाल (पानी के ऊपर जमने वाली काई), पणग (पांच प्रकार की लीलन-फूलन), किण्हग (वर्षाऋतु में घड़े में जमने वाली काई), कवया (भूमि स्फोट-छत्राकार वनस्पति), कुहुणो अर्थात् बिल्ली का टोप- ये बादर वनस्पतिकाय के भेद हैं। 'सूक्ष्म वनस्पतिकाय जल, स्थल और लोकाकाश में सर्वत्र व्याप्त हैं। Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्पदप्ररूपणाद्वार गूडसिरसंधिपव्वं समभंगमहीरयं च छिन्नरुहं । साहारणं सरीरं तबिवरीयं च पत्तेयं ।।३७।। गाथार्थ-जिस वनस्पति की नसें, सन्धियां और पर्व (गांठे) देखने में न आती हों। तोड़ने पर जिनके समान टुकड़े होते हों, जिसमें तंतु न हों और जो काटने पर भी पुन: अंकुरित हो जाय वह साधारण वनस्पतिकाय कहलाती है तथा इसके विपरीत लक्षण वाली प्रत्येक वनस्पति होती है। इस प्रकार पाँच स्थावर का निरूपण किया, अब त्रसकाय का निरूपण करते हैंजस के भेद दुविहा तसा व दुत्ता वियला सयलिंदिया मुणेषज्या । शितिषडरिदिय वियला सेसा सयलिदिया नेया ।।३८।। गाथार्थ- बस दो प्रकार के कहे गये हैं— विकलेन्द्रिय तथा सकलेन्द्रिय। द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय तथा चतुरिन्द्रिय जीव विकलेन्द्रिय हैं। शेष सभी पंचेन्द्रिय जीव दरलेन्द्रिय कहे जो विवेचन- त्रास, कष्ट, पौड़ा मिलने पर जो स्थानान्तरित हो सकें वे उस हैं। ये दो प्रकार के हैं- विकलेन्द्रिय अर्थात द्वीन्द्रिय से लेकर चतुरिन्द्रिय तक एवं सकलेन्द्रिय अर्थात् पञ्चेन्द्रिय। संखा गोम्मी भमरााया उ विगलिंदिया मुणेयव्वा । पंचिंदिया य जलालसाहयकसुरनारयनरारय ।।३।। गाथार्थ- शंख, कनखजूरा, भ्रमर आदि को विकलेन्द्रिय जानना चाहिए। पञ्चेन्द्रियों में जलचर, थलचर, खेचर, देव, नारक तथा मनुष्य आते हैं। विवेचन- द्वीन्द्रिय में शंख, कौड़ी, सीप, अलसिया आदि जीव आते हैं। श्रीन्द्रिय में कनखजूरा, खटमल, चींटी, जू आदि जीव आते हैं। चतुरिन्द्रिय में भ्रमर, मक्खी, मच्छर आदि जीव आते हैं। तिर्यंच पंचेन्द्रिय के तीन प्रकार हैं१. जलचर, २. थलचर तथा ३, खेचर। १. जलचर जैसे मछली आदि हैं। २. थलचर तीन प्रकार के हैं- (क) चतुष्पद । में गाय, घोड़ा आदि। (ख) उरपरिसर्प- सांप, अजगर आदि। (ग) भजपरिसर्प-- नेवला, गिरगिट आदि। ३. खेचर- आकाश में उड़ने वाले कबूतर, कौआ आदि। मनुष्य- कर्म तथा अकर्म भूमि में उत्पन्न हुए मनुष्य। नारक- रत्नप्रभा आदि नरक में उत्पन्न होने वाले जीव नारकी हैं। Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ जीवसमास देव- ऊर्ध्वलोक में रहने वाले देव आदि। मनुष्य, तिर्थच, नारक तथा देव की चर्चा हम पूर्व गाथाओं में कर चुके हैं। नोट- द्वीन्द्रिय- जिनके दो इन्द्रियाँ हैं- शरीर तथा मुख। प्रौन्द्रिय- जिनके तीन इन्द्रियाँ है- शरीर, पुख तथा नासिका। चतुरिन्द्रिय- जिनके चार इन्द्रियाँ है- शरीर, मुख, नासिका तथा अन्य। पंचेन्द्रिय-- जिनके पाँच इन्द्रियाँ - शरीर, मुख. नासिका, आँख तथा कान। कुलों की संख्या बारस सर प तिनि य सत्त य कुलकोडि सयसहस्साइं। नेपा पुखविदगागणिवाऊण व परिसंखा।।४।। कुलकोडिसषसहस्सा सतह य नव व अवीस छ । बोइंदियतेइंदियघाउरिदियहरियकायाणं ॥४१।। अद्वत्तेरस दर दर दस कुमकाउसहस्साई । जलयरपक्तिचउप्पयउरभुयसप्माण नव ति ।। ४२।। छब्बीसा पणबीसा सुरनेरहयाण सहसहस्साई । पारस य सयसहममा कुलकोडीणं मणुस्साणं ।।४३।। एगा कोडाकोडी सत्ताउई मवे सबसहस्सा । पन्नासं घ सहस्सा कुलकोडीओ मुणेपव्या ।। ४४।। गाथार्थ- पृथ्वीकाय, अपकाय, तेजस्काय और वायुकाय के फुलों की संख्या अनुक्रम से बारहलाख करोड़, सातलाख करोड़, तीनलाख करोड़ और सातलाख करोड़ जानना चाहिये। द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय. चतुरिन्द्रिय तथा वनस्पतिकाय के कुलों की संख्या क्रमश: सातलाख करोड़, आठलाख करोड़, नौलाख करोड़ तथा अट्ठासीलाख करोड़ जानना चाहिये। जलचर, खेचर, चतुष्पद, उरपरिसर्प तथा भुजपरिसर्प के कलों की संख्या क्रमश: साढ़े बारह लाख करोड़, बारह लाख करोड़, दस लाख करोड़, दस लाख करोड़ तथा नौ लाख करोड़ जानना चाहिये। देव, नारक तथा मनुष्य के कुलों की संख्या क्रमश: छब्बीस लाख करोड़, पच्चीस लाख करोड़ तथा बारह लाख करोड़ जाननी चाहिये। इस प्रकार समस्त कुलों की संख्या एक करोड़ सत्तानवें लाख पचास हजार (१९७,५००००) करोड़ जाननी चाहिये। Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्पदप्ररूपणाद्वार काय योनि पृथ्वीकाय अपकाय तेजस्काय वायुकाय वनस्पतिकाय द्वीन्द्रिय त्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रिय १२ लाख करोड़ ७ लाख करोड़ ३. करोड़ ७ लाख करोड़ २८ लाख करोड़ ७ लाख करोड़ ८ लाख करोड़ ९ लाख करोड़ ७ लाख ७ लाख .: मरत ७ लाख १०+१४ लाख २ लाख २ लाख २ लाख पञ्चेन्द्रिय ४ लाख भुजपरिसर्प नारक मनुष्य जलचर १२६ लाख करोड़ खेचर १२ लाख करोड़ चतुष्पद १० लाख करोड़ उरपरिसर्प १० लाख करोड़ ९ लाख करोड़ देव २६ लाख करोड़ ४ लाख २५ लाख करोड़ ४ लाख १२ लाख करोड़ १४ लाख कुल १५७ लाख करोड़ ८४ लाख योनियाँ योनियाँ (प्रजातियाँ) यहाँ हमने ८४ लाख योनियों अर्थात् प्रजातियों की चर्चा की। जीव जिस प्रजाति में जन्म ग्रहण करता है। उसकी अपेक्षा से उसके चौरासी लाख भेद किये गये हैं। यथा- पृथ्वीकायादि। जिस-जिस निकाय में वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श के तर तम भाव वाली और विभिन्न प्रकार की शारीरिक संरचना वाली जितनी प्रजातियाँ होती हैं उस निकाय की उतनी ही योनियाँ अर्थात् प्रजातियाँ होती है। ज्ञातव्य है योनि की अवधारणा उससे भिन्न है। जीव के जन्म के लिए स्थान आवश्यक है जिस स्थान पर स्थूल शरीर की रचना के लिए आवश्यक पुद्गल तेजस एवं कार्मण शरीर के साथ दूध और पानी की तरह मिल जाते हैं उसे 'योनि' कहते हैं। ये योनि नौ प्रकार की हैं, जिसकी चर्चा आगे की जाएगी। कुल और योनि में अन्तर यहाँ हम प्रजाति को योनि तथा अनुवांशिकता को कुल कह सकते हैं। योनि (प्रजाति) की संख्या मात्र चौरासी लाख है जबकि अनुवांशिक विशेषताओं अर्थात् Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गील सास इन कुलों की संख्या १९७६ लाख करोड़ है। जीवसमास में गाथा ४० से ४४ तक जीवों के इन कुलों अर्थात् अनुवांशिकताओं का वर्णन किया गया है। बिच्छओं की योनि एक है किन्तु उनमें जो रंग आदि की भिन्नता के कारण जो अनुवांशिक भेद हैं वे कुल कहलायेंगे। कहीं ऐसा भी कहा गया है कि सभी प्रकार के भ्रमरों की योनि एक है परन्तु काष्ठ, गोबर, पुष्पादि अलग-अलग स्थान में उत्पन्न होने के कारण एवं उनके रंग आदि की भित्रता के कारण उनके कुल अनेक माने जायेंगे। यही कारण है कि योनि की अपेक्षा कुल की संख्या अधिक है। आकार की अपेक्षा तीन प्रकार की योनियों आकार की अपेक्षा से योनि तीन प्रकार की कही गई हैं- १. कूत्रित (कछुए के समान उन्नत) योनि। २. शंखावर्त (शज के समान आवर्त वाली) योनि और ३. बंशीपत्रिका (बाँस के पत्ते के समान आकार वाली) योनि। -- स्थानाङ्ग, (तृतीय स्थान, प्रथम उद्देशक, सूत्र १०३) १. कर्मोन्नत योनि-उत्तम पुरुषों की माताओं के होती है। इसमें तीन प्रकार के उत्तम पुरुष गर्भ में आते है- तीर्थकर, चक्रवर्ती और बलदेव तथा वासुदेव। २. शंखावर्त योनि-चक्रवर्ती के खी रत्न अर्थात मख्य पटरानो की होती है। शंखावर्त योनि में बहत से जीव और पुदगल उत्पन्न और विनष्ट होते हैं, किन्तु निष्पन्न नहीं होते अर्थात् यह सन्तान को जन्म नहीं देती हैं। ३. बंशीपत्रिका योनि- सामान्य पुरुषों के माताओं की होती है। योनि के नौ प्रकार (उत्पत्ति स्थान की अपेक्षा से) ___ तत्त्वार्थसूत्र, द्वितीय अध्याय, सूत्र ३३ में नौ प्रकार की योनियाँ बताई गई हैं। प्रस्तुत ग्रंथ में अगली गाथाओं में नौ योनियों की चर्चा है। नौ प्रकार की योनियों की चर्चा उत्पत्ति स्थान के स्वरूप की अपेक्षा से की गई हैं १. सचित्त- जो जीव से अधिष्ठित हो, चेतना युक्त हो। २. अचित-जो जीव से अधिष्ठित न हो। ३. मिन्ना (सचिसाचित्त-जो आंशिक रूप से जीव से अधिष्ठित हो तथा आंशिक रूप से जीव से अधिष्ठित न हो। Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्पदनरूपणाद्वार ३७ ४, शीत-जिस उत्पत्ति स्थान में शीत स्पर्श हो। ५. उष्ण- जिस उत्पत्ति स्थान में स्पर्श उष्ण हो। ६. मिन (शीतोष्ण) जिसमें कुछ भाग शीत तथा कुछ भाग उष्ण स्पर्श वाला हो। ७. संवृत्त- जो स्थान ढका हुआ हो। ८. वित्त- जो स्थान खुला हो। ९. मिन्न (संवत-विवत)- जो स्थान कुछ ढका तथा कुछ खुला हो। जीवों की योनि (जन्म) स्थान एगिदियनेरझ्या संवुडजोणी य हुंति देवा य । विगलिंदियाण वियडा संबुडवियडा य गल्भमि ।। ४५।। गाचार्थ- एकेन्द्रिय जीव, नारक और देवता संवृत योनि से जन्म लेते हैं। विकलेन्द्रिय जीव विवृत योनि से उत्पन्न होते हैं तथा गर्भज जीव अर्थात् मनुष्य एवं तिथंच संवृतविवृत योनि से जन्म ग्रहण करते हैं। प्रश्न- नारक तथा देव के जीव संवृत्त योनि वाले कैसे होते हैं? उत्तर- नारकी जीवों का जन्म कुम्भियों में होता है। ये कुम्भियाँ ढकी हुई होती है। इसी प्रकार देवता देवशय्या में देवदुष्य वस्त्र से ढके हए जन्म लेने के कारण संवृतयोनि वाले माने जाते हैं। एकेन्द्रिय जीवों का जन्म भी संवृत रूप से ही होता है। अतः ये सभी संवृत योनि वाले माने जाते हैं। अच्चिता खलु जोणी नेरायाणं तहेव देवाणं । मीसा य गावसही सिविहा जोणी उ सेसाणं।।४६।। गाथार्थ- नारक तथा देव की योनि अचित्त होती है। गर्भज तिर्यच तथा मनुष्य की योनि मिश्र होती है। शेष सभी को सचित, अचित अथवा मिश्र योनि होती है। विशेष- शेष सभी अर्थात् एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय तथा असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीव की योनि सचित्त, अचित्त अथवा मिश्र इन तीनों में से किसी भी एक प्रकार की हो सकती है। सीओसिणजोणीया सम्बे देवा व गमवक्ता ।। दसिणा य तेउकाए दुह नरए विवि सेसाणं ।।४।। गाथार्थ- सभी प्रकार के देव तथा गर्भज (मनुष्य एवं तिर्यश्च) मिश्र (शीतोष्ण) योनि में उत्पन्न होते हैं। तेजस्काय के जीव उष्ण योनि वाले होते हैं। Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ जीवसमास नारकी शीत तथा उष्ण योनि वाले होते है तथा शेष जीव तानो प्रकार की योनि वाले होते है। विवेचन-सभी प्रकार के (भवनवासी) देव तथा गर्भज जीव न अति शीत न अति उष्ण अर्थात् शीतोष्ण योनि में जन्म लेते हैं। अग्निकाय तो स्वभाव से उष्ण होने के कारण उनकी योनि उष्या होती है। नारकी में अत्यन्त शीत या अत्यन्त उष्ण योनि होती है। रत्नप्रभादि ऊपर के नरकों में मात्र उष्ण योनि है तथा नीचे के नरकों में शीत योनि है। प्रथम तीन नरकों में एकान्त रूप से लकड़ी के अंगारों से अनन्त गुना अधिक उष्णता होने के कारण वे मारकी जीव उष्ण योनि वाले कहलाते हैं। चौथी नारकी में अनेक प्रतर उष्ण होते हैं अत: उनमें जन्म होने पर उनकी योनि उष्ण होती है किन्तु उसमें कुछ प्रतर शीतल होने के कारण वहाँ शीत योनि भी होती है। वहाँ सर्दी में पड़ने वाली बर्फ से भी अनन्तगुना अधिक शीत होती है। पांचवें, छटे, सातवें नरक में एकान्त शीत वेदना है। अत: ये नारक जीव शीत योनि में जन्म लेते हैं। संघयण वजरिसहनारायं वज्जं नाराययं च नारायं । अझं चिय नारायं खीलिय छेवल संधयणं ।।४८।। रिसहो च होड़ पट्टो वज्जं पुण कीलिया वियाणाहि । उभयो मक्कडबंध नारायं तं वियाणाहि ।।४९ गाथार्थ-१. वऋषभनाराच, २. ऋषभनाराच, ३. नाराच, ४. अर्धनाराच, ५. कीलिक तथा ६. सेवार्त ये छ: प्रकार के संघयण होते हैं। वन अर्थात् काली, ऋषम अर्थात् पट्टा तथा दोनों तरफ से मर्कटबंध द्वारा कस लेने को 'नाराच' कहते हैं। विवेचन- हड्डियों के मर्कटबंध पर हड्डियों का पट्टा लगा कर, उन्हें हड़ियों की कील से संधित करना ‘संघयण' कहलाता है। जैसे मर्कट अर्थात् अन्दर का बच्चा अपनी माँ को, उसके कूदने के क्षणों में कसकर पकड़ लेता है उसी प्रकार हड्डियों का कसा हुआ संधान 'मर्कटबंध' कहलाता है। सामान्यतः हड़ियों की रचना विशेष को 'संघयण' कहते हैं। इसके छ: भेद है १. पनऋषभनारायसंघयन- वन का अर्थ कील है। ऋषभ का अर्थ है हड्डियों पर लपेटा गया पट्टा या वेष्टन है और नाराच का अर्थ दोनों ओर से मर्कटबंध Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्पदप्ररूपणाद्वार द्वारा जुड़ा होना है। जिस संघयण में दोनों ओर से मर्कटबंध द्वारा जड़ी हुई दो हड्डियों पर तीसरी पट्टी की आकृति वाली हड्डी का चारों ओर से वेष्टन हो और जिसमें इन तीनों हड्डियों को भेदने वाली वज्रमय अर्थात् बहुत ही मजबूत हड्डी की कील लगी हो उसे 'वज्रमषभनाराचसंघयण' कहते हैं। २. ऋषभनाराचसंघयन- जिस संघयण मे दोनों ओर से मर्कट बंध द्वारा जुड़ी हुई दो हड्डियों पर तीसरी पट्टी की आकृति वाली हड्डी का चारों ओर से वेष्टन तो हो परन्तु तीनों हड्डियों को जोड़ने वाली वज्र नामक हड्डी की कील ने हो उसे 'ऋषभनाराचसंघयण' कहते हैं। ३. नाराचसंघयन- हड़ियों का मात्र मर्कटबंध द्वारा जुड़ा होना और उसमें की (वज्र) तथा वेष्टन (ऋषभ) का न होना 'तारावसंघयण' हैं। ४. अर्घनारायसंघयण-जिस संघयण में एक ओर तो मर्कटबंध हो तथा दूसरी ओर कील हो उसे 'अर्धनाराचसंघयण' कहते हैं। ५. कीलिकसंघयर- जिस संघयण में हमियाँ केवल कील से जुड़ी हों उसे 'कलिकसंघयण' कहते हैं। ६. सेवार्तसंघयन-जिस संघयण में हड्डियाँ पर्यन्त भाग में एक दूसरे को स्पर्शित करती हई रहती हैं और उनके मध्य में मात्र चिकना पदार्थ होता है उसे 'सेवार्तसंघयन' कहते हैं। (जैनेन्द्रसिद्धान्तकोश) (पत्रवणा २३ कर्मप्रकृतिपद) (ठाणांग ६ सूत्र ४९४) (कर्मग्रन्थ - भाग १ पृ० ३९) नरतिरियाणं छप्पिय हवा हु विगलिंदियाण छेवळ। सुरनेरइया एगिदिया य सव्वे असंघयणी ।। ५011 गाथार्थ- मनुष्य तथा तिर्यञ्च जीवों में सभी संघयण पाये जाते हैं। विकलेन्द्रिय जीवों में मात्र अन्तिम सेवार्तसंघयन होता है। देव, नारक तथा एकेन्द्रिय जीवों में कोई संघयन नहीं होता है। - विवेचन-मनुष्य एवं तिर्यश्च को उपर्युक्त छः संघयन में से कोई एक संघयण अवश्य होता है। विकलेन्द्रिय को मात्र सेवा (अन्तिम) संघयन होता है। देव, मारक तथा एकेन्द्रिय को कोई संघयन नहीं होता क्योंकि इन जीवों में हड्डियों का अभाव है। Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० जीवसमास संस्थान समचउरंसा नग्गोह साई खुज्जा य वामणा हुंडा । पंचिंदियतिरपनरा सुरा समा सेसया हुंडा ।।५।। गाथार्थ- १. समचतुरस्र, २. न्यग्रोध, ३. सादि, ४. कुब्ज, ५. वामन तथा ६. हण्डक-ये छ: संस्थान हैं। ये छहों संस्थान पञ्चेन्द्रिय-तिर्यञ्चों तथा मनुष्यों में पाये जाते हैं। देवताओं में मात्र समचतुरस्त्र संस्थान होता है। शेष विकलेन्द्रिय जीवों में हुण्डक संस्थान होता है। विवेचन- शरीर की बाह्य संरचना अर्थात् आकार-प्रकार को संस्थान कहते हैं। इसके निम्न छ: प्रकार हैं १. समचतुरस्त्र संस्थान-सम का अर्थ है समान। चतुः का अर्थ है चार। अस्त्र का अर्थ हैं कोण। पालथी मार कर बैठने पर जिस शरीर के चारों कोण समान हों अर्थात् (१) आसन और कपाल का अन्तर, (२) दोनों जानुओं का अन्तर, (३) बाम स्कन्ध से दक्षिण जानु का अन्तर तथा (४) दक्षिण स्कन्ध से वाम जानु का अन्तर समान हो उसे समचतुरस्र संस्थान कहते हैं सामद्रिक शास्त्रानुसार जिस शरीर के सम्पूर्ण अवयव प्रमाणोपेत हों, उसे 'समचतुरस्न संस्थान' कहते हैं। २. न्यग्रोधपरिमण्डल संस्थान-न्यग्रोध अर्थात् वटवृक्ष। परिमण्डल अर्थात् ऊपर का आकार। जैसे वट वृक्ष ऊपर के भाग में फैला रहता है और नीचे से संकुचित रहता है उसी प्रकार जिस संस्थान में नाभि के ऊपर का भाग विस्तृत अर्थात् शरीर शास्त्र में बताये हुए प्रमाण वाला हो और नीचे का भाग अपेक्षाकृत क्षीण अवयव वाला हो, उसे 'न्यग्रोधपरिमण्डल संस्थान' कहते हैं। ३. सादि संस्थान- यहाँ सादि शब्द का अर्थ नाभि से नीचे का भाग है। जिस संस्थान में नाभि से नीचे का भाग पूर्ण और ऊपर का भाग क्षीण (होन) हो उसे 'सादि संस्थान' कहते हैं। सादि सेमल (शाल्मली) वृक्ष को कहते है। शाल्मली वृक्ष का धड़ जैसा पुष्ट होता है वैसा ऊपर का भाग नहीं होता। उसी प्रकार सादि संस्थानवाले का शरीर भी नीचे से पुष्ट, पूर्ण तथा ऊपर से क्षीण होता है। ४. कुब्जक संस्थान-जिस शरीर में हाथ, पैर, सिर, गर्दन, आदि अवयव ठीक हों पर छाती, पेंट, पीठ आदि टेढ़े हों उसे 'कुब्जक संस्थान' कहते हैं। Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्पदप्ररूपणाद्वार ४१ ५. वामन संस्थान-जिस शरीर में छाती, पेट, पीठ आदि अवयव पूर्ण हों परन्तु हाथ पैर आदि अवयव छोटे हों उसे 'वामन संम्णान' कहते हैं। ६. हुण्डक संस्थान- जिस शरीर के समस्त अवयव टेढ़े-मेढ़े हो अर्थात् एक भी अवयव शास्त्रोक्त प्रमाण के अनुसार न हो, उसे 'हुपडक संस्थान' कहते है। (जैनेन्द्रसिद्धान्तकोश) (ठाणांग ६ सूत्र ४९५) (कर्मग्रन्थ भाग १ पृ. ४०) (प्रवचनसारोद्धार-गाथा १२६८) विशेष-समस्त गर्भज जीवों अर्थात् मनुष्यों एवं तिर्यञ्चों के छ; संस्थान होते हैं। देवों का समचतुरस्त्र संस्थान होता है तथा विकलेन्द्रिय जीवों एवं नारकी जीवों का हुण्डक संस्थान होता है। एकेन्द्रिय जीवों का संस्थान इन छहों संस्थानों से भिन्न होता है, अत: उसका विवेचन अगली गाथा में किया गया है। एकेन्द्रिय के संस्थान मस्सूरए य थियुगे सूइ पड़ागा अणेगसंठाणा । पुढविदगअगणिमारुपवणस्सईणं च संठाणा ॥५२।। गाथार्थ- पृथ्वीकाय का संस्थान (आकार) मसूर की दाल के समान, अपकाय का बुदबुदे के समान, तेजस्काय का सूई के समान, वायुकाय का पताका के समान तथा वनस्पतिकाय अनेक संस्थान वाली होती है। विवेचन-पृथ्वीकाय का आकार चन्द्र या मसूर की दालवत् और अप्काय का आकार बुदबुदे जैसा बताया गया है। तेजस्काय को (अग्नि ऊंची उठने पर नुकीली हो जाती है, अत: सूई के आकार का बताया गया है। इसी प्रकार वायुकाय को पताका के आकार का एवं वनस्पतियों को अनेक प्रकार का होने से अनेक संस्थान वाला कहा गया है। ५. शरीर ओरालिय वेडब्बिय आहारय तेथए य कम्मयए । पंच मणुएस चउरो वाऊ पंचिदियतिरिक्खं ।। ५३।। वेउब्जियतेए कम्मए य सुरनारयाय तिसरीरा । सेसेमिंदिग्रवियला ओरलियतेयकम्ममा ।। ५४।। गाथार्थ-औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तेजस् तथा कार्मण- ये पाँच शरीर हैं। इनमें से मनुष्यों में (विशिष्ट अवस्था में) पाँच शरीर तथा तिर्यश्च पझेन्द्रिय Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवसमास एवं वायुकाय के (विशिष्ट अवस्था में चार शरीर होते है। बैंक्रिय, तेजस् तथा कार्मण- ये तीन शरीर देव तथा नारक को होते हैं। इसी प्रकार एकेन्द्रिय एवं विकलेन्द्रिय जीवों को औदारिक, तेजस् तथा कार्मण-- ये तीन शरीर होते हैं। विवेचन-जो जीर्ण-शीर्ण होता है अर्थात् उत्पत्ति समय से लेकर निरन्तर जर्जरित होता रहता है, उसे शरीर कहते हैं। संसार जीवों के शरीर की रचना शरीर नामकर्म के उदय से होती है, शरीर नामकर्म कारण है और शरीर कार्य हैं। औदारिक आदि वर्गनाएँ उनका उपादान कारण हैं और औदारिक शरीर नामकर्म आदि निमित्त कारण हैं उनके लक्षण क्रमश: इस प्रकार हैं १. औदारिक शरीर-इसमें मूल शब्द उदार है। शास्त्रों में उदार के तीन अर्थ बताये गये हैं १. जो शरीर उदार अर्थात् प्रधान है- जिस शरीर से तीर्थकर, गणधर आदि पद प्राप्त हो अथवा जिस शरीर से मुक्ति प्राप्त होती है अथवा जिससे संयम की आराधना की जा सकती है, उसे प्रधान या महत्त्वपूर्ण माना जाता है। २. उदार अर्थात् विशाल। वृद्धि के स्वभाव वाले इस औदारिक शरीर की उत्कृष्ट अवगाहना कुछ अधिक एक हजार योजन है, जबकि वैक्रिय शरीर की स्वाभाविक अवगाहना मात्र पाँच सौ धनुष है। औदारिक शरीर की यह उत्कृष्ट अवगाहना स्वयंभूरमण के मत्स्य तथा कमलनाल (प्रत्येकवनस्पति) की अपेक्षा से जानना चाहिये। ३. उदार का अर्थ है मांस, हड्डी, स्नायु आदि से निर्मित शरीर। इस शरीर के स्वामी मनुष्य एवं तिर्यञ्च होते हैं। अन्य शरीरों की अपेक्षा अल्प प्रदेश वाला होकर भी परिमाण में बड़ा होने से भी यह औदारिक शरीर कहलाता है। २. वैक्रिय शरीर-विविध एवं विशिष्ट (विलक्षण) क्रिया करने वाले शरीर को बैंक्रिय शरीर कहते हैं। प्राकृत के 'वेठबिए' का संस्कृत में "विकुर्वित' रूप भी बनता है। यह दो प्रकार का होता है— लब्धि-प्रत्ययिक तथा भव-प्रत्ययिक। तप आदि से प्राप्त होने वाला लब्धि-प्रत्ययिक तथा भव अर्थात् जन्म के निमित्त से प्राप्त होने वाला भवप्रत्ययिक वैक्रिय शरीर कहलाता है। लब्धिजन्य वैक्रिय शरीर मनुष्य एवं तिर्यञ्च को तथा भवजन्य वैक्रिय शरीर नारक तथा देव को होता है। ३. आहारक शरीर-चतुर्दशपूर्वविद् मुनियों के द्वारा संशय निवारणार्थ, आगम के अर्थग्रहणार्थ या तीर्थकरों की ऋद्धि के दर्शनार्थ जो शरीर बनाया जाता है, आहारक शरीर कहलाता है। शुभ पुद्गल परमाणुओं से बना एक हाथ या Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्पदप्ररूपणाद्वार मुण्ड हाथ वाला यह आहारक शरीर प्रमत्त गुणस्थानवर्ती मुनि बनाते हैं। यह शरीर अप्रतिघाती होता है। ४. तेजसशरीर-यह शरीर कांति या तेज देने के कारण तेजस. पदार्थों को जलाने वाला होने से दाहक तथा अन्नादि पचाने के कारण पाचक है। यह दो प्रकार का है- नि:सरणात्मक और अनि:सरणात्मक। अनि:सरणात्मक तेजस् शरीर भुक्त अन्नपान का पाचक होकर शरीर में रहता है तथा औदारिक, वैक्रिय और आहारक शरीरों में तेज, प्रभा, कान्ति का निर्मित होता है। नि:सरणात्मक तेजस् सुभिक्ष, शान्ति आदि का कारण है एवं अशुभ तेजोलेश्या, नगरदाह (द्वारिका) आदि का कारण है। यह शरीर-तेजस् लन्धि से प्राप्त होता हैं। ५. कार्मण शरीर-अष्टविध कर्म समुदाय रूप कामण वर्गणाओं से बना हुआ औदारिक आदि शरीरों का कारणभूत तथा परभव में साथ जाने वाला शरीर कार्मण शरीर है। __औदारिक आदि पाँच शरीरों का यह क्रम विन्यास उनकी उत्तरोत्तर सूक्ष्मता के कारण है। औदारिक स्वल्पपुद्गलों से निष्पत्र बादर शरीर है। क्रमश: अन्य शरीर उससे उत्तरोत्तर सूक्ष्म हैं। कार्मण शरीर इतना सूक्ष्म है कि उसे देखा भी नहीं जा सकता है। जो शरीर जितने सूक्ष्म है उनमें सघनता क्रमश: अधिकाधिक है। तेजस एवं कार्मण शरीर समस्त संसारी जीवों को प्राप्त है तथा इन दोनों का अनादिकाल से सम्बन्ध है। ये दोनों सूक्ष्म शरीर मुक्ति पर्यन्त रहते हैं। विवेचन-मनुष्यों में वैक्रिय तथा आहारक लब्धिधारी मनुष्यों को पाँच शरीर होते हैं। पर एक समय में एक मुनि को चार शरीर होना ही सम्भव है। विशिष्ट प्रसंग पर शरीर को विकुर्वित कर छोटा-बड़ा करना 'विकुर्वीकरण' है। इस प्रकार की योग्यता वाला शरीर वैक्रिय शरीर कहलाता है। चौदह पूर्वधारी मुनियों द्वारा शंका निवारणार्थ आहारक पुतला बनाना-आहारक शरीर कहलाता है। तिर्यश्च तथा वायुकाय में भी बैंक्रिय शरीर की सम्भावना की अपेक्षा से चार शरीर का कथन किया गया है (आगे गाथा ५७ देखें)। योग मार्गणा सच्चे मीसे मोसे असच्चमोसे मणे य वाया य । ओरालियबेचिय आहारयमिस्सकम्मइए ।।५५।। गाथार्थ-सत्य, मृषा, सत्यमृषा (मित्र) तथा असत्यअमृषा ये चार मन के तथा ऐसे ही चार वचन के भेद हैं। औदारिक, वैक्रिय, आहारक तथा इन तीनों के मिश्र अर्थात औदारिक मिश्र, वैक्रिय मिश्र, आहारक मिश्र तथा कार्मण काययोग- ये १५ प्रकार के काययोग हैं। Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ जीवसमास विवेचन-योग का अर्थ- युज्यते इति योग:-योग अर्थात् जुड़ना। मन योग्य पुद्गलों को ग्रहण करके उन्हें मन रूप परिणमित कर मन को चिन्तन-मनन में जोड़ने वाला मनोयोग है। भाषा योग्य पुद्गलों को ग्रहण कर बोलना वचनयोग है तथा काय योग्य पुद्गलों को ग्रहण कर उनसे शरीर का निर्माण करना काय योग है। मनोयोग के चार प्रकार बताये जाते हैं। १. सत्य मनोयोग- पदार्थ जैसा है वैसा चिन्तन करना सत्य मनोयोग है। यथा जीव है. जीन शरीर परिमाण है आदि-आदि। २. असत्य मनोयोग-पदार्थ के अयथार्थ स्वरूप चिन्तन में लगा हुआ मन असत्य मनोयोग है। जैसे— जीव नहीं है, आत्मा शरीर परिमाण नहीं है आदि। ३. मिम मनोयोग-किसी मिन पदार्थ को एक साथ कहना। यथा मिले हुए मिश्री-नमक के इलों को मात्र मिश्री कहना। इसमें मिश्री को मिश्री कहना सत्य है पर नमक को भी मिश्री कह देना असत्य है। यह सत्यासत्य चिन्तन ही मिश्र पनोयोग है। ४. असस्य-अमृषा-जिन्हें सत्य या असत्य को कोटि में नहीं रखा जा सकता उन्हें अपना मया कहा " है ... नाना ने आदेशात्म भावों को इसी कोटि में रखा है। इसका विवेचन असत्यअमृषा वचनयोग में आगे करेंगे। अब वचनयोग के चार प्रकार बताते हैं-- १. सत्यभाषा-- पदार्थ जैसा है वैसा कहना सत्यभाषा है। २. असत्यभावा- पदार्थ जैसा है वैसा न कहना असत्य भाषा है। ३. मिनभाषा- जो पूर्णतः न सत्य है न पूर्णत: असत्य है यथाअश्वत्थामा हतो नरो या कुञ्जरो वा- यह मिश्रभाषा का उदाहरण है। ४. असत्य-अमृषाभाषा-असत्य-अमृषा के बारह प्रकार प्रज्ञापमा सूत्र के भाषापद २० में बताये गये है१. अज्ञापनीय -- आज्ञाकारी भाषा–यथा बिजली जला दो, उठो, बैठो, आदि। २. याचनीय _ -- याचना करने या मांगने की भाषा-यथा यह दे दो। ३. आमन्त्रणी ___ -- निमन्त्रण की भाषा—हमारे यहाँ पधारो। ४, पृच्छनीय -- पूछने की भाषा---क्या तुम अध्ययन करोगे? ५. उपदेशात्मक -- (प्रज्ञापनीय) झूठ नहीं बोलना चाहिए। ६. प्रत्याख्यानी -- किसी की मांग को अस्वीकार करना। Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७. इच्छानुकूलिका ८. अनभिग्रहिता ९. अभिप्रहिता १०. सन्देहकारिणी ११. व्याकृता -- -- -- सत्पदप्ररूपणाद्वार अपनी पसन्द को व्यक्त करना । असहमति की भाषा • अनुमोदन या स्वीकृति की भाषा । अस्पष्ट भाषा, यह सैन्धव अच्छा है। सैन्धव का अर्थ नमक तथा घोड़ा दोनों होता है। इससे वक्ता का सैन्धव से क्या आशय है यह स्पष्ट नहीं हो पाता है। ४५ — — किसी नये तथ्य को उद्घाटित नहीं करते हैं, जो पुनरावृत्ति रूप हैं। जहाँ स्पष्टतः विधि - निषेध की स्थिति न बन पाये । वे कथन १२. अव्याकृता भाषा के यह १२ प्रकार न सत्य हैं न मृषा है अतः इन्हें असत्य - अमृषा भाषा कहा गया। असत्य अमृषा मनोयोग में यह भाव अन्तरंग में रहते हैं। भाषा रूप परिणमित होने पर इन्हें वचनयोग में (असत्य - अमृषा ) में लिया जाता है। अब काय योग के ७ प्रकार बताये जाते हैं : १. औदारिक कायद्योग औदारिककाय विषयक योग औदारिक काययोग २. औदारिक मिश्र काययोग — औदारिक शरीर बनने से पूर्व अपर्याप्तावस्था में पाये जाने वाले कार्मण शरीर का संयोग औदारिक मिश्र काययोग कहलाता है। ३. वैकिय काययोग- वैक्रिय शरीर विषयक योग वैक्रिय काययोग है। वैक्रियमिश्र काययोग - वैक्रिय शरीर की अपर्याप्तावस्था में पाया जाने वाला कार्मणशरीर का योग वैक्रियमिश्र काययोग कहलाता है। ४. ५. आहारक काययोग - आहारक शरीरविषयक योग को आहारक काय योग कहते हैं। ६. आहारकमिश्र काययोग- आहारक शरीर की अपर्याप्तावस्था में : औदारिक काय का संयोग आहारकमिश्र काययोग है। : ७. कार्मण काययोग - अष्ट कर्मों का समूह कार्मण काययोग है। कार्मण काय विषयक योग विग्रहगति में तथा केवलीसमुद्घात में होता है। नोट:-- कार्मण तथा तेजस् शरीर सदा साथ रहते हैं अतः तेजस् काययोग का अलग से वर्णन नहीं किया गया है। Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ वचनयोग एवं गुणस्थान सच्चे असच्चामोसे सणी उ सजोगिकेवली जाय । सपणी जा छमत्वो सेसं संखाइ अंतवर ।।५६ ।। जीवसमास गाथार्थ - सत्य तथा असत्य अमृषायोग संज्ञी मिथ्यादृष्टि से लेकर सयोगी केवली तक होते हैं। शेष अर्थात् असत्य और सत्यासत्य (मिश्र) — ये दो योग संज्ञी मिध्यादृष्टि से क्षीणमोह अर्थात् छद्यस्थावस्था तक हैं। शंख आदि द्वीन्द्रिय जीवों की भाषा में असत्य अमृषा रूप अंतिम वचनयोग होता है। विवेचन - एकेन्द्रिय में मन तथा वचन योग का अभाव है । द्वीन्द्रिय त्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रिय तथा असंज्ञी पचेन्द्रिय में असत्य अमृषा भाषा होती है। चौदहवें गुणस्थान में योग न होने से भाषा अर्थात् वचनयोग का प्रश्न ही नहीं उठता। सत्य तथा असत्य-अमृषा वचनयोग संज्ञी मिध्यादृष्टि से लेकर सयोगी केवली तक होती है। सातवे से बारहवें गुणस्थान तक शुद्धि बढ़ने पर भी सम्पूर्णत: ज्ञानावरणादि का क्षय न होने से महराकार की अपेक्षा से सत्यासत्य भाषा योग का कथन किया गया हैं। तेरहवें गुणस्थान में सत्य तथा असत्य - अमृषा ये दो भाषायोग ही सम्भव हैं। किसके कितने शरीर काययोग होते हैं ? सुरनारया विजच्वी नरतिरि ओरालिया सवेउव्वी । आहारया पर्मसा सव्वेऽ पज्जत्तया मीसा ।। ५७ ।। गाथार्थ - देव तथा नारकी को वैक्रिय शरीर होता है। मनुष्य तथा तिर्यञ्च को औदारिक के साथ वैक्रिय शरीर भी होता है। चतुर्दशपूर्वधारी प्रमत्त साधु आहारक शरीर वाले होते हैं। अपर्याप्तावस्था में मिश्र शरीर होता है। विवेचन - देव तथा नारक की जन्म से ही वैक्रिय शरीर की प्राप्ति होती हैं। मनुष्य तथा तिर्यञ्च को तय आदि से आत्म विशुद्धि होने पर वैक्रिय लब्धि प्राप्त हो जाती है अतः वे भी वैक्रिय शरीर बना सकते हैं। प्रमत्तसंयत में आहारक शरीर की सम्भावना से पाँच शरीर हो सकते हैं एवं अपर्याप्तावस्था में औदारिक, मिश्र, वैक्रियमिश्र, आहारकमिश्र शरीर होता हैं। कार्मण योग तथा गुणस्थान मिच्छा सासण अविरय भवंतरे केवली समुहया व कम्मचओ काओगो न सम्ममिच्छो कुपण कालं ।। ५८ ।। 4 गाथार्थ - मिध्यादृष्टि, सासादन तथा अविरत सम्यग्दृष्टि को भवान्तर में जाते समय विग्रहगति करते हुए कार्मण काययोग होता है। केवली को समुद्घात करते Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | i सत्पदप्ररूपणाद्वार हुए भी कार्मण काययोग होता है। मिश्रगुणस्थानवतों जीव कभी मरण को प्राप्त नहीं करता है। ४७ विवेचन - जीव के शरीर छोड़ने तथा नया शरीर प्राप्त न होने तक विग्रह गति करते समय उसे कार्मण काययोग होता है। गाथा ५७ में छ: काययोग का वर्णन किया, इस गाथा में सातवें कार्मण काययोग का वर्णन किया गया हैं कि वह कहाँ कहाँ होता है। केवली को समुद्घात के मात्र तीसरे चौथे तथा पाँचवे समय में ही कार्मण काययोग होता है। प्रश्न – केवली समुद्घात के किस समय में केवली को कौन-सा काययोग होता हैं ? उत्तर- - केवली भगवन्त का शरीर औदारिक होने के कारण प्रथम एवं अन्तिम समय में औदारिक काययोग होता है। दूसरे, छठे तथा सातवें समय में आदारिक मिश्र काययोग होता है तथा तोसरे, चौथे व पाँचवे समय में कार्मण काययोग होता है। मिश्रगुणस्थानवतीं जीव मरण को प्राप्त नहीं होता, अतः मिश्र दृष्टि गुणस्थान में जीव की विग्रहगति सम्भव नहीं होती है। गाथा ५६,५७,५८, में योगों की स्थिति इस प्रकार है १. मिध्यादृष्टि, सासादन तथा अविरतसम्यग्दृष्टि में तेरह योग-चार प्रकार का मनोयोग, चार प्रकार का वचनयोग, औदारिक, औदारिकमिश्र, वैक्रिय, वैक्रियमिश्र तथा कार्मण काययोग ये तेरह योग होते हैं। lad २. मिश्रदृष्टि में दस योग– चार मनोयोग, चार वचनयोग, औदारिककाययोग तथा वैक्रियकाययोग होते हैं। ३. देशविरति में ग्यारह योग-उपर्युक्त दस एवं वैक्रियमिश्रयोग होते हैं । ४. प्रमत्त संयत में तेरह योग- उपर्युक्त ग्यारह तथा आहारकद्विक योग होते हैं। ५. अप्रमत्त से क्षीणमोही में नौ योग –चार मनोयोग, चार वचनयोग तथा औदारिककाययोग होते हैं । ६. सयोगी केवली को सात योग– सत्य और असत्य अमृषा रूप मनोयोग तथा वचनयोग – ये ४ एवं औदारिक, औदारिकमिश्र, कार्मण ( समुद्घात करते समय) योग होते हैं। Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ जीवसमास अयोगी में योग का अभाव - योगरहित होने के कारण एक भी योग ७. नहीं होता है। वेद तथा कषाय मार्गणा वेद तथा कषाय में गुणस्थान नेरइया य नपुंसा तिरिक्खमणुया तिवेयया हुति । देवा य इत्विपुरिसा गेविज्जाई पुरिसवेया ।। ५९ ।। अनियन्त नपुंसा सश्रीपंचिंदिया व श्रीपुरिसा । कोहो माणो माया नियट्टि लोभो सरागंतो । । ६० ।। गाथार्थ - नारकों में मात्र नपुंसक वेद, तिर्यच तथा मनुष्यों में तीनों वेद, वैमानिक देवों में स्त्री और पुरुष – यह दो वेद तथा मैवेयक आदि देवों में मात्र पुरुषवेद होता हैं। संज्ञी पश्चेन्द्रिय जीवों में अनिवृत्तिबादरसम्पराय नामक गुणस्थान तक स्त्री, पुरुष तथा नपुंसक - ये तीन वेद होते हैं। क्रोध, मान और माया— ये तीन कषाय भी अनिवृत्तिबादरसम्पराय तक होते हैं, किन्तु लोभ सूक्ष्मसम्पराय नामक दसवें गुणस्थान तक रहता हैं । स्त्रीवेद - जैसे पित्त से मधुर पदार्थ की रुचि होती है उसी प्रकार जिस कर्म के उदय से स्त्री को पुरुष के साथ रमण करने की इच्छा होती हैं, उसी को स्वी वेद कहते हैं। के पुरुषवेद - जैसे कफ से खट्टे पदार्थ की रुचि होती हैं वैसे ही जिस कर्म उदय से पुरुष को स्त्री के साथ रमण करने की इच्छा होती है, उसे पुरुष वेद कहते हैं। नपुंसक वेद- जैसे पित्त और कफ के प्रभाव से मद्य के प्रति रुचि होती हैं उसी तरह जिस कर्म के उदय से नपुंसक को स्त्री-पुरुष दोनों साथ रमण करने की अभिलाषा होती हैं, उसे नपुंसक वेद कहते हैं। ( अभिधानराजेन्द्रकोश, भाग, ६, पृष्ठ १४२७ ) ( बृहदकल्प, उद्देशक ४ ) ( कर्मग्रन्थ १/ २२) | विवेचन - वेद अर्थात् पुरुष को स्त्री से, स्त्री को पुरुष से तथा नपुंसक को दोनों (स्त्री-पुरुष ) से भोग करने के जो भाव होते हैं, उसे वेद कहते हैं। वेद भी दो प्रकार के हैं। १. द्रव्यवेद अर्थात् शारीरिक संचरना तथा २ भाववेद अर्थात् — काम वासना । Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ gu सत्पदप्ररूपणाद्वार ४९ द्रव्यवेद शारीरिक संरचना को और भाववेद तत्सम्बन्धी कामवासना को कहते हैं। यह वासनाजन्य भाव कहाँ तक बने रहते हैं, उसका उत्तर जीवसमास की गाथा ६० में दिया गया है। दसवें गुणस्थान में कामवासनाजन्य भावों का अभाव होता है क्योंकि वेद अर्थात् कामवासना का अन्त नवें गुणस्थान में ही हो जाता है, उसके पश्चात् मात्र द्रव्यलिंग अर्णत छापरीरिक संरचना है तुज भाल नहीं रहते हैं । सूक्ष्मलोभ को छोड़कर अन्य कषाय भी अनिवृत्तिबादर सम्पराय नामक गुणस्थान तक ही होते हैं, अर्थात् तीनों वेद तथा तीनों कषाय नवें गुणस्थान तक ही रहते हैं उससे आगे नहीं । वेदत्रिक और कषायत्रिक का उदय नवे गुणस्थान में समाप्त हो जाता है । ( कर्मग्रन्थ २ / १८, १९) । ज्ञान मार्गणा आभिणिसुओहिमणकेवलं व नाणं तु होइ पंचविहं । उग्गह ईह अवाय धारणाऽऽभिणिवोहियं धउहा ।। ६१ ।। गाथार्थ – आभिनिबोधिकज्ञान ( मतिज्ञान), श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनः पर्यव ज्ञान तथा केवलज्ञान- ये पाँच प्रकार के ज्ञान हैं। आभिनिबोधिक ज्ञान या मतिज्ञान भी चार प्रकार का हैं- १. अवग्रह, २. ईहा, ३. अवाय और ४. धारणा । - विवेचन १. मतिज्ञान - अभि अर्थात् सम्मुख रहे पदार्थ का जो बोध कराये वह आभिनिबोधिकज्ञान ( मतिज्ञान) है। २. श्रुतज्ञान- सुनकर अथवा शास्त्र को पढ़कर जो ज्ञान हो वह श्रुतज्ञान हैं। ३. अवधिज्ञान- इन्द्रियों की सहायता के बिना एक निश्चित अवधि ( सीमा क्षेत्र) तक की भौतिक वस्तुओं का ज्ञान होना अवधिज्ञान हैं। ४. मनः पर्यवज्ञान - इन्द्रियों की सहायता के बिना संज्ञी जीव के मनोगत भावों को जान लेना मनः पर्यवज्ञान है। ५. केवलज्ञान - जो ज्ञान परिपूर्ण हैं, जिसमें त्रिकाल, त्रिलोक का बोध एक समय में हो जाता है तथा जो आत्मद्रव्य के पूर्णतः निर्मल होने पर होता हैं, वह ज्ञान केवलज्ञान हैं। पंचहिदि इंदिएहिं मurer अस्थोग्गहो मुणेथयो । चक्खिदिग्रमणरहि वंजणमीहाइयं छ५ ।। ६२ ।। Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवसमास गाथार्थ - अवग्रह पाँच इन्द्रियों तथा मन से होता है। व्यंजनावग्रह मन तथा चक्षु को छोड़कर मात्र चार इन्द्रियों से होता है। इसी प्रदाय और धारणा पाँच इन्द्रियों तथा मन से होने के कारण वे छह-छह प्रकार के हैं। विवेचन ५० अवग्रह १. (ख) अर्थावग्रह ) - दो प्रकार का होता है- (क) व्यंजनावग्रह तथा (क) व्यंजनावग्रह — चार प्रकार का होता है। मन तथा चक्षु को छोड़कर शेष चार इन्द्रियों से पदार्थ का संयोग होने पर जो अव्यक्त स्पर्शानुभूति होती है, वह व्यंजनावग्रह है। (ख) अर्थावग्रह — व्यंजनावग्रह की अपेक्षा व्यक्त किन्तु ईहा, अवाय की अपेक्षा सूक्ष्मबोध अर्थावग्रह है । पाँच इन्द्रियों एवं मन के माध्यम से होने वाले इस ज्ञान में बोध की अस्पष्टता रहती हैं। मात्र इतना भान होता हैं कि कुछ हैं परन्तु यह क्या है इसका स्पष्ट निर्णय नहीं हो पाता है। " २. ईहा आकाश में किसी वस्तु को उड़ता हुआ देखकर यह विचार करना कि यह पतंग है या कोई पक्षी ईहा है। - ३. अवाय - यह पंतग ही है- ऐसा निर्णय लेना अवाय है। ४. धारण्य - निर्णित पदार्थ को बुद्धि में धारण कर लेना धारणा है। जिससे कालान्तर में उसे देखने पर तुरन्त निर्णय दिया जा सके कि यह वही वस्तु हैं जिसे मैंने पूर्व में देखा था। अंगपविडियर ओहि भवे पतिगुणं च विज्ञेयं । सुरनारएसु य भवे भवं प्रति सेसमियरेसुं ।। ६३ । । गाथार्थ -- श्रुत के दो भेद हैं- अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य । इस प्रकार अवधिज्ञान के भी भवप्रत्यय और गुणप्रत्यय — ये दो भेद हैं। देवों तथा नारकों में भवप्रत्यय अवधिज्ञान होता है तथा शेष अर्थात् मनुष्य और संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यों में गुणप्रत्यय अवधिज्ञान होता है। विवेचन - श्रुतज्ञान के दो भेद हैं १. अंगप्रविष्ट - आचारांग आदि ग्यारह अंग तथा दृष्टिवाद को अंगप्रविष्ट कहा गया है। २. अंगबाह्य - उत्तराध्ययन, दशवैकालिक, आवश्यक आदि अंगबाह्य हैं। Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्पदप्ररूपणाद्वार अवधिज्ञान के भी दो भेद है १. भवप्रत्यय-- जन्म से पाया जाने वाला अवधिज्ञान भवप्रत्यय कहलाता है। यह देवों तथा नारकी को होता है। २. गुणप्रत्यय-आत्मनिर्मलता, तप आदि से जिस अवधिज्ञान की प्राप्ति होती है उसे गुणप्रत्यय कहा जाता है। यह मनुष्यों तथा तिर्यचों को होता है। अणुगामि अवद्रियहीयमाणमिड तं भवे सपडिवरखं । उज्जुमई विउलमई मणनाणे केवलं एक्कं ।।६४।। गाथा - अनुगामी, अवस्थित प्रसिपा), होपमाः, तथा इन तीनों के प्रतिपक्षी अर्थात् विपरीत-अननुगामी, अनवस्थित (प्रतिपाती) तथा वर्धमान ये छ: प्रकार के अवधिज्ञान है। ऋजुमति तथा विपुलमति ये मनःपर्यवज्ञान के दो भेद हैं। केवलज्ञान अकेला होता है उसका कोई भेद नहीं है। विवेचन- अवधिज्ञान के छह भेद हैं - १. अनुगामी अवधिज्ञान-- जो एक क्षेत्र को छोड़कर दूसरे क्षेत्र में जाने पर भी सदैव साथ रहे उसे अनुगामी अवधिज्ञान कहते हैं। २. अननुगामी अवधिज्ञान-- जो क्षेत्रान्तर होने पर साथ न जाये वह अननुगामो अवधिज्ञान है। ३. अवस्थित (अप्रतिपाती) अवधिज्ञान-जो उत्पन्न होने के बाद जीवन पर्यन्त जाता नहीं है, वह अवस्थित अवधिज्ञान है। ऐसा अवधिज्ञान देव तथा नारकी में होता है। मनुष्यों को भी अप्रतिपाती अवधिज्ञान हो सकता है। ४. अनवस्थित (प्रतिपाती) अवधिज्ञान-जो अवधिज्ञान उत्पन्न होने के पश्चात् चला जाता है, वह अनवस्थित अवधिज्ञान है। यह मनुष्यों एवं तिर्यचों में पाया जाता है। ५. हीयमान अवधिज्ञान-जो पूर्णिमा के चन्द्रमा के समान निरन्तर घटने वाला हो वह हीयमान अवधिज्ञान है। ६. वर्षमान अवधिज्ञान-- जो प्रतिपदा के चन्द्रमा के समान निरन्तर बढ़ने ' वाला हो वह अवधिज्ञान वर्धमान कहलाता है। मन:पर्ययज्ञान के दो भेद हैं १. ऋजुमति मनःपर्ययज्ञान-जो मन के स्थूल क्रमबद्ध पर्यायों को और उनके विषय को सामान्य रूप से जानता है वह ऋजुमति मन:पर्ययशान है। Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ जीवसमास २. विपुलमति मनःपर्ययज्ञान-जो मन के पर्यायों के विषय को विशेष रूप से, अधिक गहराई से जानता है वह विपुलमति मनःपर्ययज्ञान है। ऋजुमति की अपेक्षा विपुलमति विशुद्धतर होता है, क्योंकि वह सूक्ष्मतर विषयों को भी स्पष्टतया जानता है। ऋजुमति उत्पत्र होने के बाद कभी नष्ट भी हो जाता है पर विपुलमति केवलज्ञान की प्राप्तिपर्यन्त बना रहता है। अवधिज्ञान तथा मनःपर्ययज्ञान का अन्तर १. शद्ध-अवधिज्ञान की अपेक्षा मन:पर्ययज्ञान अधिक शुद्ध है, क्योंकि अवधिज्ञान नरकादि में भी परम्त मन:पयना पत्र पाष्प को ही होगा है: २. क्षेत्र- अवधिज्ञान का क्षेत्र सम्पूर्णलोक तक हो सकता है जबकि मन:पर्ययज्ञान का क्षेत्र मात्र मानुषोत्तर पर्वत तक है। अत: क्षेत्र की अपेक्षा इसका क्षेत्र कम है। ३. स्वामी- अवधिज्ञान के स्वामी चारों गति वाले हो सकते हैं परन्तु मन:पर्यय के स्वामी मात्र संयमी साधु ही हो सकते हैं। ४. विषय-अवधिज्ञान का विषय रूपी-द्रव्य है परन्तु मनःपर्ययज्ञान का विषय तो उस रूपी द्रव्य का भी अनन्तवाँ भाग मात्र मनोद्रव्य है। केवलज्ञान- अकेला होता है। तत्त्वार्थसूत्र के प्रथम अध्याय के तीसवें सूत्र में कहा है "सर्वद्रव्यपर्यायेषु केवलस्य" केवलज्ञान की प्रवृत्ति सभी द्रव्यो और उनकी सभी पर्यायों में होती है। प्रश्न-मिथ्यादृष्टि व्यक्ति के मति एवं श्रुत ज्ञान को अज्ञान क्यों कहा गया है? उत्तर- आत्म-अनात्मविवेक के अभाव में सारे ही ज्ञान अज्ञानवत् हैं जैसे शिक्षित, सुन्दर, सम्पन्न, सत्ता एवं सम्मान को प्राप्त पुत्र भी यदि माता-पिता की आज्ञा का पालन नहीं करता, उनका विनय नहीं करता है तो वह सुपुत्र नहीं कहलाकर कुपन ही कहलाता है। इसी प्रकार आत्मज्ञान के अभाव में ज्ञान भी अज्ञान रूप ही होता है। ज्ञान एवं गुणस्थान महसुव मिच्छा साणा विभंग समणे न मीसए मीसं । सम्मच्छउमाभिणिसओहि विरयमण केवल सनामे ।।५।। गाथार्थ-मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में एवं सास्वादन गुणस्थान में मति तथा श्रुत अज्ञान रूप हैं। मिथ्यादृष्टि समनस्क प्राणी के अवधिज्ञान को भी विभंगज्ञान कहा जाता है। अत: प्रथम तीन ज्ञान अज्ञानरूप भी हो सकते हैं। मिश्र गणस्थान में Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्पदप्ररूपणाद्वार ५३ मति श्रुत एवं अवधि ज्ञान भी मिश्रज्ञान होते हैं। सम्यक्त्व की प्राप्ति से लेकर छद्मस्थ अवस्था तक अर्थात् सम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर क्षीणमोह तक मति, श्रुत तथा अवधिज्ञान सम्यग्ज्ञान होते हैं। किसी विस्तमुनि को उक्त तीनों ज्ञानों के साथ मन:पर्ययज्ञान भी हो सकता है। सयोगी केवली एवं अयोगी केवली को स्वनामानुरूप केवलज्ञान होता है। विवेचन - प्रथम दो गुणस्थानों में मतिज्ञान एवं श्रुतज्ञान अज्ञानरूप होता हैं। समनस्क प्राणी के सास्वादन गुणस्थान की अवस्था में आंशिक सम्यग्दर्शन की उपस्थिति होती हैं फिर भी इसमें उसे अनुशंषा के उदय से दूषित होने के कारण अज्ञानरूप माना है। यही कारण है कि इस गुणस्थान में मात्र मन्ति, श्रुत एवं विभंग ये तीन अज्ञान ही स्वीकार किये गये हैं। शेष गाथा का अर्थ स्पष्ट है। चतुर्थ गुणस्थान में सम्यग्दर्शन की उपस्थिति के कारण मात्र पति, श्रुत एवं अवधि ये तीन ज्ञान ही होते हैं अज्ञान नहीं। संयमी / सर्वविरत के अधिकतम चार ज्ञान एक साथ हो सकते हैं । केवली को तो मात्र केवलज्ञान होता है। ८. संयम मार्गणा अजया अधिरयसम्या देसे विरया यहुति सणे । लामाइयछेयपरिहारसुतुमअहक्खाणो संयम एवं गुणस्थान विरया ।।६६ । गाथार्थ — अविरत सम्यक्त्व नामक चतुर्थ गुणस्थान तक सम्यक्चारित्र होता है । देशविरति चारित्र पाँचवें गुणस्थान में ही होता है। सामायिक, छेदोपस्थापनीय, परिहार विशुद्धि, सूक्ष्मसम्पराय तथा यथाख्यातचारित्र सर्वविरत को नहीं होते हैं। विवेचन १. मिथ्यात्व सास्वादन, मिश्र तथा अविरत सम्यग्दृष्टि वाले सभी जीव - असंयत होते हैं। · २. संयतासंयत रूप चारित्र देशविरतिगुणस्थान में होता हैं। ३. सर्वविरत संयमी को पाँचों चारित्र अर्थात् सामायिक, छेदोपस्थापनीय, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसंपराय तथा यथाख्यात होते हैं। नोट- पाँचों चारित्रों का विस्तृत विवेचन जानने हेतु आगे गाथा १४३ की व्याख्या देखें । Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवसमास समाझ्यछेया जा नियट्टि परिहारमध्यमा । सुरुमा सुहुमसरागे उवसंताई अहक्खाया ।।६७।। गावार्थ - सामायिक तथा छेदोपस्थापनीय चारित्र प्रमत्तसंयत नामक छठे गुणस्थान से अनिवृत्ति बादरसम्पराय नामक नवें गुणस्थान तक होते हैं। परिहार विशुद्धि चारित्र अप्रमत्तसंयत गुणस्थान में होता है। सूक्ष्मसम्पराय चारित्र सूक्ष्मसम्पराय नामक दसवें गुणस्थान में होता है तथा यथाख्यातचारित्र उपशान्त मोह आदि अन्तिम चार गुणस्थानों में होता है । ५४ विवेचन - सामायिक तथा छेदोपस्थापनीय चारित्र चार गुणस्थानों अर्थात् प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत, अपूर्वकरण तथा अनिवृत्ति बादर सम्पराय गुणस्थानों में होता है। परिहार विशुद्ध आस्थान में होता है। सूक्ष्म संपराय चारित्र दसवें गुणस्थान में तथा यथाख्यात्तचारित्र उपशान्त नामक ग्यारहवें गुणस्थान से लेकर चौदहवें अयोगी केवली गुणस्थान तक रहता है। नोट- प्रथम चार गुणस्थानों में संयम न होने से चारित्र का अभाव है। पाँचवे गुणस्थान में भी संयमासंयम होने से देशविरत चारित्र है। अतः पाँच चारित्रों का विकासक्रम छठे गुणस्थान से प्रारम्भ होता है। श्रमणों के प्रकार समणा पुलाय बसा कुसील निम्गंथ तह सिणाया य । आइतियं सकसाई वियराय छउमा य केवलिणो ।।६८ गाथार्थ - श्रमणों के पाँच प्रकार हैं- १. पुलाक, २. बकुश, ३. कुशील, ४. निर्णय तथा ५ स्नातक। इनमें पुलाक, बकुश और कुशील ये तीन सकषायी हैं। निर्मथ- वीतराग किन्तु छद्मस्थ होते हैं। स्नातक केवली होते हैं। विवेचन – चारित्र का सद्भाव होने पर भी मोहनीय कर्म की विचित्रता के कारण श्रमणों के कई प्रकार हो जाते हैं। जैन परम्परा में श्रमणों के पाँच प्रकारों की चर्चा है १९. पुलाक- जैसे धान काटने के बाद उसके पुले बाँध कर ढेर लगा देते हैं। उस ढेर में धान कम और भूसा एवं घास अधिक होता है ऐसे ही जिन श्रमणों में गुण कम एवं दुर्गुण अधिक हो उन्हें पुलाक कहा जाता है। * २. वकुश - जिस प्रकार छिलके सहित धान में धान और भूसा दोनों होते हैं, ऐसे ही जो श्रमण गुण-अवगुण दोनों के धारक होते हैं वे बकुश कहे जाते हैं। उनके दो भेद हैं- १. उपकरण बकुश एवं २. शरीर बकुश। ऐसे श्रमण Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५ सत्पदप्ररूपणाद्वार वस्त्र आदि उपकरणों में ममत्व रखने के कारण उपकरण बकुश तथा शरीर के प्रति ममत्व रखने के कारण शरीर बकुश कहलाते हैं। ३. कुशील-जो संयम पालन करते हुए भी इन्द्रियाधीन बनकर मूल गुणों या उत्तरगुणों की विराधना कर दोष लगा लेते हैं किन्तु पुन: पश्चात्ताप कर लेते हैं वे कुशील कहलाते हैं। इनके दो भेद हैं-- १. प्रतिसेवना कुशील तथा २. कषाय कुशील। आचार के नियमों का भंग करने वाले प्रतिसेवना कुशील कहलाते हैं। संज्वलन कषायों के उदय से क्रोधादि के आवेश में आ जाने वाले कषाय-कुशील होते हैं। ४. निय-जैसे तेज हवा चलने पर धान का भूसा उड़ जाने के बाद धान में मात्र कुछ कंकर शेष रह जाते हैं ऐसे ही चारित्र के बहुत कुछ शुद्ध हो जाने पर जिनमें दोष रह जाते हैं. : पूणि माहे जाते हैं। ये मनि अपने मूलगुणों या उत्तरगुणों में कोई दोष नहीं लगाते हैं परन्तु इनमें किञ्चिद् लोभ अर्थात् अपने अस्तित्व का लोभ शेष रहता है। इनके भी दो प्रकार हैं १. उपशान्त कषायी एवं २. क्षीण कषायी। राख से ढके हुए अंगारे के समान जिनका कषाय पूर्णत: निर्मूल नहीं होता, वे उपशान्त कषायी हैं। पानी से बुझे हुए अंगारे के समान जिनके कषाय पूर्णतः समाप्त हो गये हैं वे क्षीणकषायो कहे जाते हैं। ५. स्नातक-जैसे कंकरों को निकालकर, धान को धोकर, साफ कर लिया जाता है ऐसे ही घाती कर्मरूपी मैल को धोकर साफ कर देने वाले मुनि स्नातक या केवली कहलाते हैं। ये केवली भी दो प्रकार के हैं- १. सयोगी केवली तथा २. अयोगी केवली। योग अर्थात् मन, वचन एवं काय की प्रवृत्ति शेष रहने पर सयोगी तथा योग का निरोध हो जाने पर अयोगी केवली कहा जाता है। इन पाँच प्रकारों के भी पाँच-पाँच प्रकार ठाणांग, स्थान ५ उद्देशक ३ सूत्र ४४५; भगवतीशतक २५, उद्देशक ६, सूत्र ७५१ के टिप्पण एवं पंचनिमेथीप्रकरण गाथा ४१ में बताये गये हैं। ९. दर्शन मार्गणा दर्शन एवं गुणस्थान चरिंदियाइ छउसे चक्षु अधक्खू प सब छउपत्ये । सम्मे ये ओहिदंसी केवलदंसी सनामे य।।६९।। गाथार्थ- अचक्षुदर्शन सभी छदास्थ प्राणियों को होता है किन्तु चतुरेन्द्रिय से लेकर छगस्थ अवस्था तक के प्राणियों को चक्षुदर्शन भी होता है। सम्यग्दृष्टि में अवधि दर्शन होता है तथा केवली में केवलदर्शन होता है। Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ F ५६ जीवसमास १. बदर्शन-चक्षु अर्थात् आंखों के माध्यम से पदार्थ की अनुभूति करना। २. अवनदर्शन- चक्षु के बिना अन्य इन्द्रियों के माध्यम से पदार्थ की अनुभूति करना। ३. अवधि दर्शन- आत्मा की निर्मलता से अथवा भवप्रत्यय से बिना इन्द्रियों की सहायता से निश्चित संता बोक के पद की अनुभूति करना। ४. केवल दर्शन- परिपूर्ण निर्मल आत्मा के द्वारा समग्न लोक के पदार्थों की त्रैकालिक अवस्थाओं का बोध होना। १०. लेश्या मार्गणा लेश्या एवं गुणस्थान किण्हा नीला काऊ अविरयसम्मत संजयंतऽपर । तेऊ पम्हा सपणऽप्यमायसुक्का सजोगता ।।७।। गाथार्थ- कृष्णा, नील एवं कापोत- ये तीन लेश्याएं अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान तक होती हैं। एक अन्य मत के अनुसार ये तीनों लेश्याएँ प्रमत्तसंयत गुणस्थान तक भी होती हैं। तेजस् और पद्म ये दो लेश्याएँ समनस्क मिथ्यादृष्टि से अप्रपत्तसंयत गुणस्थान तक हो सकती हैं। शुक्ल लेश्या मिथ्यात्व गुणस्थान से लेकर सयोगी केवली गुणस्थान तक हो सकती है। विवेचन-शुक्ल लेश्या तो प्रथम से लेकर अन्तिम सयोगी केवली गुणस्थान तक हो सकती है। उत्तरोत्तर आध्यात्मिक विकास में क्रमश: अशुभ लेश्याएँ छूटती जाती हैं। तीन अशुभ लेश्याएं चौथे अथवा मतान्तर से छठे गुणस्थान तक ही होती है उसके आगे नहीं। तेजोलेश्या एवं पद्मलेश्या अप्रमत्तसंयत गुणस्थान तक होती है। अयोगी केवलो तो लेश्या से रहित होते हैं। लेश्या किसे कहते हैं यह आगे स्पष्ट किया जाता हैलेश्या विवेचन १. श्रीहरिभद्रसूरि ने आवश्यक टीका पृष्ठ ६४५/१ पर प्रमाण रूप से एक प्राचीन श्लोक दिया है जिसका अर्थ है- आत्मा का सहज स्वरूप स्फटिक के समान निर्मल है, उसके जो कृष्ण, नील आदि भिन्न-भिन्न परिणाम अनेक रंग वाले पुद्गल विशेष के प्रभाव से होते हैं उन्हें लेश्या कहते हैं। २. पंचसंग्रह गाथा १४२ के अनुसार जिसके द्वारा जीव पुण्य और पाप से अपने आपको लिप्त करता है अर्थात् उनके आधीन होता है ऐसौ कषाय अनुरंजित योग प्रवृत्ति को गणधरों ने लेश्या कहा है। Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्पदप्ररूपणाद्वार ३. जिसके द्वारा आत्मा कर्मों से लिप्त होती है अर्थात् बन्धन में आती है वह लेश्या है। ५. नाभ्ययन की बहद वत्ति में लेश्या का अर्थ आमा, कान्ति, प्रभा या छाया किया गया है। ५. यापनीय आचार्य शिवार्य ने भगवतीआराधना में छाया पुद्गल से प्रभावित जीव के परिणामों (मनोभावों) को लेश्या माना है। जैनागमों में लेश्या दो प्रकार की मानी गयी है- १. द्रव्य लेश्या और २. भाव लेश्या। द्रव्यलेश्या पौद्गलिक है और भावलेश्या मनोवृत्ति रूप है। ९. द्रव्यलेश्या-द्रव्यलेश्या सूक्ष्म भौतिक तत्त्वों से बनी वह संरचना है जो हमारे मनोभावों एवं तज्जनित कर्मों का सापेक्ष रूप में कारण अथवा कार्य बनती है, जिस प्रकार पित्त द्रव्य की विशेषता से स्वभाव में ऋद्धता आती है और क्रोध के कारण पित्त का निर्माण बहुल मात्रा में होता है उसी प्रकार इन सूक्ष्म भौतिक तत्त्वों से मनोभाव बनते हैं और मनोभाव के होने पर इन सूक्ष्म संरचनाओं का निर्माण होता है। २. भावलेश्या-यह लेश्या आत्मा के अध्यवसाय या अन्त:करण की वृत्ति है। भाव-लेश्या मनोगत भाव है जो संक्लेश और योग से अनुगत है। संक्लेश के तीव्रतम, तीव्रतर, तीव्र, मन्द, मन्दतर तथा मन्दतम आदि अनेक भेद होने से भाव लेश्या अनेक प्रकार की है तथापि संक्षेप में ६ भेद बताकर जैन दर्शन में उसके स्वरूप का वर्णन किया गया है। अप्रशस्त मनोभाव प्रशस्त मनोभाव १. कृष्णलेश्या -तीव्रतम अप्रशस्त मनोभाठ ४. तेजोलेश्या - मन्द प्रशस्त मनोभाव २. मीललेश्या -तीन अप्रशस्त मनोभाव 4. पद्मलेश्या - तीव्र प्रशस्त मनोभाव ३, कापोतलेश्या -मंद अप्रशस्त मनोभाव ६. शुक्ललेश्या - तीव्रतम प्रशस्त मनोभाव दृष्टान्त- इन छ: भेदों को समझने के लिए शास्त्रों में दो दृष्टान्त दिये गये हैं। छ: पुरुष मार्ग में चले जा रहे थे। मार्ग में उन्हें भूख लगी और उसी समय उन्होंने एक जामुन का वृक्ष देखा। उसे देख एक व्यक्ति ने कहा कि वृक्ष के ऊपर चढ़ने की अपेक्षा हम इस वृक्ष के काट कर गिरा दें और फलों से अपनी क्षुधा की निवृत्ति कर लें। यह सनकर दूसरे ने कहा- वृक्ष को काटने से क्या लाभ? केवल इसकी शाखाओं को काट देने से भी अपना काम बन जायेगा। तीसरे ने कहा- यह उचित नहीं है, हम मात्र छोटी-छोटी प्रशाखाओं या डालियों को तोड़कर भी अपनी क्षुधा शान्त कर सकते हैं। तब चौथे ने कहा- छोटी शाखा Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ जीवसमास भी क्यों तोड़े ? हम फलो का गुच्छा तोड़कर भी अपना काम चला सकते हैं तब पाँचवें ने कहा नहीं नहीं गुच्छे से भी हमें क्या मतलब है? हमें मात्र पके हुए जामुन चाहिये अतः पके हुए जामुन तोड़कर हम अपना पेट भर लेंगे। तब ही उत्तम भावों में जीने वाला छठा व्यक्ति बोल उठा- हमें केवल पके हुए फल चाहिये । पके हुए जामुन के फल जमीन पर ही इतने गिरे हुए हैं कि उनको उठाकर खाने से भी हम सभी की क्षुधा शान्त हो जायेगी। दूसरा दृष्टान्त – छः पुरुष धन लूटने के इरादे से जा रहे थे रास्ते में किसी गाँव को देखकर एक टे कड़ा इस गाँव को तहस-नहस कर दो। पशु-पक्षी मनुष्य जो मिले सभी को मार कर धन ले लो, दूसरे कहा— पशु-पक्षी या अबोध बालकों को क्यों मारना - केवल स्त्री-पुरुषों को ही मारना। तीसरे ने कहा- स्त्रियों को नहीं मारना, मात्र पुरुषों को ही मारना। चौथे ने कहा- सब पुरुषों को भी नहीं मारना चाहिए मात्र शस्त्रधारी को मारना । पाँचवें ने कहा— शस्त्रधारी में भी मात्र प्रतिकार करने वाले को मारना । छठे ने कहा- हमें धन से प्रयोजन है अतः किसी को भी न मारते हुए किसी भी युक्ति से धन हरण कर लो। एक तो किसी का धन लेना फिर उसे मार भी देना यह उचित कार्य नहीं हैं। इन दो दृष्टान्तों से लेश्याओं के उत्तरोत्तर विकास की मनोभूमियों को स्पष्ट जाना जा सकता है। चित्तवृत्ति या मनोदशा की अशुभतम से लेकर शुभतम तक की अवस्थाओं को ही क्रमशः कृष्ण, नीलादि नाम दिये गये हैं। - कृष्णलेश्यावाला व्यक्ति अतिरौद्र परिणामी, महाक्रोधी, महाईर्ष्यावाला, अत्यन्त पापी, निर्दयी और बात-बात में वैर विरोध खड़ा करने वाला तथा धर्मभावना से रहित होता है। ऐसा व्यक्ति मरकर नरक में जाता है। नीललेश्यावाला व्यक्ति - आलसी, जड़बुद्धि, स्त्री लम्पट, परवञ्चक, डरपोक, अभिमानी, हठप्रिय होता है। यह मरकर प्रायः एकेन्द्रिय जीवों में जन्म लेता है। कापोतलेश्यावाला व्यक्ति शोक सन्ताप में निमग्न, महारोषी, स्वप्रशंसक, परनिन्दक एवं लड़ने में मजबूत होता है तथा मरकर प्राय: निकृष्ट तिर्यगति में जाता है। " — तेजोलेश्यावाला व्यक्ति विद्वान्, दयालु, कार्याकार्य का विचारक, लाभालाभ का ज्ञाता तथा जीव मात्र के प्रति प्रेम वाला होता है, मरकर मनुष्यगति में जाता है। - पद्मलेश्यावाला व्यक्ति - क्षमाशील, सरलस्वभावी, दानी, अहिंसक, व्रतों का पालक, पवित्राशयी और धर्मपरायण होता है तथा मरकर देवगति में जाता है। Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 1 1 | सत्पदप्ररूपणाद्वार ५९ शुक्ललेश्यावाला व्यक्ति- रागद्वेष रहित, हर्ष-शोक रहित, परोपकारी, परमात्म गुण विलासी होता है तथा मरकर मोक्ष मे जाता है। (उपदेशप्रासाद, स्तम्भ १, व्याख्यान २२६ से उद्धत ) | इन लेश्याओं के वर्ण, गन्ध, स्पर्श आदि का विचार निम्न प्रकार से मिलता है कृष्णलेश्या - कृष्ण लेश्या का पुद्गल द्रव्य - वर्ण की अपेक्षा से भैंसे के तुल्य कृष्णवर्ण का, गंध की अपेक्षा से मृत कलेवर से भी अनन्तगुना दुर्गन्धयुक्त, रस की अपेक्षा से कड़वी तुम्बी, नीम से अनन्तगुना कटु तथा स्पर्श की अपेक्षा सेना खुरदरा होता है। नीललेश्या - नीललेश्या का पुद्गल द्रव्य - वर्ण की अपेक्षा से वैडूर्य मणि के समान वर्णवाला, गन्ध की अपेक्षा से मृत कलेवर से कुछ कम दुर्गन्ध वाला, रस की अपेक्षा से त्रिफला, साँठ एवं पीपलामूल से अनन्तगुना तीखा स्वादवाला तथा स्पर्श की अपेक्षा से जीभ के स्पर्श से अनन्तगुना खुरदरा होता है। कापोतलेश्या - कापोत लेश्या से सम्बन्धित पुद्गल द्रव्य - वर्ण की अपेक्षा से कबूतर की गर्दन के जैसा रंग वाला, गन्ध की अपेक्षा से नील लेश्या की गन्ध से कुछ कम दुर्गन्ध वाला, रस की अपेक्षा से कच्ची केरी, आंवला, कोलु के स्वाद से अनन्तगुना खट्टा एवं कर्षला तथा स्पर्श की अपेक्षा से भाजी के पत्तों के स्पर्श से अनन्तगुना कठोर होता है। तेजोलेश्या - तेजोलेश्या से सम्बन्धित पुद्गल द्रव्य - वर्ण की अपेक्षा से हिंगलु, प्रवाल, सूर्यकिरण, तोते की चोंच एवं दीपक की ज्योति के समान, गन्ध की अपेक्षा से सुगन्धित इत्र के समान, रस की अपेक्षा से पके हुए आम, पके केले से अनन्तगुना मिष्ट रस वाला, स्पर्श की अपेक्षा से आकड़े की रुई, मक्खन, शिरीष के फूल से अनन्तगुना कोमल स्पर्शवाला होता है। पद्मलेश्या – पद्मलेश्या का पुद्गल द्रव्य - वर्ण की अपेक्षा से चूरी हुई हल्दी, सन के फूल के समान, गन्ध की अपेक्षा से तेजोलेश्या की गन्ध से अधिक सुगन्ध, रस की अपेक्षा से द्राक्ष के रस से अनन्तगुना मीठे रस वाला तथा स्पर्श की अपेक्षा से तेजोलेश्या के स्पर्श से अधिक कोमल स्पर्श वाला होता है। L शुक्लेश्या - शुक्ललेश्या से सम्बन्धित द्रव्य - वर्ण की अपेक्षा से शंख, कुन्द, दुग्ध, श्वेतपुष्प के समान रंग वाला, गन्ध की अपेक्षा से तेजोलेश्या की गन्ध से अधिक सुगन्धवाला, रस की अपेक्षा से खजूर, द्राक्ष, खीर, शक्कर के स्वाद से अनन्तगुना मीठे स्वादवाला तथा स्पर्श की अपेक्षा तेजोलेश्या के स्पर्श से अधिक कोमलतम जानना चाहिये । Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवसमास पृथ्वीकाय आदि में लेश्या पुरविंदगहरिय भवणे वण जोइसिया असंखनर तिरिया। सैसेगिंदियषियला तियलेसा भावलेसाए ।।७१।। गाथार्य-पृथ्वीकाय, अप्काय, वनस्पतिकाय, भवनपति, व्यन्तर, असंख्यात वर्ष की आयु वाले तिर्य तथा मनुष्य को कृष्ण, नील, कापोत तथा तेजस् ये चार लेश्याएं हो सकती है। ज्योतिष्क देवों में तेजोलेश्या ही होती है। शेष एकेन्द्रिय एवं विकलेन्द्रिय जीवों में कृष्ण, नील एवं कपोत ये तीन लेश्याएँ भावरूप में होती हैं। विवेधन-प्रश्न यह उठता है कि गाथा के पूर्वार्द्ध भाग में चार लेश्याओं के नाम का उल्लेख न होने पर भी चार लेश्याएँ किस आधार पर ग्रहीत की गई हैं। इसका उत्तर यह है कि गाथा के पूर्वार्द्ध में चार लेश्याओं का उल्लेख न होने पर भी उत्तरार्द्ध में तीन लेश्याओं के उल्लेख को देखकर पूर्वार्द्ध में चार लेश्याओं का अध्याहार कर लिया गया है। प्राचीन ग्रन्थों में तेजस्काय और वायुकाय में तीन लेश्याएं बताई गयी हैं अत: पृथ्वीवाय, अप्लाय आटि में पलेपणा मान लेनी चाहिये। दूसरा प्रश्न यह है कि अग्निकाय एवं वायुकाय में मात्र द्रव्यलेश्या मानना या भावलेश्या मानना? ग्रन्थकार ने अन्त में भावलेश्या शब्द का उल्लेख करके द्रव्य एवं भाव दोनों लेश्याओं की ओर संकेत किया है। मात्र अपर्याप्तावस्था में पूर्वार्द्ध में कहे अनुसार पृथ्वीकाय, अप्काय और वनस्पतिकाय में चौथी तेजस् द्रव्य लेश्या जानना, क्योंकि पृथ्वीकाय, अपकाय तथा वनस्पतिकाय में भवनपति व्यन्तर, ज्योतिष्क तथा सौधर्मादि प्रथम दो देवलोक के देव च्वय कर उत्पन्न हो सकते हैं। देवगति में उन्हें तेजस् लेश्या होती है अत: तीनों एकेन्द्रियों की अपर्याप्तावस्था में चौथी तेजस् लेश्या भी बताई गई है। सामान्यतया तो संख्यात वर्ष की आयु वाले गर्भज मनुष्य एवं तिर्यश्च द्रव्य तथा भाव की अपेक्षा से छहों लेश्या वाले होते हैं और संमूर्छिम मनुष्य तथा संमच्छिम तिर्यञ्च कृष्णादि तीन अशुभ लेश्यावाले होते हैं किन्तु अधिकतर मनुष्यों को कृष्णादि चार लेश्या होने के कारण गाथा में उपलक्षण से चार लेश्याओं का उल्लेख हुआ है। सात नरकों में लेश्या का प्रतिपादन काऊ काळ सह काउनील नीला य नीलकिण्हा में । किण्हा य परमकिण्हा लेसा रमणप्पभाईणं ।।७२।। गाथार्थ- कापोत, कापोत, कापोतनील, नील, नील-कृष्ण, कृष्ण तथा परम-कृष्णा लेश्याएँ क्रमशः रलप्रभादि सात नरकों में होती हैं। Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्पदप्ररूपणाद्वार ६१ विवेचन - प्रथम रत्नप्रभा नरक में कापोत लेश्या होती हैं दूसरी शर्कराप्रभा में क्लिष्टतर कापत संस्था होती है। तीसरी बालुकान के ऊपरी भाग में लितम कापोत लेश्या तथा नीचे के भाग में नील लेश्या होती हैं। चौथी पंक प्रभा में नीलतर लेश्या होती हैं। धूमप्रभा (पांचवीं) नरक के ऊपरी प्रत्तर में नीललम तथा नीचे के अंतर में कृष्ण लेश्या होती है। छठी तमप्रभा में कृष्णतर तथा सातवीं तमप्रभा में कृष्णतम लेश्या होती है। उक्त सातों नारकों मे सातों द्रव्य लेश्या जानना चाहिए। भाव लेश्या तो सातों नरक में छह ही है। क्योंकि सप्तम नरक में भी सम्यग्दर्शन का सद्भाव है तथा सम्यग्दर्शन के सद्भाव में तेजोलेश्यादि तीन शुभ लेश्याएँ भी पाई जाती हैं। वैमानिकों में लेश्या निरूपण तेक तेऊ तह तेऊ पम्ह पम्हा य म्हसुक्का य । सुक्का य परमसुक्का सक्कादिविमाणवासीणं ।। ७३ ।। गाथार्थ - तेजोलेश्या, तेजोलेश्या, तेजोपद्म, पद्य, पद्म शुक्ल, शुक्ल तथा परमशुक्ल लेश्या शक्रादि विमानवासियों में क्रमशः होती हैं। विवेचन - शक्र अर्थात् सौधर्म देवलोक में तेजोलेश्या है। ईशान में कुछ विशुद्धतर तेजोलेश्या हैं। सनत्कुमार मे कुछ देवों को तेजलेश्या तथा कुछ ऊपर वालों को पद्मलेश्या है। माहेन्द्र देवलोक में मात्र पद्मलेश्या है। ब्रह्मदेवलोक में कुछ को पद्म तथा कुछ को शुक्ल लेश्या है। लान्तक से अच्युत तक तथा नवग्रैवेयक में शुक्ललेश्या हैं क्रमश: ऊपर के देवलोकों में शुक्ललेश्या विशुद्धतर होती जाती है। अनुत्तरविमान में परम शुक्ललेश्या होती है। द्रव्य एवं भाव लेश्या देवाण नारयाणं दव्वल्लेसा हवंति एयाउ । भवपरितीए उण नेरहयसुराण छल्लेसा । १७४।। गावार्थ- देव तथा नारकी जीवों के सम्बन्ध में पूर्वगाथा में जो लेश्याएँ बताई गई हैं वे द्रव्यलेश्या की अपेक्षा से हैं। परन्तु इन जीवों में भाव परिवर्तन होता रहता है अतः देवों तथा नारकी जीवों में छहों भाव लेश्याएँ सम्भव हैं। विवेचन - पूर्व गाथाओं में देवों तथा नारकी जीवों की जिन लेश्याओं का कथन किया गया है वे द्रव्य लेश्याएँ हैं। भावलेश्या तो देवों तथा नारकी जीवों दोनों को ही छह-छह हो सकती हैं। Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ भव्य एवं गुणस्थान जीवसमास ११. भव्य मार्गणा मिच्छद्दिहि अभव्या भवसिद्धीया स सव्यंठाणे 1 सिद्धा नेव अभव्या नवि भव्या हुति नाव्वा ।।७५।। गाथार्थ - अभव्य जीवों को मात्र एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान होता है । तदभव में सिद्ध होने वाले जीवों को सभी गुणस्थान सम्भव हैं। सिद्ध जीव न भव्य होते हैं न अभव्य होते हैं- ऐसा जानना चाहिये । विवेचन - अभव्य जीव कभी भी सम्यक्त्व को प्राप्त नहीं करते हैं अतः वे सदैव मिथ्यात्व नामक प्रथम गुणस्थान में ही रहते हैं। उसो भव में मोक्ष जाने वाले जीवों में मिथ्यात्व नामक प्रथम गुणस्थान से लेकर अयोगी केवली गुणस्थान तक सभी गुणस्थान सम्भव होते हैं। सिद्ध आत्माएँ न भव्य होती हैं न अभव्य, क्योकि मुक्ति प्राप्त करने की योग्यता के आधार पर ही जोष को भव्य का अपव्य कहा जाता है। मुक्ति प्राप्त होने के पश्चात् जीव न भव्य रहता है और न अभव्य । सिद्धि के बाद तो वह सिद्ध कहलाता है। अतः सिद्ध भव्य अभव्य दोनों ही कोटियों से परे हैं। १२. सम्यवस्व मार्गणा मझ्सुयनाणावरणं दंसणा मोहं च तदुवघाईणि । तप्फङ्कुगाई दुविहा सव्वदेसोवघाईणि ।। ७६ ।। गाथार्थ - मतिज्ञानावरण श्रुतज्ञानावरण तथा दर्शनमोहनीय ये तीनों सम्यग्दर्शन के उपघातक हैं। इनके स्पर्धक दो प्रकार के हैं- देशघाती तथा सर्वघाती । प्रश्न – मतिज्ञानावरण एवं श्रुतज्ञानावरण क्रमशः मतिज्ञान एवं श्रुतज्ञान को आवरित करते हैं, फिर उन्हें सम्यग्दर्शन का घातक क्यों कहा गया? उत्तर - सम्यग्दर्शन के होने पर ही मतिज्ञान एवं श्रुतज्ञान होते हैं तथा सम्यग्दर्शन के अभाव में ये दोनों ज्ञान अज्ञान रूप होते हैं। मतिज्ञान एवं श्रुतज्ञान सम्यग्दर्शन के सहचारी होने से ऐसा कहा गया है, क्योकि जो एक का घातक है वही दूसरे का भी घातक होता है। मूल में सम्यग्दर्शन का उपघातक तो दर्शनमोहनीय ही हैं। इन तीनों के कर्म परमाणुरूप स्कन्धों के रस समूह को स्पर्धक कहा गया है। यह स्पर्धक दो प्रकार के होते हैं, देशघाती तथा सर्वघाती । जो स्पर्धक स्वयं के ज्ञानादि गुण को सम्पूर्ण रूप से हनन करे, वे सर्वघाती तथा जो शानादि गुणों का आंशिक रूप से हनन करे, वे देशघाती हैं। Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 सत्पदप्ररूपणाद्वार ६३ स्पर्धक में शुभ तथा अशुभ दो प्रकार का रस होता है। शुभ को गाय के दूध आदि की उपमा बाला तथा अशुभ को नीम के रस की उपमा वाला समझना चाहिये । एक स्थानीय रस- जो दूध या गन्ने का रस उबला हुआ नहीं हैं उसकी मिठास एक स्थानीय रस कहा जाता हैं। उस रस में चुल्लू, अर्धचुल्लू, द्रोण आदि पानी डालते जाने से उसके मन्द मन्दतर आदि कई भेद हो जाते हैं पर फिर भी वह दूध हीं कहलाता है। ऐसे ही एकस्थानीय रस में तरतमता होने पर भी वह एकस्थानीय रस रहता है। दिस्थानीय रस- उस रस को उबालकर आधा कर देने पर उसे द्विस्थानीय रस कहा जाता है। उसमें भी पानी, चुल्लू, अर्धचुल्लू आदि डाले जाने पर उसके भी कई भेद बनते हैं पर फिर भी उसे द्विस्थानीय रस ही कहा जाता है। त्रि व चतुः स्थानीय रस - ऐसे ही उसको उबालने पर तीसरा या चौथा भाग शेष रहे उसमें भी लँड, मुल आदि पनी हान्ने जने पर तरलता आयेगी, उसे त्रिस्थानीय या चतु: स्थानीय रस कहा जायेगा । इसमें एकस्थानीय रस को शुभ द्विस्थानीय को शुभतर, त्रिस्थानीय रस को शुभतम तथा चतुर्थ स्थानीय रस को अतिशुभतम कहा जायेगा। यहाँ शुभ रस की विचारणा की, ठीक इसके विपरीत स्वभाव वाला अशुभ रस भी इसी प्रकार जान लेना चाहिये । यहाँ चतुःस्थानीय तथा त्रिस्थानीय सभी अशुभरस स्वयं के स्वाभाविक गुण को सम्पूर्ण रूप से हनन करने वाले होने से सर्वघाती हैं। द्विस्थानीय तो कुछ देशघाती तथा कुछ सर्वघाती हैं। एकस्थानीय तो मात्र देशघाती ही है। इस प्रकार यह निश्चित हुआ कि ज्ञानावरण आदि अशुभ कर्म से सम्बन्धित स्पर्धक दो प्रकार के है देशघाती तथा सर्वघाती । देशघाती तथा सर्वघाती स्पर्धक क्या करते हैं इसका वर्णन आगे गाथा में किया गया है सम्यग्दर्शन की प्राप्ति का कारण सव्वेसु सव्वधासु हए देसोवधाइयाणं च । भागेहि मुच्यमाणो समए समए अनंतेहिं । । ७७ ।। गाध्यार्थ- सभी सर्वघाती स्पर्धक (कर्मवगणा रूपी पुद्गल के स्कन्धों ) का क्षय करते हुए तथा देशघाती स्पर्धकों के अनन्तभाग को प्रति समय छोड़ते हुए जीव सम्यग्दर्शन प्राप्त करता है। Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवसमास विवेचन- कितने ही चतु: स्थानीय तथा त्रिस्थानीय सर्वघाती स्पर्धक तथा कितने ही स्थानीय सर्वघाती स्पर्धको के विशुद्ध अध्यवसाय के बल से सम्पूर्ण रूप से उच्छेद होने पर और देशघाती कर्म प्रकृतियों के कितने ही स्पर्धकों के अनन्त भाग का प्रत्येक समय में त्याग करते हुए देशघाती स्पर्धकों के रस का भी जब अनन्तवां भाग बाकी रहे तब जीव सम्यग्दर्शन प्राप्त करता है अन्य दूसरी प्रकार से नहीं। अभी तक सम्यग्दर्शन प्राप्ति का कारण बताया, अब तोन प्रकार के सम्यग्दर्शन को बताते हैं। ६४ सम्यग्दर्शन के तीन प्रकार खणमुष्णं सेसयमुवसंतं भण्णए खओवसमो I उदयविधrय उवसमो खओ व दंसणतिगाधाओ ।।७८।। गाथार्थ - दर्शनमोहनीय कर्म की उदय में आयी हुई कर्म प्रकृतियों को क्षय कर देना और उदय में आने वाली कर्म प्रकृतियों को उपशमित कर देना क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन है। दर्शनमोहनीय के उदय को कुछ समय तक रोक देना आपशमिक सम्यग्दर्शन है तथा दर्शनमोहनीय त्रिक का पूर्णतः क्षय कर देना क्षायिक सम्यग्दर्शन है। विवेचन - उदय में आये हुए दर्शन मोहनीय का क्षय करना तथा जो सत्ता में हैं उन्हें अपना फल देने से रोके रखना क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन है। दर्शन मोहनीय के उदय को कुछ समय के लिए रोकना औपशमिक सम्यग्दर्शन हैं। उदय में आये हुए तथा सत्ता में रहे हुए दर्शनमोहत्रिक ( मिथ्यात्वमोह, मिश्रमोह तथा सम्यक्त्वमोह) को क्षय कर देना क्षायिक सम्यग्दर्शन है। प्रश्न- क्षायोपशमिक तथा औपशमिक सम्यग्दर्शन में क्या अन्तर है? उत्तर - क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन में सम्यक्त्वमोहनीय का विपाकोदय तथा मिथ्यात्व मोहनीय का प्रदेशोदय होता है। औपशमिक सम्यग्दर्शन में इन दोनों में से किसी का भी उदय नहीं होता है। प्रश्न – विपाकोदय और प्रदेशोदय में क्या अन्तर है? - उत्तर - विपाकोदय में जीव कर्म के फल का अनुभव करता है- जैसे बिना बेहोश किये ऑपरेशन करने पर चीर-फाड़ की वेदना का अनुभव होता है। जबकि प्रदेशोदय में जीव कर्मफल का उदय होने पर उसका सुखदुःखात्मक अनुभव नहीं करता है । यथा- मूर्च्छावस्था में किया गया ऑपरेशन। यहाँ चीर-फाड़ होने के कारण पीड़ा की घटना घटित होती है परन्तु बेहोशी के कारण व्यक्ति को उसका अनुभव नहीं होता। जो कर्म बिना सुख-दुःख का संवेदन कराये Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्पदप्ररूपणाद्वार उदय में आकर निर्जरित हो जाते हैं उनका प्रदेशोदय मानना चाहिये। जैसेईर्यापथिक कर्म। प्रश्न-मूलगाथा में सम्यक्त्व की प्राप्ति हेतु दर्शनमोहत्रिक का ही घात कहा है, दर्शनमोहत्रिक एवं कषायचतुष्क का घात नहीं, ऐसा क्यों? क्योंकि अन्यत्र तो सम्यग्दर्शन घाती सप्त अर्थात् दर्शनमोहत्रिक एवं अनन्तानुबन्धी कषायचतुष्क के धात को क्षायिक सम्यग्दर्शन का कारण कहा है? उत्तर-सत्य यह है कि दर्शनत्रिक मुख्यत: सम्यग्दर्शन का अवरोधक है अत: उसके क्षय से ही क्षायिक सम्यक्त्व का प्रकटीकरण होता है। दर्शनमोहत्रिक का क्षय उसका सीधा कारण है और अनन्तानुबन्धी कषायचतुष्क का क्षय परोक्ष कारण है क्योंकि अनन्तानुबन्धी चतुष्क के क्षय होने पर ही दर्शनत्रिक का क्षय होता है। अत: दर्शनमोहत्रिक या दर्शन अवरोधक सप्तक में कोई विरोध नहीं है। एक का क्षय उसका प्रत्यक्ष कारण है और दूसरे का क्षय परोक्ष कारण है अतः अपेक्षा भेद से ऐसा कहा जाता है। सम्यक्रख सहेतुक है या नितुक-इस प्रश्न का उत्तर यह है कि उसे निर्हेतुक नहीं मान सकते क्योकि जो वस्तु निर्हेतुक हो, उसे सर्वकाल में एवं सर्वत्र पल रूप होना चाहिये अथवा उसका अभान होना चाहिये। सम्यक्त्व के परिणाम न तो सब जीवों में समान होते हैं और न उनका पूर्णत; अभाव होता है इसलिए वह सहेतुक है। सहेतुक मान लेने पर यह प्रश्न उपस्थित होता है कि उसका नियत हेत क्या है? प्रवचनश्रवण, प्रतिमापूजन आदि बाह्य निमित्त तो सम्यक्त्व के नियत कारण हो ही नहीं सकते, क्योकि इन बाझ निमित्तों के होते हुए भी अभव्यों की तरह ही अनेक भव्यों को भी सम्यक्त्व की प्राप्ति नहीं होती। सम्यक्त्व के प्रकट होने में नियत कारण जीव का भव्यत्व नामक स्वभाव विशेष है जब इस पारिणामिक भव्यत्व स्वभाव का परिपाक होता है तभी सम्यक्त्व लाभ होता है। भव्यत्व परिणाम साध्य रोग के समान है, कोई साध्य रोग स्वयमेव शान्त हो जाता है, किसी साध्य रोग को शान्त करने में वैद्य आदि की आवश्यकता पड़ती है और कोई साध्य रोग ऐसा भी होता है जो बहुत दिनो के बाद मिटता है। भव्यत्व . भी ऐसा ही स्वभाव है, अनेक जीवों का भव्यत्य बाह्य निमित्त के बिना भी परिपाक को प्राप्त करता है किन्तु ऐसे भी जीव हैं जिनके भव्यत्व स्वभाव का परिपाक होने में शास्त्र श्रवणादि बाह्य निमित्तों की आवश्यकता पड़ती है। ये बाझ निमित्त सहकारी कारण मात्र हैं। इसी से व्यवहार में वे सम्यक्त्व के कारण माने गये हैं परन्तु निश्चयदृष्टि से तो भव्यत्व के स्वभाव के परिपाक को ही सम्यक्त्व का Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ जीवसमास अव्यभिचारी (नियत) कारण मानना चाहिये। इसमें शास्त्रश्रवण, प्रतिमापूजन आदि बाह्य निमित्त कभी कारण रूप बनते हैं और कभी नहीं भी बनते हैं, यह अधिकारी भेद पर अवलम्बित है। इसका स्पष्टीकरण उमास्वाति ने तत्त्वार्थसूत्र में "तनिसर्गादधिगमाद्वा" (तत्वार्थ १/३) नामक सूत्र से किया है। यही बात पंचसंग्रह (१४८ की टीका) में आचार्य मलयगिरि ने भी कही है। वस्तुतः सम्यग्दर्शन का प्रगटीकरण उसकी घातक कर्मप्रकृतियों का स्वाभाविक रूप से क्षय, क्षयोपशप या उपशम हो जाने पर भी होता है अथवा शाखश्रवण आदि अथवा बाह्य निमित्तों के कारण भी होता है, किन्तु वह सदैव ही सहेतुक होता है निहेतुक नहीं। सम्यग्दर्शन तथा गुणस्थान उवसमवेयग खाया अविरयसम्माइ सम्मदिठ्ठीसु । उवसंतपप्पमत्ता तह सिद्धता जहाकमसो ।।७।। गाथार्थ-अविरत सम्यग्दृष्टि में उपशम, वेदक (क्षायोपशमिक) तथा क्षायिक इन तीन में से एक सम्यक्त्व होता है। क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन अप्रमत्त गुणस्थान तक है। उपशम सम्यग्दर्शन ग्यारहवें गुणस्थान तथा क्षायिक सम्यग्दर्शन चतुर्थ गुणस्थान से सिद्धावस्था तक यथाक्रम पाया जाता है। विवेचन-इन तीनों में से कोई एक सम्यग्दर्शन सभी सम्यक्त्वी जीवों में पाया जाता है। औपशामिक सम्यग्दर्शन- उपशम श्रेणी में आरोहण करने वाले जीवों में ग्यारहवें गुणस्थान तक हो सकता है। क्षयोपशामिक सम्यग्दर्शन--अप्रमत्त संयत नामक सप्तम गुणस्थान तक ही पाया जाता है. क्योंकि उसके बाद आठवें गुणस्थान से जीव की विकास यात्रा दो श्रेणियों में विभाजित हो जाती है-- १. औपशमिक और २. क्षायिक। अत: झायोपशमिक सम्यग्दर्शन सातवें गुणस्थान के पश्चात् नहीं रहता है। क्षाधिक सम्बग्दर्शन- यह प्रगट होने के पश्चात् विनष्ट नहीं होता है, अत: वह चतुर्थ गुणस्थान से लेकर चौदहवें गुणस्थान तक ही नहीं अपितु सिद्धावस्था में भी रहता है। प्रश्न-क्षायिक सम्यग्दर्शन चतुर्थ गुणस्थान से लेकर सिद्धावस्था तक समान रूप से होता है, ऐसा क्यों कहा जाता है? उत्तर-शकर चखने पर सदैव मीठी ही होगी, यह बात अलग है कि उसकी मात्रा कम-ज्यादा हो। परन्तु उसकी मिठास में अन्तर नहीं होगा। Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्पदप्ररूपणाद्वार विभिन्न गुणस्थानों में सम्यग्दर्शन की मात्रा मे अन्तर हो सकता है परन्तु गुणवत्ता में अन्तर नहीं होता है। अत: क्षायिक सम्यग्दर्शन चतुर्थ गुणस्थानवती जीवों से लेकर सिद्धावस्था तक समान कहा गया है। माणिया य मणुपा रपणाए असंखवासतिरिया य। तिविहा सम्महिठ्ठी वेगउवसामगा सेसा।।८।। गाथार्थ- वैमानिक देव, मनुष्य, रत्नप्रभा नारकी के नारक तथा असंख्यात वर्ष की आयु वाले तिर्यश्च, इन सभी में तीनों प्रकार के सम्यक्त्व हो सकते हैं। शेष सभी जीवों को या तो क्षायोपशमिक या औपशमिक सम्यक्त्व होता है। विदेचन-वैमानिकों में तीन प्रकार का सम्यक्त्व कैसे होता है ? वैमानिक देवों में अनादि काल से मिथ्यादृष्टि रहा हुआ कोई जीव जब प्रथम बार सम्यक्त्व को प्राप्त करता है तो अन्तरकरणकाल (गाथा के अन्त में स्पष्टीकरण किया गया है) के काल में उसको प्रथम अन्तर्मुहूर्त में मात्र औपशमिक सम्यग्दर्शन होता है। औपशमिक सम्यक्त्व के बाद तुरन्त ही शुद्ध सम्यक्त्व के पुञ्ज प्रदेशों को संवेदन करने पर उसे क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन होता है। इसी प्रकार यदि कोई क्षायोपशमिक सम्यक्त्व वाला मनुष्य या तिर्यश्च मरकर वैमानिक देवों में उत्पत्र होता है तो उसे भी पारभविक क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन होता है। ___ जब कोई मनुष्य वैमानिक देव का आयुष्य बांधने के पश्चात् क्षायिक सम्यग्दर्शन प्राप्त करे तो वह आयुष्य का बंध हो जाने के कारण आगे की श्रेणी आरोहण नहीं करता है अर्थात् उसका मोक्ष सम्बन्धी विकास क्रम रुक जाता है क्योंकि अग्रिम गुणस्थानों में श्रेणी आरोहण करने पर तो निश्चय मोक्ष होगा। ऐसा मनुष्य मरकर वैमानिक देवों में उत्पन्न होता है। अत: वैमानिक देवों को पारभविक क्षायिक सम्यक्त्व भी हो सकता है। वैमानिक देव के तद्भविक क्षायिक सम्यक्त्व नहीं होता है, क्योंकि क्षायिक सम्यग्दर्शन का प्रारम्भ मात्र मनुष्य भव में ही होता है। मनुष्यों में तीन प्रकार का सम्यग्दर्शन संभव है ___ संख्यात वर्ष की आयु वाले मनुष्यों को तीनों ही प्रकार के सम्यग्दर्शन सदभविक हो सकते हैं किन्तु जब क्षायोपशमिक सम्यक्त्व से युक्त देव मनुष्य जन्म ग्रहण करता है तो उसे पारभविक क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन होता है। इसी प्रकार क्षायिक सम्यक्त्व से युक्त देव जब मनुष्य बनता है तो उसे पारभविक क्षायिक सम्यादर्शन होता है। Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ जीवसमास __ असंख्यास पर्व को आधु पाले मनुष्य को आपरामक तथा साधोपशमिक सम्यक्त्व वैमानिक देवों के समान ही जानना चाहिये। क्षायोपशर्मिक सम्यग्दर्शन वाला मनुष्य या तिर्यश्च मरकर वैमानिक देवों में उत्पन्न हो सकता है परन्तु जिन जीवों ने क्षायोपशमिक सम्यक्त्व प्राप्त करने से पूर्व मिथ्यात्न अवस्था में ही आयु का बन्ध कर लिया हो तो ऐसे जीव यदि असंख्यात वर्ष की आयु वाले मनुष्य बनें तो वे मरते समय सम्यक्त्व का वमन करके ही उत्पन्न होते हैं। इन जीवों को क्षायोपशर्मिक सम्यक्त्व नहीं होता है, यह कर्मग्रन्थकारों का मत है। जबकि आगमिक मत यह है कि बद्धायुष वाले क्षायोपशमिक सम्यक्त्वी जीव इनमें उत्पत्र होते हैं। इन जीवों को पारभविक क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन होता है। क्षायिक सम्यग्दर्शन तो वैमानिक देवों के समान ही जानना चाहिये। नरक में तीनों सम्यग्दर्शन रत्नप्रभा नारकी के जीवो को औपशमिक और क्षायिक सम्यग्दर्शन वैमानिक देवों की तरह होता है और क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन असंख्यात वर्ष की आयु वाले मनुष्यों की तरह जानना चाहिये। असंख्यात वर्ष की आयु वाले तिर्यञ्चों का सम्यग्दर्शन असंख्यात वर्ष की आयु वाले तिर्यञ्चों में तीनों ही प्रकार के सम्यक्त्व असंख्यात वर्ष की आयु वाले मनुष्यों की तरह जानना चाहिये। प्रश्न-क्षायिक सम्यग्दर्शन से युक्त बासुदेव आदि की उत्पत्ति तीसरी नरक तक बताई गई है किन्तु यहाँ तो शर्कराप्रभा, वालुकाप्रभा में क्षायिक सम्यक्त्व का निषेध किया गया है ऐसा क्यों है? । उत्तर- यह प्रश्न उचित है, किन्तु क्षायिक सम्यक्त्व के धारक जीव अधिकांशतया तो प्रथम नरक तक ही जा सकते हैं उसके आगे तो पूर्व में आयुष्य का बंध कर लेने वाले क्वचित् जीव ही जाते हैं अत: सामान्य की अपेक्षा से ऐसा कहा गया होगा, विशेष तत्व तो केवलीगम्य है। एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय तथा असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों को तो तभविक या पारमविक किसी भी अपेक्षा से तीनों में से कोई भी सम्यग्दर्शन नहीं होता है, वे सदैव ही मिथ्यादृष्टि होते हैं। अब आगे "अन्तरकरण” का स्पष्टीकरण किया जाता हैअन्तरकरण जिस प्रकार वेग से प्रवाहित होने वाली सरिता की धारा में पर्वत से गिरा कोई पत्थर लुढ़कते-लुढ़कते गोल, चिकना एवं चमकदार हो जाता है उसी प्रकार Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्पदप्ररूपणाद्वार ६९ में से उगल पाय कशा को कष्टों का दुखों को सहता हुआ जीव रमावर्त में पहुँच जाता है। इस समय उसके अध्यवसाय शुद्ध हो जाते हैं। इन शुद्धवसायों ग्रन्थि स्थान तक पहुँचाने वाले अध्यवसाय को यथाप्रवृत्तिकरण कहते हैं। जीव के विशेष पुरुषार्थ के बिना ही अपने आप प्रवर्तमान होने वाला यह यथाप्रवृत्तिकरण जीव को अनन्त बार हो सकता है। परन्तु जो जीव ग्रन्थिभेद करने वाला होता है, उसके अध्यवसाय अपूर्व होते हैं। इस अपूर्व अध्यवसाय के कारण ही इस करण को अपूर्वकरण कहा जाता है। अपूर्वकरण की कालावधि केवल अन्तर्मुहूर्त होती है। ग्रन्थिभेद के पश्चात् जीव को अनिवृत्तिकरण नामक अध्यवसाय होता है। यह सभी ग्रन्थिभेद करने वालों को समान होता है। ग्रन्थिभेद के पश्चात् अन्तर्मुहूर्त में ही जीव को सम्यग्दर्शन की उपलब्धि होती है किन्तु उसकी प्राप्ति हेतु अनिवृत्तिकरण की अवस्था में जीव को अन्तरकरण की विशिष्ट प्रक्रियाएँ करनी पड़ती हैं। ग्रन्थिभेद करने के उपरान्त मिध्यात्व मोहनीय कर्म की जो स्थिति होती हैं उसमें प्रथम अन्तर्मुहूर्त को छोड़कर द्वितीय अन्तर्मुहूर्त में शेष रहे हुए मिथ्यात्व मोहनीय कर्म के पुद्गलों को अनिवृत्तिकरण अध्यवसाय द्वारा ऊपर-नीचे खिसकाकर मध्य में अन्तर्मुहूर्त जितना स्थान मिथ्यात्व के दलिकों से विहीन (शून्य स्थान या पोलाई) बनाते हैं। इस दलिकविहीन शून्य स्थान बनाने को अन्तरकरण कहा जाता है। उक्त अन्तरकरण के प्रयत्न से मिध्यात्व मोहनीय कर्म-स्थिति दो भागों में विभाजित हो जाती है। अन्तरकरण के प्रारम्भ समय से नीचे की स्थिति तथा अन्तिम समय की ऊपर की स्थिति । उपशम सम्यक्त्व के अनुभव द्वारा जब अन्तरकरण की अवधि पूर्ण होने लगती है तब कम से कम एक तथा अधिक से अधिक छः आवलिका जितना समय शेष रहने पर किसी संयोगवश अनन्तानुबन्धी का उदय हो जाता हैं। तब वह अधिकाधिक छः आवलिका तक सासादन गुणस्थान का अनुभव, स्पर्श करता हैं। सौभाग्यवश जिन्हें अनन्तानुबन्धी कषाय का उदय नहीं होता वे उपशम सम्यक्त्व के अनुभवकाल में मिध्यात्व की स्थिति में रहे कर्मदलिकों में से कितने ही दलिकों को शुद्ध अध्यवसाय द्वारा धोकर स्वच्छ बना लेते हैं तथा कितने ही को अर्थ स्वच्छ। फिर भी कितने ही दलिक पूर्ववत् मलिन बने रहते हैं। इस तरह मिथ्यात्व पुद्गलों के तीन भाग में विभाजित करने की प्रक्रिया को त्रिपुंजीकरण कहते हैं। यह इस प्रकार है १. अति स्वच्छ पुद्गलों को सम्यक्त्व मोहनीय, २. अर्ध स्वच्छ पुद्गलों को मिश्र मोहनीय, ३. अशुद्ध, अस्वच्छ पुद्गलों को मिथ्यात्व मोहनीय कहा जाता है। Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवसमास उपशम सम्यक्त्व का काल पूरा होते ही इन तीनो में से कोई भी स्थिति भवितव्यता वश उदित होती है। अन्तरकरण करने हेतु आत्मा प्रन्थि भेद करने के पश्चात् शीघ्रातिशीघ्र भावी अन्तरकरण की अवधि में स्थित मिथ्यात्व मोहनीयकर्म के दलिकों को ऊपर एवं नीचे स्थित दलिक-पुंज मे मिला देता है परिणामस्वरूप अन्तर्मुहूर्त जितनी अत्यल्पावधि में ही दलिक विरहित अन्तराल निर्मित हो जाता है। इसे ही अन्तरकरण प्रक्रिया कहते हैं। यह क्रिया अनिवृत्तिकरण के शेष काल में की जाती है। अन्तरकरण का प्रथम समय आ पहुँचने पर मिथ्यात्व मोहनीय कर्म के किसी भी दलिक के उदय न होने से ऊपर निर्दिष्ट अन्यावस्था में रहा मिथ्यात्व मोहनीय कर्म सर्वथा अनुदित/उपशमित हो जाने के कारण उपशम सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है, इन्न उपय और भान सर्व अवर्णनीय होता है। - जैनतत्त्वज्ञान चित्रावलीप्रकाश, पृष्ठ ३८-३९ १३. संजी मार्गणा संजीद्वार एवं गुणस्थान असण्णि अमणपंबिंदियंस सपणी उसमण छउमस्या। नोसण्णिनो असण्णी केवलनाणी ३ विण्णेआ।।८१।। गाथार्थ- असंज्ञी (विवेकरहित) जीवों में मन रहित पंचेन्द्रिय तक के सभी जीव समाहित हैं। संझी (विवेकयुक्त) जीवों में मनसहित सभी छद्मस्थ जीव समाहित हैं। केवलज्ञानी न तो संज्ञी होते हैं और न असंझी होते हैं, क्योंकि वहाँ विचार-विकल्प का अभाव है। विवेचन- यहाँ संज्ञी (विचारसहित) एवं असंझी (विचाररहित) जीवों में विभेदक रेखा खींची गई है। अमज्ञी वे जीव हैं जिन्हें मन नहीं है, इन्हें सम्मूर्छिम भी कहा जाता है। ये असंज्ञी जीव एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक होते हैं। माता-पिता के संयोग के बिना स्वतः जन्म लेने वाले जीव असंज्ञी कहे जाते हैं। ये जीव पानी, मिट्टी, गन्दगी आदि में स्वत: ही उत्पन्न होते हैं। संज्ञी जीव का जन्म गर्म या उपपात से होता है। इनमें गर्भजपंचेन्द्रियतिर्यञ्च, गर्भजमनुष्य, नारक तथा देव आते हैं। मनोलब्धि अर्थात चिन्तन या विचार सामर्थ्य से रहित जीव असंज्ञी कहे गये हैं। असंज्ञी जीवों को अपर्याप्तावस्था मे कभी-कभी सास्वादन नामक दूसरा गुणस्थान हो सकता है। Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्पदप्ररूपणाद्वार ७१ संज्ञी जीवों को प्रथम से लेकर बारहवाँ गुणस्थान तक हो सकता हैं। तेरहवें और चौदहवें गुणस्थानवतीं केवली न तो संज्ञी होते हैं और न असंज्ञी | प्रश्न- केवली न संज्ञी हैं न असंज्ञी हैं ऐसा क्यों कहा जाता है? उत्तर - केवली में मन का प्रवृत्ति पूर्वक भूत भविष्य का चिन्तन नहीं होता । वे केवलज्ञान के प्रकाश में अतीत एवं अनागत सभी विषयों को जानते हैं अतः उनमें मन के विकल्प, स्मरण, चिन्ता आदि नही होते, अतः वे संज्ञी नहीं कहे जा सकते। दूसरी ओर मनोलब्धि सम्पन्न होने के कारण उन्हें असंज्ञी भी नहीं कहा जा सकता अतः केवल संज्ञी है और न असी । वं इन दोनों से अतीत होते हैं। คู่ संज्ञा का तात्पर्य आभोग अर्थात् मानसिकक्रिया विशेष से है। इसके ज्ञान और अनुभव ये दो भेद हैं (क) ज्ञानसंज्ञा - इसके मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय और केवल ये पाँच प्रकार हैं। (ख) अनुभवसंज्ञा - इसके सोलह भेद इस प्रकार हैं(२) भय, (३) मैथुन, (४) परिग्रह, (५) क्रोध, (६) मान, (८) लोभ, (९) ओघ, (१०) लोक, (११) मोह, (१२) धर्म, (१४) दुःख, (१५) शोक और (१६) जुगुप्सा । (१) आहार, (७) माया, (१३) सुख, आचाराज नियुक्ति - गाथा ३८, ३९ मे तो अनुभव संज्ञा के ये १६ भेद किये गये हैं। लेकिन भगवतीसूत्र के शतक ७ के उद्देशक ८ में तथा प्रज्ञापना पद ८ में इनमें से प्रथम १० भेद ही निर्दिष्ट हैं। ये सब संज्ञाएँ जीव में न्यूनाधिक रूप में पायी जाती हैं। एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के जीवों में ज्ञान चेतना का विकास क्रमशः अधिकाधिक है। उनके इस विकास के तर-तम के भाव को समझाने के लिए शास्त्र में इसके स्थूल रीति से चार विभाग किये गये हैं ९. ओघसंज्ञा- पहले विभाग में ज्ञान का विकास अत्यल्प है। यहाँ ज्ञान विकास इतना अल्प होता है कि जीव मूर्च्छित अवस्था में रहते हैं और इनमें संवेदन मात्र होता है। इस अव्यक्ततर चैतसिक विकास को ओघसंज्ञा कहते हैं। एकेन्द्रिय जीव ओघसंज्ञा वाले होते हैं। २. हेतुवादोपदेशिक संज्ञा- दूसरे विभाग में ज्ञान का विकास इतना होता हैं कि जीव भूतकाल का ( सुदीर्घभूतकाल का नहीं) स्मरण कर सकता है जिससे इष्ट में प्रवृति तथा अनिष्ट में निवृत्ति होती है। इस प्रवृत्ति निवृत्ति विषयक ज्ञान को हेतुवादोपदेशिक संज्ञा कहा जाता है। यह संज्ञा विकलेन्द्रिय तथा असंज्ञी पंचेन्द्रिय को होती है। Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवसमास ३. दीर्घकालोपदेशिक संज्ञा-तीसरे विभाग में सुदीघंभूत काल में अनुभव किये हुए विषयों के स्मरण के द्वारा वर्तमान काल के कर्तव्यों का निश्चय किया जाता है। मन की सहायता से होने वाले इस ज्ञान को दीर्घकालोपदेशिक संज्ञा कहा जाता है। यह समस्त समनस्क संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों में पाई जाती है। ४. दष्टिवादोपदेशिक संज्ञा-चौथे विभाग में विशिष्ट श्रुतज्ञान द्वारा व्यक्ति में हेय, जेय और उपादेय का विवेक प्रकट हो जाता है। यह ज्ञान सम्यग्दृष्टि के अतिरिक्त अन्य जीवों में सम्भव रहों होता है। इस विशुद्ध ज्ञान को दृष्टिवादोपदेशिक संज्ञा कहते हैं। १४. आहारक मार्गणा विग्गहगायावना केवलियो समहया अजोगी य । सिद्धा य अणाहारा सेसा आहारगा जीवा।।८।। गाथार्थ- विग्रहगति कर रहे जीव, केवलीसमुद्धात कर रहे केवली, अयोगीकेवली तथा सिद्ध अनाहारक होते हैं। शेष सभी जीव आहारक होते हैं। विवेचन- अनाहारक जीवों के दो प्रकार होते हैं छद्मस्थ और वीतराग। वीतराग में जो अशरीरी हैं वे सदा अनाहारक ही हैं परन्तु जो शरीरधारी हैं वे केवलीसमधात के तीसरे, चौथे तथा पाँचवें समय में अनाहारक होते हैं। अयोगी केवली भी अनाहारक होते हैं। छष्ट्वास्थ जीव अनाहारक तभी होते हैं जब वे विग्रहगति कर रहे होते हैं। तत्त्वार्थकार ने लिखा है "विग्रहगति च संसारिण: प्राक् चतुर्य: (तत्त्वार्थ २/२९) "एकं द्वौ वानाहारक; (तत्त्वार्थ २/३१) । एक विग्रह (मोड़) वाली गति जिसकी काल मर्यादा दो समय की है उसके दोनों समय में जीव आहारक होता है। दो विग्रह अर्थात् मोड़ वाली गति जिसका काल तीन समय का है और तीन विग्रह वाली गति जिसका काल चार समय है इनमें भी प्रथम एवं अन्तिम समय में तो जीव आहारक होता है परन्तु बीच के समय में अनाहारक अवस्था पायी जाती है। दो विग्रह वाली गति में मध्य के एक समय तक और तीन विग्रह वाली गति में प्रथम तथा अन्तिम समय को छोड़कर बीच के दो समय पर्यन्त जीव अनाहारक स्थिति में रहता है। टीका में व्यवहार नय के अनुसार पाँच समय के परिणाम वाली चतुर्विग्रह वाली गति के मतान्तर को लेकर जीव को तीन समय तक भी अनाहारक बतलाया गया है। Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्पदग्ररूपणाद्वार चौदह जीव समास (गुणस्थान) में चौदह मार्गणाएं १. गति-देव, नारकी में प्रथम चार, तिर्यश्च में पाँच तथा मनुष्य में चौदह गुणस्थान हैं एवं अपर्याप्त (लब्धि) जीवों में मात्र पिथ्यादृष्टि नामक एक गुणस्थान होता है। २. इन्द्रिय- चतुरिन्द्रिय जीवों तक मात्र एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान तथा पंचेन्द्रिय में चौदह गुणस्थान पाये जाते हैं। ३. काया-पृथ्वीकाय से लेकर वनस्पतिकाय तक मिथ्यात्व गुणस्थान तथा उसकाय में चौदह गुणस्थान पाये जाते हैं। ४. योग- तीन योगों में तेरह गुणस्थान होते हैं और इसके बाद अयोगी केवली गुणस्थान मे योग का अभाव है। ५. वेद- तीनों वेदों में मिथ्यादृष्टि से लेकर अनिवृत्तिबादर तक नौ गुणस्थान होते हैं तथा अदक में अभियान से संकर अयोगविली तक छ गुणस्थान होते हैं। ६. कपाय- प्रथम से दसवे गुणस्थान तक कषाय रहते हैं। ग्यारह से चौदहवें गुणस्थानवी जीव अकषायी होते हैं। ७. ज्ञान-अज्ञान-मत्ति एवं श्रुत अज्ञान तथा विभंगशान में मिथ्यादष्टि व सास्वादनसम्यग्दृष्टि ये दो गुणस्थान होते हैं। मति, श्रुत तथा अवधिज्ञान में असंयत सम्यग्दृष्टि से लेकर क्षीणकषाय तक (नौ) गुणस्थान है। मनः पर्यवज्ञान में प्रमत्त संयत से क्षीणकषाय तक (सात) गुणस्थान होते हैं। केवलज्ञान में सयोगी-केवली एवं अयोगी केवली ये दो गुणस्थान होते हैं। 4. संथम-प्रमत्त संयत से अयोग केवलो गुणस्थान तक संयत जीव होते हैं। सामायिक संयत और छेदोपस्थापनीय संयत जीव प्रमत्त संयत से लेकर अनिवृत्तिनादरगुणस्थान तक होते हैं। परिहारविशुद्धि चरित्र वाले संयत जीव प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गणस्थान में होते हैं। सूक्ष्मसंपराय चरित्र वाले संयत जीव एकमात्र सूक्ष्मसम्पराय गुणस्थान में होते हैं। यथाख्यात चरित्र वाले संयत जीव उपशान्त कषाय गुणस्थान से लेकर अयोगीकेवली गुणस्थान तक होते हैं। संयतासंयत जीव मात्र देशविरत गुणस्थान में होते हैं। असंयत जीव प्रारम्भ के चार गुणस्थान में होते हैं। ९. दर्शन-चक्षुदर्शन और अच्चक्षुदर्शन में मिथ्यादृष्टि से लेकर क्षीणकषाय तक बारह गुणस्थान होते हैं। अवधिदर्शन में असंयतसम्यग्दृष्टि से लेकर क्षीणकषाय तक नौ गुणस्थान होते हैं। केवल दर्शन में सयोगी और अयोगी ये दो गुणस्थान हैं। Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवसमास १०. लेश्या -- कृष्ण, नील और कापोत लेश्या में मिथ्यादृष्टि से लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि तक चार गुणस्थान होते हैं। पीत और पद्म लेश्या में मिध्यादृष्टि से लेकर अप्रमत्तसंयम तक सात गुणस्थान होते हैं। शुक्ललेश्या में मिथ्यादृष्टि से लेकर सयोगी केवली तक तेरह गुणस्थान होते हैं किन्तु अयोगी केवली जीव लेश्या रहित होते हैं। ७४ ११. भव्य भव्यों में चौदह गुणस्थान होते हैं किन्तु अभव्य जीवों में मात्र प्रथम गुणस्थान होता हैं। - १२. सम्यक्त्व - क्षायिक सम्यक्त्व में असंयतसम्यग्दृष्टि से लेकर अयोगी केवली तक ग्यारह गुणस्थान हैं। क्षायोपशमिक सम्यक्त्व में असंयतसम्यग्दृष्टि से लेकर अप्रमत्तसंयत तक चार गुणस्थान हैं। औपशमिक सम्यक्त्व में असंयत सम्यग्दृष्टि से लेकर उपशान्तकषाय तक आठ गुणस्थान हैं। सम्यगमिध्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि अपने - अपने गुणस्थान में होते हैं। १३. संज्ञा - संज्ञियों में क्षीणकषाय तक बारह गुणस्थान होते हैं। असंशियों में एक ही मिध्यादृष्टि गुणस्थान होता है। संज्ञा असंज्ञा से रहित जीव सयोग केवली और अयोग केवली इन दो गुणस्थानों में होते हैं। १४. आहार - आहारकों में मिथ्यादृष्टि से लेकर सयोगीकेक्ली तक तेरह गुणस्थान होते हैं। विग्रहगति को प्राप्त अनाहारकों में मिध्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि तथा असंयतसम्यग्दृष्टि ये तीन गुणस्थान होते हैं। समुद्धात्तगत सयोगकेवली और अयोगकेवली अनाहारक होते हैं। सिद्ध भगवान गुणस्थानातीत हैं। (तत्त्वार्थसूत्र की सर्वार्थसिद्धि टीका १/८ ) । उपयोग नाणं पंचविहं पिय अण्णाणतिगं च सव्व सागारं । चउदसणमणगारं सधे तल्लक्खणा जीवा ।। ८३ ।। गाथार्थ - ज्ञान के पाँच प्रकार तथा अज्ञान के तीन प्रकार हैं। ये सभी साकार (सविकल्प) उपयोग हैं। चारों ही दर्शन अनाकार (निर्विकल्प) उपयोग हैं। ये जीव के उपयोग रूप लक्षण हैं। विवेचन – किसी पदार्थ का संवेदन और ज्ञान होना- उपयोग है। दूसरे शब्दों में जीव के द्वारा किसी अर्थ (वस्तु) का बोध उपयोग है। यह उपयोग दो प्रकार का है -- १. साकार और २. अनाकार । उसमें ग्रहण करने योग्य अर्थ से सम्बन्धित साकार अर्थात सविकल्प जो उपयोग है वह ज्ञान है तथा ग्राह्य अर्थ सम्बन्धित अनाकार अर्थात् निर्विकल्प उपयोग है, वह दर्शन है। सांकारोपयोग अर्थात् ज्ञान के आठ प्रकार तथा अनाकार अर्थात् दर्शन के चार प्रकार हैं। Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्पदमरूपणाद्वार क. साकारोपयोग (ज्ञान) के भेद- १. मलिशान, २. श्रुतज्ञान, ३. अवधि-ज्ञान, ४. मनःपर्यवज्ञान, ५. केवलज्ञान, ६, मति-अज्ञान, ७. श्रुत-अज्ञान तथा ८. विभंगज्ञान। ख, अनाकारोपयोग (दर्शन) के भेद-१, चक्षुदर्शन, २, अचक्षुदर्शन, ३. अवधिदर्शन और ४ केवलदर्शन। प्रश्न- साकार और अनाकार उपयोग में क्या अन्तर है? उत्तर-जो बोधवस्त को विशेष रूप से जानने वाले हैं वे साकारोपयोग हैं। जैसे- यह आम का पेड़ है। जो वस्तु के सामान्य रूप को जानने वाला है वह अनाकारोपयोग है। जैसेयह कुछ है। प्रश्न-उपयोग को सामान्य-विशेषात्मक कहा गया है यह तो समझ में आ गया है, परन्तु दर्शनोपयोग को अनाकार कहा गया यह स्पष्ट नहीं हुआ। उत्तर- प्रत्येक उपयोग अन्ततः साकार अर्थात् सविकल्प होता है, किन्तु अपनी उत्तर अवस्था की अपेक्षा से पूर्व-पूर्व अवस्थाओं में यह अनाकार अर्थात् निर्विकल्प कहा जाता है। प्रत्येक विशेष ज्ञान में भी जो सामान्य का ग्रहण है उसकी अपेक्षा से ज्ञान के पूर्व की अवस्था को दर्शन कहा जाता है। अत: दर्शन अनाकार अर्थात् निर्विकल्प होता है। उपसंहार एवं जीवसमासा बहुमेया वनिया समासेणं । एवमिह भावरहिया अजीवदव्या उ विजेमा ।।८४।। गाथार्थ- इस प्रकार मैंने बहुत भेद वाले जीवसमासों का संक्षेप में वर्णन किया। अब इसी प्रकार भाव रहित अर्थात् चेतना रहित अजीव द्रव्यों को भी जानना चाहिये। विवेचन-इस प्रकार यहाँ जीवों के मिथ्यादृष्टि, सास्वादन आदि गुणस्थानों की अपेक्षा से तथा गति, इन्द्रियादि मार्गणाओं की अपेक्षा से विवेचन किया गया है। अब जीव का वर्णन करने के पश्चात आगे अजीव का वर्णन करेंगे। अजीव तेण वण अम्माणम्मा आगास अरुविणो तहा कालो । खंबा देस पएसा अणुतिऽवि व पोग्गला रूबी ।। ८५।। Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवसमास गाठाणवगाहूणलक्सणाणि कमसो य वसणगुणो य । रूवरसगंधफासाई कारणं कम्मबंधस्स ।।८६।। -सत्रायणाद्वारं ११ गाथार्थ-धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय तथा काल- ये सभी अरूपी अजीव द्रव्य हैं। पुद्गल-स्कन्ध, देश, प्रदेश तथा परमाणु के रूप में रूपी द्रव्य है। उपर्युक्त चारों द्रव्य क्रम से गति, स्थिति, अवगाहन तथा परिवर्तन लक्षण वाले हैं। रूप, रस, गन्ध तथा स्पर्श गुणवाला कर्मबन्धन का कारणभूत पुद्गल द्रव्य है। विवेचन-पूर्वगाथाओं में जीव द्रव्य का विभिन्न दृष्टियों से विवेचन किया गया था। अब अजीद इनाही मामास जानकारी दी जाती है। अजीत हा...अरूपी तथा रूपी ऐसे दो प्रकार का है। इनमें भी अरूपी द्रव्य चार प्रकार का है- धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय तथा काल। जीव तथा पदगल के गति में सहायक द्रव्य धर्मास्तिकाय है। इसी प्रकार उनको स्थिर रहने में सहायक द्रव्य अधर्मास्तिकाय है। पदार्थों को अवकाश देने वाला द्रव्य आकाशास्तिकाय है तथा पदार्थों के परिवर्तन में सहायक द्रव्य काल है। रूप चाइन्द्रिय का, गन्ध प्राणेन्द्रिय का, रस जिलेन्द्रिय का तथा स्पर्श स्पर्शन्द्रिय का विषय है। इन इन्द्रिय विषयों का निमित्त पाकर ही जीव ज्ञानावरणादि आठ कर्मों का बंध करता है। कारण की उपस्थिति में ही प्राय: कार्य की निष्पत्ति सम्भव है। अतः कहा गया है कि यह पुद्गल द्रव्य कर्मबन्धन का कारण है। यद्यपि कर्मबन्धन में यह निर्मित मात्र है उपादान कारण तो आत्मा के रागादि मात्र हैं। कार्य निष्पत्ति में सहायक होने से इन्हें निमित्त कारण कहा जाता है। यद्यपि ये निमित्त ज्ञानी के लिए बन्धन का कारण नहीं होते हैं। ज्ञानी तो इन बन्धन के कारणों को ही मोक्ष का कारण बना लेते हैं। प्रथम सतपस्यणाद्वार समाप्त Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ļ ¡ परिमाण द्वार १. द्रव्य (परिमाण) दव्वे खेत्ते काले भावे य चउब्विहं पमाणं तु । दव्यपएसविभागं - पसगाइयमणंतं ॥८७॥ गाथार्थ - द्रव्य क्षेत्र, काल तथा भाव- ये चार प्रकार के परिमाण हैं। इसमें द्रव्य परिमाण के प्रदेशपरिमाण (अविभाज्य परिमाण) तथा विभागपरिमाण (विभाज्य परिमाण) - ये दो भेद हैं। द्रव्य का प्रदेश परिमाण ( अर्थात् प्रदेशों की संख्या के आधार पर एक प्रदेश से लेकर अनन्त प्रदेश तक जानना चाहिये । प्रस्तुत ग्रन्थ में परिमाण के अर्थ में 'प्रमाण' शब्द का प्रयोग हुआ है अत: प्रमाण शब्द के विभिन्न अर्थ जान लेना अपेक्षित है। - प्रमाण शब्द का अर्थ - बोलचाल की भाषा में प्रमाण शब्द का प्रयोग अनेक अधों में किया जाता है। शब्दकोश में प्रमाण के निम्न अर्थ दिये गये है यथायथार्थज्ञान, मान, माप, प्रमाप, परिमाण, संख्या आदि। प्रमाण शब्द "प्र" तथा "माण" इन दो शब्दों से निष्पन्न हैं। जिसके द्वारा प्रकृष्ट रूप से पदार्थ को जाना जाय या मापा जाये वह प्रमाण है। इसमें द्रव्यप्रमाण (परिमाण) के दो भेद हैं- (१) प्रदेश और (२) विभाग। द्रव्य का सूक्ष्मतम अविभाज्य अंश प्रदेश कहा जाता है। पदार्थ से अलग हुआ यह प्रदेश ही परमाणु कहा जाता है। कोई भी द्रव्य / पदार्थ एक प्रदेशी से लेकर अनन्त प्रदेशी हो सकता है। प्रस्तुत ग्रंथ में द्रव्य, क्षेत्र, काल तथा भाव की अपेक्षा से प्रमाण का विवेचन गाया संख्या ८७ से १४० तक किया है। अनुयोगद्वारसूत्र में भी प्रमाण का विस्तार से वर्णन किया गया है। स्थानाम सूत्र स्थान ४ में " चव्विहे पमाणे पनते" कहकर चार प्रमाणों का विवरण दिया गया है। प्रस्तुत गाथाओं में प्रमाण शब्द का प्रयोग मुख्यतः माप-तौल सम्बन्धी विभिन्न अवधारणाओं के विवेचन के सन्दर्भ में हुआ है। अतः इस सन्दर्भ में हमने प्रमाण शब्द का अनुवाद परिमाण या प्रमाप ही किया है। क्योंकि हिन्दी भाषा में इस अर्थ में यही शब्द अधिक प्रचलित है। Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ जीवसमास माणुम्माणपमाणं पडिमाणं गणियमेवयमेव य विभागं। पत्य (एत्य) कुडावाइ धन्ने बउभागविवडियं च रसे।।८८।। गायानाप वे. १.मान, २. उ . म., . प्रतिमान तथा ५. गणिम- ये पाँच विभाग बतलाये गये है। उसमें प्रस्थ (अंजुलि), कुड़व (अन्न मापने का माप विशेष) आदि मान प्रमाप है। ये चार-चार गुण वृद्धि वाले होते हैं। जैसे चार प्रस्थक का एक कुड़व आदि। ये धान्य और तरल पदार्थों के मापने के काम में आते है। विवेचन- गाथा ८७ मे द्रव्य प्रमाप के दो भेद किये गये हैं (१) प्रदेश तथा (२) विभाग। प्रदेश की चर्चा पूर्व गाथा में की गई है, अब इस गाथा में विभाग नामक प्रमाप की चर्चा की जा रही है। वह विभाग निष्पन्न द्रव्य प्रमाप निम्न पांच प्रकार का है१. मान-- धान्य या तरल पदार्थ मापने के पात्र विशेष। २. उन्मान- ठोस धातुएँ आदि तोलने के बटखरे। ३. अवमान- भूमि आदि मापने के साधन दण्ड आदि। ४. गणिम- एक, दो, तीन, चार आदि की गणना करके दी जाने वाली वस्तुएँ। ५. प्रतिमान- जिससे सोने, चाँदी आदि बहुमूल्य वस्तुओं का वजन किया जाय। (१) मान प्रमाप- मान प्रमाप भी दो प्रकार का है, धान्य सम्बन्धी तथा तरलपदार्थ सम्बन्धी। (अ) धान्य सम्बन्धी प्रमाप-अशति अर्थात् एक मुद्धि, दो अशति की एक प्रसूति (पसमिया अञ्जलि), दो प्रति की एक सेतिका। चार सेतिका का एक कुड़व। चार कुड़व का एक प्रस्थ। चार प्रस्थ का एक-आड़क। चार आढ़क का एक द्रोण। साठ आढ़क का एक जघन्य कुम्भ। अस्सी आढ़त का एक मध्यम कुम्भ तथा सौ आढ़क का एक उत्कृष्ट कुम्म। आठ सौ आदक का एक बाह होता है। धान्य के प्रमाप की यह पद्धति प्राचीन काल के मगध देश में प्रचलित थी! (अ) रस अर्थात् तरल पदार्थ सम्बन्धी प्रपाप-रस सम्बन्धी प्रमाप धान्य सम्बन्धी प्रमाप से चतुर्भाग अधिक और अभ्यन्तर शिखा युक्त होता है। धान्य को मापने हेतु उसे पात्र में भर कर उसकी बाह्य शिखा बनायी जा सकती है, परन्तु Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिमाण-द्वार तरल पदार्थ में शिखा बन पाना संभव न होने से उनके माप में धान्य के पाप से चौथाई भाग अधिक मापना चाहिये। रस सम्बन्धी प्रमाप में चारपल की एक चतष्ठिभागिका, आठ पल की एक द्वित्रिशिभागिक, सोलह पल की एक षोडश भागिका, बत्तीस पल की एक अष्टभागिका, चौसठ पल की एक चतुर्मागिका, एक सौ अट्ठाईस पल की एक अर्धमानी, दो सौ छप्पन पल की एक मानी होती है। पान सम्बन्धी प्रमाप के स्वरूप को बताने के बाद उन्मान सम्बन्धी प्रमाप का स्वरूप बताते हैं। कंसाइयमुम्पाणं अवमाणं व होई दंडाई । - पडिमाणं धरिमेसु य भणियं एक्काइयं गणिमं ।।८९।। गाथार्थ- कांसे आदि अल्पमूल्य की वस्तुओं आदि को तौलने के उन्मान प्रमाप, कपड़े, भूमि आदि को मापने के दण्ड आदि अवमान प्रमाप, स्वर्णादि तौलने का प्रतिमान प्रमाप तथा संख्या आदि से मापा जाने वाला गणिम प्रमाप है। विवेचन-मान प्रमाप की चर्चा कर चुके हैं, अब शंष चारा प्रमाप की चर्चा की जाती है। (२) उन्मान प्रमाप-अब उन्मान प्रमाप का स्वरूप बतलाते हैं। जो वस्तु तौलकर दी जाती है और जिसके तौलने के साधन तराजू, बटखरे आदि होते हैं उसे उन्मान प्रमाप कहते हैं। उसका प्रमाप निम्न प्रकार का है- १. अर्धकर्ष, २. कर्ष, ३. अर्धपल, ४. पल, ५, अर्धतुला, ६. तुला, ७. अर्धभार और ८. भार। इससे अल्प मूल्य की धातुओं एवं अन्य वस्तुओं के परिमाप को जाना जाता है। अर्धकर्ष तोलने का सबसे कम भार का बदखस है। सम्भवतः कर्ष तोले के समान कोई माप रहा होगा। छटांक, सेर, मन बनाने का यही आधार है। अर्धकर्ष, कर्ष आदि प्राचीन मागध मान थे। देउवणूजुगनालिय अम्खो मुसलं च होइ बहत्वं । दसनालिषं च रj वियाण अवमाणसण्णाए ।।१०।। गाथार्थ- दण्ड, धनुष, युग, नालिका, अक्ष और मूसल ये सभी चार हाथ परिमाण होते हैं। दस नालिका अर्थात् चालीस हाथ की एक रज्ज होती है। ये सभी अवमान कहलाते हैं। विदेखन (३) अवमान प्रमाप-- वास्तु (घर), भूमि आदि को हाथ के द्वारा, खेत को दण्ड द्वारा, मार्ग को धनुष द्वारा और खाई, कुंआ आदि को नालिका द्वारा नापा जाता है। Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवसमास तिलोयपण्णत्ति (१/१०२-१०६) में भी क्षेत्र नापने के प्रमाणों का कथन किया गया है किन्तु वहाँ एक “कष्कु' नाम अधिक है तथा उसका परिमाण दो हाथ बतलाया गया है। वहां क्रम इस प्रकार है- छह अंगुल का एक पाद, दो पाद की एक वितस्ति (बालिश्त), दो वितस्ति का एक हाथ, दो हाथ का एक किष्कु, दो किष्षु का एक.दण्ड। दण्ड, युग, धनुष, नालिका, अक्ष, और मुसलये सभी चार हाथ परिमाया है। दो हजार नाप का एक होगा तशा चार कोम का एक योजन होना है। (४) गणिम प्रमाप-जिससे गणना (गिनती) की जाये, वह गणिम एक, दस, सौ, हजार, दसहजार., लाख, दस लाख, करोड़, दस करोड़, आदि। जैन परम्परा में गणनीय संख्या १९४ अंक अर्थात् एक पर १९३ शून्य परिमाण है, जिसे गाथा ११३-११४-११५ में स्पष्ट किया गया है। (५) प्रतिमान- जिसके द्वारा बहुमूल्य वस्तुओं को तौला जाता है उसे प्रतिमान प्रमाण कहते हैं। १. गुञ्जा (रत्ती) २. काकणी, ३. निष्पाव, ४. कर्ममाषक, ५. मण्डलक और ६, सुवर्ण। पाँच गुञ्जाओं अर्थात् रत्तियों का तथा चार काकणियों का या तीन निष्पाव का एक कर्ममाषक होता है। १२ कर्ममाषक या ४८ काकणियो का एक मण्डलक होता है। १६ कर्ममाषक या ६४ काकणियों का एक स्वर्ण मोहर होता है। इसमें गुञ्जा प्रथम तोल है। गुञ्जा एक लता का फल है जो मूंग जितना, अण्डाकार आधा लाल तथा आधा काले रंग का होता है। द्रव्य प्रमाप समाप्त हुआ। अब क्षेत्र प्रमाप का वर्णन करते हैं। Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिमाण-द्वार २. क्षेत्र परिमाण खेत्तपमाणं दुविहं विभाग ओगाहणाए निष्फनं। एगपएसोगावाड़ होइ ओगाहणमणेगं।। ९१।। भावार्थ- क्षेत्र प्रमाप दो प्रकार का है १. विभाग निष्पन्न तथा ३. प्रदेशावगाहन निष्पन्न। एक प्रदेशावगाह, दो प्रदेश अवगाह आदि अनेक प्रकार के अवगाहन से क्षेत्र प्रमाप होता है। विवेचन-विभाग तथा अवगाहन में अवगाहन का विषय संक्षिप्त होने से उसका वर्णन पहले किया जाता है। (१) प्रदेशावगाहन निष्पन्न-अनुयोगद्वार, सूत्र ३३१ में यह प्रश्न किया गया है हे भगवन् प्रदेश निष्पन्न क्षेत्र प्रमाप का क्या स्वरूप है? हे आयुष्मन्! एक प्रदेशावगाह, दो प्रदेशावगाह यावत् संख्यात प्रदेशावगाह, असंख्यात प्रदेशावगाह क्षेत्ररूप प्रमाप को प्रदेशअवगाहन निष्पन्न क्षेत्र प्रमाप कहते हैं। (२) विभाग निष्पन्न प्रमाप अंगुल विहस्थि रथणी कुच्छी घणु गाउयं च सेठी य। पयरं लोगमलोगो खेतपमाणस पविभागा ।।१२।। तिविहं च अंगुलं पुण उस्सोहगुल पमाण आयं च। एक्कक्कं पुण तिविहं सूई पयरंगुल घणं च ।। ९३।। गाथार्थ- अंगुल, वितस्ति, हाथ, कुक्षी, धनुष, गाउ, श्रेणी, प्रवर लोक, अलोक- ये सभी विभाग निष्पन्न क्षेत्र प्रमाप के विभाग होते हैं।।९२।।। उत्सेधांगुल, प्रमाणांगुल तथा आत्मांगुल यह अंगुल के तीन प्रमाप हैं। फिर प्रत्येक के तीन-तीन भेद करना- सूच्यंगुल , प्रतरांगुल तथा घनांगुल। : विवेचन-विभाग निष्पन्न परिमाप की आद्य इकाई अंगुल है, इसके तीन • प्रकार हैं (२) उत्सेबांगल-उत्सेध अर्थात् बढ़ना। जो अनन्त सूक्ष्म परमाण त्रसरेण, रथरेणु, इत्यादि के क्रम से बढ़ता है अथवा जो नरकादि चतुर्गति के जीवों के शरीर की ऊंचाई का निर्धारण करने के लिए उपयोगी बनता है, वह उत्सेधांगल Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवसमास हैं। उत्सेधांगुल की आय इकाई परमाणु है। परमाणु, बसरेणु आदि उत्सेधांगुल नहीं है, परन्तु इनसे निष्पन्न होने वाला अंगुल उत्सेधांगुल है। अगली गाथा में उत्सेधांगुल के स्वरूप की चर्चा की गई है। उस्लेघांगुल का स्वरूप सत्येण सुसिक्खणवि छेत्तुं भेत्तुं च जं किर न सका। से परमाणु सिक्षा वयात आi पमाणाणं ।।१४।। गाथार्थ-सतीक्षण शस्त्र से भी जिसका छेदन-भेदन न किया जा सके उस परमाणु को सिद्धों ने उत्सेधांगुल का प्रथम प्रमाप कहा है। परमाणु के प्रकार परमाणू सो दुविहो सहमो तह वावहारिओ बेव। सहमो य अप्परसो ववहारनएणऽणंतओ खंदो।।१५।। गाथार्थ- परमाणु दो प्रकार के होते हैं- सूक्ष्म तथा व्यावहारिक। सूक्ष्म परमाणु अप्रदेशो होता है, जबकि व्यावहारिक परमाणु अनन्त प्रदेश वाला स्कन्ध रूप होता है।(विज्ञान का परमाणु जैनदृष्टि से व्यवहार परमाणु है। क्योकि इसका विखण्डन सम्भव है, यह अनन्त प्रदेश वाला है। किन्तु जैनआगमों में उस व्यवहार परमाणु को भी अछेद्य और अभेद्य कहा गया है।) विवेचन-अनुयोगद्वार सूत्र ३४३ में पदार्थ की व्याख्या की गई है। उसमें पदार्थ के ६ भेद बताये हैं १. स्थूल-स्थूल (ठोस पदार्थ) २. स्थूल (तरल पदार्थ) ३. स्थूल-सूक्ष्म (दृश्यमान प्रकाश आदि) ४. सूक्ष्म-स्थूल (मात्र अनुभूतिगम्य वायु या वाष्प आदि)। ५. सूक्ष्म (कार्मण वर्गणा आदि) ६. सूक्ष्म-सूक्ष्म (अन्तिम, निरंश पुद्गल परमाणु) । व्यवहार परमाणु की परिभाषा परमाणू य अणता सहिया उस्साहसणिहया एक्का । साउणंतगुणा संती ससहिया सोऽणु बबहारी।।९।। गाथार्थ-अनन्त परमाणुओं के एकत्रित होने पर एक उत्श्लक्षण-श्लक्षिणका का होती है। उन अनन्त उत्श्लक्षण श्लक्षिणकाओं के मिलने पर एक श्लक्ष्ण-श्लक्षिणका होती है। उसे ही व्यवहारिक परमाणु कहा जाता है। प्रश्न- क्या यह व्यवहार परमाणु छेदा-भेदा जा सकता है। उत्तर- यह व्यवहार परमाणु भी छेदा भेदा नहीं जा सकता, क्योंकि यह Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ¡ परिमाण द्वार ८३ व्यवहार परमाणु उपर्युक्त गाथा ९५ के विवेचन में अनुयोगद्वार में बताये गये ६ भेदों में से 4वां भेद- सूक्ष्म कार्मणवर्गणा रूप है। प्रश्न – क्या व्यवहार परमाणु को पुष्कर संवर्तक महामेव गीला कर सकता है? नहीं । प्रश्न- क्या उसे अग्नि जला सकती है? नहीं । स्कन्ध विवेचन खंथोऽतपसो अत्येगइओ जयम्मि छिज्जेज्जा । भिजेज्ज व एवइओ (एगयरो) नो छिज्जे नो य भिज्जेज्जा ।। ९७ ।। गाथार्थ - अनन्त प्रदेशों से निर्मित स्कन्ध में से कितने ही स्कन्ध जगत में छेदे जा सकते हैं भेदे जा सकते हैं और कितने स्कन्ध न छेदे जा सकते हैं। और न भेदे जा सकते हैं। विवेचन – स्कन्ध स्थूल तथा सूक्ष्म दोनों प्रकार के होते हैं, अतः कोई स्थूल स्कन्ध भाले, तलवार आदि से छेदा भेदा जा सकता है तथा कोई सूक्ष्म स्कन्ध भाले, तलवार आदि से भी छेदा भेदा नहीं जा सकता। परमाणू तसरेणू रहरेणू अग्गयं च बालस्स । लिक्खा जूया य जवो अट्टगुणविवडिया कमसो ।। ९८ ।। गाथार्थ — परमाणु, त्रसरेणु, रथरेणु, बालाग्र, लीख, जूँ, जव, यह क्रम से एक दूसरे से आठ गुणा बड़े हैं। विवेचन - यहां परमाणु के बाद ऊर्ध्वरेणु शब्द लेना क्योंकि आगम में अनेक जगह परमाणु, ऊर्ध्वरेणु, त्रसरेणु इस प्रकार देखने में आया है। ये क्रमश: एक दूसरे से आठ गुणा बड़े हैं। यहां परमाणु से तात्पर्य व्यावहारिक परमाणु अर्थात् श्लक्ष्णश्लक्ष्णिका से है। ऊध्वरेणु आठ व्यवहारिक परमाणु मिलने पर एक ऊर्ध्वरेणु बनती है। जो खिड़की आदि में सूर्य के प्रकाश में इधर-उधर उड़ती दिखाई देती है। त्रसरेणु : पूर्वदिशा की वायु से प्रेरित हो उड़े वह त्रस रेणु है। रथरेणु : चलते रथ के चक्र के कारण उड़ने वाली धूल रथरेणु हैं। : आठ रथरेणु से देवकुरु - उत्तरकुरु के मनुष्य का एक बालाग्र होता है। उन आठ बालाब से हरिवर्ष, रम्यक्क्षेत्र के मनुष्य का एक बालाघ Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जय जीवसमास बालाग्र होता है। ऐसे आठ बालाग्न से भरत-ऐरावत क्षेत्र के मनुष्यों का एक बालाग्र होता है। बालान से तात्पर्य है बाल का अग्रभाग। लीख : भरत ऐरावत के मनुष्य के आठ बालान परिमाण एक लीख होती है। नँ' : आठ लीख परिमाण एक जू होता है। : आठ जूं परिमाण एक जव (जौ- धान्यविशेष) होता है। अड्डेव य जवममाणि अंगुलं छच्च अंगुला पाओ। पाया य दो विहस्थी दो य विहस्थी भवे हत्थो।।१९।। गाथार्थ-आठजव से एक अंगुल बनता है। छ: अंगुल से एक पाद बनता है। दो पाद से एक वितस्ति (बेत) तथा दो वितस्ति से एक हाथ बनता है। विवेचन- आठ जब का एक अंगुल होता है। यह अंगुल उत्सगुल कहलाता है। ऐसे छ: अंगुलों से एक पाद बनता है। पुनः दो पाद की एक बालिश्त और दो बालिरत का एक हाथ होता है।। बउहत्थं पुण अणुयं दुनि सहस्साई गाउयं तेसि । धत्तारि गाउया पुण जोयणमेगं मुणेयव्यं ।।१०।। उस्सेहंगुलमंगं हवइ पमाणंगुलं दुपंचसयं । ओसप्पिणीए पढमस्स अंगुलं चक्कवहिस्स ।। १०१।। गाथार्थ-चार हाथ का एक धनुष होता है। दो हजार हाथ का एक गाऊ (कोस) होता है। पुन: चार गाऊ (कोस) का एक योजन जानना चाहिये।।१००1। एक उत्सेधांगुल को हजार से गुणा करने पर एक प्रमाणांगुल बनता है। यह प्रमाणांगुल अवसर्पिणी के प्रथम चक्रवर्ती की अंगुली के परिमाप वाला जानना चाहिए।।१०१!। विवेचन प्रमाणांगुल- उत्सेधांगुल को हजार से गुणित करने पर एक प्रमाणांगुल बनता है। यह भरतचक्रवर्ती की अंगुली के परिमाप का होता है। योजन- छ: प्रमाणांगुल से भरतचक्रवर्ती का मध्यतलरूप भाग (पाद) होता है। दो पाद की एक वितस्ति (बेत) होती है। दो वित्तस्ति का एक हाथ होता हैं। चार हाथ का एक धनुष होता है। हजार धनुष का एक गाऊ तथा चार गाऊ का एक योजन होता है। यह योजन प्रमाणांगुल से बना हुआ है। Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिमाण-द्वार गाथा क्रमांक ९८, ९९, १०० में उल्सेधांगुल से निष्पन्न योजन को चर्चा की गई है तथा गादा ११ को विधेचन में : बाल से निष्पन्न योजन की चर्चा की गई है। आगे गाथा क्रमांक १०३ में आत्मांगुल की चर्चा की जा रही है। तेणंगुलेणं जं जोयणं तु एत्तो असंखगुणयारो (० एहिं)। सेढी पगरं लोगो लोगा तो अलोगो य ।।१०।। ___ गाथार्थ- उस (प्रमाणांगुल) से बने योजन को असंख्यात से गुणा करने पर एक श्रेणी होती है। उसको असंख्यात से गुणा करने पर एक प्रतर होती है तथा एक प्रतर को असंख्यात से गण करने पर लोक का परिमाण बनता है और लोक को अनन्त से गुणा करने पर अलोक का परिमाण बनता है। आत्मांगुल जे जम्मि जुगे पुरिसा अनुसंयंगुलसमूसिया हुँसि । तेसि सयमंगुलं जं तयं तु आयंगुलं होई।।१०३।। गाथार्थ-- जो पुरुष जिस युग में स्वयं की अंगुली से एक सौ आठ अगुल ऊंचा होता है उस पुरुष की स्वयं की अंगुली को आत्मांगुल कहते हैं। विवेखन-आत्मांगुल अर्थात् स्वयं की अंगुली। जिस काल में जो मनुष्य होते हैं उस काल की अपेक्षा उनके अंगुल को आत्मागुल कहते हैं। उत्तम या प्रमाणोपेत पुरुष अपनी अंगुली से १०८ अंगुल परिमाण, मध्यम पुरुष १०४ अंगुल परिमाण तथा अधम पुरुष ९६ अगुल परिमाण वाले होते हैं। ___ गाथा ९३ में उत्सेधागुल, प्रमाणांगुल तथा आत्मांगुल--- ये अंगुल के तीन तीन भेद बताये हैं। उत्सेधांगुल, प्रमाणांगुल तथा आत्मांगुल का स्पष्टीकरण पूर्व गाथाओं में किया जा चुका है, अब यहाँ इन तीनों के तीन-तीन भेदो को विवेचना करते हैं। उत्सेधांगुल, प्रमाणांगुल तथा आत्मांगुल के तीन-तीन भेद हैं१. सूच्यंगुल, २. प्रतरांगुल तथा ३. घनांगुल हैं। १. सूध्यंगुल- एक अंगुल लम्बी, एक प्रदेश चौड़ी आकाश प्रदेश की श्रेणि को सूच्यंगुल कहते हैं। २. प्रतरांगुल-सूच्यंगुल को सूच्यंगुल से गुणा करने पर प्रतरांगुल निष्पन्न होता है। ३. घनांगुल-सूच्यंगुल से गुणित प्रतरांगुल को घनांगुल कहा जाता है। अर्थात् सूच्यंगुल एवं प्रतरांगुल को परस्पर गुणित करने पर घनांगुल बनता है। Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवसमास सूच्यंगुल में मात्र लम्बाई होती है, प्रतरांगुल में 'लम्बाई और चौड़ाई होती है तथा घनांगुल में लम्बाई, चौड़ाई और मोटाई- इन तीनों का ग्रहण होता है। सध्यंगुल-सिद्धान्तत: सूच्यंगल में असंख्य प्रदेश होते हैं लेकिन वे एक सीधी रेखा में होते हैं उनमें चौड़ाई और मोटाई नहीं होती मात्र लम्बाई होती हैं। इसमें प्रदेश इसप्रकार स्थापित होते है कि इसका आकार सूई (सूचिका) के समान बने । प्रतरांगुल-वर्ग को प्रतर कहते हैं। किसी भी राशि को दो बार लिख कर गुणित करने पर जो संख्या बने वह वर्ग है। वर्गाकार या आयताकार अंगुल को प्रतरांगुल कहते हैं अर्थात् जो एक अंगुल लम्बा और एक अंगुल चौड़ा हो वह प्रतरांगुल है। इसमे लम्बाई और चौड़ाई दोनों होती है। घनांगुल- घनांगुल में मोटाई, लम्बाई तथा चौड़ाई होती है। वर्गाकार में उसी संख्या को उसी संख्या से दो बार गुणित किया जाता है, जबकि घनाकार उसी संख्या को उसी संख्या से तीन बार गुणित किया जाता है। घनांगुल एक अंगुल लम्बा, एक अंगुल चौड़ा और एक अंगुल मोटा होता है। प्रमापों की उपयोगिता देहस्स असएण 3 गिहसपणाई य आयमाणेणं) दीवुदहिभवणवासा खेत्तपमा पमाणेणं।।१०४।। प्रमाणद्वारं २ गाथार्थ- उत्सेधांगुल से देह आदि को, आत्मांगुल से घर, विस्तर आदि को तथा क्षेत्रप्रमाण प्रमाणांगुल से द्वीप, समुद्र, भवनवास आदि को मापा जाता है। इति क्षेत्र परिमाणा Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिमाण द्वार ३. काल परिमाण कालेति व एगाविहो कालविभागो य होई योगविहो । समयावलियाईओ अनंतकालेत्ति णावन्यो । । १२५ ।। गाथार्थ - स्वरूपतः काल एक ही प्रकार का है, किन्तु काल का विभाग करने पर वह अनेक प्रकार का होता है। समय आवलिका आदि के भेट से काल के अनन्त भेद जानना चाहिये । ८७ . विवेचन -- काल का मूलतः कोई भेद नहीं हैं, परन्तु लोक व्यवहार की अपेक्षा से काल के अनेक भेद किये जाते हैं। जैसे समय, आवलिका, घड़ी, प्रहर, दिन, मास, वर्ष आदि अथवा भूतकाल भविष्यकाल, वर्तमानकाल आदि। कालो परम निरुद्धो अविभागी तं तु जाण समओति । तेऽसंखा आवलिया ता संखोज्जा य ऊसासो । । १०६ ।। - गाथार्थ - काल के अत्यन्त सूक्ष्म और अविभाज्य भाग को 'समय' कहते हैं। असंख्यात समय की एक आवलिका तथा संख्यात आवलिका का एक श्वासोच्छ्वास्स होता हैं। विवेचन जैन दर्शन में काल की सर्वाधिक सूक्ष्म इकाई "समय" है। समय को समझाने के लिए उदाहरण दिया है कि कमल के चिपके हुए पत्तों का जब भेदन करते हैं, तो एक पत्ते से दूसरे पत्ते तक सूई जाने में असंख्य समय व्यतीत हो जाते हैं। एक बार आंख की पलक झपकने में असंख्य समय निकल जाते हैं। ऐसे असंख्य समय की एक अवलिका तथा संख्यात आवलिका का एक श्वासोच्छ्वास होता है। वह श्वासोच्छ्वास भी कैसा होता है- यह आगे गाथा में बताया गया हैं। पागल्लुस्सासो एसो पाणुत्ति सनिओ एक्को । पाणू व संत थोवो भोषा सत्तेव लवमाहू ।। १०७ ।। गाभार्य - एक अनुद्विग्न स्वस्थ युवा मनुष्य के एक उच्छवास तथा निश्वास 'के काल को 'प्राण' कहते हैं। ऐसे सात प्राणों का एक स्तोक होता है। सात स्तोक का एक लव होता है। टिप्पणी- उद्विग्न, अस्वस्थ तथा वृद्ध व्यक्ति का श्वांस अस्वाभाविक होगा अतः स्पष्टता के लिए यहाँ इन विशेषणों का ग्रहण किया गया है। Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ जीवसमास अनुत्तीसं तु लबा अलवो खेव नालिया हो । दो नालिया मुहतो तसि सुहुत्ता तिथि सहस्सा सत्त य सयाणि सतरी अहोरतो ।। १०८ ।। उसासा । उसासा । १०९ ।।. एक्केक्कस्सेवइया हुति मुत्तस्स गावार्थ - साढ़े अड़तीस लव की एक नाड़िका (नालिका) होती हैं। दो नालिका अर्थात् ७७ मात्र का एक मुहूर्त अर्थात् अड़तालीस मिनट होते हैं तथा तीस मुहूर्त का एक अहोरात्र (दिवस) होता है । । १०८ ।। प्रकारान्तर से तीन हजार सात सौ तिहत्तर (७ × ७४७७ = ३७७३) उच्छ्वास का एक मुहूर्त होता हैं । । १०९ ।। पनरस अहोरता पक्खो · पक्खा य दो भवे मासो । दो मासा उउसना तिनि थ रियवो अयणमेगं । । ११० । । दो अथणाएं वरिसं तं दसगुणवडियं भवे कमसो । दस य सयं च सहस्से दस य सहस्सा सयसहस्तं । । १११ । । वास सबसहरूपं पुण जुलसीइगुणं हवेज्ज मुव्वंगं । पुवंगसबसहस्सं चुलसीइगुणं भवे पुष्वं । । ११२ ।। गाथार्थ -पन्द्रह दिन रात का एक पक्ष होता है। दो पक्ष का एक मास होता हैं । दो. 1. मास की एक ऋतु होती है और तीन ऋतुओं का एक अयन होता हैं। दो अयन का एक वर्ष होता है। इसमें क्रमश: दस-दस से गुणा करने पर दस, सौं, हजार, दस हजार और लाख संख्या होती हैं। इस लाख को चौरासी से गुणित करने पर अर्थात् चौरासी लाख वर्षों का) एक पूर्वांग होगा। इस पूर्वांग को फिर चौरासी लाख से गुणित करने पर एक पूर्व होता है। 1 विवेचन - पन्द्रह दिन का पक्ष, दो पक्ष का मास, दो मास की ऋतु, तीन ऋतु का अयन, दो अयन का एक वर्ष फिर एक को क्रम से दस-दस से गुणित करते जाने पर क्रमश: दस, सौ, हजार, दस हजार और एकलाख की संख्या होगी। को चौरासी से गुणित करने पर चौरासी लाख वर्ष होंगे इसको फिर चौरासी लाख से गुणित करने पर (८४०००००×८४०००००) जो संख्या बनेगी उसे " पूर्व" कहा गया है। पुव्वस्स उ परिमाणं सारं खलु होति कोडिलक्खाओ । छप्पनं च सहस्सा जोखव्वा वासकोडीणं । ११३ ।। पुवंगं पुब्वंपियनउयंगं चैव होड़ नवयं च । नलिणंगं नलिपि य महनलिणंगं महानलिणं । । ११४ । । Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिमाण-द्वार पउमं कमलं कुमुयं तुडियमडङमवव हायं चैव । अउमंग अउय पउयं तह सीसपहेलिया घेव।।११५।। गावार्थ- एक पूर्व का परिमाण सत्तरखरन छप्पनअरब (७०,५६,०००००००००) जानना चाहिये। ११३। इस प्रकार पूर्वाग, पूर्व, नथुताग, नयुत, नलिनांग, नलिन, महानलिनांग, महानलिन होते हैं। ११४। पुनः आगे पद्म, कमल, कुमुद, त्रुटित, अटट, अवव, हूहुक अयुतांग, अयुत, प्रयुत्त शीर्ष प्रहलिका आदि संख्याएं होती हैं। ११५। विवेचन--एक पूर्व में ७०५६००००००००० वर्ष होते हैं। उन्हें पुन: ८४ से गुणा करने पर एक नयुतांग होता है। फिर क्रमशः ८४-८४ से गुणा करते जाने पर एक नयुत, नलिनांग, नलिन, महानलिनांग, महानलिन, पद्यांग, पद्म, कमलांग, कमल, कुमुदांग, कुमुद, त्रुटितांग, त्रुटित, अट्टांग, अट्ट, अववांग अवच, हुरूआंग, हूहुक, अयुतांग, अयुत, प्रयुतांग, प्रयुत शीर्षप्रहेलिकांग तथा शीर्षप्रहेलिका बनती हैं। इस शीर्षप्रहेलिका का संख्या परिमाण १९४ अंक है अर्थात् ७५८२, ६३२५, ३०७, ३०१०, २४११, ५७९७, ३५६९, ९७५६, ९६४०, ६२१८, ९६६८, ४८०८, ०१८३, २९६ इन ५४ अंकों पर १४० बिन्दी लगाने से (शून्य लगाने से) १९४ अंक रूप शीर्षप्रहेलिका बनती है। मूल गाथाओं में इन सभी नामों को स्पष्ट नहीं किया गया है उसे स्वमति से स्पष्ट कर लेना चाहिये। पूर्वांग, पूर्व, नयुतांग, नयुक्त आदि कुल मिलाकर २८ हैं। इन्हें परस्पर गुणा करने पर एक शीर्षप्रहेलिका बनी है। व्याख्याप्रशप्तिसूत्र के छठे शतक के सातवें उद्देशक में तथा अनुयोगद्वार सूत्र ३६७ में भी यह गणना बतायी गई हैं, परन्तु वहाँ गणना का क्रम इस प्रकार है अट्टांग, अट्ट, अववांग, अवव, हुकांग, हुहूक, उत्पलांग, उत्पल, पद्मांग, पद्ध, नलिनांग, नलिन, अर्थनुपूरांग, अर्थनुपुर, अयुतांग, अयुत, प्रयुतांग, प्रयुत, नयुतांग, नयुत, चूलिकांग, चूलिका, शीर्षप्रहेलिकांग, शीर्षप्रहेलिका। - गणना क्रम में अन्तर होने पर भी शीर्ष प्रहेलिका तक वही गणना बनती है। अत: नाम के क्रम में अन्तर होने पर भी संख्या में किसी प्रकार का अन्तर नहीं आता है। ___ इस प्रकार गणित विषयक जितना काल हैं उसकी गिनती करायी गई, इससे आगे की संख्या को उपमा (पल्योपम, सागरोपमादि) से बतायेंगे। Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९० जीवसमास एवं एसो कालो वासच्छेएणं संखमुवयाइ। तेथा परमसंखेज्जो कालो उवधाए नायब्यो । । ११३३ । गार्थ इस प्रकार को से यह कात संख्या बनती हैं, इसे संख्यात काल कहा गया है। इसके बाद के काल को असंख्यात कहा जाता है उस असंख्यात काल को उपमाओं से जानना चाहिये । विवेचन अभी तक काल की वर्षों की संख्या मे गिनती सम्भव थी। इसके बाद काल में संख्या का व्यवहार न होने के कारण उसे असंख्य कहा गया है। उस असंख्य काल को अब उपमाओं के माध्यम से समझाया जावेगा । पलिओदमं च तिविहं उहारऽद्धं च खेनपलियं च । - एक्केक्कं पुण दुविहं वायर सुरुमं च नायव्वं । । ११७ । । गाथार्थ - उद्धार, अद्धा तथा क्षेत्र- ये तीन प्रकार के पल्योपम हैं। इनके प्रत्येक के स्थूल तथा सूक्ष्म ऐसे दो-दो मेद जानना चाहिये । पोपम निरूपण जं जोयणविच्छिण्णं तं तिउणं परिरएण सविसेसं । तं चैव य इविन्द्धं पल्लं पलिओदमं नाम । । ११८ ।। एगाहियवेहियतेहियाण उक्कोस सतरत्ताणं । सम्म संनिचियं भरियं वालग्गकोडीणं । । ११९ ।। गाथार्थ - एक योजन विस्तार वाला अर्थात् एक योजन लम्बा तथा उतना ही चौड़ा एवं तीनयोजन से कुछ अधिक परिधि (घेरे) वाला तथा एक योजन गहरा गोलाकार कुंआ पल्य कहा जाता है। उस कुँए को एक दिन, दो दिन, तीन दिन या अधिक में अधिक सात दिन के बालक के बालायों से अच्छी तरह से दबा-दबा कर भरना। विवेचन - एक योजन लम्बा, एक योजन चौड़ा और एक योजन गहरा (ऊंचा ) तीन योजन से अधिक परिधिवाला एक पल्य हो, उस पल्य में एक दिन के, दो दिन के, तीन दिन के तथा अधिक से अधिक सात दिन के बालकों के बालाग्र किनारे तक इस प्रकार उसाट्स अत्यन्त दबा-दबाकर मरे गये हों कि उनपर चक्रवर्ती की सेना भी निकलजाये पर वे दबे नहीं। वे इतने सघन हो कि उन बालानों को न अग्नि जला सके, न हवा उड़ा सके। वे बालाय उड़े नहीं, ध्वस्त न हों, दुर्गंधित न हों। इसके पश्चात् उस पल्य में से एक-एक बालान को क्रमशः प्रति समय निकाला जाय, जब तक कि वह पल्य पूरी तरह से खाली या निर्लेप हो Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिमाण-द्वार - उतने काल की एक अद्धापल्यापम आहत हैं। इसके भी या पद हैं(१) स्थूल (बादर) उद्धार पल्योपम (२) सूत्रम उद्धारपल्योपम। बादर उद्धारपल्योपम और सूक्ष्म उद्धारपल्योपम में अन्तर यह है कि जहाँ बादर उद्धार पल्यापम में प्रति समय एक बालाग्न निकाला जाता है, वहा सूक्ष्म उद्धारपल्यापम में उन बातों के असंख्य खण्ड करके भरा जाता है और फिर प्रति समय एक एक खण्ड निकाला जाता है। (अ) बादर उद्धार पल्योपम तत्तो समए सपए एक्केक्के अवहियम्मि जो कालो। संखेज्जा खलु समया वायर- उद्धारपल्लमि।। १२०।। गाथार्थ-उस खड्डे में से एक ... एक समय में एक-एक बालाग्र निकालने पर जब वह खड्डा खाली हो जाये - वह बादर उद्धार पल्योपम है। उसमें संख्यात समय होते हैं। विवेचन- इतने अधिक बाल निकलने में भी जो संख्या होगी उस संख्यात ही कहेगे, असंख्यात नहीं; क्योकि निश्चय से तो बाल संख्यात है अत: संख्यात समय में वे निकल जायेगें। यहाँ बालों को खण्डित, टुकड़े नहीं करने के कारण बादर (स्थूल) शब्द का प्रयोग किया गया है। (आ) सूक्ष्म उद्धार पल्योपम एक्कक्कमओ लोमं कटुमसंखेज्जखंडमहिस्सं । समछेयाणंतपएसियाण पल्लं भरेज्माहि।।१२१।। तत्तो समए समए एक्कक्के अवाहियाम्म जो कालो। संखेनवासकोडी सुझुमे उद्धारपल्लम्मि।।१२२।। गाथार्थ- क्रम से एक-एक बाल के असंख्य अदृश्य खण्ड करें, वे टुकड़े परस्पर समान हों, अनन्त प्रदेशी हों, उनसे उस पल्य को भरें फिर उस पल्य में से एकसमय में एक-एक बालान का खण्ड निकालने में जो अवधि लगे उसे सूक्ष्म उद्धारपल्योपम काल कहते हैं। यह सूक्ष्म उद्धारपल्योपम भी संख्यात करोड़ वर्षों का ही होता है। १२१/१२२ । उद्धार सागरोपम एएसिं पल्लाणं कोडाकोडी हवेज्ज दसगुणिया। तं सागरोधमस्स उ एक्कस्स भवे परीमाणं ।। १२३।। Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९२ जीवसमास गाथार्थ- इन पल्यापम की इस समयावधि को दस कोटा कोटो (दस करोड़ दसकरोड़) से गणा करने पर एक सागरोपम का परिमाण बनता है। विवेवन- बादर उद्धारपल्योपम के कारत को तथा सूक्ष्म उद्धारपल्योपम के काल को दस कोटा-कोटी से गुणा करने से जो काल बनता है उसे क्रमशः बादर उद्धारसागरोपम तथा मृथ्म उद्धारसागरोपम कहते है। उस पल्य (कूप) को परिमाण सागर के समान अतिविस्तृत होने को कारण उसे सागरोपम कहा जाता है। सूक्ष्म उद्धार सागरोपम की उपयोगिता जावड़ओ उद्धारो अवाज्जाण सागराण भवे। तावड़या खलु लोए हवंति दीवा समुहा य।। ९२४।। गाथार्श्व- ढाई उद्धारसागरोपम में 'समय' की जितनी संग्ळ्या होती हैं, उत्तने ही लोक में द्वीप एवं समुद्र होते है। विवेचन-उपरोक्त माथा में जो सागरोपम के समय का परिमाण बताया गया है, उससे भी ढाई गुणा अधिक तिर्यक् लोक के द्वीप-समुद्रों की संख्या है। इस प्रकार सूक्ष्म उद्धारसागरोपम से लोक के द्वीपों एवं समुद्रों की संख्या की परिगणना भी की जाती है। यह उद्धार पल्योपप और उद्धार सागरोपम की चर्चा पूर्ण हुई आगे अद्धा अर्थात् काल पल्यापम और सागरोपम की चर्चा करेंगे। बादर अशा पल्योपम वाससए वाससए एक्केक्के वायरे अपहियाम्यि। वायरअशापल्ले संखेमा वासकोडीओ ।। १२५।। गाथार्थ-सौ-सौ वर्ष की अवधि में एक-एक बाल निकालने में जो समय लगे उसे बादर (स्थूल) अद्धा (काल) पल्योपम कहते हैं। यह (बादर अद्धापल्योपम) संख्यात क्रोड वर्षों का ही होता है। सूक्ष्म अच्छा पल्योपम वाससए वाससए एक्कक्के अवाहयम्मि सुहमम्मि । सहमे अखापल्ले हवंति वासा असंखेग्णा ।।१२६।। गाथार्थ- सौ-सौ वर्ष में एक-एक सूक्ष्म बालान के खण्डों को निकालने में जो अवधि लगती है उसे सूक्ष्म अद्धा (काल) पल्योपम कहते हैं। यह (सूक्ष्म अद्धापल्योपम)) असंख्यात क्रोड़ वर्षों का होता है। Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिमाण-द्वार अका सागरोपम एएसिं पल्लाणं कोडाकोडी हवेज्ज दसगुणिया । सं सागरोवमस्स उ परिमाणं हवाइ एक्कस्स ।। १२७।। गाथार्थ- उपर्युक्त पल्योपम को दस कोटा कोटि से गुणा करने पर उद्धार सागरोपम होता है। उत्सर्पिणी तथा अवसर्पिणी काल एवं पुतल परावर्तन दस सागरोवमाणं पुनाओ हुंति कोडि- कोडीओ। ओसप्पिणीपमाणं तं घेवुस्सप्पिणीएवि ।। १२८।। उस्सप्पिणी अणंता पोग्गलपरियट्टओ मुणेयल्यो । तेऽणतातीयऽद्धा अणागयता अणंतगुणा ।।१२९।। माथार्थ-ऐसे दस कोडा कोडी सागरोपम सम्पूर्ण होने पर एक अवसर्पिणी होती है, और इतने ही परिमाण वाली एक उत्सर्पिणी होती है। ऐसी अनन्न नाणी-अवसणी लादीत होरे पर एक पुटलपरावर्तन काल होता है। ऐसे पुद्गल पश्वर्तन काल अतीत में अनन्त हो गये तथा अनागत में भी अनन्त होंगे। विवेचन-उत्सर्पिणी-उत अर्थात उत्थान, उन्नति काल। जिसमें प्रत्येक पदार्थ का विकास हो वह उत्सर्पिणी काल है यथा- आयु, लम्बाई, पसली, आदि-आदि। जिसमें इसके विपरीत स्थिति घटित होती है, वह अवसर्पिणी काल है। वर्तमान में हम अवसर्पिणी के पंचम आरे में जीवन यापन कर रहे हैं। सुहुमेण ये अद्यासागरस्स माणेण सबजीवाणं। कम्मठिई काठि भावठिई यावि नायव्या ।।१३०।। गाथार्थ- सूक्ष्म अद्धा सागरोपम के परिमाण से समस्त जीवों की कर्म स्थिति, कायस्थिति तथा भवस्थिति जाननी चाहिये। विवेचन कर्म स्थिति- नारकी, तिर्यच, मनुष्य और देवो की कर्म स्थिति क्या है? यह जानना कर्म स्थिति है। ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय तथा अन्तराय की तीस कोटा-कोटी सागरोपम. नाम गोत्र की बीस कोटा कोटी सागरोपम, आयु कर्म की तैतीस सागरोपम तथा मोहनीय की सत्तर कोटा-कोटी सागरोपम की उत्कृष्ट स्थिति होती है। Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवसमास काय स्थिति- कोई जीव बार-बार एक ही काय में-यथा पृथ्वीकाय पृथ्वीकाय में, उसकाय-त्रसकाय में जन्म ले तो वह काचस्थिति कहलाती है। एकेन्द्रिय जीव असंख्य उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी काल तक स्वकाय में रहते हैं। वनस्पतिक जीव भी अनन्त उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी काल तक स्वकाय स्थिति रह सकते हैं। बसकाय की उत्कृष्टतः दो सागरको, अन्य मान्यता के अनुसार संख्यात उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी काल तक स्वकाय स्थिति है। मनुष्य तथा तिर्यंच की अधिकतम सात-आठ मय तक की स्थकाय स्थिति : देव तथा नारक अपनी काय में पुन: जन्म नहीं लेते है। भव स्थिति- भवस्थिति अर्थात् वर्तमान भव की पर्याय की काल स्थिति जैसे देव तथा नारक एक ही भव करते हैं फिर भव बदल जाता है। नारकी पुन: नारकी नहीं बनते, देव पुन: देव नहीं बनते। इनकी उत्कृष्ट भव स्थिति तैतीस सागरोपम है। इसी प्रकार तिर्यंच तथा मनुष्य की भवस्थिति अधिकतम तीन पल्योपम की होती है। इस प्रकार कर्पस्थिति, कायस्थिति तथा भवस्थिति को सूक्ष्म अद्धासागरोपम तथा पल्योपम परिमाण से जानना चाहिये। क्षेत्र पल्योपम बायरसाहुमागासे खेतपएसाण समयमवहारे। बायर सामं खेत्तं उस्सप्पिणीओ असंखेज्जा ।।१३१।। ___ गाथार्थ- स्थूल अर्थात् बालागों तथा सूक्ष्म अर्थात् बालानों के खण्डों से भरे हर क्षेत्र के प्रदेशों में से प्रति समय एकएक आकाश प्रदेश का अपहार करने से क्रमशः स्थूल (बादर) तथा सूक्ष्म क्षेत्र पल्योपम होता हैं। इसका परिमाण असंख्यात उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी काल जितना है। विवेचन १. बादर अथवा व्यवहार क्षेत्र पल्योपम-पूर्व कथित पल्य के जो आकाश प्रदेश हैं, उन प्रदेशों में से समय-समय पर एक-एक आकाश प्रदेश का अपहरण किया जाय, निकाला जाये। जितने काल में वह पल्य खाली यावत् विशुद्ध हो जाय वह एक बादर (व्यवहार) क्षेत्र पन्योपम हैं। । पूर्व में जो व्यवहारिक उद्धार पल्योपम और अद्धापल्योपम का स्वरूप बताया हैं उन्हीं के समान बालान कोटियों से पल्य को भरने की प्रक्रिया यहां भी ग्रहण की गई है किन्तु उसमें तथा इसमें अन्तर यह है कि पूर्व के दोनों पल्यों में समय की मुख्यता है तथा यहाँ क्षेत्र की मुख्यता है। Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिमाण-द्वार २. सूक्ष्म क्षेत्र पाल्योपम- इसमें बालानी के असख्यात एस खण्ड किये जायें जो दृष्टि के विषयभूत पदार्थ की अपेक्षा असंख्यात भाग सूक्ष्म परिमाण वाले हो एवं सूक्ष्मपनक जीव की शरीरावगाहना से असंख्यात गुणा सूक्ष्म हो। उन बालाओं से जो आकाश प्रदेश स्पृष्ट हो और स्पृष्ट न हो- यहां दोनो प्रकार के प्रदेशों को ग्रहण करना, उनमें से प्रतिसमय एक-एक आकाश प्रदेश का अपहरण किया जाय तो जितने काल में वह पल्य सर्वथा रहित हो जाय उसे सूक्ष्म क्षेत्र पल्योपम कहते हैं। क्षेत्र सागरोपम एएसि पल्लाणं कोडाकोडी हवेज्ज दसगुणिया। तं सागरोवमस्स उ एक्कास भवे परीमाणं ।। १३२।। गाथार्थ-- इस प्रकार के बादर (स्थूल) एवं सूक्ष्म पल्योपम को दस कोटा कोटि (दस करोड़ दस करोड़) से गुणित करने पर एक बादर तथा सूक्ष्म सागरोपम का परिमाण होता है। विवेचन- तीनों पल्योपमों तथा तीनों सागरोपमों का विवेचन हम गाथा ११७ के विवेचन में कर आये हैं। उद्धार-उद्धार का अर्थ प्रतिसमय से है। प्रति समय बालाग्र या बालखण्ड निकालने पर खाली होने में लगने वाला समय बादर या सूक्ष्म उद्धार पल्योपम है। अद्धा-प्रत्येक १०० वर्ष में बालाग्र या बालखण्ड निकालने पर खाली होने में लगने वाला समय बादर या सूक्ष्म अद्धा पल्योपम है। क्षेत्र- पूर्वोक्त कुँए में भरे हुए बालनों या बालाग्न खण्डों से स्पर्शित या अस्पर्शित जो भी आकाश प्रदेश हो उनमें से प्रतिसमय एक-एक आकाश प्रदेश का अपहरण करने पर खाली होने में जो काल लगे वह बादर या सूक्ष्म क्षेत्र पल्योपम है। ___सभी पल्योपमों को दस कोटा-कोटी से गुणा करने पर सागरोपम • बनता है। यद्यपि बादर क्षेत्र पल्योपम तथा बादर क्षेत्र सागरोपम व्यवहार में उपयोगी नहीं होता, फिर भी ऋमिक वर्णन के कारण इसका कथन किया गया है। अब उपयोग में आने वाले सूक्ष्म क्षेत्र पल्योपम एवं सूक्ष्म क्षेत्रसागरोपम का कथन करते हैं - Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवसमास ९६ सूक्ष्म क्षेत्र सागरोपम की उपयोगिता एएण खेत्तस्सगरवमाणेणं हवेज्ज नाथव्वं । पुढविदगअगणिमारुयहरियतसाणं च परीमाणं ।। १३३ ।। गाथार्थ - इस सूक्ष्म क्षेत्र सागरोपम से पृथ्वीकाय, अप्काय तेजकाय, वायुकाय, वनस्पतिकाय तथा सकाय जीवों का परिमाण जान सकते हैं। विवेचन - उपर्युक्त सभी जीवों की संख्या को सूक्ष्म क्षेत्र सागरोपम से जान सकते हैं। (१) उद्धारपल्योपम - गाथा ११८ तथा ११९ में पल्योपम का वर्णन किया है । उसमें बताये गये पल्य कुएँ को सात दिन तक के बालक के बालाओं से ठसाठस भरना । "इवलांक प्रकाश" में कहा गया है कि वे केशाम्र इतनी सघनता से भरे जाये कि चक्रवर्ती की सेना भी उस पर से निकल जाय तो भी वे दबे नहीं। उनमें से प्रत्येक बाल को एक-एक समय में निकालने में जितने समय में वह कुंआ खाली हो उसे बादर या व्यवहार उद्धारपल्योपम कहते हैं। इसी तरह के उक्त बालाय के असंख्यात अदृश्य ऐसे खण्ड किये जाये जो विशुद्ध नेत्र वाले उद्यस्थ पुरुष के दृष्टिगोचर होने वाले सूक्ष्म पनक (काई) के शरीर से असंख्यात गुणा सूक्ष्म हो। ऐसे सूक्ष्म बालाओं के खण्डों से भरा कुंआ प्रतिसमय एक-एक बालध- खण्ड निकालने पर जब खाली हो तो उसे सूक्ष्म उद्वार पल्योपम कहते हैं। इसमें संख्यात वर्ष कोटि परिमित काल लगता है। (२) अद्धापयोपम - उपर्युक्त प्रकार से भरा हुआ कुंआ, उसमें से हर १०० वर्ष बाद एक बाल निकाला जाय और जितने समय में वह खाली हो जाय तो वह बादर या व्यवहार अन्डा पल्योपम कहलाता है। जाय-: उसी कुंए से सूक्ष्म बालाय खण्डों को जब १००-१०० वर्ष में निकाला - और जब वह खाली हो जाये तो उसे सूक्ष्म अन्या पल्योघम कहते हैं। यह असंख्यात वर्ष कोटि परिमाण वाला होता है। जबकि बादर अद्धा पल्योपम अनेक संख्यात वर्ष कोटि परिमाण वाला होता है। (३) क्षेत्रपल्योपम - उपर्युक्त रीति से भरे बालानों को जितने आकाश प्रदेश स्पर्शित या अस्पर्शित किये हुए हैं। उन स्पर्शित या अस्पर्शित आकाश प्रदेशों में से प्रत्येक समय एक आकाश प्रदेश को निकालने में जितना समय लगे वह बादर या व्यवहार क्षेत्रपल्योपम है। इसमें असंख्यात अवसर्पिणी- उत्सर्पिणी जितना काल होता है। Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :. परिमाण द्वार ९७ यह कुंभ सूक्ष्म बालास स्वाड़ों से बलाम खण्डों को छुए हुए एवं नहीं हुए हुए सभी आकाश प्रदेशों में से प्रत्येक आकाश प्रदेश को प्रतिसमय निकालने में जितना काल लगे वह सूक्ष्म क्षेत्रपल्योपम है। इसमें भी असंख्यात उत्सर्पिणी- अवसर्पिणी परिमाण काल है, किन्तु इसका काल व्यवहार क्षेत्र पत्योपम के काल से असंख्यात गुणा बड़ा है। भगवन्- क्या उस पल्य में ऐसे भी आकाश-प्रदेश है जो बालाग्र खण्डों से अस्पर्शित हो? हाँ आयुष्मन् ! उस पल्य के ऐसे भी आकाश-: से अस्पर्शित रह जाते है। - प्रदेश है जो बालाय खण्डों इस विषय में कोई दृष्टान्त है? हाँ जैसे कोई कोठा कुष्माण्ड के फलों से भरा हो उसमें बिजौरा फल डालें जाये तो वे समा जायेंगे। फिर बिल्ब डालेंगे तो वे भी समा जायेंगे। ऐसे ही क्रमशः आंवला, बेर, चना, मूंग, सरसों एवं गंगा की बालू डालने पर तो वह भी समा जायेगी। इस दृष्टान्त से उस पल्य के ऐसे आकाश प्रदेश भी है जो अस्पृष्ट रहते है। स्पृष्ट से भी अस्पृष्ट आकाश प्रदेश असंख्य गुणा अधिक है। (अनुयोगद्वार सूत्र ३९७ ) । दीवार में कील, जमीन में वृक्ष की जड़, मिट्टी में पानी आदि का प्रवेश पा जाना अवकाश या खाली प्रदेश का प्रतीक है। पल्योपम की तरह सागरोपम के भी तीन भेद हैं और इन तीनों के दो दो प्रकार हैं- (१) उकार सागरोपम— दस कोटा कोटि बादर उद्धार पल्योपम का एक बादर उद्धार सागरोपम होता है। दस कोडा कोडि सूक्ष्म उद्धार पल्योपम का एक सूक्ष्म उद्धार सागरोपम होता है। ढाई सूक्ष्म उद्धार सागरोपम या २५ कोटा कोटि सूक्ष्म उद्धार पल्योपम में जितने समय होते हैं उतने ही लोक में द्वीप और समुद्र होते हैं। (२) अन्या सागरोपम- दस कोटा कोटि बादर अद्धा पल्योपम का एक बादर अद्धा सागरोपम होता है। दस कोडा कोडि सूक्ष्म अद्धा पल्योपम का एक सूक्ष्म अद्धा सागरोपम होता है। जीवों की कर्म स्थिति, कार्यस्थिति और भवस्थिति तथा आरों (काल चक्र) का परिमाण सूक्ष्म अद्धा पल्योपम और अद्धा सागरोपम से नापा जाता है। Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवसमास (३) क्षेत्र सागरोपम- दस कोटा कोटि बादर या व्यवहार क्षेत्र पल्योपम का एक बादर या व्यवहार सागरोपम होता है। ९८ दस कोटा कोटि सूक्ष्म क्षेत्र पल्योपम का एक सूक्ष्म क्षेत्र सागरोपम होता है। इस प्रकार उद्धार, अद्धा तथा क्षेत्र तीन प्रकार के काल की चर्चा पूर्ण हुई। कालपरिमाण द्वार सम्पूर्ण हुआ। Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव परिमाण के प्रकार ४. भाव- परिमाण गुणनोगुणनिष्कनं गुणनिष्पन्नं तु वनमाईयं । नोगुणनिष्पन्नं पुण संखाणं नों य संखाणं ।। १३४ । । गाथार्थ- परिमाण के गुण निष्पन्न तथा नोगुण निष्पन्न ये दो प्रकार है। उसमे भी गुण निष्पन्न का वर्ग, गंध, रस आदि की दृष्टि से तथा नोगुण निष्पन्न का संख्या और नोसंख्या की दृष्टि से विवेचन किया जाता है। विवेचन - "भवन: भावः "होना, जिससे विद्यमान पदार्थों के भली भांति बोध हो वह भाव कहलाता हैं। यह भाव शब्द की व्युत्पत्ति है। भवनः अर्थात् वर्णादि परिणाम अथवा ज्ञानादि परिणामों का गुण परिमाण - भाव परिमाण के गुण निष्पन्न तथा नोगुण निष्पत्र ये दो भेद होते हैं। गुण परिमाण भी दो प्रकार के हैं— जीव गुण परिमाण और अजीब गुण परिमाण जीव गुण परिणमन तीन प्रकार का है, (१) ज्ञान, (२) दर्शन और (३) चारित्र | अजीव का गुण परिणमन ५ प्रकार का है- (१) वर्ण, (२) गंध, (३) रस, (४) स्पर्श और (५) संस्थान | ये गुण परिणमन के नाम निर्देशित किये। अब नोगुण परिणमन रूप सख्या परिणमन तथा नोसंख्या परिणमन की चर्चा अग्रिम गाथाओं में करेंगेसंखाणं पुण दुविहं सुयसंखाणं च गणणसंखाणं । अक्खरपयमाईचं कालियमुक्कालियं च सुयं ।। १३५ ।। - गाथार्थ - पुनः संख्या के भी दो प्रकार हैं— श्रुत संख्या तथा गणित संख्या । उसमें श्रुत संख्या भी दो प्रकार की हैं- कालिक और उत्कालिक । कालिक श्रुत संख्या के भी अक्षर, पद आदि अनेक भेद है। श्रुत के पुनः दो भेद है— कालिक . एवं उत्कालिक । कालिक में आचारांग आदि ग्रंथ और उत्कालिक में दशवैकालिक आवश्यक प्रज्ञापना जीवाभिगम आदि ग्रन्थ आते हैं। पुनः कालिक एवं उत्कालिक की श्रुत संख्या अनेक प्रकार की है यथा (१) पर्याय, (२) अक्षर, (३) संघात, (४) पद, (५) पाद, (६) गाथा, (७) श्लोक, (८) बेठ, (९) वेष्टक, (१०) अनुयोगद्वार, (११) उद्देशक, (१२) अध्ययन, (१३) श्रुतस्कन्ध, (१४) अंग आदि। इसप्रकार यहाँ श्रुत संख्या का वर्णन किया गया है। Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवसमास अब गणितीय संख्या के विषय में चर्चा करेंगे संखेज्जमसंखेज्जं अनंतयं चेव गणणसंखाणं । संखेज्जं पुण तिविहं जहणणयं मज्झिमुक्कोसं ।। १३६ ।। गाथार्थ - गणितीय संख्या संख्यात, असंख्यात तथा अनन्त ऐसी तीन प्रकार को है। पुनः संख्यात संख्या भी जघन्य, मध्यम तथा उत्कृष्ट के भेद से तीन प्रकार की है। १०० तिविहमसंखेज्जं पुण परित जुतं असंख्यासंखं । एक्केक्कं पुण तिविहं जहण्णयं मज्झिमुक्कोसं ।। १३७ ।। गाथार्थ - इसी प्रकार असंख्यात संख्या भी तीन प्रकार को है- परीत असंख्यात, युक्तअसंख्यात तथा असंख्यात असंख्यात । इन तीनों के भो पुनः तीन-तीन प्रकार हैं- जघन्य, मध्यम तथा उत्कृष्ट । इस तरह से असंख्यात के निम्न नौ भेद है- १. जघन्थ परीत- असंख्यात २ मध्यम परात असंख्यात, ३. उत्कृष्ट परीत- असंख्यात, X. जघन्य युक्त असंख्यात, ५. मध्यम युक्त असंख्यात ६. उत्कृष्ट युक्त असंख्यात ७ जघन्य असंख्यात असंख्यात ८. मध्यम असंख्यात असंख्यात और ९. उत्कृष्ट असंख्यात असंख्यात । तिविहमणतंपि तह, परित्त जुत्तं अणतयाणंतं । एक्केक्कं मिय तिविहं जहणणयं मज्झिमुक्कोसं । ।१३८ ।। गाथार्थ - अनंत भी तीन प्रकार की संख्या वाला है-- परीत- अनंत, युक्त - अनंत तथा अनंतानंत। इनमें से प्रत्येक के भी तीन-तीन भेद होते हैं। जघन्य मध्यम तथा उत्कृष्ट इस प्रकार अनन्त के भी नौ भेद होते हैं। प्रस्तुत गाथा में अनन्त के नौ भेद बताये गये हैं, परन्तु व्याख्या करने पर प्रथम दो अर्थात् परीत- अनन्त और युक्त-अनन्त के तो तीन-तीन भेद स्वीकार करने में कोई कठिनाई नहीं है किन्तु तीसरे अनतानंत के जघन्य एवं मध्यम दो भेद ही मानना चाहिये, क्योंकि उत्कृष्ट अनंतानंत ऐसी कोई वस्तु होना संभव नहीं है अतः उसको स्वीकार न करने से अनंत के आठ प्रकार ही मानना चाहिये। संख्यास का स्वरूप जंबुद्दीवो सरिसवपुण्णो ससलागपडि (मह) सलाग्राहि । जावइअं पडिपूरे तावइअं होड़ संखेज्जं ।। १३९।। गाथार्थ - जम्बु द्वीप के समान आकार वाले १. अनवस्थित, २. शलाका, ३. प्रतिशलाका, तथा ४. महाशलाका- ऐसे चार प्याले हों, जब वे प्याले सरसों Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिमाण-द्वार १०१ से पूर्ण रूप से भर जाय तब उन सरसों के दानों की संख्या उत्कृष्ट संख्यात होती है। संख्यात निरूपण-जम्बूद्वीप जैसे आकार के चार पल्यों के नाम क्रमश: १. अनवस्थित, २. शलाका, ३.शालाका और महापालामा है। नारों पल्ला गहराई में एक हजार योजन परिमाण समझने चाहिये। इन्हें शिखा पर्यन्त सरसों से पूर्ण भरने का विधान है। शास्त्र में सत् और असत् दो प्रकार की कल्पना होती है जो कार्य में परिणत की जा सके वह सत्कल्पना तथा जो कार्य में परिणत न की जा सके वह असस्कल्पना। पल्यों का विचार असत्कल्पना है। इसका प्रयोजन उत्कृष्ट संख्यात का स्वरूप समझाना मात्र है। शास्त्र में पल्य चार कहे गये है जिनके नाम ऊपर बता दिये हैं। इनकी लम्बाई-चौड़ाई जम्बूद्वीप के बराबर एक-एक लाख योजन की है। गहराई एक हजार योजन की है। ऊंचाई पावर वेदिका परिमाण अर्थात् साढे आठ योजन कही गई है। पल्य की गहराई तथा ऊँचाई मेरु को समतल भूमि से समझना चाहिये। सारांश यह है कि ये कल्पित पल्य तल से शिखा तक १००८६ योजन होते हैं। अनवस्थित पल्य अनेक बनते हैं। इनकी लम्बाई-चौड़ाई एक सी नहीं हैं। यही कारण है कि इन्हें अनवस्थित कहा जाता है, पहले अनवस्थित (मूलानवस्थित) की लम्बाई-चौड़ाई लाख योजन की है और आगे के सब अनवस्थित पल्यों की लम्बाई-चौड़ाई उससे अधिकाधिक है। जैसे जम्बूद्वीप परिमाण मूलानवस्थित पल्य को सरसो से भर देना और जम्बूद्वीप से लेकर आगे के प्रत्येक द्वीप-समुद्र में एक-एक सरसों डालते जाना। इस प्रकार डालते-डालते जिस द्वीप या समुद्र में मूलानवस्थित पल्य खाली हो जाय- जम्बूद्वीप (मूलानवस्थित) से उसी द्वीप या उस समुद्र तक की लम्बाई-चौड़ाई वाला नया पल्य बना लिया जाय, यह पहला उत्तरानवस्थित पल्य है। इस पल्य को पूर्ण रूप से सरसों से भरना और इन सरसों में से एक-एक सरसों को आगे के प्रत्येक द्वीप में तथा समुद्र में डालते जाना। डालते-डालते जहां सरसों के दाने समाप्त हो जाय, उस द्वीप या समुद्र पर्यन्त लम्बा चौड़ा पल्य फिर से बना लेना यह दूसरा उत्तरानवस्थित पल्य है। इस प्रकार क्रमश: अनवस्थित पल्य बनाते जाना- यह पल्य कब तक बनाना? – इसके उत्तर में बताया गया कि प्रत्येक अनवस्थित के खाली होने पर एक-एक सर्षप शलाका पल्य में डालते जाना। इससे यह ज्ञात होगा कि कितने Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ जीवसमास अनवस्थित पल्य बने और खाली हुए। इस शलाका पल्य के भर जाने पर एक-एक सर्षप प्रतिशलाका में डाला जाता है। प्रतिशलाका के सर्षप की संख्या से ज्ञात होता है कि कितनी बार शलाका पल्य भरा और खाली हुआ। प्रतिशलाका पल्य के एक-एक बार मर जाने और खाली हो जाने पर एक-एक सर्षप महाशलाका पल्य में डाल दिया जाता है। जिससे कितनी बार प्रतिशलाका पल्य भरा गया व खाली किया गया है, यह ज्ञात हो जाता है। इसमें जब शलाका पल्य भर जाता है तो मूलस्थान से अन्तिम सर्षप वाले स्थान तक विस्तीर्ण अनवस्थित पल्य बनाकर उसे सर्पप से भर देना चाहिये। इससे अब तक में अनवस्थित पल्य और शलाका पल्य सर्षपों से भर गये इन दो में से शलाका पल्य के एक-एक सर्षप को उक्त विधि के अनुसार आगे के द्वीप समुद्र में डालते जाना चाहिये। एक-एक सर्पप निकालने से जब शलाका पल्प बिल्कुल खाली हो जाय तथा उसके खाली हो जाने का सूचक एक सर्षप प्रतिशलाका पल्य में डालना चाहिये। अब तक अनवस्थित पल्य सर्वप से भरा पड़ा है और शलाका पल्य खाली हो चुका है और प्रतिशलाका में एक सषेप पड़ा है। इसके पश्चात् अनवस्थित पल्य के एक-एक सर्षप को आगे के द्वीप समुद्र में डालते जाना चाहिये और उसके खाली होने पर एक सर्षप शलाका पल्यमें डालना! पुनः मूल स्थान से जहां तक अन्तिम सर्वप डाला वहां तक नया अनवस्थित पल्य बनाना तथा उक्त विधि से खालो करते जाना चाहिये तथा प्रत्येक अनवस्थित पल्य के खाली हो जाने पर एक-एक सर्षप शलाका पल्य में डालते जाना चाहिये। ऐसा करते-करते जब शलाका पल्य भर जाये तब जिस स्थान पर अन्तिम सर्षप डाला है वहाँ से मूलस्थान तक का विस्तीर्ण नया अनवस्थित पल्य बनाकर उसे भी सर्षपों से भर देना चाहिये। अब तक अनवस्थित और शलाका पल्य भरे हुए हैं और प्रतिशलाका में एक सर्षप है। __ शलाका पल्य को पूर्व विधि के अनुसार फिर से खाली कर देना चाहिये और उसके खाली हो चुकने पर एक सर्षप प्रतिशलाका में रखना चाहिये। अब अनवस्थित पल्य भरा है तथा शलाका पल्य खाली है तथा प्रतिशलाका पल्य में दो सर्वप पड़े हुए हैं। आगे फिर इसी विधि से अनवस्थित पल्य को खाली करना और एक-एक सर्षप शलाका पल्य में डालना चाहिये इस प्रकार शलाका पल्य को बार-बार भर कर उक्त विधि के अनुसार खाली करते जाना और एक-एक सर्षप प्रतिशलाका पल्य में डालते जाना चाहिये। ऐसे करते हुए जब वह प्रतिशलाका पल्प भर जाये तब अनवस्थित पल्य द्वारा शलाका को भरना और अनवस्थित को भी भर कर रखना। अब तक अनवस्थित, शलाका, प्रतिशलाका ये तीनों पल्य भर गये। अब Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिमाण द्वार १०३ प्रतिशलाका के एक-एक सर्षप को आगे के द्वीप, समुद्र में डालते जाना। उसके खाली होने पर एक सर्षप जो प्रतिशलाका के खाली होने का सूचक है उसको महाशलाका में डालना। अब अनवस्थित तथा शलाका पल्य भरे हैं। प्रतिशलाका खाली हैं और महाशलाका में एक सर्षप पड़ा है। इसके बाद शलाका पल्य को खाली कर एक सर्व प्रतिशलाका में डालना । अनवस्थित को खाली कर शलाका में एक सर्षप डालना। इस प्रकार नया-नया अनवस्थित पल्य बना कर उसे सर्षप से भरकर तथा उक्त विधि के अनुसार उसे खालीकर एक-एक सर्षप द्वारा शलाका पत्य को भरना चाहिये। हर एक शलाका पल्य के खाली हो चुकने पर एक-एक सर्षप प्रतिशलाका में डालना चाहिये । प्रतिशलाका भर जाने के बाद अनवस्थित द्वारा शलाका भर लेना और अन्त में अनवस्थित भी भर देना चाहिये। इस प्रकार अब तक में तीन पल्य भर गये हैं। और चौथे में एक सर्वय हैं। फिर प्रतिशलाका को उक्त रीति से खाली करना और महाशलाका पल्य में एक सर्षप डालना चाहिये। अब तक पहले के दो पल्य पूर्ण हैं प्रतिशलाका खाली है और महाशलाका में दो सर्षप हैं इस तरह प्रतिशलाका से महाशलाका को भर देना चाहिये। इस प्रकार पूर्व - पूर्व पल्य के खाली हो जाने के समय डाले गये एक-एक सर्वप से क्रमशः दूसरा, तीसरा और चौथा पल्य जब भर जाय तब अनवस्थिन पल्य जो कि मूल स्थान से अन्तिम सर्षप वाले द्वीप या समुद्र तक लम्बा और चौड़ा बनाया जाता हैं उसको भी सर्षपों से भर देना चाहिये। इस क्रम से चारों पल्य सर्षपों से ठसाठस भरे जाते हैं। ( कर्मग्रन्थ४ / ७३-७७) जितने द्वीप समुद्रों में एक-एक सर्षप डालने से पहले तीन पल्य खाली हो गये हैं उन सब द्वीप- समुद्र की संख्या और परिपूर्ण चार पल्यों के सर्वपों की संख्या-- इन दोनों की संख्या मिलाने से जो संख्या हो उससे एक कम संख्या उत्कृष्ट संख्यात है। यह मत कर्मग्रन्थिकों का है। अनुयोगद्वार की मलधारी वृत्ति में संकेत हैं"" यदा तु चत्वारोऽपि परिपूर्णा भवन्ति तदोत्कृष्ट संख्येक रूपाधिकम् भवति" जब चारो पल्य भर जाते हैं उसमें बनी संख्यात संख्या में से एक कम करने पर उत्कृष्ट संख्यात होता है। (अनुयोगद्वार मलधारी वृत्ति पृष्ठ २३७ ) । इस प्रकार गाथा १३६ में बताये गये संख्यात को अब जघन्य, मध्यम व उत्कृष्ट रूप से बताते हैं- (१) जधन्य संख्यात- दो की संख्या जघन्य संख्यात है। क्योंकि जिसमें भेद पार्थक्य प्रतीत हो उसे संख्या कहते हैं। भेद की प्रतीति कम से कम दो में होने से उसे जघन्य संख्या कहा है। Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवसमास (२) मध्यम संख्यात-- दो से ऊपर और उत्कृष्ट-संख्यात से पूर्व तक की अन्तरालवी सब संख्याये मध्यम-संख्यात हैं। समझने के लिये यह कल्पना करें कि १०० की संख्या उत्कृष्ट है और दो की संख्या जघन्य है, तो ३ से लेकर ९९ तक की संख्या मध्यप संख्यात हैं। (३) उत्कृष्ट संख्यात-दो से लेकर दहाई, सैकड़ा, हजार, लाख, करोड़ शीर्ष प्रहेलिका आदि राशियों जो माता ब्रह्माने में राक्षा में उसने मसी सख्या गिनती से न बता पाने के कारण उस संख्या को उपमा से बता पाना ही शक्य हैं। इसलिए उपमा का आधार लेकर ही संख्यात के स्वरूप को स्पष्ट किया गया है। शास्त्र में सत्-असत् दो कल्पना होती है। कार्य में परिणत होने वाली को सत् तथा न होने वाली को असत् कहते हैं। यहाँ असत् कल्पना से ऊपरोक्त चार पल्यों यथा अनवस्थित, शलाकादि के आधार पर उत्कृष्ट अनवस्थित संख्यात का स्वरूप बताया गया है। अब असंख्यात का निरूपण किया जाता है। असंख्यात निरूपण-गाथा १३७ में तीन प्रकार के असंख्यात बताये गये हे- १. परीत-असंख्यात २. युक्त-असंख्यात तथा ३. असंख्यात-असंख्यात। इन तीनों के भी तीन-तीन प्रकार हैं, जिनका उल्लेख किया गया है। १. परीतअसंख्यातनिरूपण-पूर्वचर्चित उत्कृष्ट संख्यात में एक का प्रक्षेप करने से जघन्य परीतअसंख्यात होता है। (२) उसके बाद जब तक उत्कृष्ट-परीत-असंख्यात न बने तब तक की मध्य की सारी ही संख्या मध्य परीत-असंख्यात है। (३) उत्कृष्ट परीत-असंख्यात बनाने की विधि या उत्कृष्ट परीत-असंख्यात परिमाण का जघन्य परीत-असंख्यात राशि को जघन्य परीत-असंख्यात राशि से परस्पर अभ्यास मुणित करके उसमें से एक कप करने पर उत्कृष्ट परीत-असंख्यात का परिमाण होता है। जिस संख्या का अभ्यास गणित करना है, उसे उसी संख्या से उतनी ही बार गुणित करना होता है उदाहरण के लिए उसे ५ मान लें, इस ५ को ५ से ५ मार गुणा करने पर (५४५४५४५४५-३१२५) जो संख्या बनेगी इसमें से एक कम करने पर (३१२४) उत्कृष्ट परीत-असंख्यात बनता है। यदि उसमें से एक कम न किया जाय तो वह जघन्ययुक्तअसंख्यात रूप मानी जायेगी। २. युक्त असंख्यात निरूपण-(१) जघन्य परीत-असंख्यात का जघन्य परीतअसंख्यात से अभ्यास करने पर प्राप्त संख्या जघन्ययुक्तअसंख्यात है- जैसा Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिमाण-द्वार १०५ ऊपर बता आये हैं। पुनः उत्कृष्ट परीत असंख्यातमें एक जोड़ने से जघन्य यक्त असंख्यात संख्या बनती है। आवलिका भी इसी परिमाण वाली जानना चाहिये। (२) जघन्ययुक्त असंख्यात से आगे जहाँ तक उत्कृष्टयुक्तअसंख्यात प्राप्त न हो तत्परिमाण संख्या को मध्यमयुक्तअसंख्यात कहते हैं। (३) जघन्ययुक्त असंख्यात राशि को आवलिका (जधन्ययुक्तअसंख्यात) से गुणा करने से प्राप्त संख्या में से एक कम करने से उत्कृष्टयुक्त असंख्यात होता है अथवा जघन्यअसंख्यात असंख्यात राशि में से एक कम करने से उत्कृष्ट युक्तअसंख्यात होता है। ३. असंख्यात-असंख्यात निरूपण- (१) ऊपर जघन्य असंख्यातअसंख्यात का निरूपण किया अर्थात् जघन्य युक्तअसंख्यात को जघन्य युक्त असंख्यात से गुणित की गई राशि अथवा उत्कृष्ट युक्त असख्यात में एक प्रक्षेप करने से उपलब्ध राशि, जघन्य असंख्यात- असंख्यात होता है। (२) तत्पश्चात् उत्कृष्ट असंख्यात-असंख्यात प्राप्त होने से पूर्व तक की संख्या मध्यम असंख्यात-असंख्यात है। (३) जघन्य असंख्यात असंख्याप्त को जघन्य असंख्यात असंख्यात से गुणित कर एक कम करने पर प्राप्त राशि उत्कृष्ट असंख्यात-असंख्यात है। कुछ आचार्य उत्कृष्ट असंख्यात-असंख्यात की इस प्रकार से प्ररूपणा करते हैं.– जघन्य असंख्यात-असंख्यात का तीन बार वर्ग करके नीचे लिखो दस असंख्यातों की राशियां उसमें मिलाना- १. लोकाकाश के प्रदेश २. धर्मास्तिकाय के प्रदेश, ३, अथर्मास्तिकाय के प्रदेश, ४. एक जीव के प्रदेश, ५, सुक्ष्म एवं बादर अनन्तकाय, ६. प्रत्येकशरीर, ५. ज्ञानावरणीय आदि कर्मों के स्थितिबंध के अध्यवसाय, ८. अनुभाग विशेष, ९. योगच्छेद प्रविभाग और १०. दोनों अर्थात् उत्सर्पिणी एवं अवसर्पिणी कालों के समय। (त्रिलोकसार, गाथा ४२ से ४६) उक्त दसों के प्रक्षेप के बाद पुन: इस समस्त राशि का तीन बार वर्ग प्राप्त करके प्राप्त संख्या में से एक न्यून करने से उत्कृष्ट असंख्यात-असंख्यात का प्रमाण होता है। ' नौ प्रकार के असंख्यात का वर्णन किया, अब अनन्त के भेदों का निरूपण करते हैं अनन्त निरूपण-गाथा १३८ में तीन प्रकार के अनन्त बताये गये हैं। (१) परीत-अनन्त, (२) युक्तअनन्त, (३) अनन्त-अनन्त-ये तीनों भी तीन-तीन प्रकार के हैं। Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवसमास १. परीसानन्त निरूपण-(१) जघन्य परीतामन्त- जघन्य-असंख्यात राशि को उसी जघन्य असंख्यात-असंख्यात राशि से परस्पर अभ्यास रूप में गुणित करने पर प्राप्त परिपूर्ण जघन्य परीतानन्त का परिमाण है अथवा उत्कृष्ट असंख्यातअसंख्यात में एक (रूप) का प्रक्षेपण करने से भी जघन्य परांतानन्त का प्रमाण होता है। (२) मध्यम परीतानन्त- उत्कृष्ट परीतानन्त के प्राप्त न होने के पूर्व की राशि मध्यम परीतानन्त होती है। (३) उत्कृष्ट परीतानन्त- जघन्य परीतानन्त को जवन्य परीतानन्त से परस्पर अभ्यास रूप गुणित करके उसमें से एक कम करने से उत्कृष्ट परीतानन्त की संख्या बनती हैं। २. युक्तानन्त निरूपण--(५; जघन्यः सीताना राशि उसी राशि अभ्यास करने पर प्रतिपूर्ण संख्या जघन्य युक्तानन्त है अथवा उत्कृष्ट परीतानन्त में एक राशि (अंक) प्रक्षिप्त करने से एक अधन्य युक्तानन्त होता है। अभव्य जीव भी जघन्य युक्तानन्त जितने होते हैं। (२) उसके पश्चात् मध्यम युक्तानन्त राशि है और वह राशि उत्कृष्ट युक्तासन्त के पूर्व तक है। (३) जघन्य युक्तानन्त राशि के साथ अभव सिद्धिक (अभव्य) राशि का परस्पर अभ्यास रूप गुणाकार करके प्राप्त संख्या में से एक न्यून करने पर प्राप्त राशि उत्कृष्ट युक्तानन्त है अथवा एक न्यून जघन्य अनन्तानन्त उत्कृष्ट युक्तानन्त हैं। ३. अनन्त-अनन्त निरूपण-(१) जघन्य युक्तानन्त के साथ अमवसिद्धिक जीवो (जघन्य युक्तानन्त) को परस्पर 'अभ्यास' रूप से गुणित करने पर प्राप्त पूर्ण संख्या जघन्य अनन्त-अनन्त का परिमाण है अथवा उत्कृष्ट युक्तानन्त में एक प्रक्षेप करने से जघन्य अनन्त-अनन्त होता है। (२) तत्पश्चात् (जघन्य अनन्त-अनन्त के बाद) सभी स्थान मध्यम अनन्त-अनन्त होते हैं। क्योंकि उत्कृष्ट अनन्त-अनन्त राशि में कोई परिमाण सम्भव नहीं हैं। ___ यह कथन सैद्धान्तिक आचार्यों का हैं। किन्तु कुछ आचायों ने उत्कृष्ट अनन्त-अनन्त राशि का भी निरूपण किया हैं। उनका मत है कि जघन्य अनन्त-अनन्त का तीन बार वर्ग करके फिर उसमें निम्नलिखिल छह अनन्तों का प्रक्षेपण करना चाहिये- १. सिद्धजीवों की राशि, २. निगोद के जीवों की राशि, ३. वनस्पति कायिक जीवो की राशि, ४. तीनों कालों के समयों की राशि, ५. सर्वपुद्गल द्रव्यों की राशि, तथा ६. लोकाकाश तथा अलोकाकाश के प्रदेशों की राशि। (६ क्षेपक टीका तथा त्रिलोकसार की गाथा ४९ में वर्णित)। Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिमाण-द्वार इनको मिलाकर फिर सर्वराशि का तान बार वर्ग करके उस राशि में केवलद्विक (केवलदर्शन, केवलज्ञान) की अनन्त पर्यायां का प्रक्षेपण करने पर उत्कृष्ट अनन्तानन्त राशि का परिमाण होता है। गणन संख्या का सक्षिप्त प्रारूप इस प्रकार है। (९) त्रिविध संख्यात जघन्य मध्यम (२) नवविथ असंख्यात परीत असाव्यात अक्त-असख्यात असख्यान-अमख्यात १. जघन्य परीत-असरल्यात ४. जघन्य जन-असंग्मात ७. जघन्य असख्यान-असंण्यात २. मध्यम परीत-असख्यात ५. मध्यम यत्त- असंगत ८. मध्यन असंख्यात-असंग्न्यात ३. उत्कृष्ट पीत-असख्यान ६. उत्कृष्ट युक्त-असंख्यात ९. उत्कृष्ट अमत्र्यात-असंख्यात (३) अष्टविध अनन्त परीत-अनन्त युक्त-अनन्त अनन्त-अनन्त १. जघन्य परीत-अनन्त जघन्य युक्त-अनन्त जघन्य अनन्त-अनन्त २. मध्यम परीत-अनन्त मध्यम युक्त-अनन्त मध्यम अनन्त-अनन्न ३. उत्कृष्ट परीत-अनन्त उत्कृष्ट युक्त- अनन्त गाथा १३४ के अनुसार गुण तथा नोगुण के दो प्रकारो में से गुण निष्पन्न वर्ण आदि की चर्चा की तथा नोगुण निष्पत्र संख्या में श्रत तथा गणित संख्या की चर्चा हुई अब नो संख्या की चर्चा करते है। नोसंखाणं नाणं दमण चरणं नयप्पमाणं च ।। पंच चउ पंच पंच य जहाणुपुचीए नायव्या ।।१४०।। गाथार्थ-नोसंख्या के शान, दर्शन, चारित्र तथा नयप्रमाण ये चार भेद है। इनके यथाक्रम से पांच, चार, पांच तथा पांच मंद जानना चाहिए। ज्ञान-प्रमाण पच्चरखं न परोक्खं नाणपमाणं समासओ दुविहं। पच्चमोहिमणकेवलं च पारोस्ख मइसुत्ते ।।१४१।। गाथार्थ-ज्ञान-प्रमाण संक्षेप से प्रत्यक्ष और परोक्ष दो प्रकार का है प्रत्यक्ष के अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान और केवलज्ञान ये तीन प्रकार तथा परोक्ष के Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ जीवसमास मतिज्ञान तथा श्रतज्ञान ये दो प्रकार हैं। विवेधन-ज्ञान प्रमाण संक्षेप से प्रत्यक्ष और परोक्ष दो प्रकार के हैं। प्रत्यक्ष अर्थात इन्द्रिय निरपेक्षा इन्द्रिय के बिना आत्मा की निर्मलता से होने वाला साक्षात पदार्थों का ज्ञान। ज्ञान अवधिज्ञान, मनःपर्यय ज्ञान और केवलज्ञान ऐसा नीन प्रकार का है। इन्द्रिय निरपेक्ष होने के कारण आगम में इसे नो इन्द्रिय प्रत्यक्ष भी कहा गया है। जो ज्ञान इन्द्रिय सापेक्ष हैं, वं परोक्ष हैं। ऐसे ज्ञान दो है- मति एवं श्रुत! इनका वर्णन अगली गाथा में किया गया है इंदियपव्यक्तपि य अणुमाणं उवमयं च मनाणं । केवलिभासियअत्याण आगमो होइ सुयनाणं ।। १४२।। ___ गाथार्थ-मतिज्ञान इन्द्रिय प्रत्यक्ष और इन्द्रिय परोक्ष दोनो हैं। इन्द्रिय परोक्ष के दो भेद हैं- अनुमान और उपमान। केवली भाषित अर्थों को बताने वाले आगमों को श्रुतज्ञान कहते है। विवेचन- इन्द्रियों के बिना होने वाले ज्ञान अर्थात् नोइन्द्रिय प्रत्यक्ष ज्ञान के तीन प्रकार पूर्व गाया में बताये गये हैं। इस गाथा में इन्द्रिय प्रत्यक्ष के पांच प्रकार बताये गए हैं- १. श्रोतेन्द्रिय प्रत्यक्ष, २. चक्षुरिन्द्रिय प्रत्यक्ष, ३. नाणेन्द्रिय प्रत्यक्ष, ४. जिह्वेन्द्रिय प्रत्यक्ष, ५. स्पर्शनेन्द्रिय प्रत्यक्ष। प्रत्यक्ष शब्द में प्रति+अक्ष ऐसे दो शब्द हैं। अक्ष शब्द का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है- ''आक्ष्णोति ज्ञानात्मना व्याप्नोति जानातीत्यक्ष आत्मा' अर्थात् "अक्ष" जीव या आत्मा को कहते हैं क्योंकि जीव ज्ञानरूप से समस्त पदार्थों को व्याप्त करता है, जानता है। जो ज्ञान साक्षात् आत्मा से उत्पन्न हो, जिसमे इन्द्रियादि किसी माध्यम की अपेक्षा न हो वह प्रत्यक्ष कहलाता है। इस दृष्टि से तो अवधि, मन:पर्यय और केवल- ये तीनों ज्ञान ही प्रत्यक्ष हैं। किन्तु अक्ष का एक अर्थ इन्द्रिय भी होता है अत: लोक व्यवहार में इन्द्रिय से होने वाले ज्ञान को भी प्रत्यक्ष कहा जाता है। यहां इसी लोक व्यवहार के आधार पर इन्द्रियजन्य ज्ञान को प्रत्यक्ष कहा गया है। इन्द्रिय परोक्ष के अनुमान और उपमान दो भेद हैं १. अनुमान प्रमाण-अनुमान तीन प्रकार का हैं, १. पूर्ववत् २. शेषवत् ३. दृष्ट साधर्म्यवत् । अनु अर्थात् पश्चात् और मान अर्थात् ज्ञान। साधन के ग्रहण (दर्शन) और सम्बन्ध के स्मरण के पश्चात् होने वाले ज्ञान को अनुमान कहते हैं तात्पर्य यह है कि साधन (हेतु) से जिस साध्य का ज्ञान होता है वह अनुमान Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिमाण द्वार १०९ है । । यह अनुमान प्रत्यक्षज्ञान की तरह प्रमाण हैं। ( विस्तार हेतु अनुयोगद्वार, सूत्र ४४० देखें)। २. उपमान प्रमाण - दो प्रकार का है, १. साधम्योंपनीत, २. वैधयोंपनीत | सादृश्यता के आधार पर वस्तु को जानना यथा - गवय गाय जैसा होता है, उपमान प्रमाण है। (विस्तार हेतु अनुयोगद्वार सूत्र ४५८ देखें)। ऊपर मतिज्ञान की चर्चा की गई हैं अब श्रुतज्ञान के विषय में बताते हैं · प्रश्न- श्रुतज्ञान क्या है ? उत्तर - केवली भाषित अर्थों का प्रतिपादन करने वाले आगमों को श्रुतज्ञान कहा गया है। प्रश्न- भगवन्! आगम प्रमाण का स्वरूप क्या हैं? उत्तर- आयुष्मन् ! आगम दो प्रकार का हैं, १. लौकिक, २. लोकोनर । १. लौकिक आगम-जिसे असर्वज्ञ व्यक्तियों ने अपनी स्वच्छन्द बुद्धि और मति से रचा हो, किन्तु लोक में आगमतुल्य मान्य हो, उसे लौकिक आगम कहते हैं, जैसे रामायण, महाभारत आदि । (अनुयोगद्वार सूत्र ४६७ ) २. लोकोत्तर आगम- - केवलज्ञान- केवलदर्शन के धारक, वर्तमान, अतीत और अनागत के ज्ञाता सर्वज्ञ के वचनों पर आधारित आचारांग आदि गणिस्टिक लोकोत्तर आगम हैं। अन्य अपेक्षा से लोकोत्तर आगम तीन प्रकार का कहा गया हैं १. सूत्रागम, २ अर्थागम और ३ तदुभय अथवा १. आत्मागम, २. अनन्तरागम, ३ परम्परागम। यह ज्ञान प्रमाण की चर्चा हुई अब अग्रिम गाथाओं में दर्शन, चारित्रादि की चर्चा करेंगे चक्खुणमाई दंसण चरणं च सामइय- माई | नैगमसंगहववहारुज्जुसुए चैव सह नया ।। १४३ ।। गाथार्थ - चक्षुदर्शन आदि दर्शन के सामायिक आदि चारित्र के तथा नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र और शब्द ये नय के भेद हैं। विवेचन - दर्शन चार प्रकार का है 1 अवधिदर्शन तथा (४) केवल दर्शन गुण हैं। (१) चक्षुदर्शन, (२) अचक्षुदर्शन, (३) सभी प्रकार का दर्शन आत्मा का Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० जीवसमास : घट, पट आदि द्रव्यों को देखता है। १. चक्षुदर्शन २. अचक्षुदर्शन : घटादि पदार्थों में चक्षु इन्द्रिय के अतिरिक्त अन्य इन्द्रियों के ससेष संयोग आदि का अनुभव करता है। ३. अवधिदर्शन सभी रूपी द्रव्यों का अनुभव करता है किन्तु उनकी सभी पर्यायों की अनुभूति नहीं कर पाता हैं। ४. केवल दर्शन: सभी द्रव्यों तथा उनकी सभी पर्यायों का प्रत्यक्ष अनुभव करता है। चारित्रगुण – चारित्रगुण पांच प्रकार का है, १ सामायिक चारित्र, २. छेदोपस्थापनीय, ३. परिहारविशुद्धि चारित्र, ४. सूक्ष्मसम्पराय चारित्र तथा ५. यथाख्यात चारित्र । इनमें सामायिक आदि पांचों चारित्रों के दो-दो भेद हैं १. सामायिक चारित्र के २. छेदोपस्थापनीय चारित्र के ३. परिहारविशुद्धि चारित्र के ४. सूक्ष्मसम्पराय चारित्र के ५. यथाख्यात चारित्र के च्यावत २. कथित । २. निरविचार | २ निर्विष्टकायिक | ९. इत्वरिक और १. सातिचार और १. निर्विश्यमानक और १. संक्लिश्यमानक और १. प्रतिपाती और २. विशुद्धयमानक । २. अप्रतिपाती अथवा १. छायस्थिक और २. कैवलिक १. सामायिक चारित्र - " सम्” उपसर्ग पूर्वक गत्यर्थक "अय" धातु से स्वार्थ में "इक" प्रत्यय लगाने से सामायिक शब्द निष्पन्न होता है। सम् अर्थात् समत्व या एकत्व और "आय' अर्थात् आगमन। जिसमें परद्रव्यों से निरपेक्ष समत्व रूपी उपयोग में आत्मा की प्रवृत्ति होती है वह सामायिक है, अथवा 'सम्' का अर्थ है राग-द्वेष रहित मध्यस्थभाव, उसकी 'आय' अर्थात् प्राप्ति है। समभाव की प्राप्ति ही जिसका प्रयोजन है उसे सामायिक कहते हैं, अथवा सम का अर्थ हैं सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र । अतः इनकी आय अर्थात् लाभ को भी सामायिक कहते हैं। सर्वसावध कार्यों से निवृत्ति (विरति ) भी सामायिक है क्योंकि महाव्रतों को स्वीकार करने के पूर्व सभी सावद्य कार्य योगों से निवृत्ति रूप सामायिक चारित्र ग्रहण किया जाता है। i इसके दो भेद हैं- इत्वरिक व यावत्कथित | १. इत्वरिक अल्पकालीन एवं २ यावत्कालिक आजीवनपर्यन्त । इत्वरिक सामायिक चारित्र गृहस्थ ग्रहण करते हैं। यावत्कथित सामायिक चारित्र भरत, ऐरावत Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिमाण-द्वार क्षेत्रों के मध्य के बाईस तीर्थकरों के साथ और महाविदेह के सभी तीर्थकरों के साधु ग्रहण करते हैं क्योंकि उनकी उपस्थापना नहीं होती अर्थात् उन्हें महानतों में पुन: स्थापित करने रूप दूसरी बार दीक्षा नहीं दी जाती है। २. छेदोपस्थापनीय चारित्र-जिस चारित्र में पूर्व दीक्षा पर्याय का छेद कर के पुन: पहावतों की उपस्थापना की जाती है- वह छेदोपस्थापनीय चारित्र है। यह दो प्रकार है- सातिचार व निरतिचार। १. महाव्रतों में से किसी का विधात करने वाले साधु को पुन: महाव्रत में स्थापित करना सातिचार छेदोपस्थापनीय चारित्र है। २. नवदीक्षित को बड़ी दीक्षा देने रूप चारित्र निरतिचार छेदोपस्थापनीय चारित्र है। यह चारित्र भरत-ऐरावत क्षेत्र में प्रथम व अन्तिम तीर्थकर के समय में होता है। . ३. परिहार विशुद्धि धारित्र- तपविशेष की साधना से जिस चारित्र में विशुद्धि प्राप्त की जाती है उसे परिहार विशुद्धि चारित्र कहते है। इसके दो भेद हैं- निर्विश्यमानक . कायिकः। १. जिस चारित्र में साधक प्रविष्ट होकर तपविधि के अनुसार तपश्चरण कर रहे हों उसे निर्विश्यमानक परिहार विशुद्धि चारित्र कहते हैं। २. जिसमें तविधि के अनुसार तप कर चुके हों उसे निर्विष्टकायिक परिहार विशुद्धि चारित्र कहते हैं। निर्विश्यमानक तपाराधना करते है और निर्विष्टकायिक उनकी सेवा करते हैं नौ साधु मिलकर इस परिहार तप की आराधना करते हैं उनमे से चार साधक निर्विश्चमानक तप का आचरण करने वाले होते हैं तथा शेष रहे पांच में से चार उनके अनुपारिहारिक अर्थात् वैयावच्च करने वाले होते हैं एक साधु कल्पस्थित वाचनाचार्य होता है। निर्विश्यमान साधक ग्रीष्म में जघन्य चतुर्थ भक्त (एक उपवास), मध्य षष्ठभक्त (दो उपवास), उत्कृष्ट अष्टभक्त (तीन उपवास) करते है। शीतकाल में दो, तीन, चार तथा वर्षा काल में तीन, चार, पांच उपवास करते हैं। यह क्रम छह मास तक चलता है। पारणे के दिन अभिग्रह सहित आयम्बिलव्रत (मात्र एक समय उबले धान का भोजन) करते हैं। भिक्षा में पांच वस्तुओं का ग्रहण और दो का अभिग्रह होता है। कल्पस्थित परिचारक पद ग्रहण करने वाले या वैयावृत्य करने वाले सदा आयम्बिल ही करते हैं। इस प्रकार छह माह तक तप करने वाले साधक बाद में वैयावृत्य करने वाले बनते हैं। ये भी पूर्व तपस्त्रियों की तरह तपाराधना करते हैं। - - Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवसमास दूसरे छह मास के बाद तीसरे छह मास में वाचनाचार्य तप करते हैं। शेष आठ में से सात अनुवारी व एक वाचनाचते हैं. ११२ यह १८ मास की परिहारविशुद्धि तपाराधना हैं। कल्प समाप्त होने पर साधक या तो जिनकल्प को अंगीकार कर लेते हैं या अपने गच्छ में पुन: लौट आते हैं या पुनः वैसी ही तपस्या प्रारम्भ कर देते हैं। इस परिहार विशुद्धि तप के आराधक इसे तीर्थंकर भगवान् के सान्निध्य में अथवा जिसने इस कल्प को तीर्थंकर से स्वीकार किया हो उसके पास ही अंगीकार करते हैं अन्य के पास नहीं। यह चारित्र जिन्होंने छेदोपस्थापनीय चारित्र अंगीकार किया है, उन्हीं को होता है। परिहार विशुद्धि चारित्र का अधिकारी बनने के लिए जघन्यायु उनतीस (२९) वर्ष तथा जघन्य दीक्षा पर्याय बीस (२० ) वर्ष आवश्यक हैं। इस संयम का उत्कृष्ट काल कुछ कम (२९ वर्ष कम ) पूर्व कोटि वर्ष तक माना गया है। इस संयम के अधिकारी को साढ़े नौ पूर्व का ज्ञान होता है। इस चारित्र के धारक मुनि दिन के तीसरे प्रहर में भिक्षा एवं बिहार और अन्य समय में ध्यान, कायोत्सर्गादि करते हैं। इस चारित्र को धारण करने वाले दो प्रकार के होते हैं। — १. इत्यरिक जो कल्प की समाप्ति के बाद पुनः उसी गच्छ में आ जाते हैं! २. यावत्कथित जो कल्प समाप्त होते ही बिना व्यवधान के जिनकल्प स्वीकार कर लेते हैं। ४. सूक्ष्म सम्पराय चारित्र - जिसके कारण जीव चतुर्गति रूप संसार में परिभ्रमण करता है उसे सम्पराय कहते हैं। संसार परिभ्रमण के मुख्य कारण क्रोधादि कषाय हैं। जिस चारित्र में सूक्ष्म अर्थात् संज्वलन लोभ रूप कषाय ( सम्पराय) का उदय ही शेष रह जाता है, ऐसा चारित्र सूक्ष्म संपराय चारित्र कहलाता है। यह दसवें गुणस्थानवर्ती जीवों को होता है। यह चारित्र संक्लिश्यमान और विशुद्धयमान के भेद से दो प्रकार का होता है। (१) क्षपक श्रेणी या उपशम श्रेणी पर आरोहण करने वाले का चारित्र विशुद्धयमानक होता है जबकि (२) ग्यारहवें पर चढ़कर वहाँ से गिरकर जब साधक पुनः दसवें पर आता है, तो वह संक्लिश्य मानक कहलाता है क्योंकि गिरने में संक्लेश ही कारण बनता है। Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिमाण-द्वार ५. यथाख्यात चारित्र-यह शब्द प्राकृत में “अहक्खाय' रूप में है। इसकी शाब्दिक व्युत्पत्ति इस प्रकार जानना चाहिये। अह+आ+अक्खाय। यहाँ अह-अथ शब्द यथातथ्य अर्थ मे और आ-आङ् उपसर्ग अभिविधि अर्थ में प्रयुक्त हुआ है और अक्खाय क्रिया पद है। जिसकी संधि होने से अहाक्खाय शब्द बनता है फिर “हस्व: संयोगे" इस सूत्र से 'अहक्खाय' पद बन जाता है इसका अर्थ यह हुआ कि यथार्थ रूप से जो चारित्र पूर्णतः कषाय रहित हो उसे यथाख्यात चारित्र कहते हैं। इस चारित्र के दो भेद होते हैं-- प्रतिपाती और अप्रतिपाती। १. प्रतिपाती• जिस जीव का मोह उपशान्त हुआ हो उसे प्रतिपाती कहते हैं। २. अप्रतिपाती- जिसका मोह सर्वथा क्षीण हो गया हो उसे अप्रतिपाती कहते हैं। आश्रयी के भेद से इस चारित्र के निम्न दो भेद हैं१. छानस्थिक- छयस्थ अर्थात् ग्यारहवें तथा बारहवें गुणस्थानवतों जीव। २. केवलिक- केवलज्ञान को प्राप्त तेरहवें तथा चौदहवें गुणस्थानवर्ती जीव। यद्यपि ग्यारहवें तथा बारहवें गुणस्थानवी जीव का मोह सर्वथा उपशान्त या क्षय हो जाता है परन्तु ज्ञानावरणीयादि तीन के शेष रहने से उन्हें छद्मस्थ कहते हैं। केवली के चारों घाती कर्म नष्ट हो जाते हैं। इस प्रकार चारित्र गुण का प्ररूपण जानना चाहिये। अब क्रम प्राप्त नय प्रमाण का निरूपण करते हैं नय-प्रमाण से जानी हुई अनन्त धर्मात्मक वस्तु के एक धर्म को मुख्य रूप से जानने वाले ज्ञान को “नय' कहते हैं। विस्तार से तो नय अनेक हैं क्योंकि एक वस्तु के विवेचन की जितनी विधियों हो सकती हैं उतने ही नय हो सकते हैं परन्तु संक्षेप से नय के दो भेद हैं- १, द्रव्यार्थिक और २. पर्यायार्थिक। द्रव्य अर्थात् सामान्य को विषय करने वाले नय को द्रव्यार्थिक नय कहते हैं और पर्याय अर्थात विशेष को विषय करने वाले नय को पर्यायार्थिक नय कहते हैं। सामान्यतया नयों के निम्न मेद किये जाते हैं। द्रव्यार्थिक नय के तीन भेद है- नैगम, संग्रह और व्यवहार। पर्यायार्थिक नय के चार भेद हैं- ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत। __सिद्धसेन आदि तार्किकों के मत को मानने वाले द्रव्यार्थिक नय के तीन भेद मानते हैं। वे नैगम को भी स्वतन्त्र नय नहीं मानते हैं। किन्तु ऋजुसूत्र को Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ जीवसमास द्रव्यार्थिक नय में सम्मिलित करते हैं। सिद्धसेन के अनुसार पर्यायार्थिक नय भी तीन ही हैं। परन्तु जिनभद्र गणि के मत का अनुसरण करने वाले सैद्धान्तिक द्रव्यार्थिक नय के चार भेद मानते हैं। वे भी ऋजुसूत्र नय को द्रव्यार्थिक मानते हैं। (विशेषावश्यक, भाष्य गाथा-१५५०)। (१) नैगम नय-दो पर्यों, दो द्रव्यों तथा द्रव्य और पर्याय का प्रधान और गौणभाव से विवक्षा करने वाले नय को नैगम नय कहते हैं। नैगम नयनएकम् एक नहीं अर्थात् अनेक गमों अर्थात् बोधमार्गो (विकल्पों) से वस्तु को जानता है। (रत्नाकरावतारिका, अध्याय ७, सूत्र ७) जो अनेक दृष्टियों से वस्तु को जानता है अथवा अनेक भावों से वस्तु का निर्णय करता है उसे नैगम नय कहते हैं। निगम नाम जनपद अर्थात् देश का है उसमें जो शब्द जिस अर्थ के लिए नियत है वहाँ पर उस अर्थ और शब्द के सम्बन्ध को जानने का नाम नैगम नय हैं अर्थात इस शब्द का वाच्य यह अर्थ है और इस अर्थ का वाचक यह शब्द हैं, इस प्रकार वाच्य-वाचक के सम्बन्ध के ज्ञान को नैगम नय कहते हैं। (तत्त्वार्थ सूत्र- अध्ययन १) तत्र संकल्पमात्रस्य ग्राहको नैगम नयः। निगम का अर्थ है संकल्प, जो निगम अर्थात् संकल्प को विषय करके कहे वह नैगम नय कहा जाता है- जैसे “कौन जा रहा है, यह पूछे जाने पर "मैं जा रहा हूँ" यह उत्तर दिया जाता है यहां पर कोई भी जा नहीं रहा किन्तु जिसने जाने का केवल संकल्प ही किया है वह नैगम नय की अपेक्षा से कहता है कि मैं जा रहा हूँ। (न्याय प्रदीप) __ शब्दों के जो-जो अर्थ लोक में माने जाते हैं उनको समझने की दृष्टि नैगम नय है। इस दृष्टि से यह नय अन्य सभी नयों से अधिक विषय वाला है। नैगम नय पदार्थ को सामान्य, विशेष और उपयात्मक मानता है। वह तीनों कालों, चारो निक्षेपों एवं धर्म और धर्मी दोनों का ग्रहण करता है। यह नय संकल्प के आधार पर साध्य का प्रतिपादन कर देता है जैसे किसी मनुष्य को स्तम्भ बनाने की इच्छा हुई। तब वह जंगल में काष्ठ लाने के लिए गया। मार्ग में किसी ने उससे प्रश्न किया कि कहाँ जा रहे हों? उसने उत्तर दिया कि स्तम्भ लाने के लिए जा रहा हूँ। बिना लकड़ी प्राप्त किये और बिना स्तम्भ बनाये- केवल संकल्प के आधार पर ही उसने कह दिया कि स्तम्भ लेने जा रहा हूँ। इस प्रकार वस्तु के संकल्प को ही वस्तु मान लेना नैगम नय का अभिप्राय है। Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिमाण-द्वार नैगम नय के दो भेद हैं, क्योंकि कोई भी कथन दो ही प्रकार से हो सकता है (१) सामान्य की अपेक्षा से तथा (२) विशेष की अपेक्षा से। सामान्य की अपेक्षा लेकर प्रवृत्त होने वाले नय को समग्र ग्राही नैगम नय कहते हैं जैसे घट। यहां घट (घड़ा) शब्द सामान्य है। विशेष का आश्रय लेकर प्रवृत्त होने वाले नय को देशमाही नेगम नय कहते हैं यथा मिट्टी का घड़ा, पीतल का घड़ा, घी का घड़ा, पानी का घड़ा आदि। अन्य अपेक्षा से नैगम नय के तीन भेद भी माने गये है जैसे भूत ग्राही नैगम, भात्री ग्राही नैगम, और वर्तमान ग्राही मैंगम।। ___ अतीत की अपेक्षा से वर्तमान में कोई कथन करना भूत ग्राही नैगम नय है, जैसे दीपावली के दिन यह कहना कि आज महावीर स्वामी मोक्ष गये। आज का अर्थ है वर्तमान आज का दिन नहीं है अपितु भूतकाल का यही दिन है क्योकि भगवान् महावीर को मोक्ष गये ढाई हजार वर्ष से अधिक हो गये। वर्तमान में भविष्य का संकल्प करना भावी ग्राही नैगम नय है। जैसे अरिहन्त सिद्ध ही हैं। वर्तमान में कोई कार्य शुरु कर दिया गया हो परन्तु वह पूर्ण न हुआ हो, फिर भी पूर्ण हुआ कहना वर्तमान ग्राही नैगम नय हैं, जैसे रसोई बनाना प्रारम्भ करने पर यह कहना कि आज तो भात बनाया है। (२) संग्रह नय-द्रव्य या वस्तु के विशेष से रहित मात्र सामान्य पक्ष को ग्रहण करने वाले नय को संग्रह नय कहते हैं। (रत्नाकरावतारिका) जाति रूप सामान्य पक्ष को विषय करने वाले नय को संग्रह नय कहते हैं। जैसे यह मनुष्य है, (अनुयोग द्वार- लक्षणद्वार) संग्रह नय एक शब्द के द्वारा अनेक पदार्थों को ग्रहण करता है अथवा मात्र अवयव या अंश के आधार पर सर्वगुण पर्याय सहित वस्तु को ग्रहण करने वाला संग्रह नय है। जैसे कोई सेठ अपने नौकर से कहता है कि दातुन लाओ, वह दातुन शब्द सुनकर मञ्जन, ब्रश, जीभी, पानी का लोटा, तौलिया आदि सब चीज लेकर उपस्थित होता है। यहाँ केवल "दातून" कहने से ही उसको दातुन की सम्पूर्ण सामग्री का ग्रहण कर दिया। संग्रह नय के दो भेद हैं- (१) परसंग्रह (सामान्य संग्रह) (२) अपर संग्रह (विशेष संग्रह)। मात्र सत् को ग्रहण करने वाला नय परसंग्रह नय कहलाता है क्योंकि यह नय सत् कहने से जीव और अजीव के भेद को भी न मानकर सब द्रव्यों का ग्रहण करता है। जीव द्रव्य आदि अवान्तर सामान्य को ग्रहण करने वाला और उनके भेदों की उपेक्षा करने वाला अपर संग्रह नय है। जैसे जीव कहने से सब जीव द्रव्यों Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवसमास का ग्रहण तो हुआ परन्तु अजीव द्रव्य रह गया। इसलिए यह नय विशेष संग्रह नय हैं। (रत्नाकरावतारिका- अध्याय ७)। (३) व्यवहार नय- लौकिक व्यवहार के अनुसार विभाग करने वाले नय को व्यवहार नय कहते हैं जैसे जो सत् है- वह या तो द्रव्य है या पर्याय। जो द्रव्य है उसके जीवादि छः भेद है। जो पर्याय है उसके सहभावी और क्रमभावों ये दो भेद हैं। इसी प्रकार जीव के संसारी और मुक्त ऐसे दो भेद हैं। सब द्रव्यो और उनके विषयों में प्रवृत्ति करने वाले नय को व्यवहार नय कहते हैं। यह नय सामान्य को नहीं केवल विशेष को हो ग्रहण करता है क्योंकि सामान्य लोक व्यवहार का विषय नहीं है। लोक में तो विशेष घटादि पदार्थ जलधारण आदि क्रियाओं के योग्य देखे जाते है। यद्यपि निश्चय नय के अनुसार घट आदि सब अष्टस्पर्शी पौदगलिक वस्तुओं में पाँचवर्ण, दो गन्ध, पाँच रस तथा आठ स्पर्श होते हैं किन्तु बालक और स्त्रियाँ जैसे साधारण लोग एक वस्तु में काले या नीले वर्ण विशेष का ही निश्चय करते हैं, उसी का लोक व्यवहार के योग्य होने के कारण वे सत् रूप से प्रतिपादन करते हैं और शेष का नहीं। जैसे मोगा माली है। व्यवहार से कोयल काली है परन्तु निश्चय से कोयल मे पाँच वर्ण, दो गन्ध, पाँच रस और आठ स्पर्श पाये जाते हैं। इसी प्रकार नरम गुड़ व्यवहार से मीठा है परन्तु निश्चय नय से उसमें उपरोक्त पाँचो रस आदि पाये जाते हैं। यह नय प्राय: उपचार में ही प्रवृत्त हआ करता है इसके ज्ञेय विषय अनेक होते हैं, इसलिए इसको विस्तृतार्थ भी कहा गया है। यह लोक प्रचलित वचन व्यवहार को ही सत्य मान लेता है जैसे- घड़ा चूता है, नाला गिरता है, रास्ता चलता है, बनारस आ गया। वस्तुत: घड़े में परा हुआ पानी व्रता है, नाला नहीं पर नाले में से पानी गिरता हैं, रास्ते में मनुष्य चलते हैं तथा बनारस नहीं आतामनुष्य बनारस पहुँचता है फिर भी लौकिक जन इस प्रकार की भाषा का प्रयोग करते है। इस प्रकार प्राय: व्यवहार-नय की प्रवृत्ति उपचरित विषय ही हैं। व्यवहार नय के दो भेद हैं- (१) सामान्य भेदक, (२) विशेष भेदक। सामान्य संग्रह में भेद करने वाले नय को सामान्य भेदक व्यवहार नय कहते हैं जैसे द्रव्य के दो भेद हैं... जीव और अजीव। विशेष संग्रह में भेद करने वाला विशेष भेदक व्यवहार नय है जैसे जीव के दो भेद- संसारी और मुक्त। (४) अगसन नय-वर्तमान क्षण में होने वाली पर्याय विशेष को ही प्रधान रूप से ग्रहण करने वाले नय को ऋजुसूत्र नय कहते हैं जैसे मैं सुखी हूँ। यह वर्तमान क्षण स्थायी सुखपर्याय को प्रधान रूप विषय देता है। (रत्नाकरावतारिका, Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११७ परिमाण-द्वार अध्याय ७, सूत्र २८) मात्र वर्तमान काल की पर्याय को ग्रहण करने वाला नय ऋजुसूत्र नय है। ऋजुसूत्र नय भूत और भविष्य काल की पर्याय को ग्रहण नही करता है। इसके दो भेद हैं- (१) मूक्ष्म ऋजुसूत्र नय, (२) स्थूल ऋजुसूत्र नय। जो एक स: 1 को पर्यन र रण को रहेगन :जुई नानते हैं जैसे- शब्द भणिक हैं। ____ जो अनेक समयों की वर्तमान पर्याय को ग्रहण करता है उसे स्थल ऋजुसूत्र नय कहते हैं जैसे मनुष्य पर्याय सौ वर्ष का है। (५) शब्द नय-काल, कारक, लिंग, विभक्ति, उपसर्ग और वचन आदि के भेद से शब्दों में अर्थ-भेद का प्रतिपादन करने वाले नय को शब्द नय कहते हैं जैसे- वह बनारस था, बनारस है और बनारस रहेगा। उपरोक्त उदाहरण में शब्द नय भूत, वर्तमान और भविष्य काल के भेद से बनारस के तीन भेद मानता है अर्थात् उन्हें अलग-अलग मानता है। इसी प्रकार घड़ा बनाता है और घड़ा बनाया जाता है यहाँ कारक के भेद से शब्द नय घट के अर्थ में भी भेद करता है। इसी प्रकार लिङ्ग, संख्या, पुरुष और उपसर्ग के भेद से भी वह शब्द के अर्थ-भेद मानता है। शब्दनय ऋजुसूत्र नय के द्वारा ग्रहण किये हुए वर्तमान को भी विशेष रूप से मानता है जैसे ऋजुसूत्र नय लिङ्गादि का भेद होने पर भी उसकी वाच्य पर्यायों को एक ही मानता है परन्तु शब्द नय लिङ्गादि के भेद से पर्यायवाची शब्द में भी अर्थभेद ग्रहण करता है यथा- वह तटः, तटी, तटम् इन तीनों में अर्थों का भेद मानता है। किन्तु राजा, नप, भूपति, भूपाल आदि पर्यायवाची शब्दों में अर्थ-भेद नहीं मानता है। (६) समपिरूढ़ नष- पर्यायवाची शब्दों में निरुक्ति या व्युत्पत्ति के भेद से भिन्न अर्थ को मानने वाले नय को सममिरूढ़ नय कहते हैं। यह नय मानता है कि जहाँ शब्द भेद है वहाँ अर्थभेद भी है। शब्द नय तो अर्थभेद वहीं मानता है जहाँ लिंगादि का भेद हो परन्तु इस नय की दृष्टि में तो प्रत्येक शब्द का अर्थ भिन्न-भिन्न होता है भले ही वे शब्द पर्यायवाची हो और उनमें लिङ्ग आदि का भेद भी न हो। इन्द्र और पुरन्दर शब्द पर्यायवाची हैं फिर भी इनके अर्थ में अन्तर है। इन्द्र शब्द से ऐश्वर्य वाले का बोध होता है और पुरन्दरो से पुरों अर्थात् नगरों के नाश करने वाले का बोध होता है। दोनों का आश्रय एक ही होने से दोनों शब्द पर्यायवाची बताये गये हैं किन्तु इनका अर्थ भिन्न है। इसी प्रकार प्रत्येक शब्द मूल में तो पृथक अर्थ का परिचायक होता है किन्तु कालान्तर में व्यक्ति या समूह में प्रयुक्त होते-होते पर्यायवाची बन जाता है। Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ जीवसमास समभिरूढ़ नय शब्दों के प्रचलित अर्थों को नहीं किन्तु उनके मूल अर्थों को पकड़ता हैं। समभिरूढ़ के मत से जब इन्द्रादि वस्तु का अन्यत्र अर्थात् शक्रादि में संक्रमण होता है तब वह अवस्तु हो जाती है, क्योकि समभिरूढ़ नय वाचक के भेद से भिन्न-भिन्न वाच्यों का प्रतिपादन करता हैं। तात्पर्य यह है कि समभिरूढ़ नय के मत से जितने शब्द होते हैं उतने ही उनके अर्थ भी होते हैं अर्थात् प्रत्येक शब्द का अर्थ भिन्न-भिन्न होता है। शब्द नय इन्द्र, शक्र, पुरन्दर इन तीनों शब्दों का एक ही वाच्य मानता हैं परन्तु समभिरूढ़ नय के मत से इन तीनों के भिन्न-भिन्न वाच्य हैं, क्योंकि इन तीनों की प्रवृत्ति के निमित्त ( नाम के कारण) भिन्न-भिन्न हैं। इन्दन ( ऐश्वर्य भोगना ) क्रिया में परिणत को इन्द्र, शकन (समर्थ होना) क्रिया में परिणत को शक्र, और पुरदारण (पुर अर्थात् नगरों का नाश ) क्रिया में परिणत होने को पुरन्दर कहते हैं। यदि इनकी प्रवृत्ति के भित्र निमित्तों के होने पर भी इन तीनों का एक ही अर्थ मानेंगे तो घट, पटादि शब्दों का भी एक ही अर्थ, मानना पड़ेगा। इस प्रकार दोष आ जायेगा। इसलिए समभिरूढ़ नय के अनुसार प्रत्येक शब्द को भिन्न वाच्य मानना ही युक्ति संगत हैं। (७) एवंभूत नव- शब्दों की स्वप्रवृत्ति की निमित्तभूत क्रिया से युक्त पदार्थ को ही उनका वाच्य मानने वाला एवंभूत नय हैं। समभिरू नय इन्दनादि क्रिया के होने या न होने पर इन्द्रादि शब्दों से वाच्य मान लेता है क्योंकि वे शब्द अपने वाच्यों के लिए रूढ हो चुके हैं परन्तु एवंभूत नय इन्द्रादि को इन्द्रादि शब्दों से वाच्य तभी मानता है जब वे इन्दनादि (ऐश्वर्यवान् ) क्रियाओं में परिणत हो । जैसे एवंभूत नय इन्दन क्रिया का अनुभव करते समय ही इन्द्र को इन्द्र का वाचक मानता है और शकन (समर्थ होना) क्रिया में परिणत होने पर ही इन्द्र को शक्र शब्द का वाच्य स्वीकार करता है अन्यथा नहीं। इस प्रकार शब्द की मूल धातु से निष्पन्न क्रिया या चेष्टाओं से युक्त वस्तु को ही उस शब्द का वाच्य मानने वाला एवंभूत नय है अर्थात् जो शब्द को अर्थ से और अर्थ को शब्द से विशेषित करता है वह एवंभूत नय है। जैसे घट शब्द चेष्टा अर्थवाला घट धातु से बना है अतः इसका अर्थ यह है कि जो स्त्री के मस्तक पर आरूढ़ होकर जलधारणादि क्रिया की चेष्टा करता है वह घंट है। इसलिए एवंभूत नय के मत से घट वस्तु तब ही घट शब्द की वाच्यं होगी जबकि वह स्त्री के मस्तक पर आरूढ़ होकर जलधारणादि क्रिया को करेगी, अन्यथा नहीं। इसी प्रकार जीव तब ही सिद्ध कहा जाता है जब सब कर्मों को क्षय करके मोक्ष में विराजमान हो जाय। ( अनुयोगद्वार लक्षणद्वार ) Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिमाण द्वार ११९ " जितनी तरह के वचन हैं उतनी ही तरह के नय हैं।" इससे दो बाते ज्ञात होती हैं, प्रथम यह कि नय अनेक हो सकते हैं। दूसरी यह कि नय का सम्बन्ध वचन व्यवहार के साथ है। यदि नय का सम्बन्ध वाक व्यवहार से हैं तो प्रत्येक नय वचन व्यवहार का ही एक ढंग होता है। किन्तु वचन व्यवहार भी वक्ता के अभिप्राय पर निर्भर होता हैं, अतः नव को वक्ता के अभिप्राय पर भी आधारित माना गया है। वस्तु नय के में दो भेद हैं मूल निश्चय और व्यवहार जो के स्वद्रव्य और स्वपर्याय को यथार्थ रूप में प्रस्तुत करता है उसे निश्चय नय कहते हैं। जो वस्तु की दूसरे द्रव्यों या पदार्थों के निमित्त से होने वाली पर्यायों को विषय करता है उसे व्यवहार नय कहते हैं। 1 निश्चयनय.. इसके भी दो भेद हैं- १. द्रव्यार्थिक और २. पर्यायार्थिक | द्रव्य के सामान्य पक्ष को ग्रहण करने वाला द्रव्यार्थिक और विशेष विषय पक्ष को ग्रहण करने वाला पर्यायार्थिक निश्चय नय है। द्रव्यार्थिक नय के निम्न १० भेद माने गये हैं १. नित्यद्रव्यार्थिक. २. एक द्रव्यार्थिक ३ सद् द्रव्यार्थिक ४. वक्तव्य द्रव्यार्थिक, ५. अशुद्ध द्रव्यार्थिक ६ अन्वय द्रव्यार्थिक ७ परम द्रव्यार्थिक, ८. शुद्ध द्रव्यार्थिक ९ सत्ता द्रव्यार्थिक और १० परमभाव ग्राहक द्रव्यार्थिक । . पर्यायार्थिक नय के निम्न ६ भेद हैं १. अनादि नित्य पर्यायार्थिक २. सादि नित्य पर्यायार्थिक ३. अनित्य शुद्ध पर्यायार्थिक, ४ अनित्य अशुद्ध पर्यायार्थिक ५ कर्मोपाधि रहित नित्य शुद्ध पर्यायार्थिक, ६. कर्मोपाधि सहित अनित्य अशुद्ध पर्यायार्थिक (देखें- श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह भाग २, पृष्ठ ४११ ) - · — ― व्यवहार नय - यद्यपि व्यवहार वस्तु के यथार्थ स्वरूप को न बताकर उसके आभासित स्वरूप को बतलाता है, परन्तु वह भी मिथ्या नहीं हैं— यथा “घी का घड़ा" इस कथन से वस्तु के यथार्थ स्वरूप का ज्ञान तो नहीं होता है अर्थात् यह तो ज्ञात नहीं होता कि घड़ा मिट्टी का है या पीतल आदि का है। परन्तु इतना अवश्य ज्ञात होता हैं कि उसमे घी रखा जाता है। जिसमें घी रखा जाता है— ऐसे घड़े को व्यवहार में घी का घड़ा कहते हैं। इसलिए यह बात ब्यबहार से सत्य है। व्यवहार नय मिथ्या तभी हो सकता है जबकि उसका विषय निश्चय का विषय मान लिया जाये अर्थात् घी के घड़े का अर्थ घी से बना हुआ घड़ा समझे । जब तक व्यवहार नय अपने व्यवहारिक सत्य पर कायम हैं तब तक उसे मिथ्या नहीं कह सकते। Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 870 जीवसभास - ५. जीवद्रव्य का परिमाण गुणस्थानों की अपेक्षा से जीवद्रव्य का परिमाण परिमाण की सामान्य चर्चा द्रव्य, क्षेत्र, काल तथा भाव की अपेक्षा से गाथा ८७ से १४३ तक को जा चुकी हैं। अब जीवद्रव्य के परिमाण की चर्चा करते हैं मिध्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती जीवों का परिमाण मिच्छादवमणता कालेणोसप्पिणी अनंताओ । खेतेन मिज्जमाणा हवंति लोगा अणंताओ ।। १४४ । । गाथार्थ - मिथ्यादृष्टि जीव द्रव्य की अपेक्षा से अनन्त हैं, क्षेत्र की अपेक्षा से लोकाकाश के अनन्त प्रदेशों के समतुल्य हैं तथा काल की अपेक्षा से अनन्त उत्सर्पिणी- अवसर्पिणी काल के समयों के समतुल्य हैं। विवेचन - मिध्यादृष्टि जीव द्रव्य की अपेक्षा अनन्त हैं। क्षेत्र की दृष्टि से लोकाकाश के अनन्त आकाश-प्रदेशों जितने है। काल की अपेक्षा से मिथ्यादृष्टि जीव अनन्त उत्सर्पिणी अवसर्पिणी काल के समयों की संख्या के जितने है । यहाँ भाव परिमाण की चर्चा नहीं की गई क्योंकि द्रव्य, क्षेत्र और काल की अपेक्षा से जीवद्रव्य की गिनती की जा सकती हैं परन्तु भाव- अन्तरंग का विषय होने से उसकी गिनती नहीं की जा सकती। अतः उसे अलग से नहीं कहा गया हैं। पुनः एक अन्य अपेक्षा से यहाँ भाव का सम्बन्ध प्रत्येक अनन्त जीव द्रव्यो की अनन्तानन्त पर्यायों से हैं अतः उनकी समतुल्यता बताना कठिन हैं। सास्वादन तथा मिश्र गुणस्थानवर्ती जीवों का परिमाण एगाईया भज्जा सासायण तहय सम्ममिच्छा य । उक्कोसेणं दुहवि मल्लस्स असंखभागो व ।। १४५ ।। गाथार्थ – सास्वादन तथा सम्यक् मिथ्यादृष्टि अर्थात् मिश्रदृष्टि जीव (अधुव होने से ) कभी होते हैं तथा कभी नहीं भी होते हैं। यदि होते हैं तो दोनों ही (सास्वादन एवं मिश्रदृष्टि जीव) एक, दो, तीन से लेकर उत्कृष्ट अर्थात् अधिकतम पल्योपम के असंख्यातवें भाग जितने होते हैं। Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिमाण-द्वार १२१ विवेचन-सास्वादन तथा सम्यक्मिथ्या गुणस्थान का काल स्वल्प होने से ये जीव कभी होते हैं तथा कभी नहीं भी होते। अत: इनकी संख्या कभी कम से कम एक और अधिकतम पल्योप में जितने समय होते हैं उनका आंग्ल्यातवां भाग जितने ही होते हैं। अपिरत सम्यग्दृष्टि, देशविरत, प्रमत्त संघत और अप्रमत्त संपत गुणस्थानवी जीवों की संख्या पल्ला संखियभागो अविरयसम्मा य देस विरया या कोडिसहस्सपुहत्तं धमत्त इयरे उ संखेज्जा ।।१४६ ।। गाथार्थ- अविरत सम्यगदृष्टि तथा देशविरत गुणस्थानवती जीव पल्योपम के असंख्यातवें भाग जितने होते हैं। प्रमत्त संयत सहस्र कोटि पृथक्त्व है एवं इतर अर्थात् अप्रमत्त संयत संख्यात परिमाण हैं। विवेचन-द्वितीय तथा तृतीय गुणस्थानवी जीव अध्रुव होने के कारण लोक में भजना अर्थात् विकल्प से पाये जाते हैं। परन्तु चतुर्थ, पंचम, पाठ तथा सप्तम गुणस्थानवर्ती जीव सामान्यतः सर्वलोक की अपेक्षा से ध्रुव होने से सदा पाये जाते हैं। इनका कभी व्यवच्छेद (अभाव) नहीं होता। अविरत सम्यग्दृष्टि- इनका परिमाण जघन्य अर्थात् न्यूनतम और उत्कृष्ट अर्थात् अधिकतम इन दोनों अपेक्षा से क्षेत्र पल्योपम का असंख्यातवें भाग के समतुल्य होता है। देशविरति-अविरत सम्यगदष्टि जीवों का परिमाण पल्योपम का अधिकतम असंख्यातवां भाग होता है, वहाँ देशविरति जीवों का परिमाण क्षेत्र पल्योपम का न्यूनतम असंख्यातवां भाग बताया गया है। प्रमत्त संयत-प्रमत संयत जोवों का परिमाण जघन्य न्यूनतम दो हजार कोटि और अधिकतम नव हजार कोटि (करोड़) होता हैं। ___ अप्रमत्त संचत-प्रमत्त संयत जीवों का परिमाण संख्यात कहा गया है। इसके आगे गुणस्थानवी जीव को मोहउपशामक अर्थात् उपशम श्रेणी से आरोहण करने वाले तथा उपशान्त मोह (ग्यारहवें गुणस्थानवर्ती) और मोहक्षपक अर्थात् क्षायिक श्रेणी से आरोहण वाले तथा क्षीण मोही (बारहवें) गुणस्थानवी कहते हैं। अब इनका परिमाण कहते हैंउपशामक व उपशान्तमोह का परिमाण एगाइय भयणिज्जा प्रवेसणेणं तु जाव चउपना । उवसामगेव-संता अखं पा आव संखेज्जा ।। १४७।। Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ जीवसमास गाथार्थ- उपशामक श्रेणी में प्रवेश करते समय कम से कम एक और अधिकतम चौपन (५४) जीव 'भजना अर्थात् विकल्प से हो सकते हैं। सम्पूर्ण उपशम काल की अपेक्षा उपशामक तथा उपशान्त मोही जीवों की संख्या संख्यात ही होती हैं। वस्तुत: यह चर्चा गुणस्थान सिद्धान्त की अपेक्षा से न होकर तत्त्वार्थसूत्र एवं आचारांगनियुक्ति में वर्णित कर्मनिर्जरा की दस अवस्थाओं की अपेक्षा से है (सम्पादक)। विवेचन- १. उपशामक-जिस अवस्था में मोहनीयकर्म की शेष कर्मप्रकृतियों का उपशम किया जा रहा हो। २. उपशान्तमोह-जिसमें मोहनीय-कर्म को कर्म प्रकृतियों का उपशम पूर्ण हो चुका हो। ३. क्षपक- जिसमें मोह की शेष प्रकृतियों का क्षय किया जा रहा हो। ४. क्षीणमोह- जिसमें मोह-कर्म की सभी कर्म-प्रवृत्तियों का क्षय हो चुका हो। उपशामक श्रेणी में १ से लेकर ५४ जीव तक ही एक साथ एक समय में प्रवेश कर सकते हैं इससे अधिक नहीं। गाथा में "अद्ध" शब्द से उपशम श्रेणी का, प्रारम्भ से लेकर अन्त तक का समय (काल) जानना चाहिए। यह काल असंख्यात समय रूप अन्तर्मुहूर्त परिमाण का होता है। उपशम श्रेणी अन्तर्मुहूर्त से अधिक समय की नहीं होती है। अतः उपशम श्रेणी का काल (उपशामक तथा उपशान्त) दोनों मिलकर अधिकतम संख्यात समय परिमाण होता है। अन्तर्मुहर्त के काल परिमाण वाली उपशम श्रेणी के एक समय में एक साथ १ से लेकर ५४ तक उपशामक जीव होते हैं। इस प्रकार उपशम श्रेणी के सम्पूर्ण काल में कभी-कभी उत्कृष्ट रूप से संख्यात उपशामक और संख्यात उपशान्त मोही जीव हो सकते हैं। उसके बाद उपशम श्रेणी की निरन्तरता समाप्त हो जाती है। प्रश्न- श्रेणी का काल असंख्यात समयवाला है। उसमें यदि प्रत्येक समय में एक-एक उपशामक भी हो तो उपशामकों की संख्या सहज ही असंख्यात हो जाती है फिर संख्यात ही क्यों कहा गया ? उत्तर-- समयों की संख्या असंख्यात होने पर भी उस श्रेणी में प्रवेश करने वाले जीवों की संख्या तो संख्यात ही होती है, क्योंकि संझी मनुष्यों की उत्कृष्ट संख्या भी संख्यात ही होती है असंख्यात नहीं। उसमें भी यह श्रेणी चारित्र सम्पन्न Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिमाण द्वार 1 १२३ मनुष्य ही कर सकते हैं। अतः श्रेणी का काल असंख्य समय वाला होने पर भी उसमें श्रेणी आरोहण करने वाले मनुष्यों की संख्या संख्यात ही होगी असंख्यात नहीं । (ज्ञातव्य है - गर्भज पर्याप्ता मनुष्य की अधिकतम संख्या की चर्चा गाथा १५३ में की गई है। ) अतः यह निश्चित हुआ कि अपूर्वकरण, अनिवृत्तिबादरसम्पराय और सूक्ष्मसम्पराय इन तीन गुणस्थानों में प्रत्येक के अन्दर एक साथ एक ही समय में प्रवेश वाले जीव कम से कम एक और अधिकतम चौपन कभी-कभी अपेक्षा से होते हैं। हैं। अलग-अलग समय में प्रवेश वालों की अपेक्षा से तो अधिकतम किसी समय में संख्यात जीव भी होते हैं। उपशान्तमोह गुणस्थान के विषय में भी इसी प्रकार से जानना चाहिये। आगे क्षपक एवं क्षीणमोही गुणस्थानवर्ती का परिमाण कहते हैं क्षपक, क्षीणमोह एवं सयोगी केवली जीवों की संख्या खवगा उ खीणमोहा जिणा उ पविसन्ति जाव अट्ठसवं । अाए सयपुत्तं कोडिपुहुतं सजोगीणं ।। १४८ ।। गाथार्थ - क्षपक और क्षीणमोही जीव जब क्षपक श्रेणी में प्रवेश करते हैं तो उनकी संख्या १ से लेकर अधिकतम १०८ हो सकती है। क्षपणकाल में अधिकतम जीवों की संख्या शतपृथकत्व अर्थात् कम से कम दो सौ तथा अधिकतम नौ सौ होती हैं। सयोगी केवली कोड़ पृथकत्व अर्थात् कम से कम दो करोड़ और अधिकतम नौ करोड़ होते हैं। विवेचन श्रेणी से आरोहण करने वाले क्षपक तथा क्षीणमोही कभी होते हैं तथा कभी नहीं होते हैं। इसका कारण है कि क्षपक श्रेणी से आरोहण की क्रिया सदैव हो यह आवश्यक नहीं है। जब होती है तब क्षपक श्रेणी में एक साथ एक समय में न्यूनतम एक तथा अधिकतम एक सौ आठ की संख्या होती है। ये जीव अपूर्वकरण, अनिवृत्ति बादर सम्पराय तथा सूक्ष्म- सम्पराय गुणस्थानों में क्षायिक श्रेणी से आरोहण करने के कारण क्षपक कहे जाते हैं। छद्यावस्था में सबसे अन्तिम गुणस्थान क्षीणमोह का है। मोहनीयकर्म का सम्पूर्ण क्षय हो जाने के कारण इसे क्षीणमोह कहा गया है। प्रश्न- एक समय में प्रवेश करने वाले जीव एक सौ आठ ही होते हैंअधिक नहीं, ऐसा किस आधार पर कहा गया ? उत्तर - क्षपक श्रेणी में एक समय में अधिकतम एक सौ आठ जीव ही आरोहण करते हैं, ऐसा आगमवचन है। Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवसमास यह चर्चा एक समय की अपेक्षा से की गई अब भित्र-भिन्न समयों में क्षपक श्रेणी में प्रवेश करने वालों की अपेक्षा से विवेचन किया जायेगा। आपक- यहाँ क्षपक श्रेणी का काल (अद्धा), असंख्यात समयात्मक अन्तर्मुहर्त के समतुल्य जानना चाहिए। अन्तर्मुहर्त प्रमाण क्षपक श्रेणी काल में एक समय में १०८, दूसरे समय में फिर १०८ जीव होते हैं। इस प्रकार अलग-अलग समय में प्रवेश करने वाले सभी क्षपको की संख्या मिलाएँ तो सम्पूर्ण अन्तर्मुहूर्त के समयों में समस्त मनुष्य क्षेत्र में कभी-कभी शतपृथकत्व क्षपक एवं क्षीणमोही होते हैं और कभी क्षपक श्रेणी से आरोहण करने वालों का अभाव भी होता है। प्रश्न- अन्तर्मुहूर्त में असंख्यात समय होते हैं अत: असंख्यात जीव क्यो नहीं होते ? इस शंका का समाधान पूर्व गाथा १४७ के अर्थ विवेचन में दिया गया है। सयोगी केवली-गाथा में आगे सयोगी केवलियों का परिमाण या संख्या बताते हैं। सयोगी केवली (महाविदेह क्षेत्र में) सदा रहते हैं। इनका व्यवच्छेद (विरह) नहीं होता। सामान्यतः इनकी संख्या पन्द्रह कर्मभूमियों में न्यूनतम तथा अधिकतम करोड़ पृथकत्व अर्थात् दो करोड़ से नौ करोड़ के बीच होती है। अयोगी केवली- अयोगी केवली तो कभी होते हैं कभी नहीं होते हैं। यदि होते हैं तो न्यूनतम एक तथा अधिकतम संख्यात होते हैं। इस प्रकार चौदह जीव समास अर्थात् चौदह गुण स्थानों की अपेक्षा से जीव द्रव्यों का परिमाण बतलाया गया है। आगे नरक आदि गतियों की अपेक्षा से उनका परिमाण बताते है। नरकगति पडमाए असंखेज्जा सेढीओ सेसियासु पुडवीसु । सेडी असंखभागी हवंति मिच्छा उ नेरइया ।।१४९।। गाथार्थ-प्रथम नरक में असंख्यात श्रेणी परिमाण नारकी जीव हैं। शेष छ; नरकों में प्रत्येक श्रेणी के असंख्यातवें भाग जितने मिथ्यादृष्टि नारकी जीव होते हैं। प्रश्न- श्रेणी किसे कहते हैं? उत्तर- पञ्चम कर्मग्रन्थ की गाथा ९७ में कहा गया है कि लोक चौदह रज्जु जितना ऊँचा हैं। सामान्य बुद्धि से वह सात घन रज्जु परिमाण वाला है। Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिमाण द्वार १२५ सात रज्जु लम्बी आकाश-प्रदेश की पंक्ति को श्रेणी कहते हैं तथा उसके वर्ग को प्रतर कहते हैं। गाथा १०३ के विवेचन में भी श्रेणी, वर्ग, प्रतर आदि शब्दों को स्पष्ट किया गया है। इनका विस्तृत विवेचन पञ्चम कर्मग्रन्थ की गाथा ९७ के भावार्थ में दिया गया है। व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र, शतक चौंतीस सूत्र सैंतीसवें ( ३७ ) के विवेचन में विग्रह गति एवं श्रेणी का लक्षण बताते हुए कहा गया है कि- एक स्थान से मरण करने के पश्चात् दूसरे स्थान पर जाते हुए जीव की जो गति होती है उसे विग्रह गति कहते हैं। वह श्रेणी के अनुसार होती है। जिससे जीव और पुद्गलों की गति होती है ऐसी आकाश-प्रदेश की पंक्ति को श्रेणी कहते है। जीव और पुद्गल एक स्थान से दूसरे स्थान पर श्रेणी के अनुसार ही जा सकते हैं। वे श्रेणियाँ सात प्रकार की बताई गई हैं जिनका उल्लेख मूल पाठ में भी हैं 3 — ५. ज्वायता- सांधी गति से जाने वाले जीव ऋज्वायता श्रेणी वाले कहलाते हैं । इस श्रेणी से गति करने वाला जीव एक ही समय में गन्तव्य तक पहुँच जाता है। २. एकतोक - एक मोड़ के बाद जन्म लेने वाला जीव एकतोवक्र श्रेणी वाला कहलाता है। इस जीव को दो समय लगते हैं। ३. उभयतोवक्र - दो बार वक्र गति करने वाले जीव उभयतोवक्र श्रेणी वाले कहलाते हैं- इसमें तीन समय लगते हैं। ४. एकत: खा - "ख" अर्थात् आकाश इस श्रेणी के एक ओर बस नाड़ी के बाहर का आकाश आया हुआ है। इसलिए इसे एकत: खा श्रेणी कहते हैं । आशय यह है कि जिस श्रेणी से जीव या पुद्गल त्रस नाही के बायें पक्ष से प्रसनाड़ी में प्रवेश करे और फिर बस नाड़ी से जाकर उसके बाँयी ओर वाले भाग में उत्पन्न हों उसे "एकत: खा" श्रेणी कहते हैं। इस श्रेणी में १, २, ३, ४ समय की वक्रगति होने के कारण भी उसे क्षेत्रापेक्षा पृथक कहा है। ५. उभयतः खात्रसनाड़ी के बाहर में बायें पक्ष में प्रवेश करके उस नाड़ी से जाते हुए जिस श्रेणी से दाहिने पक्ष में उत्पन्न होते हैं उसे "उभयतः खा" श्रेणी कहते हैं। ६. चक्रवाल- जिस श्रेणी के माध्यम से परमाणु आदि गोल चक्कर 'लगाकर अपने स्थान पर जाते है उसे चक्रवाल श्रेणी कहते हैं। ७. पर जाते हैं उसे अर्धचक्रवाल श्रेणी कहते हैं। अर्थ चक्रवाल - जिस श्रेणी से जीव आधा चक्कर लगाकर अपने स्थान Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ जीवसमास विवेचन--प्रथम नरक रत्नप्रभा पृथ्वी में मिथ्यादृष्टि नारक असंख्यात श्रेणी प्रमाण हैं अर्थात् घनरूप में बनाई हुई लोक की असंख्यात आकाश श्रेणियों में जितने आकाश प्रदेश होते है उतने परिमाण में पहली पृथ्वी मे मिथ्यादृष्टि जीव होते हैं। शर्कराप्रभादि नरक पृध्वियों में घनाकार लोक की एक आकाश श्रेणी के असंख्यातवें भाग जितने आकाश-प्रदेश होते है उतने मिथ्यादृष्टि जीव जानना चाहिये। इसी प्रकार क्रमशः एक-एक नरक में मिथ्यादृष्टि जीवों की संख्या लोक की एक आकाश श्रेणी के असंख्यातवें भाग के समरूप समझना चाहिये। दूसरी से तीसरी में, तीसरी से चौथी में यावत् सातवीं नरक तक इसका भी असंख्यातवां भाग क्रमश: कम होता जाता है। इस प्रकार छठी पृथ्वी के नारकी से भी सातवीं पृथ्वी के नारक जीवों की संख्या असंख्यात भाग कम परिमाण में जानना चाहिये। ___अविरत सम्यग्दृष्टि जीवों की संख्या भी प्रत्येक नरक मे अव्यवच्छिन्न रूप से असंख्यात ही होती है तिर्यच में मिथ्यादृष्टि जीवों का परिमाण तिरिया हुँति अणंता पयरं पंधिदिया अवहरति । देवावहारकाला असंखगुणहीण कालेणं ।।१५०।। ___ गाथार्थ- सामान्यतः तिर्यञ्च मिथ्यादृष्टि जीव अनन्त हैं। जबकि पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च घनकृत लोक के सात रज्जु लम्बे, सात रज्जु चौड़े तथा एक प्रदेश की मोटाई वाले प्रतर के आकाश प्रदेशों की संख्या के तुल्य हैं और कालापेक्षा से देव के अपहार काल से असंख्यात गुणा कम हैं। विवेचन-- मिथ्यादृष्टि शब्द गाथा में न आने पर भी पूर्व प्रसंग से ग्रहण कर लिया है। सामान्यतः एकेन्द्रिय आदि मिथ्यादृष्टि तिर्यश्च अनन्त हैं तथा पर्याप्त-अपर्याप्त रूप मिथ्यादृष्टि पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च जीवों की संख्या संवर्तित किये हुए घनरूप असंख्य प्रतरात्मक लोक के सात रज्जु लम्बाई एवं सात रज्जु चौड़ाई तथा मात्र एक प्रदेश की मोटाई वाले असंख्येय आकाश प्रदेश परिमाण प्रतर के आकाश प्रदेशों के समरूप हैं और देव के अपहार काल से असंख्यात गुणा कम है। यह अपहार कितने समय का होता है? यह बतलाते हुए कहा गया है कि यह काल की अपेक्षा से असंख्य उत्सर्पिणियों एवं अवसर्पिणियों के समयों की संख्या के समरूप हैं। Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिमाण-द्वार १२७ हे भगवन्त- तिर्यञ्च कितने हैं? हे गौतम! काल की अपेक्षा से असंख्य उत्सर्पिणियों-अवसर्पिणियों के समयों का अपहार करते हैं। क्षेत्र की अपेक्षा से असंख्यात श्रेणियों एवं प्रतरों के आकाश-प्रदेशों के असंख्यातवें भाग के समरूप हैं। उन श्रेणियों को असंख्यात योजन कोटाकोटी परिमाण विष्कम्भ सूची के समतुल्य जानना चाहिए। इनके प्रतर के असंख्यात भागवती, असंख्यात कोटा. कोटी योजन आकाश श्रेणी में रहे प्रदेशों की संख्या के बराबर सामान्यतः पञ्चेन्द्रिय तिर्यन जीव हैं वे सभी प्रत्येयः सम में एक-२८. शमीमा गरे जो देवों के द्वारा उनके अपहार काल से असंख्यगुणा कम काल में ही वे प्रतर के सभी आकाश-प्रदेश अपहृत हो जायेंगे। इसका तात्पर्य यह है पश्चेन्द्रिय तिर्यञ्च से देव असंख्य गुणा कम हैं। यही बात प्रज्ञापनामहादण्डक में भी कही गयी है कि पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च देवों की संख्या से असंख्यातगणा अधिक है, अत: वे देवों की अपेक्षा कम काल में सम्पूर्ण प्रतर का अपहार करते हैं। तिर्यञ्चों के अपहार काल की अपेक्षा देवताओं के अपहार काल में अधिक समय लगता है क्योंकि वे परिमाण में तिर्यञ्चो की अपेक्षा कम हैं। वैक्रिय लब्धिधारी मिथ्यादृष्टि जीवों का परिमाण पाहमंगुलमूलम्सासंखतमो सूइसेडिआयामों। उत्तरविधियाणं पणतयसनितिरियाणं ।।१५१।। गाथार्थ- उत्तर वैक्रिय शरीर बनाने वाले पर्याप्त संज्ञी तिर्य जीवों का परिमाण (संख्या) अंगुल जितने प्रतर क्षेत्र के आकाश प्रदेशों के वर्गमल असंख्यातवां भाग के समरूप सूचीक्षेत्र में जितने आकाश-प्रदेश हैं उतना जानना चाहिये। नोट- सूची, श्रेणी, प्रतर, वर्ग, घनाकार आदि का स्पष्टीकरण गाथा १०३ के विवेचन में किया जा चुका है। विवेचन-उत्तर वैक्रिय शरीर लधि अपर्याप्त और असंशी तिर्य जीवों को नहीं होने से मात्र पर्याप्त तथा संज्ञी तिर्यञ्च शब्द का प्रहण किया गया है। पझेन्द्रिय तिर्यञ्चों में पर्याप्त, संजी (गर्भज) तिर्यश्च को ही वैक्रिय लब्धि हो सकती है। वैक्रिय शरीरी पर्याप्त गर्भज पश्चेन्द्रिय तिर्यञ्च जीव काल की अपेक्षा से असंख्यात उत्सर्पिणियों-अवसर्पिणियों के समयों की संख्या जितने हैं। क्षेत्र की अपेक्षा से प्रतर के असंख्यातवें भाग की असंख्यात श्रेणियों के आकाश-प्रदेशों की संख्या के समरूप हैं। Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ जीवसमास यहाँ अधिक स्पष्टता के लिए गाथा का भावार्थ बताते हैं : अंगुल परिमाण प्रतर क्षेत्र में असंख्य श्रेणियाँ होती हैं किन्तु समझने के लिये ६५५३६ श्रेणियों की कल्पना करना। ६५५३६ का प्रथम वर्गमूल २५६, दूसरा वर्गमूल १६, तीसरा ४ तथा चौथा वर्गमूल २ होता है। किन्तु वास्तविक रूप में तो यह वर्गमूल भी प्रत्येक असंख्य श्रेणी रूप ही होता है, क्योंकि असंख्यात का वर्ग भी असंख्यात ही होगा। मात्र समझने के लिए उसका २५६ संख्या रूप पहला वर्गमूल भो असंख्यात हा हाता है। उसके असंख्यात भाग रूप ३२ श्रेणी की कल्पना कर किन्तु वास्तविक रूप में तो प्रत्येक श्रेणी भी असख्यात प्रदेशात्मक ही हैं फिर भी असत् कल्पना से उसे दस प्रदेशात्मक विचारना। इस प्रकार काल्पनिक रूप से प्रदेशों की संख्या ३२० आयेगी-यही पर्याप्त संज्ञी पञ्चेन्द्रिय वैक्रिय लब्धिवन्त तिर्यञ्च परिमाण जानना जो वास्तविक रूप मे तो असंख्यात ही होता है। इस प्रकार इन गाथाओं में सर्वप्रथम मिथ्यादृष्टि एकेन्द्रिय तिर्यञ्चों का परिमाण बताया गया। उसके बाद पयौप्त एवं अपर्याप्त पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चों का परिमाण बताया, तत्पश्चात् उत्तर वैक्रिय लब्धिवन्त पझेन्द्रिय तिर्यञ्चों का परिमाण बताया। अन्न स्त्री, पुरुष, नपुंसक रूप पर्याप्त पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चों का परिमाण बताते हैं। पर्याप्त पझेन्द्रिय तिर्यश्चों का परिमाण संखेन्जहीणकालेण होइ पज्जत्ततिरियवहारी । संखेज-गुणेण तओ कालेण तिरिक्खअवहारो ।।१५२।। गाथार्थ-पूर्व निर्दिष्ट प्रतर के प्रदेशों का संख्यातगुणा कम समय में पर्याप्त तिर्यञ्च अपहार कर लेते हैं, किन्तु उन्हीं संख्यातगुणा अधिक काल में तिरियञ्चिनी अपहार कर पाती है। विवेधन- देवो के द्वारा एक प्रतर (परत) के सम्पूर्ण प्रदेशों का अपहार करने में प्रति समय में, एक-एक प्रदेश का अपहार करते हुए जितना काल लगता हैं उस काल से संख्यातगुणा पर्याप्त पञ्चेन्द्रिय द्वारा प्रतर के प्रदेशों का अपहार करने में लगता है। पर्याप्त और अपर्याप्त दोनों प्रकार के तिर्यञ्च संख्या में देवों से अधिक हैं अत: उनका अपहार काल देवों के अपहार काल की अपेक्षा कम होता है। किन्तु तिर्यचनियाँ संख्या में देवों से संख्यातगुणा कम होने से देवताओं के अपहार काल की अपेक्षा उनका अपहार काल संख्यातगुणा अधिक होता है। विस्तार के लिए प्रज्ञापनासूत्र का महादण्डक सम्बन्धी पाठ देखें। Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२९ परिमाण-द्वार संखेज्जा पज्जता मणुयाऽपजत्तया सिया नस्थिा उक्कोसेणं जइ भवे सेडीए असंखभागो उ ।। १५३।। गाथार्थ- पर्याप्त मनुष्य परिमाण संख्यात ही होते हैं। पुन: अपर्याप्त मनुष्य तो कभी होते हैं कभी नहीं भी होते हैं, परन्तु जब होते हैं तब अधिकतम से एक श्रेणी के आकाश-प्रदेशों के असंख्यातवें भाग जितने होते हैं। विवेचन-मनुष्यों के दो प्रकार हैं- गर्भज और संमूर्छिम। इनमें गर्भज तो सदैव होते हैं पर संमूर्छिम मनुष्य अन्तर्मुहूर्त की आयु वाले तथा अपर्याप्त ही होने के कारण कभी होते हैं और कभी नहीं भी होते हैं अतएव जब संमूर्छिम मनुष्य नहीं होते और केवल गर्भज पनुष्य ही होते है. तब वे परिमाण में संख्यात होते हैं। परन्तु संख्यात के भी संख्यात भेद हैं अतः किस संख्यात को मानना चाहिए इसके लिए बताया है कि छले वर्ग का पांचवें वर्ग के साथ गुणा करने पर जो संख्या आती है, वहीं संख्या गर्भज मनुष्यों की जाननी चाहिये। वर्ग का अर्थ क्या ? (१) २ को २ से गुणा करने पर जो संख्या ४ बनी, यह प्रथम वर्ग हुआ। (२) ४ को ४ से गुणा करने पर १६ आये, वह दूसरा वर्ग हुआ। (३) १६ से १६ से गुणा करने पर २५६ आये, यह तीसरा वर्ग हुआ। (४) २५६ को २५६ से गुणा करने पर ६५५३६ आये, यह चौथा वर्ग हुआ। (५) ६५५३६ से ६५५३६ से गुणा करने पर ४२९४९६७२९६ आये यह पचम वर्ग हुआ। तथा (६) तथा पंचमवर्ग को पंचम वर्ग से गुणा करने पर जो छठा वर्ग हुआ उसकी राशि १८,४४,६७,४४,०७,३७,०९,५५,१६,१६ हुई। इस छठे वर्ग को उपर्युक्त पंचम वर्ग से गुणित करने पर जो संख्या आयो यह राशि इस प्रकार है – ७९, २२, ८१, ६२, ५१. ४२, ६४, ३३, ७५. ९३, ५४, ३९, ५०, ३३६। इन अंकों की संख्या २९ है। इस प्रकार गर्भज मनुष्यों की संख्या २९ अंक संख्यात कही गयी है। जब संमर्छिम मनुष्य पैदा होते हैं तो वे अधिक से अधिक असंख्यात होते हैं। इस प्रकार संख्यात गर्भज एवं असंख्यात सम्मूर्छिम मिलाने पर उनकी अधिकतम संख्या एक श्रेणी के आकाश-प्रदेशो के असंख्यातवें भाग जितनी होती है। (यह विषय कर्मग्रन्थ, भाग-४ गाथा-३७ तथा अनुयोगद्वारसूत्र ४२३-४ में भी वर्णित है। उक्कोसेणं मणुपा सेटिं च हरंति रूवपक्खिना। अंगुलपत्मपतियादग्गमूलसंवारापलिभागा ।।१५४।। Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवसमास गाथार्थ- उत्कृष्ट रूप से तो मनुष्यों की संख्या श्रेणी के अंगुल परिमाण क्षेत्र के आकाश-प्रदेशों के पहले वर्ग मूल का तीसरे वर्गमूल के साथ गुणा करने पर प्रदेशों की जो संख्या बने उतनी जानना चाहिए। विवेचन-यहाँ "च" शब्द दुसरे प्रकार से मनुष्यों की उत्कृष्ट संख्या बताने के लिए है। एक प्रकार से उत्कृष्ट संख्या गाथा १५३ में बतायी, अब यहाँ दूसरे ढंग से मनुष्यों को उत्कृष्ट संख्या बताते हैं। दूसरे प्रकार से एक श्रेणी के असंख्यातवें भाग में जितने आकाश-प्रदेश हैं उतने मनुष्य हैं। जिस श्रेणी के आकाश-प्रदेशो का मनुष्य सम्पूर्णतः अपहार करते हैं. वह श्रेणी कैसी है? इसका उल्लेख करते हुए बताया गया है कि एक श्रेणी के अंगुल परिमाण क्षेत्र के आकाश-प्रदेशों की संख्या का पहला वर्गमूल करना फिर जो संख्या आये उसका वर्गमूल करना यह दूसरा वर्गमूल हुआ। पुन: जो संख्या आए उसका वर्गमूल करना यह तीसरा वर्गमूल हुआ। फिर उस पहले वर्गमूल की संख्या को तीसरे वर्गमूल को संख्या से गुणा करना। उस गुणाकार करने से श्रेणी खण्ड के आकाश-प्रदेशों की जो प्रतिनियत संख्या आती है मनुष्यों को अधिकतम संख्या उसके अनुरूप होती हैं। व्याख्या इस प्रकार है, कि श्रेणी के अंगुल परिमाण क्षेत्र के प्रदेशों की जो संख्या हैं उसके प्रथम वर्गमूल का तीसरे वर्गमूल की प्रदेश संख्या से गुणा करने पर जो प्रदेश राशि होती है उसी के समरूप लोक के मनुष्यों की संख्या होती है। मनुष्यों की सर्वाधिक संख्या वह होगी, जब प्रत्येक मनुष्य श्रेणी खण्ड के उन प्रदेशों में से एक-एक का अपहार करें और वह एक श्रेणी सम्पूर्णत: अपहरित हो जाये। लोक में उससे एक मनुष्य भी अधिक नहीं हो सकता है। मनुष्यों में संमृच्छिम मनुष्य तो मिथ्यादृष्टि ही होते है, गर्भज मनुष्यों में भी मिथ्यादृष्टियों की संख्या अधिक होती है। शेष सास्वादन से लेकर अयोगी केवली तक के मनुष्यों की संख्या तो उनकी अपेक्षा अत्यल्प ही होती है। देवगति में भवनपति, व्यन्तर, ज्योतिष्क का परिमाण सेवीओ असंखेमा भवणे वणवजोइसाण पपरस्स। संखेज्जजोयणंगुलदोसपछप्पत्रपलिभागो ।। १५५।। गाथार्थ- भवनपति देवों की संख्या प्रतर के असंख्यातवें भाग में स्थित श्रेणियों के आकाश-प्रदेशों के समरूप है, जबकि व्यन्तर एवं ज्योतिष्क देवों की संख्या एक प्रदेश वाली संख्यात, योजन परिमाण श्रेणी के आकाश-प्रदेशों की संख्या को उसी के २५६ अंगुल परिमाण क्षेत्र के आकाश-प्रदेशों से भाग देने पर जो संख्या आती है, उसके समतुल्य होती है। Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिमाण-द्वार विवेचन- भवनपति देव प्रतर के असंख्यातवें भाग में स्थित श्रेणियों में जितने आकाश-प्रदेश हैं उतने परिमाण में हैं। जबकि ध्यन्तर तथा ज्योतिष्क अनुक्रम में पूर्व में कहे अनुसार- एक प्रतर के एक प्रदेश वाली संख्यात योजन परिमाण श्रेणी के आकाश-प्रदेशों की संख्या को दो सौ छप्पन अंगुल परिमाण क्षेत्र के आकाश-प्रदेशों की संख्या से भाग देने पर जो संख्या आती है, उसके समतुल्य होती है। एक प्रदेश वाली संख्यात योजन परिमाण पंक्ति (श्रेणी) में जितने आकाशप्रदेश हैं; उन सभी से प्रतर के आकाश-प्रदेशों की राशि का जो भाग अपहत होता है अर्थात् ढक जाता है उस भाग में जितने आकाश-प्रदेश हैं उतने ही परिमाण में व्यन्तर देवता है अथवा ऊपर कहे हुए अतर-क्षेत्र के भाग के आकाश-प्रदेशों को यदि एक-एक व्यन्सर देव ग्रहण करें तो उस प्रतर-क्षेत्र के समस्त आकाशप्रदेशों को व्यन्तर देव एक ही समय में ग्रहण कर लेते हैं एवं २५६ अंगुल परिमाण एक प्रदेश वाली श्रेणी (पंक्ति) में जितने आकाश-प्रदेश हैं उन प्रदेशों की संख्या से प्रतर के आकाश-प्रदेश की राशि को भाग दिया जाय और उसके भागफल में जितने आकाश-प्रदेश हो उतनी प्रमाण-संख्या में ज्योतिष्क देवता होते हैं अथवा ऊपर कहे क्षेत्रखण्ड का आकाश-प्रदेशों की यदि एक-एक ज्योतिष्क देव अपहार करें तो उस सम्पूर्ण प्रतर-क्षेत्र के आकाश-प्रदेशों को वे सभी ज्योतिष्क देव एक समय में ही अपहृत कर लेगें। महादण्डक में ज्योतिष्क देवों की संख्या व्यंतरों की अपेक्षा संख्यातगुणा अधिक बताई गई हैं। यहाँ व्यन्तर देवों को ज्योतिष्फ देवों की अपेक्षा संख्यात गुणहीन कहा गया है। दोनों का तात्पर्य एक ही है। वैमानिकों का परिमाण सक्कीसाणे सेठीअसंख उपरि असंखभागो 3 । आणयपाणयमाई पल्लस्स असंखमागो उ ।।१५६।। गाथार्थ- सौधर्म और ईशान देवलोक के देवों की संख्या का परिमाण असंख्यात श्रेणियों के आकाश-प्रदेशों के समतुल्य माना गया है। उनके ऊपर के देवलोकों देवों की संख्या श्रेणी के असंख्यातवें भाग के आकाश-प्रदेशों के समतुल्य हैं। विवेचन-पूर्व कथित स्वरूप वाले घनरूप लोक के किसी एक प्रतर में असंख्यात श्रेणियों होती हैं, पुन: उस प्रतर के असंख्यातवें भाग में भी असंख्यात श्रेणियाँ होती हैं उन प्रतर के असंख्यातवें भाग की असंख्यात श्रेणियों में जितने आकाश-प्रदेश हैं उतनी संख्या में सौधर्म देवलोक के देव होते हैं। Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवसमास ईशान देवलोक मे भी देवों की संख्या सौधर्मवत ही होती है फिर भी ईशानदेव सौधर्म देवों की तुलना में संख्यात गुणा कम ही होते हैं ऐसा प्रज्ञापना के महादण्डक में उल्लेख है। ईशान के ऊपर के छ: देवलोको अर्थात् सनत, माहेन्द्र, ब्रह्मलोक, लान्तक, महाशुक्र और सहस्रार देवलोकों में घन किये हुए लोक की एक प्रदेशात्मक श्रेणी के असंख्यातवें भाग जितने आकाश-प्रदेश होते हैं उतनी ही संख्या में प्रत्येक देवलोक में देवता होते हैं। आनत, प्राणत, आरण एवं अच्युत इन चार देवलोकों में, अध:, मध्यम, उपरिवेयकों में तथा पाँच अनुत्तर विमानों में देवों की संख्या पल्योपम के असंख्यातवें भाग में जितने आकाश-प्रदेश होते हैं उतनी होती हैं। यहाँ कोई प्रश्र करे कि भवनपति देवों की संख्या रत्नप्रभा नारकी के आकाश प्रदेशों के समतुल्य, सौधर्मेशान देवलोकों के देवों की संख्या प्रतर के असंख्यातवें भाग की असंख्यात श्रेणियों के आकाश-प्रदेशों के समरूप होती हैं ऐसा आप पूर्व में कह चुके हैं परन्तु प्रतर के असंख्यातवें भाग की असंख्यात श्रेणियों भी असंख्यात कोटा-कोटी योजन परिमाण होती है तो क्या इस माप की श्रेणियों इसमें ग्रहण करना या अन्य माप की श्रेणियाँ इसमें ग्रहण करना उचित है? इस शंका के निवारणार्थ भवनपति आदि देवों की संख्या सम्बन्धी विचारणा के अन्तर्गत श्रेणी का परिमाण निम्न प्रकार से बताया गया है। नारक व देव परिमाण सेतीसूइपमाणं भवणे घम्मे तहेव सोहम्मे । अंगुलपदम वियतियस-मणंतरवग्गमूलगुणं ।। १५७।। गाभार्थ-भवनपति देवों, धम्मानरक के नारकी तथा सौधर्म देवलोक के देवों की संख्या श्रेणी-सूची परिमाण हैं। उसमें भी भवनपति देवों की संख्या अंगुल के आकाश-प्रदेशों की संख्या के प्रथम वर्गमूल का समानान्तर वर्गमूल के साथ गुणाकार करने पर जो संख्या आती है उसके समतुल्य तथा धम्मा नरक-नारकियों की संख्या उसके दूसरी वर्गमूल से समानान्तर संख्या का गुणा करने पर जो संख्या आती है उसके समरूप की संख्या तथा सौधर्म देवों की संख्या तीसरे वर्गमूल के साथ समानान्तर संख्या का गुणा करने पर जो संख्या आती है उसके समान होती है। विवेचन-प्रतर से पूर्व उर्ध्वगामी असंख्यात प्रदेशों की पंक्ति को श्रेणी कहा जाता है तथा तिर्यगामी असंख्यात प्रदेशों की पंक्ति सूची कही जाती है। पूर्व Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिमाण. द्वार कथित सात रज्जू लम्बी ऊर्ध्वगामी प्रदेशपंक्ति श्रेणी तथा तिर्यक् विस्तार वाली सूची होती है। इन दोनों का परिमाण श्रेणी-सूची-परिमाण होता है। यह श्रेणी-सूचीपरिमाण किसका होता है? इसके उत्तर में कहा है कि वह श्रेणी-सूची-परिमाण धम्मा (रत्नप्रभा) के नारकी जीवों तथा भवनपति एवं सौधर्म देवलोक के देवों का होता है। पुन: इसके परिमाण को बताते हुए कहते हैं कि समानान्तर वर्गमूल से गुणा करके, उसको प्रत्येक के साथ जोड़ना उससे प्राप्त राशि को अंगुल के पहले वर्गमूल रूप संख्या का समानान्तर (उसी) वर्गमूल के साथ गुणा करने से भवनपत्ति की श्रेणी-विस्तार सूची प्राप्त होती हैं। इस प्रथम वर्गमूल को दूसरे वर्गमूल रूप समानान्तर वर्गमूल के साथ गुणा करने से रत्नप्रभा नारकों की श्रेणी-विस्तार रूप सूची प्राप्त होती है। इस द्वितीय वर्गमूल को भी तीसरे वर्गमूल रूप समान्तर वर्गमूल के साथ गुणा करने से सौधर्म देव की श्रेणी-विस्तार रूप सूची प्राप्त होती है। भवनपति देव का परिमाण विशेष रूप से समझाने के लिए बताते हैं कि प्रतर का जो अंगुल परिमाण क्षेत्र है वह वास्तव में तो असंख्यात श्रेणी रूप है परन्तु समझाने के लिए हम दो सौ छप्पन (२५६) की संख्या की कल्पना करते हैं। इस संख्या का प्रथम वर्गमूल सोलह, दूसरा वर्गमूल चार तथा तीसरा वर्गमूल दो होता है। इस प्रकार की कल्पित दो सौ छप्पन संख्या को प्रथम वर्गमूल अर्थात् सोलह से गणा करना, जिससे चार हजार छियानवे (४०९६) श्रेणी के विस्तार रूप भवनपतियों की विष्कम्भ सूची है। इतनी प्रतर श्रेणियों में जितने आत्म-प्रदेश होते हैं उतने भवनपति देव होते हैं। घन्मानारकी के नारकों का परिमाण पहले वर्गमूल अर्थात् सोलह संख्या को दूसरे वर्गमूल (चार) के साथ गुणा करने पर (१६x४६४) यह दूसरा वर्गमूल रत्नप्रभा (घम्मा) नारकों की विष्कम्भ सूची होती है। यह भी वास्तविक रूप में तो असंख्य है। कल्पित कल्पना से चौसठ है। इन चौसठ प्रतर श्रेणियों में जितने आत्म-प्रदेश होते हैं उतने धम्मा नारकी के नारक होते है। सौधर्म देव का परिमाण दूसरा वर्गमूल चार है तथा तीसरा वर्गमूल दो है, इन दोनों को गुणा करने पर आठ श्रेणी रूप संख्या सौधर्म देवों की विष्कंभ सूची होती है। यह भी वास्तव में तो असंख्यात है पर कल्पना से आठ बतायी गयी है। काल्पनिक इन आठ Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ जीवसमास प्रतर श्रेणियों में जितने आत्म-प्रदेश होते हैं उतने सौधर्म देव होते हैं। यहाँ ईशान देवों की विष्कंभ सूची कही नहीं हैं परन्तु ईशान देव से सौधर्म देव संख्यात गुणा अधिक हैं ऐसा महादण्डक (प्रज्ञापना) में कहा गया हैं। नारक तथा देव परिमाण बारस दस अद्वेव य मूलाई छसि दुनि नारएसुं । एक्कारस नव सत्त य पाग खड़क्कं च देवेसु ।। १५८ ।। गाथार्थ - नारकों में अनुक्रम से श्रेणी-सूची के बारह, दस, आठ, छ, तीन, दो वर्गमूल के प्रदेश परिमाण जीव- राशि हैं तथा देवों में ग्यारह, नौ, सात, पाँच तथा चार वर्गमूल के प्रदेश परिमाण जीव-राांश है। विवेचन - नारकों में प्रथम नारक धम्मा की चर्चा पिछली गाथा में की। इस गाथा में शेष छः नरक तथा सनत्कुमार आदि छः देवलोक की चर्चा की गई हैं, वह इस प्रकार है नारक - शेष नरक के जीवों का परिमाण— श्रेणीगत प्रदेश - राशि को बारहवें वर्गमूल से भाग देने पर जो भागफल आया वह दूसरी नरक के जीवों का परिमाण इसी प्रकार दसवें वर्गमूल का जो भागफल आया वह तीसरी नरक के जीवों का परिमाण, आठवें वर्गमूल का जो भागफल आया वह चौथी नरक के जीवों का परिमाण, छठें वर्गमूल का जो भागफल आया वह पाँचवी नरक के जीवों का परिमाण, तीसरे वर्गमूल का जो भागफल आया वह छठीं नरक के जीवों का परिमाण तथा दूसरे वर्गमूल का जो भागफल आया वह सातवीं नरक के जीवों का परिमाण हैं। देव श्रेणीगत प्रदेशराशि को ग्यारहवें वर्गमूल से भाग देने पर आने वाला भागफल तीसरे चौथे देवलोक के जीवों का परिमाण -- · नवे वर्गमूल का भागफल पाँचवें देवलोक के जीवों का परिमाण ७वें वर्गमूल का भागफल छठे देवलोक के जीवों का परिमाण, ५ वें वर्गमूल का भागफल सातवें देवलोक के जीवों का परिमाण, ४थें वर्गमूल का भागफल आठवें देवलोक के जीवों का परिमाण । तथा श्रेणीगत राशि २४०९६ को बारहवें वर्गमूल २ से भाग देने पर आने वाला भागफल २४०९६ ( दूसरी नरक के जीव)। दसवें वर्गमूल २४ से भाग देने पर आने वाला भागफल २४०९२ (तीसरी नरक के जीव)। आठवें वर्गमूल २१६ से भाग देने पर आने वाला भागफल २४०८० (चौथी नरक के Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिमाण-द्वार १३५ जीव)। छठे वर्गमूल २६४ से भाग देने पर आने वाला भागफल २४०३२ (पाँचवी नरक के जीव)। तीसरे वर्गमूल २५१२ से भाग देने पर आने वाला भागफल २३५८४ (छठों नरक के जीव)। दूसरे वर्गमूल २१०२४ से भाग देने पर आने वाला भागफल २३०७२ (सातवीं नरक के जीव)। ग्यारहवें वर्गमूल २२ से भाग देने पर आने वाला भागफल २४०१४ (तीसरा-चौथा देवलोक)। नवमें वर्गमूल २८ से भाग देने पर आने वाला भागफल २४०८८ (पाँचवा देवलोक)। सातवाँ वर्गमूल २३२ से भाग देने पर आने वाला भागफल २४०६४ (छठाँ देवलोक}। पाँचवा वर्गमूल २१२८ से भाग देने पर आने वाला मागफल २३९६८ (सातवाँ देवलोक )। चौथा वर्गमूल २२५६ से भाग देने पर आने वाला भागफल २३८४३ (आठवाँ देवलोक)। एकेन्द्रिय जीवों का परिमाण बायरपुडवी आऊ पत्तेयवसई य पज्जत्ता । तेय पपरभवहरिज्जंसु अंगुलासंखभागेणं ।। १५९।। गाथार्थ- पर्याप्त बादर पृथ्वीकाय, अपकाय तथा वनस्पतिकाय यं तीनां राशियाँ प्रतर का अपहार करने लगे तो अंगुल के असंख्यातधे भाग परिमाण प्रतर का अपहरण करते हैं। विवेचन-उपर्युक्त तीनों ही राशियाँ मिलकर एक समय में प्रत्येक एक-एक प्रतर-प्रदेश का अपहार कर असत्कल्पना से दूसरे स्थान पर रखें, फिर दूसरे समय अन्य स्थान पर रखें ऐसे ही तीसरे, चौथे समय में यावत् अंगुल के असंख्यातवे भाग रूप आकाश-प्रदेश पर रखें, उससे श्रेणी-खण्ड में जितने प्रदेश होते हैं उतने समय में वे समस्त प्रतर का अपहार करते हैं। अथवा- अंगुल के असंख्यातवें भाग रूप आकाश-प्रदेश की श्रेणी-खण्ड में जितने प्रदेश हैं उनसे सम्पूर्ण प्रतर-प्रदेश की राशि का भाग करने पर जो प्रतर-प्रदेश खण्ड भागाकार रूप आया हो उसमें जितने प्रदेश है उतने प्रदेश परिमाण बादर पर्याप्त पृथ्वोकाय होते हैं। . अथया समस्त बादर पर्याप्त पृथ्वीकाय को अंगुल का असंख्यातवां भाग रूप प्रतर-प्रदेश-खण्ड दें तो एक साथ एक समय में सम्पूर्ण प्रतर का अपहार करते हैं। इन तीनों विकल्पों में जैसे पृथ्वीकाय के प्रमाण का विचार किया है वैसे ही अप्काय व वनस्पतिकाय का भी विचार करना चाहिए क्योंकि गाथा में तीनों का निर्देश किया गया है, फिर भी अंगुल के असंख्यात भाग के असंख्य भेद Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ जीवसमास का निर्देश किया गया है, फिर भी अंगुल के असंख्यात भाग के असंख्य भेद होने से इनका अल्पबहुत्व देख लेना चाहिये। इस प्रकार बादर पर्याप्त प्रदेश वनस्पति से बादर पर्याप्त पृथ्वीकाय असंख्यगुण: है। पजसबायराणल असंखया हुंति आवलियवग्गा। पज्जतवायुकाया भागो लोगस्स संखेज्जो ।।१६।। गाभार्थ- पर्याप्त बादर अग्निकाय असंख्याती-आलिका के वर्ग परिमाण हैं। पर्याप्त बादर वायुकाय लोकाकाश के संख्यातवें भाग जितने आकाश-प्रदेश परिमाण में है। विवेचन- बादर पर्याप्त अग्निकाय असंख्यात आवलिका के वर्ग परिमाण अर्थात् असंख्यात आवलिका का वर्ग करने पर जो संख्या बने- उस संख्या परिमाण है। बादर पर्याप्त वायुकाय लोक के संख्यातवें भाग में है अर्थात् लोकाकाश के संख्यातवें भाग में जितने आकाश-प्रदेश हैं उलने परिमाण में सर्व बादर पर्याप्त वायुकाय होते हैं। . असंख्यात आवलिका के वर्गों से आवलिका का धन होता है उससे अधिक या कम भी होता है, इससे असंख्यात आवलिका वर्ग इतने मात्र से बादर पर्याप्त अग्निकाय का परिमाण नहीं जान सकते तथा लोक में संख्यातवें भाग में भी कितने प्रतर होते हैं ये भी नहीं जान सकते, अत: दोनों का विशेष रूप से परिमाण कहते हैं - आवलिवग्गाऽ संखा यणस्स अंतो उ बायरा सेऊ । यजत्तवापराणिल हवन्ति पपरा असंखेज्जा ।।१६१॥ गाथार्थ-बादर पर्याप्त अग्निकाय घर के अन्दर रहे असंख्यात आवलिका वर्गपरिमाण जानना चाहिये। उसी प्रकार बादर पर्याप्त वायुकाय के असंख्यात प्रतर होते हैं। विवेचन-जो बादर पर्याप्त अग्निकाय पहली असंख्याती आवलिका के वर्ग परिमाण कही वह आवलिका वर्गघन के अन्दर (मध्य में) लेना, इसका अर्थ इस प्रकार है असंख्याती आवलिका के वर्ग इतने ही लेना जितने से आवलिका का घन पूरा न हो, वरन् अधूरा रहे। यही बात विशेष स्पष्ट करने हेतु असत् कल्पना से बताते हैं- असंख्यात समय रूप आपलिका में दस (१०) समय की कल्पना करते हैं उसका वर्ग करने से सौ (१००) होते हैं (वर्ग अर्थात् १० को १० से गुणित करना)। Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रा-मार यह असंख्यात वर्ग कल्पना से दस (१०) भी होते हैं (परन्तु इतने वर्ग कल्पित नहीं किये जा सकते कारण) इतने वर्गों से आवलिका सम्बन्धित घनपूर्ण सम्पूर्ण होना सम्भव है वह इस प्रमाण से- आवलिका में दस समय की कल्पना की थी। दस का घन (१०x१०x१०= घन अर्थात् उसी संख्या को उसी संख्या से तीन बार गुणा करने से १०००) एक हजार होता है (और बह हजार की संख्या दस वर्ग से होती है) अतः उसे ग्रहण करने से धन सम्पूर्ण होता है। इससे आठ या नौ आवलिका वर्गों की असंख्यात रूप से कल्पना करनी चाहिए। उस परिमाण की कल्पना से आठ सौ (८००) या नौ सौ (९००) अथवा वास्तविक रूप में असंख्यात बादर पर्याप्त तेजस्काय होते हैं। यह आवलिका के घन की मध्यमवृनि रूप होती है। इस प्रकार एक आवलिका का वर्ग कुछ कम आवलिका के समयों की संख्या के साथ गुणा करने से जो संख्या आती है उत्तने परिमाण में बादर पर्याप्त तेजस्काय है। पर्याप्त बादर वायुकाय के असंख्यात प्रतर होते हैं वह पूर्व मे कहे परिमाण लोक के संख्यातवें भाग में असंख्यात प्रतर जानना। जिससे लोक के संख्यातवें भाग में रहे असंख्यात प्रतर में जितने प्रदेश होते हैं उतनी संख्या परिमाण बादर पर्याप्त वायुकाय होते हैं। एकेन्द्रिय का अल्पबहुत्त्व इस प्रकार है--- १. सबसे कम बादर तेजस्काय, उससे असंख्यात गुणा प्रत्येक वनस्पतिकाय, उससे असंख्यात गुणा पृथ्वीकाय, उससे असंख्यात गुणा अप्काय, उससे असंख्यात गुणा वायुकाय है। प्रथमराशि बादर पर्याप्त की चर्चा पूर्ण हुई – अत्र शेष सात राशियों की चर्चा करते हैं। सेसा तिण्णिवि रासी वीसु लोया भवे असंखेज्जा । साहारणा उ चउसुवि वीसु लोया भवेऽणता ।।१६२।। गाथार्थ- शेष रही तीन राशियाँ सभी अलग-अलग संख्यात लोकाकाश प्रदेश प्रमाण हैं और चार प्रकार की साधारण वनस्पतियाँ अलग-अलग अनन्त लोकाकाश प्रदेश परिमाण हैं। विवेचन- एकेन्द्रिय प्रत्येक शरीर की चार राशियां होती है.-१, बादर पर्याप्त, २. बादर अपर्याप्त, ३, सूक्ष्म पर्याप्त तथा ४. सूक्ष्म अपर्याप्त। इन चार में से प्रथम बादर पर्याप्त राशि की चर्चा हमने की। अब शेष तीन राशियों भी अलग-अलग असंख्यात लोकाकाश जितनी है। असंख्यात लोकाकाश में जितने Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ जीवसमास प्रदेश है इतने परिमाण में एक-एक गाँश होती है। इस प्रकार तीनों राशियों का प्रमाण सपान चलाने पर भी इनमें अन्तर है- १. प्रत्यक शरीर बादर अपर्याप्त एकेन्द्रिय से, २. प्रत्येक शरीर सूक्ष्म अपर्याप्त असंख्यात गुणा हैं। ३. उससे सूक्ष्म पर्याप्त संख्यात गुणा हैं। साधारण शरीर वाले वनस्पत्ति एकेन्द्रिय, बादर पयांप्न, बादर अपर्याप्त, मृक्ष्म पर्याप्त तथा सूक्ष्म अपर्याप्त भिन्न-भिन्न है। ये अनन्त लोकाकाश परिमाण होने से अनन्त लोकाकाश प्रदेश श्रेणी परिमाण संख्या में हैं। इन चारों का अल्पबहुत्व इस प्रकार है- साधारण शरीर बादर पर्याप्त एकेन्द्रिय से साधारण शरीर , बादर अपर्याप्त असंख्यात गुणा, उससे सूक्ष्म अपर्याप्त संख्यात गुणा, उससे सूक्ष्म पर्याप्त संख्यात गुणा होते है। वायुकाय में उत्तर वैक्रिय परिमाण गयरवाल मग्गा भणिया अणुमायमनासरीता। पल्लासंखियभागेणऽवहीरंतित्ति सब्वेवि ।।१६३।। गाथार्थ- पर्याप्त बादर वायूकाय में कितने ही वायकाय वाले प्रतिसमय उत्तर वैक्रिय शरीर वाले होते है। वे सभी पल्योपम के असंख्यातवें भाग का अपहरण करते है। विवेचन-सूक्ष्म अपर्याप्तावस्था में उत्तर वैक्रिय शरीर की प्राप्ति सम्भव नहीं है। अत: बादर शब्द गाथाकार ने दिया है। पर्याप्त उपलक्षण से समझ लेना चाहिये। समस्त पर्याप्त बादर वायुकाय में सतत उत्तर वैक्रिय शरीर वाले वायुकाय के जीव भी होते हैं। सभी पल्योपम के असंख्यातने भाग को अपहरण कर सकें अर्थात् प्रत्येक समय एक-एक प्रदेश का अपहार करते हुए जितने काल में क्षेत्र पल्यापम के असंख्यातवें भाग पूर्ण हों उतने काल में वैक्रिय शरीरी वायुकाय के जीव भी प्रत्येक समय में अपहरते (सर्व पूरे होते हैं। क्षेत्र पल्योपम के असंख्यातवें भाग में जितने आकाश-प्रदेश हैं उतने क्रिय शरीरी बादर पर्याप्त वायुकाय होते हैं। दीन्द्रिय से पझेन्द्रिय परिमाण बेइंदियाइया पुण पयरं पज्जत्तण अपज्जत्ता। संखेजा संखेजेणागुलभागेणऽवहरेजा।।१६४।। गाथार्थ-पर्याप्त तथा अपर्याप्त द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय तथा पञ्चेन्द्रिय Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिमाण-द्वार १३९ ये सभी प्रतर में अंगुल के संख्यातासंख्यात भाग का अपहरण करते है। विवेचन - प्रश्न- कौन कितने भाग का अपहरण करता है? पर्याप्त अंगुल के संख्यातवें भाग प्रतर का अपहरण करते हैं तथा अपर्याप्त अंगुल के असंख्यातवें भाग परिमाण प्रतर का अपहरण करते हैं। अर्थात् अंगुल परिभाषा श्रेष्का-प्रदेश के संख्यात भाग से घनीकृत लोक प्रतर का भागाकार करने से जितने प्रत्तर का क्षेत्रखण्ड आवे उसमें जितने परिमाण प्रदेश उतने सम्पूर्ण पर्याप्त द्वीन्द्रिय होते हैं अथवा सभी द्वीन्द्रिय पहले समय में प्रत्येक एक-एक प्रतर प्रदेश को अपहरे, दूसरे, तीसरे, चौथे समय में एक-एक प्रतर प्रदेश को अपहरे यावत् अंगुल श्रेणी प्रदेशों के संख्यातवें भाग में जितने प्रदेश होते हैं उतने समय मे सम्पूर्ण प्रतर को पर्याप्त द्वीन्द्रिय अपहरते हैं अथवा अंगुल श्रेणी प्रदेश का संख्यात भाग रूप खण्ड को एक-एक को दें तो सभी द्वीन्द्रिय पर्याप्त एक साथ एक ही समय में सम्पूर्ण प्रतर को अपहरते हैं। इन तीनो का आशय एक सा ही है। . __इसी प्रकार अपर्याप्त द्वीन्द्रिय को भी जानना चाहिए। मात्र इतना अन्तर है कि वहाँ अंगुल श्रेणी प्रदेशों के संख्यात को जगह असख्यात भाग है क्योकि अपर्याप्त द्वीन्द्रिय असंख्यात गुणा है। द्वीन्द्रिय के समान ही त्रीन्द्रिय, चतरिन्द्रिय तथा पञ्चेन्द्रिय (पर्याप्त-अपर्याप्त) को जानना। यद्यपि सभी में समानता है फिर भी सभी का अल्प-बहुत्व इस प्रकार है। १. सबसे कम पर्याप्त चतुरिन्द्रिय, २. पर्याप्त पञ्चेन्द्रिय उससे विशेषाधिक, ३. उससे पर्याप्त त्रीन्द्रिय विशेषाधिक, ४, उससे पर्याप्त द्वीन्द्रिय विशेषाधिक, ५. उससे अपर्याप्त पशेन्द्रिय असंख्यगुणा ६. चतुरिन्द्रिय अपर्याप्त विशेषाधिक, ७. त्रीन्द्रिय अपर्याप्त विशेषाधिक तथा ८. उससे द्वीन्द्रिय अपर्याप्त विशेषाधिक कहा है। यहाँ पञ्चेन्द्रिय का परिमाण सामान्य से कहा है- संज्ञी तथा असंज्ञी के भेद से नहीं कहा है। यहाँ अवस्थित (सदा रहने वाली) राशियों की चर्चा की अब अनवस्थित राशियों की चर्चा करते हैंअनवस्थित राशियाँ मणुय अपज्जत्ताऽऽहार मिस्सवेउब्धि छेय परिहारा । सुहुमसरागोवसमा सासण मिस्सा य भणिज्जा ।।१६५।। Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० जीवसमास गाथार्थ- अपर्याप्त मनुष्य, आहारक शरीर, वैक्रिय, मिश्र, काययोग, छदोपस्थापनीय चारित्री, परिहारविशुद्धिक चारित्री, सूक्ष्मसम्पराय, सरागी उपशामक, सास्वादनी, मिश्रष्टि – ये राशियाँ कभी होती हैं, कभी नहीं होती। विवेचन- १. अपर्याप्त मनुष्य, २. आहारक शरीर, ३. वैक्रियमिश्रकाय योग, ४. छेदोपस्थापनीय चारित्र, ५. परिहार विशुद्धि चारित्र, ६. अपूर्वकरण, ७. अनिवृत्तिगुणस्थान, ८. सूक्ष्मसम्पराय गुणस्थान, ९. उपशामक या क्षपक, १०. सास्वादन गुणस्थान, ११. मिश्र गुणस्थान- इन अनवस्थिय गशियों का लोक में नाभी मद्भाव रहा है का गिरह न द मारिह काल बताया रहा है १. अपर्याप्त मनुष्य- मनुष्य गति में गर्भज का जघन्य एक समय तथा उत्कृष्ट बारह मुहूर्त का विरहकाल होता है। सम्मूर्छिम मनुष्य का जघन्य एक समय तथा उत्कृष्ट चौबीस मुहर्त विरहकाल कहा गया है। २. आहारक शरीर-आहारक शरीर का प्रारम्भ करने का उत्कृष्ट विरहकाल छ; मास है। अत: जघन्य से एक समय तथा उत्कृष्ट से छ: मास का विरह काल है। ३. वैक्रिय मिश्रकाप-मिश्र वैक्रिय काय योग में यहाँ नरक तथा देव को जानना अर्थात् प्रथम उत्पत्ति काल में कार्मण के साथ होने वाला वैक्रिय शरीर, इन दोनो गतियों में जघन्य से एक समय तथा उत्कृष्ट से बारह मुहूर्त परिमाण जानना चाहिये। ४. छेदोपस्थापनीपचारित्र- छेदोस्थापनीय चारित्र का जघन्य से वेसठ हजार बर्ष तथा उत्कृष्ट से अठारह कोटा-कोटी सागरोपम का विरहकाल है। आगे गाथा में इसे स्पष्ट किया गया है। ५, परिहारविशविचारित्र-परिहारविशुद्धिचारित्र का जघन्य चौरासी हजार वर्ष तथा उत्कृष्ट से अठारह कोटाकोटी सागरोपम प्रमाण आगे स्पष्ट किया गया है। ६ से ९. आठवाँ, नयों, दसवाँ तथा ग्यारहवाँ गुणस्थान-अपूर्वकरण, अनिवृत्तिबादर, सूक्ष्मसम्पराय ये तीनों ही दो प्रकार के हैं— उपशामक तथा क्षपक। उपशान्त मोही तो मात्र उपशम श्रेणी की शिखा पर स्थित ग्यारहवें गुणस्थानवर्ती हैं। इसमें उपशम श्रेणी का अन्तर उत्कृष्ट से वर्षपृथक्त्व है तथा क्षपक श्रेणी का अन्तर उत्कृष्ट से छ: महीना है। १० से १९. सास्वादन, मित्र- सास्वादन तथा मिश्र का जघन्य काल एक समय तथा उत्कृष्ट से पल्योपम का असंख्यातवां भाग है। Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिमाण-द्वार १४१ उपसंहार एवं जे जे भाषा जहिं जहिं हुति पंचसु गईसु । ते ते अणुमज्जिता दवपमाणं नए घोरा ।।१६६ ।। सिन्नि खलु एक्कयाई अवासमया व पोग्गलाऽणता। दुन्नि असंखेज्जपएसियाणि सेसा मधेऽणता।। १६७।।प्रमाणद्वारं- २ गाथार्थ-जिस प्रकार से पांचों गलियों मे जो-जो भाव जहाँ-जहाँ होते हैं उन-उन पर विचार करके (अणुमज्जिता) बुद्धिमानों को द्रव्य परिमाण जानना चाहिये धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय तथा आकाशास्तिकाय ये तीनो ही द्रव्य एक-एक हैं। जबकि अद्धासमय रूप काल तथा पुद्गलास्तिकाय द्रव्य अनन्त हैं। प्रदेश से धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय ये दोनों असंख्यात है तथा रोष तीनो अर्थात् आकाश, कान तथा पुद्गल अनन्त हैं। विवेचन-इस प्रकार की चर्चा पूर्व गाथाओ में किये गए हैं उन पर गहराई से विचार करके बुद्धिजीवियों को द्रव्य परिमाण को जानना चाहिये। तीनों द्रव्य संख्या में एक-एक हैं पर धर्माधर्मास्तिकाय के प्रदेश असंख्य हैं तथा शेष तीनों द्रव्य अनन्त है। इनमें आकाशास्तिकाय की व्याप्ति तो लोकालोक दोनी में हैअलोकाकाश अनन्त है अत: आकाश के प्रदेश भी अनन्त हैं। पुद्गल में भी द्वयणुक, त्रयणुक, चतुरणुक यावत् अनन्तानन्त अणुक है। आगे की गाथाओं में भी इन द्रव्यों की विस्तार से चर्चा करते हुए काल को संख्यात, असंख्यात तथा अनन्त प्रदेशी कहा हैं। __काल को आपने अनन्त प्रदेशी कहा, वह कैसे? तत्त्वार्थकार ने अध्याय ५ के ३९ वें सूत्र में कहा है- "सोऽनन्तसमयः" वह (काल) अनन्त समय वाला है। पर इससे पूर्व ही सूत्र में उन्होंने कहा है “कालश्चेत्येके' कोई आचार्य काल को भी द्रव्य कहते है अर्थात् सभी आचार्यों ने एकमत से काल को द्रव्य के रूप में स्वीकार नहीं किया है, किसी-किसी ने किया है और वह काल अतीत, वर्तमान तथा अनागत के कारण अनन्त पर्यायवाला होता है। ये भूत, वर्तमान व भविष्य की पर्याय भी प्रदेश रूप में ही गिनी जायेगी। अनन्तकाल से यह काल द्रव्य था और अनन्तकाल तक चलेगा इससे इसका अनन्त प्रदेशी होना स्पष्ट परिलक्षित होता है। द्वितीय परिमाण-हार समाप्त Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षेत्र-द्वार अब तीसरे क्षेत्रद्वार की चर्चा की जाती है खेतं खलु आगासं तविवरीयं च होड़ नोखेत्तं । जीवा य पोग्गलावि प धम्माषम्मत्थिया कालो ।।१६८।। गाथार्थ- क्षेत्र आकाश को कहते हैं। क्षेत्र से विपरीत नोक्षेत्र होते हैं। ये नोक्षेत्र है- जीव, पुदगल, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय तथा काल। विवेघन-आकाश वह है जो अन्य द्रव्यों को अवकाश, अर्थात् स्थान देता है। जिसमें पदार्थों का विकास तथा विनाश होता हो, ऐसे आकाश द्रव्य को क्षेत्र कहा जाता है तथा उसमें रहने वाले पाँच द्रव्यों को क्षेत्री कहा गया है। यह क्षेत्र का स्वरूप बतलाया गया। अब चौदह जीवसमासों का सत्प्ररूपणा आदि अनुयोगद्वारो से विचार किया जाता है। चतुर्गति जीवों का देहमान परिमाण नारकी सत्त घणु तिम्नि रयणी छच्चेव य अंगुलाई उच्चस। पडमाए पुडवीए बिउणा वितणां च सेसेसु ।। १६९।। गाथार्थ- सात धनुष तीन हाथ छ: अंगुल की ऊँचाई प्रथम रत्नप्रभापृथ्वी (प्रथम नरक) के नारकी जीवों की है। उसके बाद शेष पृश्वियों के नारकी जीवों की ऊँचाई क्रमशः प्रथम से द्विगुणित-द्विगुणित है। विवेचना--१. प्रथम नरक के नारकी जीवों के शरीर की ऊँचाई सात धनुष तीन हाथ छ: अंगुल अर्थात् सवा इकतीस हाथ ऊँचाई उत्सेधांगुल से जानना चाहिए। २. शर्कराप्रभा में पन्द्रह धनुष, ढाई हाथ। ३. बालुकाप्रमा में इकतीस धनुष एक हाथ। ४, पंकप्रभा में बासठ धनुष दो हाथ। ५, धूमप्रभा में सवा सौ धनुष। ६. तम:प्रभा में ढाई सौ धनुष। ७. अन्तिम नरक में पांच सौ धनुष परिमाण उत्कृष्ट ऊँचाई है। नरक नाम जघन्य ऊंचाई उत्कृष्ट अंधाई १. रत्नप्रभा ३ हाथ ७१ धनुष ६ अंगुल Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षेत्र-द्वार १४३ २, शर्करा प्रभा ७: धनुष ६ अंगुल १५ धनुष १२ अंगुल ३. बालुकाप्रभा १५ धनुष १२ अंगुल ३१ धनुष ४. पंकप्रभा ३१ धनुष ६२६ धनुष ५. धूमप्रभा १२५ धनुष ६. तमःप्रभा १२५ धनुष २५० धनुष ७. तमस्तमप्रभा २५० धनुष ५०० धनुष उत्तर वैक्रिय शरीर तो सभी नारकी जीवों का उनके मूल शरीर से द्विगुणित समझना चाहिए, यथा- सातवीं नारको का एक हजार धनुष परिमाण उत्तर बैंक्रिय शरीर होता है। प्रश्न- तीसरे विभाग का नाम तो क्षेत्र-द्वार हैं. किन्तु यहाँ चर्चा जीव के शरीर परिमाण की की जा रही है, क्या यह उचित है? उत्तर- हाँ। यहाँ वस्तत: जीव के शरीर से अवगाहित क्षेत्र की ही चर्चा की जा रही है। अत: इस प्रसंग में जीव के शरीर परिमाण की चर्चा करना अनुचित नहीं है। विकलेन्द्रिय बारस म जोयणाई तिगाउमं जोयणं च बोसव्व। बेइंदियाइयाणं हरिएस सहस्समभहियं ।। १७०।। गाथार्थ-वीन्द्रिय का बारह योजन, वीन्द्रिय का तीन कोस, चतुरिन्द्रिय का एक योजन (चार कोस) तथा वनस्पति का एक हजार योजन से भी कुछ अधिक उत्कृष्ट देहपान होता है। विवेचन- चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव आदि के सैन्य शिविरों, छावनियो में जब चक्रवर्ती आदि का नाश होने वाला हो तब सम्मूच्छिम आसालिक नामक जीव की उत्पत्ति होती है। यह अधिकतम बारह योजन की लम्बाई वाला होता है। इसकी आयु अन्तर्मुहूर्त की है। कोई इसे द्वीन्द्रिय कहते हैं तथा कोई इसे पञ्चेन्द्रिय भी कहते हैं। . इसके मरने पर भूमि में इतना गहरा खड्डा हो जाता है कि इसमे चक्रवती की सारी सेना समा जाती है। गाथा में कथित तीन कोस तथा चार कोस शरीर परिमाण वाले विकलेन्द्रिय जीव स्वयंभूरमण समुद्र में होते हैं। Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवसमास प्रत्येक वनस्पतिकाय का हजार योजन का विशाल शरीर गहरे पद्मद्रह नामक जलाशय का कमलनाल की अपेक्षा से माना गया है। सूक्ष्म वनस्पति का देहमान तो अंगुल के असंख्यातवें भाग परिमाण जानना चाहिये। सम्भूमि पछेन्द्रिय जल-बल-खह-सम्मुच्छिम तिरिप अपज्जत्तया विहत्थीयो। जलसंमुब्धिमपज्जत्तयाण अह जोयणसहस्सं ॥१७१।। गाथार्थ-जलचर, स्थलचर तथा खेचर पञ्चेन्द्रिय सम्मूर्छिम अपर्याप्त जीवों का देहमान उत्कृष्ट से विस्तति परिमाण है। सम्मूर्छिम पर्याप्त जलचर का उत्कृष्ट देहमान एक हजार योजन का है। विवेचन- सम्मूर्छिम अपर्याप्त जलचर, थलचर, खेचर, भुजपरिसर्प तथा उपपरिसर्प का अधिकतम देहमान एक विस्तति परिमाण होता है। जघन्य अपेक्षा से तो यह अंगुल के असंख्यातवें भाग परिमाण वाला होता है। पर्याप्त सम्मूर्छिम जलचर की उत्कृष्ट अवगाहना (देहमान) एक हजार योजन होती है। ये अवगाहना स्वयंभूरमण समुद्र में उत्पन्न हुए मत्स्यादि की अपेक्षा से समझना चाहिये। उपरिसर्प उरपरिसप्पा जोयण सहस्सिया गम्पया उ उस्कोसं । संमुहिम पज्जत्तम तेसिं धिय जोयणपुश्रुतं ।।१७२।। गाभार्थ-गर्भज पर्याप्त उरपरिसर्प उत्कृष्ट से एक हजार योजन देहमान वाले होते हैं। सम्मूर्छिम पर्याप्त उरपरिसर्प उत्कृष्ट से योजन पृथक्त्व अर्थात् १ योजन से ९ योजन देहमान वाले होते हैं। विवेचन-स्थलचर में उरपरिसर्प (छाती से चलने वाले) सादि न्यूनतम अंगुली के असंख्यातवें भाग देहमान वाले तथा अधिकतम मनुष्यलोक से बाहर पैदा होने वाले गर्भज पर्याप्त उरपरिसर्प एक हजार योजन देहमान वाले होते हैं तथा सम्मच्छिम उरपरिसर्प योजन पृथकत्व देहमान वाले होते हैं। भुजपरिसर्प भुपपरिसप्या गाउयपुसिणो गन्मया व उक्कोस । संमुच्छिम पज्जतय सेसिं विष घणुपहत्तं च ।। १७३।। गाथार्थ- गर्भज पर्याप्त भुजपरिसर्प का उत्कृष्ट देहमान गाउ पृथक्त्व (१ कोस से ९ कोस तक) है तथा संमूर्छिम पर्याप्त मुजपरिसर्प का उत्कृष्ट देहमान धनुष पृथक्त्व (१ धनुष से ९ धनुष) परिमाण है। Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षेत्र द्वार १४५ विवेचन -- भुजाभ्यां परिसर्पन्ति इति भुजपरिसर्पाः अर्थात् जो भुजाओं से चलते हैं वे भुजपरिसर्प हैं। यथा- नेवला, गिरगिट, गिलहरी, छिपकली आदि । जलचल, स्थलधर और खेचर जलध्वलनगरऽ प्रजत्ता खतथलसमुच्छिमा य पज्जत्ता । खहगब्मया उ उभये उक्कोसेणं धणुपुहुत्तं ।। १७४।। गाथार्थ - गर्भज अपर्याप्त जलचर- स्थलचर सम्मूर्च्छिम पर्याप्त खेचर एवं स्थलचर, गर्भज पर्याप्त और अपर्याप्त खेचर इन सब का उत्कृष्ट देहमान धनुष पृथक्त्व हैं। विवेचन – गर्भज अपर्याप्त जलचर का उत्कृष्ट देहमान धनुष पृथक्त्व है। गर्भज अपर्याप्त स्थलचर अर्थात् चतुष्पद, भुजपरिसर्प तथा उरपरिसर्प का देहमान भी धनुष पृथकृत्व है। सम्मूर्च्छिम पर्याप्त खेचर, चतुष्पद स्थलचर का उत्कृष्ट देहमान भी धनुष पृथक्त्व है। खेचर गर्भज पर्याप्तापर्याप्त का भी उत्कृष्ट देहमान धनुष पृथकृत्य है । ( का धनु पृथकृत्य रिशानी है)। अन्य से तो सभी का देहमान अंगुल के असंख्यातवें भाग परिमाण हैं। तिर्यन पञ्चेन्द्रिय क्रम नाम १. 9. २. ३. ४. ५. 6. ६० १. सामान्य पञ्चेन्द्रिय जलचर सामान्य जलचर सम्मूर्च्छिम जलचर अपर्याप्त जलचर पर्याप्त जलचर सामान्य गर्भज जलचर अपर्याप्त गर्भज जलचर पर्याप्त गर्भज जलचर स्थलचर (चतुष्पद) सामान्य चतुष्पद उत्कृष्ट अवगाहना एक हजार योजन प्रमाण एक हजार योजन एक हजार योजन अंगुल का असंख्यातवाँ भाग एक हजार योजन एक हजार योजन अंगुल के असंख्यातवें भाग एक हजार योजन खः गव्यूति जघन्य अवगाहना Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ क्रम २. ३. ४. ५. ६. ७. 4. 5 स्थलचर (उरपरिसर्प) १. सामान्य उरपरिसर्प २. संमूर्च्छिम उरपरिसर्प ३. संमूर्च्छिम अपर्याप्त उरपरिसर्प ४. संमूर्च्छिम पर्याप्त उरपरिसर्प सामान्य गर्भज उरपरिसर्प ६. अपर्याप्त गर्भज उरपरिसर्प ७. पर्याप्त गर्भज उरपरिसर्प नाम १. २. 3 ४. ५. ६. ७. १. २. ३. ४. ५. ६. ७. संमूर्च्छिम चतुष्पद अपर्याप्त सम्मूर्च्छिम चतुष्पद पर्याप्त सम्मूर्च्छिम चतुष्पद सामान्य गर्भज 'चतुष्पद अपर्याप्त गर्भज चतुष्पद पर्याप्त गर्भज चतुष्पद जीवसमास खेचर सामान्य खेचर सामान्य संमूर्च्छिम खेचर संमूर्च्छिम अपर्याप्त खेचर संमूमि पर्याप्त खेचर सामान्य गर्भज खेचर गर्भज अपर्याप्त खेचर गर्भज पर्याप्त खेचर उत्कृष्ट अवगाहना गव्यूति पृथक्त्व अंगुल के असंख्यातवें भाग गव्यूति पृथक्त्व छः गव्यूति परिमाण अंगुल के असंख्यातवें भाग छः गव्यूति एक हजार योजन योजन पृथकत्व अंगुल के असंख्यातवें योजन पृथकत्व एक हजार योजन परिमाण अंगुल का असंख्यातवां भाग एक हजार योजन स्थलघर (भुजपरिसर्प) सामान्य भुजपरिसर्प गव्यूति पृथकृत्व सामान्य संमूर्च्छिम भुजपरिसर्प | धनुष पृथकृत्व संमूर्च्छिम अपर्याप्त भुजपरिसर्प संमूर्च्छिम पर्याप्त भुजपरिसर्प सामान्य गर्भज भुजपरिसर्प गर्भज अपर्याप्त भुजपरिसर्प गर्भज पर्याप्त भुजपरिसर्प अंगुल का असंख्यातवां भाग धनुष पृथकत्व गव्यूति पृथक्त्व अंगुल का असंख्यातवां भाग गव्यूति पृथकत्व धनुष पृथकत्व धनुष पृथकृत्व अंगुली का असंख्यातवां भाग धनुष पृथक्त्व धनुष पृथकत्व अंगुल का असंख्यातवां भाग धनुष पृथक्त्व अधन्य अवगाहना अंगुल का असंख्यातवां भाग Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४७ क्षेत्र-द्वार गर्घज जलचर, थालघर जलगम्भयपपत्ता उक्कोस हुति जोयणसहस्सं । थलगन्भयपज्जत्ता छग्गाउक्कोसगुल्वेहा ।।१७५।। गाथार्थ- जलचर गर्भज पर्याप्त का उत्कृष्ट देहमान एक हजार योजन है। स्थलचर गर्भज पर्याप्त का देहमान छ: गव्यूति (कोस) है। विवेचन- गर्भज पर्याप्त जलचर का उत्कृष्ट देहमान स्वयंभूरमण समुद्र में रहे मत्स्य की अपेक्षा से है। स्थत्नचर गर्भज पर्याप्त का उत्कृष्ट देहमान देवकुरु उत्तरकुरु में रहे हाथी आदि को अपेक्षा से है। नोट- १. जलचर, थलचर (२ चतुहाद, ३ भुजपरिसर्प, ४ उरपरिसर्प) तथा ५. खेचर - इन पाँचों के सम्मूर्छिम. गर्भज पर्याप्त, अपर्याप्त (५४२४२=२०) बीस भेद हुए। यहां तिर्यश्च पञ्चेन्द्रिय की चर्चा पूर्ण हुई। एकेन्द्रिय अंगुलअसंख भागो बायरसुगुमा य सेसया काया। सव्वेसिं च जहण्णं मणुयाण तिगाउ उक्कोसं ।।१७६।। गाथार्थ-- शेष सभी कायों अर्थात् पृथ्वीकाय, अपकाय, तेजस्काय तथा वायुकाय में बादर तथा सूक्ष्म का जघन्य तथा उत्कृष्ट से देहमान अंगुल के असंख्यातवें भाग जितना ही है। मनुष्य का उत्कृष्ट देहमान तीन कोस है। विवेचन- वनस्पतिकाय की चर्चा गाथा १७० में हो गयी। शेष सभी एकेन्द्रिय जीवों का जघन्य एवं उत्कृष्ट देहमान प्रस्तुत गाथा में बताया गया है। द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय आदि सभी का जघन्य से देहमान तो अंगुल के असंख्यातवें भाग परिमाण है। मनुष्य का देहमान जघन्य परिमाण अंगुल के असंख्यातवें भाग परिमाण तथा उत्कृष्ट तीन कोस परिमाण है। भवणवाइवाणमंतरजोड्सवासी य सत्तरयणीया । सक्का, सत्तरयणी एक्केक्का हाणि जावेक्का ।।१७७।। गाभार्थ- भवनपति, व्यंतर तथा ज्योतिष्क देवों का देहमान सात हाथ है। शक्र आदि देवों का सात हाथ, तदनन्तर दो-दो देवलोकों के पश्चात् क्रमश: एक-एक हाथ की हानि जानना। अवनपति, व्यंतर, ज्योतिष्क तथा सौधर्म एवं ईशान देवलोक तक देवों का उत्कृष्ट देहमान सात हाथ है। तदनन्तर एक-एक कम करते जाना यथा Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवसमास १४८ सनत्कुमार तथा माहेन्द्र देवलोक का उत्कृष्ट देहमान छ: हाथ, ब्रह्मलोक तथा लान्तक का पाँच हाथ, महाशुक्र तथा सहस्वार का चार हाथ, आनत प्राणत, आरण, अच्युत का तीन हाथ, मैवेयकों मेंसबसे ऊपर के विभाग में दो तथा अनुत्तर विमानों के सबसे ऊपर सर्वार्थसिद्ध विमान में एक हाथ परिमाण जानना। उत्तर वैक्रिय शरीर तो अच्युत देवलोक तक उत्कृष्ट से एक लाख योजन जानना । मैवेयक तथा अनुत्तर विमानवासी उत्तर वैक्रिय लब्धि होने पर भी वे उत्तर वैक्रिय शरीर नहीं बनाते । जघन्य से तो सभी का अंगुल का असंख्यातवाँ भाग जानना । चतुर्विध देवनिकायों की शरीर अवगाहना क्रम देवतानाम भवनपति व्यन्तर ज्योतिष्क सौधर्म ईशान १. २. ३. ४. ५. ६. ७. ८. ‍. १०. ११. अनुत्तर सनत्कुमार माहेन्द्र ब्रह्मलोक लान्तक महाशुक्र- सहखार आनत प्राणत आरण-अच्युत ग्रैवेयक २. गुणस्थान क्षेत्र द्वार - भवधारणयी (उत्कृष्ट) सात हाथ सात हाथ सात हाथ सात हाथ छः हाथ पाँच हाथ चार हाथ तीन हाथ तीन हाथ दो हाथ एक हाथ उत्तर वैक्रिय से उत्कृष्ट एवं जघन्य देहमान ग्रैवेयक तथा अनुत्तर विमानवासी उत्तर वैक्रिय शरीर नहीं बनाते। अतः उन्हें छोड़कर सभी का उत्तर वैक्रिय देहमान एक लाख योजन हो सकता है। इसी प्रकार सभी का जघन्य देहमान अंगुल का असंख्यातवां भाग जितना हो सकता है 1 मिच्छा य सव्वलोए असंखभागे य सेसबा हुंति । केवलि असंखभागे भागे व सव्वलोए वा ।। १७८ ।। गाथार्थ - मिध्यादृष्टि सर्वलोक में है। शेष गुणस्थानवर्ती जीव लोक के असंख्यातवें भाग में होते हैं । केवली असंख्यातवें भाग में तथा समुद्घात की अपेक्षा सर्वलोक में होते हैं। विवेचन – सूक्ष्म एकेन्द्रिय सम्पूर्ण लोक में व्याप्त होने के कारण कहा गया है कि मिध्यादृष्टि सर्वलोक में हैं। शेष गुणस्थानवतीं जीव अर्थात् सयोगी केवली Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षेत्र द्वार - १४९ गुणस्थान को छोड़कर शेष सभी गुणस्थानवर्ती जीव समुद्घात न करते हों तब तथा समुद्घात करते समय दण्ड, कपाट आदि की अवस्थाओं मे तो लोक के असंख्यातवें भाग में होते हैं। मथानी का आकार बनाते समय भी वे लोक के असंख्यातवें भाग में ही होते हैं पर चौथे समय में लोकव्यापी होने के कारण वे सम्पूर्ण लोक में होते हैं, ऐसा कहा गया है। तिरिएगिदिमा सव्वे तह काबरा अचज्जता । सच्चेवि सव्वलोए सेसा 3 असंखभागम्मि ।। १७९ ।। गाथार्थ - सभी सूक्ष्म एकेन्द्रिय तिर्यञ्च तथा अपर्याप्त बादर जीव सर्वलोक में होते हैं। शेष जीव लोक के असंख्यातवें भाग में होते हैं। प्रश्न – सूक्ष्म एकेन्द्रिय सम्पूर्ण लोक में व्याप्त हैं यह बात तो शास्त्र प्रमाणित है, परन्तु बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त को लोकव्यापी कैसे कहा गया हैं? उत्तर - प्रश्न यथोचित है— सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपने- अपने स्वस्थान में रहते हुए भी सर्वलोक में व्याप्त हैं किन्तु बादर अपर्याप्त एकेन्द्रिय जीव उत्पाद तथा समुद्घात की अपेक्षा से लोकव्यापी कहे गये हैं। उत्पाद से आशय विग्रहगति से तथा समुद्घात से आशय मारणांतिक समुद्घात से हैं । विग्रहगति में जीव जिस स्थान को छोड़कर जहाँ पैदा होता है— उस बीच के सारे स्थान को यह विग्रहगति में स्पर्श कर लेता है। पारणांतिक समुद्घात में भी जीव आत्मप्रदेशों को वहाँ तक फैलाता है जहाँ उसे जन्म लेना है। इन दोनों ( उत्पाद व समुद्घात) की अपेक्षा से बादर अपर्याप्त जीव को सर्वलोकव्यापी कहा गया है । वायुकाय प्रज्जत्तदायराणिल सङ्ग्राणे लोगऽसंखाभागे । उववायसमुग्धाएण सव्वलोगष्मि होज्जहु ।। १८० ।। गावार्थ- बादर पर्याप्त वायुकाय स्वस्थान ( जन्मस्थान) की अपेक्षा से लोक के असंख्यातवें भाग में होते हैं इनका उपपात तथा समुद्घात सर्वलोक में होता है। विवेचन - बादर पर्याप्त वायुकाय स्वस्थान के आश्रय से लोक के असंख्यातवें भाग में होते हैं। लोक में ये सर्वत्र होने पर भी उसके असंख्यातवें भाग परिमाण हैं। प्रज्ञापनासूत्र में कहा है कि एक भव से दूसरे भव में जाने रूप उपपात (उत्पत्ति) और मारणांतिक समुद्घात से बायुकाय सम्पूर्ण लोक में होते हैं। भवान्तराल अर्थात् विग्रहगति में रहे जीव मारणांतिक समुद्घात के समय में Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० जीवसमास जीव आपत्र होने के स्त मापदेशों का दण्ड कप में स्थापित करके समस्त लोक में फैलाता है। क्षेत्र तथा स्पर्शन सट्ठाणसमुग्धाएणुववाएणं च जे जहिं भावा । संपड़ काले खेत्तं तु फासणा होइ समईए ।।१८१।। गाथार्थ-स्वस्थान, समुद्घात तथा उपपात की अपेक्षा में जो अवस्था जहाँ होती है वह उसका वर्तमान काल विषयक स्थान क्षेत्र कहलाता है, किन्तु भूत्काल विषयक स्थान 'स्पर्शना' कहलाता है। विवेचन-जीव जहाँ उत्पन्न होता है वह उसका स्वस्थान है। कषाय मरण आदि सात समुद्घात है। एक भव से दूसरे भठ में जाना उपपान है। ये तीनों ही यदि वर्तमान काल विषयक हैं तो उन्हें क्षेत्र के अन्तर्गत लेना ताना ये तीनों ही यदि भूतकाल विषयक हो तो उन्हें स्पर्शना के अन्तर्गत लेना चाहिये। क्षेत्र- इसमें कल्पना करे कि जैसे विग्रहगति की अवस्था में स्वयं के आत्मप्रदेशो से समस्त लोक रूप क्षेत्र को सर्व ओर से स्पर्श (अक्रान्त) करने के कारण बादर अपर्याप्त एकेन्द्रिय का वह क्षेत्र है। यह वर्तमान काल से सम्बन्धित बात हुई : स्पर्शना-जैसे कोई जीव छठे नरक से मध्यलोक, मनुष्य लोक में आकर उत्पन्न हुआ। यहाँ उसने पर्याप्त अवस्था को प्राप्त कर लिया- अब मनुष्य भव में रहते हुएं उसने जो छठे नरक का त्याग भृतकान में किया था वह उसकी स्पर्शना है। क्योकि निकट भृतकान मे उसने छ; रज्जु का स्पर्श किया था। अजीव द्रव्य लोए थम्माऽथम्मा लोपालोए य होइ आगासं । कालो माणुसलोए उ पोग्गला सबलोमि ।। १८२।। गाथा-लोक में धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय है। आकाशास्तिकाय लोक तथा अलोक में है। काल मनुष्य लोक में होता है तथा पुद्गल सर्वलोक में है। विवेचन- पाँचों द्रव्य लोकाकाश मे विद्यमान हैं पर आकाशस्तिकाय लोक तथा अलोक दोनों में है। ज्ञातव्य है कि वर्तना लक्षण निश्चयकाल तो सम्पूर्ण लोक में है परन्तु सूर्य, चन्द्रादि के कारण व्यवहारकाल मात्र मनुष्यलोक (अढाई द्वीप) में है। तृतीय क्षेत्रद्वार समाप्त Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्पर्शन्-द्वार आगासं व अणंतं तस्स य बहुमझेदसभागम्मि । सुपद्वियसंढाणो लोगो कहिओ जिणवरोहिं ।। १८३।। आकाश अनन्त है, उसके बिल्कुल मध्य में दसवं भाग में सुप्रतिष्ठित संस्थान वाला लोक है एसा जिनेश्रर देव ने कहा है। आकाश के दो भेद हैं- अलोकाकाश और लोकानाश। लोकाकाश अलोकाकाश के ठीक मध्य में स्थित हैं। यह अकृत्रिम, अनादिनिधन स्वभाव से निर्मित और पञ्चास्तिकाय एवं छठे काल इन छ: द्रव्यों में व्याप्त है। इसे ही लोक संज्ञा दी गई है। इसका आकार सुनिश्चित हैं। लोकाकाश का आकार तथा विस्तार हेहा मज्झे उपरि वेसासणझल्लरीमुइंगनिभो । मझिमवित्याराहियचोइसगुणगायओ लोओ ।। १८४।। गाथार्थ- अधोलोक, मध्यलोक तथा ऊर्ध्वलोक क्रमशः वेत्रासन, झल्लरी तथा मृदंग तुल्य है। माध्यम लोक के विस्तार की अपेक्षा से ये समस्त लोक चौदह गुणा आयत अर्थात् विस्तार वाला है। विवेचन- इस गाथा में ऊर्ध्वलोक को मृदंग (ढोल), मध्यलोक को झल्लरी (वाय विशेष या थाली) तथा अधोलोक को वेत्रासन (गाय की गर्दन) के समान बताया गया है। समस्त लोक का परिमाण चौदह गुण अर्थात् रज्जु है। इस गाथा में गुण का आशय रज्जु (रस्सी) से है। शास्त्रों में रज्जु का परिमाण इस प्रकार बताया गया है... जोयणलखपमाणं निमेसमोण जाइ जो देवो । ता छम्मासे गमणं एवं रज्जु जिणा विति ।। अर्थात कोई एक देव एक निमेष (आंख की पलक झपकने में लगने वाला काल) में एक लाख योजन दूरी पार करता है। इस प्रकार की तीव्र गति वाला देव छ: माह तक इसी गति से चलता रहे तो एक रज्जु होता है। Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ जीवसमास ऐसा चौदह रज्जु लम्बा लोक तीन भागो में विभक्त है— ऊह्मलोक - मेरुपर्वत के समतल भूमि भाग से नौ सौ योजन ऊपर (ज्योतिष चक्र के ऊपर)का सम्पूर्ण भाग लोक ऊर्ध्वलोक है। इसका आकार मृदंग (ढोलक) जैसा है। यह कुछ कम सात रज्जु परिमाण है। अधोलोक - मेरु पर्वत के समतल भूमि भाग से नौ सौ योजन नीचे का लोक अधोलोक है। इसका आकार उल्टे किये हुए सकोरे या वेत्रासन जैसा हैं यह कुछ अधिक सात रज्जु परिमाण है। तिर्यकलोक -ऊर्ध्वलोक और अधोलोक के मध्य में अठारह सौ योजन परिमाण तिर्यक्लोक है। इसका आकार झल्लरो या पूर्ण चन्द्रमा के समान है। (लोक प्रकाश भाग - २, सर्ग १२. अभिधानराजेन्द्रकोष भाग ६, पृ० ६९७, भगवती तक ११.६सक १०, सू: ४२०) लोक संस्थान -गणितानुयोग में लोक का संस्थान इस प्रकार कहा हैअलोकाकाश के मध्य में लोकाकाश है। वह सान्त व ससीम है। इसका आकार त्रिसरावसम्पुटाकार है। एक सराव (शिकोरा) उल्टा, उसपर एक सराव सीधा, फिर एक सराव उल्टा रखने से जो आकार बनता है उसे त्रिसरावसम्पुटाकार कहते हैं। शास्त्रीय भाषा में यह सुप्रतिष्ठत आकार कहा जाता है। यह लोक नीचे से विस्तृत, मध्य में संक्षिप्त, पुनः विस्तृत व संक्षिप्त है। ____ आगपोत्तरकालीन जैन ग्रन्थों में लोक को लोक पुरुष के रूप में चित्रित किया गया है। यद्यपि जैनागमों में कहीं भी लोक पुरुष का वर्णन नहीं है, फिर भी कतिपय जैन प्रन्थों में लोक का आकार पुरुष के समान भी बतलाया है। कहा गया है कि जैसे दोनों हाथ कमर पर रखकर तथा दोनों पैरों को फैलाकर कोई पुरुष खड़ा हो, वैसा ही यह लोक है। वैदिक ग्रन्थों में विश्व को विराट् पुरुष के रूप में चित्रित किया गया हैभागवतपुराण २/५/३८-४० (प्रथम भाग, पृ० १६६ गाथा में कथित तीनों शब्द - १. वेत्रासन, २. झल्लरी व ३. मृदंग दिगम्बर आगमों में भी प्राप्त हैं। श्वेताम्बर परम्परा में अधोलोक को उल्टे सराव तुल्य, मध्यलोक को पल्यंक आकार तथा ऊर्ध्वलोक को मृदंग के आकार का कहा है। ___यह लोक मध्यलोक की जितनी चौड़ाई है, उससे चौदह गुणा लम्बा है। मध्य लोक में जम्बू द्वीप मझे प मजालोपस्स जंबूदीयो य वसंठाणो । जोयणसयसाहस्सो विच्छण्णो मेरुनाभीओ ।।१८५।। Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्पर्शन्-द्वार १५३ गाथार्थ- मध्यलोक के मध्य में वर्तल अर्थात् गोल संस्थान वाला जम्बूद्वीप है। वह जम्बूद्वीप एक लाख योजन विस्तार पाला है तथा उसके मध्य में नाभि तुल्य मेरुपर्वत है। विवेधन- मध्यलोक के सम्बन्ध में गौतम स्वामो ने निम्न प्रश्न पूछे हैहे भगवन् ! १. जम्बूद्वीप कहाँ है?, २. यह कितना विशान है?, ३. इसका संस्थान कैसा हैं? तथा ४. इसका आकार एवं स्वरूप कैसा है? प्रभु ने उत्तर दिया- हे गौतम ! १. यह जम्बूद्वीप सर्वसमुद्रों के बीच में (सांभ्यन्तर) है। २. यह द्वीप-समुद्रों में सबसे छोटा है। ३. तेल में तले हुए पुए के समान, रथ के पहिये के समान, कमल की कर्णिकवत् तथा परिपूर्ण चन्द्रमा के ममान गोल है तथा ४. एक लाख योजन लम्बा चौड़ा है। प्रश्न--- इसे जम्बूद्वीप क्यों कहते हैं ? उत्तर- इस द्वीप के उत्तर कुरु में अनादिनिधन, पृथ्वी से बना हुआ अकृत्रिम जम्बूवृक्ष है जिसके कारण यह जम्बूद्वीप कहलाता है। मेरुपर्वत इस जम्बूरोप के बीच में मेरुपर्वत है। यह एक लाख योजन ऊंचा है। इसमें से एक हजार योजन जमीन में है शेष निन्यानवें हजार योजन समतल भूमि से चूलिका तक है। प्रारम्भ से मेरु का व्यास (घेरा) दस हजार योजन है किन्तु क्रमश: घटते-घटते ऊपर एक हजार योजन चौड़ा रह जाता है। (१) पृथ्वी के भीतर एक हजार योजन वाला प्रथम भाग है। (२) पृथ्वी पर तिरसठ हजार योजन परिमाण दूसरा भाग है। (३) उसके ऊपर छत्तीस हजार योजन परिमाण तीसरा भाग है। उस मेरुपर्वत पर चार वनखण्ड हैं (१) जमीन पर भद्रशालवन। (२) जमीन से पाँच सौ योजन की ऊंचाई पर नन्दनवन (३) नन्दनवन से बासठ हजार पाँच सौ (६२५०० योजन की ऊँचाई पर सौमनसवन है (४) सौमनसवन से छत्तीस हजार योजन पर पाण्डुकवन है। पाण्डुकवन की चारों दिशाओं में चार शिलाएँ है। जहाँ जिनेश्वर भगवन्तों का जन्म महोत्सव होता है। इस वन के मध्य में शिखा समान रलमय चूलिका (पर्वत की चोटी) है। तं पुण लवणो दुगुणेण वित्थडो सवओ परिक्खिा । तं पुण धामासंबो सगुणों तं च कालोओ ।। १८६ ।। Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवसमास गाथार्थ - उस जम्बूद्वीप को सब तरफ से घेरे हुए, दुगुने विस्तार वाला लवण समुद्र है। उससे दुगुना विस्तार वाला घातकी खण्ड है तथा उससे दुगुना विस्तार वाला कालोदधि समुद्र हैं। १५४ विवेचन - पूर्व गाथा में बताया कि जम्बूद्वीप एक लाख योजन विस्तार वाला है। उससे दुगुना अर्थात् दो लाख योजन परिमाण लवण समुद्र हैं। उससे दुगुना अर्थात् चार लाख योजन परिमाण घातकी खण्ड है। उससे दुगुना अर्थात् आठ लाख योजन विस्तार परिमाण कालोदर तुम है। लवण समुद्र का पानी खारा हैं तथा कालोदधि समुद्र का पानी शुद्ध पानी के स्वाद वाला है। पुष्करार्ध द्वीप तं पुण पुक्खर दीवो तम्मज्झे माणुसोत्तरो सेलो । एतावं नरलोओ वाहिं तिरिया य देवा म ।। १८७ ॥ गाथार्थ - उसके बाद पुष्कर द्वीप हैं। उन दोनों पुष्कर द्वीपों के मध्य मानुषोत्तर पर्वत है। यहाँ तक (अढ़ाई द्वीप तक) मनुष्य लोक हैं। उसके आगे तिर्यञ्च तथा देव हैं। विवेचन – कालोदधि समुद्र से पुष्कर द्वीप दुगुना अर्थात् सोलह लाख योजन विस्तार वाला है। इनके मध्य में मानुषोत्तर पर्वत है। इस द्वीप तक ही मनुष्य का जन्म, मरण व निवास है। मनुष्यलोक से बाहर मनुष्य का जन्म एवं मरण नहीं होता । देव तथा तिर्यच मनुष्यलोक से भी बाहर पाये जाते हैं। अब आगे के द्वीप समुद्रों का वर्णन करते हैं। असंख्य द्वीप समुद्र एवं दीवसमुद्दा दुगुणगुणवित्वरा असंखेज्जा । एवं तु तिरिमलोगो सबंधुरमोदही जाव ।। १८८ ।। गाथार्थ - इस प्रकार द्विगुणित- द्विगुणित विस्तार वाले असंख्य द्वीपसमुद्र स्वयंभूरमण समुद्र पर्यन्त हैं। यह तिर्यगू लोक का वर्णन हुआ। A विवेचन - अनुक्रम से सारे ही द्वीप समुद्र दुगुने - दुगुने विस्तार वाले हैं। पुष्कर द्वीप के बाद उससे दुगुने परिमाण तथा शुद्ध पानी के स्वाद वाला पुष्कर समुद्र है। उसके बाद वरुणवर द्वीप एवं वारुणी समुद्र मदिरा के स्वाद वाला है। उसके बाद क्षीरवर द्वीप एवं क्षीर समुद्र क्षीर (दूध) के स्वाद वाला है। उसके बाद घृतवर द्वीप एवं घृत समुद्र हैं उसके पानी का स्वाद घी के समान हैं। इससे आगे Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्पर्शन्- द्वार १५५ इक्षुवर द्वीप एवं इक्षु समुद्र हैं उसका जल इक्षु रस के स्वाद वाला है। अन्तिम स्वयंभूरमण समुद्र को छोड़कर शेष सभी समुद्रों का पानी इक्षु रस के तुल्य हैं। द्वीपों के नाम इस प्रकार हैं- इक्षुवर द्वीप के बाद नन्दीश्वर, अरुणवर, अरुष्णावास, कुण्डलवर, शंखवर, रुचकवर अनुयोगद्वारचूर्णि में तेरहवां द्वीप रुचकवर बताया गया है। रुचकवर द्वीप के बाद असंख्य द्वीप समुद्र के बाद भुजंगवर मका है। किरण द्वीप-समुद्र के बन्द कुशवर नामक द्वीप हैं। उसके बाद फिर असंख्यद्वीप समुद्र के बाद क्रौंचवर द्वीप हैं। अन्तिम समुद्र का नाम स्वयंभूरमण हैं। समयसागर नामक ग्रन्थ में कहा गया है-- हे भगवन् ! द्वीप- समुद्रों में कितने नाम कहे हैं? हे गौतम! लोक में जितने शुभनाम शुभ रूप, शुभ गंध, रस, शुभ स्पर्श हैं उतने ही द्वीप समुद्रों के नाम जानना चाहिये। शुभ तत्त्वार्थसूत्र ३ / ७ में भी "जम्बूद्वीपलवणादय: शुभनामानो द्वीपसमुद्राः” कहा है। अब आगे अधोलोक का वर्णन करते हैं। क्या रत्नप्रभा आदि स्नात पृथ्वियाँ स्पर्शनीय हैं? इन पृथ्वियों का परिमाण कितना है? ये पृथ्वियाँ अन्तराल वाली है या बिना अन्तराल बाली हैं? नीचे की पृथ्वी ऊपर की पृथ्वी से अधिक विस्तार वाली हैं या समान विस्तार वाली है? आगे इन्हीं प्रश्नों का समाधान किया गया है तिरियं लोगायामं ममाया हेद्वा उ सध्वपुढवीणं । आगासंतरियाओ विच्छिन्नबराज हेड्डेड्वा ।। १८९ ।। गाथार्थ - नीचे की रत्नप्रभादि सभी पृथ्वियों का विस्तार तिर्यक् (मध्य) लोक - के आयाम जितना है। समस्त पृथ्वियों के बीच में आकाश रूपी अन्तराल हैं तथा वे एक-एक के नीचे-नीचे स्थित है और अधिक अधिक विस्तार वाली हैं। विवेचन – पूर्वगाथा में मध्यलोक की बात कही। अब अधोलोक की चर्चा की जा रही है मध्यलोक के बाद नीचे-नीचे उसके समान विस्तार वाली सात पृथ्वियाँ (नरक) हैं। ये सातों पृथ्वियाँ असंख्यात हजार योजन विस्तार वाले आकाश खण्ड से परस्पर एक-दूसरे से अलग हैं। इस प्रकार रत्नप्रभा के बाद असंख्यात योजन विस्तार वाले आकाश खण्ड के बाद शर्कराप्रभा पृथ्वी है। उस शर्कराप्रभा के नीचे बालुकाप्रभा हैं। इसी क्रम से छठी पृथ्वी के नीचे असंख्यात हजार योजन विस्तार वाले आकाश के अन्तराल के पश्चात् सातवीं पृथ्वी तमस्तमप्रभा है। Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवसमास नीचे-नीचे ये पृथ्वियाँ विस्तार वाली जानना क्योंकि लोक अनुक्रम से विस्तार वाला है, किन्तु यह विस्तार लोक की अपेक्षा है, नारकीय जीवों के निवास क्षेत्र की अपेक्षा से नहीं है, क्योंकि नारकी जीवों का निवास क्षेत्र तो त्रसनाल ही हैं और उसका विस्तार तो मध्यलोक जितना ही है। १५६ आगम में भगवान् से प्रश्न किया हैं— हे भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी और शर्कराभा पृथ्वी का अबाधा अन्तर कितना कहा गया है ? उत्तर— हे गौतम! असंख्य हजार योजन का अबाधा अन्तर कहा गया है। प्रश्न- भगवन् ! शर्कराप्रभा और बालुकाप्रभा का अबाधा अन्तर कितना कहा गया है? उत्तर हे गौतम! यह भी पूर्ववत् ही हैं। इसे सप्तम पृथ्वी पर्यन्त ऐसा हो जानना चाहिये। हे भगवन् ! सप्तम नरक और अलोक का अबाधा अन्तर कितना कहा गया है ? प्रश्न - उत्तर- हे गौतम ! असंख्य हजार योजन का अबाधा अन्तर कहा गया है। गणितानुयोग १ / ८९ । इस प्रकार अधोलोक में स्पर्शनीय पदार्थों का निरूपण किया अब ऊर्ध्वलोक के स्वरूप का विवेचन करेंगे ऊर्ध्वलोक उ परसबुड्डी निहिता जाव गंभलोगोति । अठ्ठा खलु रज्जू तेण परं होड़ परिहाणी । । १९०॥ गाथार्थ - ऊर्ध्वलोक में ब्रह्म देवलोक तक साढ़े तीन रज्जु परिमाण क्षेत्र तक लोक के विस्तार में वृद्धि होती है, उसके बाद क्रमशः कमी होती जाती है। विवेचन - मध्यलोक से ऊपर की ओर सौधर्म देवलोक से बह्म देवलोक तक के साढ़े तीन रज्जु क्षेत्र में लोक की चौड़ाई में वृद्धि होती जाती हैं तथा उसके बाद क्रमश: चौड़ाई में कमी होती जाती हैं। नोट यहाँ चौड़ाई में वृद्धि एवं हानि की चर्चा लोक संस्थान की अपेक्षा से की गई है, न कि देवों के निवास क्षेत्र की अपेक्षा से। अग्रिम गाया में देवलोक की ऊँचाई की चर्चा की गई हैं। — Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्पर्शन-द्वार ईसाणम्मि दिवटा अवाइज्जा य रज्जु माहिंदे । पंधेव सहस्सारे छ अच्चुए सत्त लोगते ।। १९१।। गाथार्थ- लोक का ऊँचाई मध्य नाक से ईशान देवनोक तक डेढ़ रज्ज. माहेन्द्र देवलोक तक ढाई रज्जु, सहस्रार देवलोक तक पांच रज्जु. अच्युत तक छः रज्जु तथा लोकान्त तक सात रज्ज है। विवेचन- यहाँ मध्यलोक से देकलोका को ऊंचाई का परिमाण बताया गया है। ___ अग्रिम गाथाओं में जीव लोक का किस प्रकार स्पर्श करता है? इस विषय को स्पष्ट करने हेतु समुद्घात की चर्चा की गई है। २. स्पर्श समुद्घात धेयण कसाय परणे वेब्धिय तेयए य आहारे । केवलियसमुग्धाए सत्त य मणुएस नायव्या ।। १९२।। गाथार्थ- वेदना, कषाय, मरण, वक्रिय, तेजस. आहारक और केवली ये सात समुद्घात मनुष्यों में जानना चाहिये। समुद्धात- मूल शरीर को छोड़े बिना आत्म-प्रदेशो को बाहर निकालने को समुद्घात कहते हैं। तेजस् तथा कार्मण शरीर साथ-साथ रहते हैं। उनका मूल शरीर को छोड़े बिना, उत्तर देह के साथ-साथ, आत्म-प्रदेशो सहित बाहर निकलना समुद्घात कहलाता है। समुद्घात शब्द तीन पदों की संयोजना से बना है— सम् उत्+घात। वेदना आदि के साथ एकाकार (लीन या संमिश्रित) हुए कालान्तर में उदय में आने वाले (आत्मा से सम्बद्ध) वेदनीयादि कमों को उदारणा के द्वारा उदय में लाकर प्रबलतापूर्वक धात करना या उनकी निर्जरा करना समुद्घात कहलाता है। आत्मा समुद्घात क्यों करता है ? जैसे किसी पक्षी के पंख पर बहुत धूल चढ़ गयी हो, तब वह पक्षी अपने पंख फैलाकर, फड़फड़ाकर धूल को झाड़ देता है। इसी प्रकार यह आत्मा बद्ध कर्म पुद्गल (कर्मवर्गणाओं) को झाड़ने (निर्जरित करने) के लिए समुद्घात नामक क्रिया करता है। Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवसमास १५८ १. वेदना समुद्घात संवेदन के हेतु होने वाला समुदघात वेदना समुदूधात कहलाता है। यह असातावेदनीय कर्मों को लेकर होता हैं। जीव वेदना से आकुल व्याकुल होकर ( अनन्तानन्त असाता वेदनीय कर्म स्कन्धों से व्याप्त अपने ) आत्म- प्रदेशों को शरीर से बाहर निकालता है। वे प्रदेश मुख्य, उदर आदि के छिद्रों में तथा कर्मस्कन्धादि के अन्तरालो में भरे रहते हैं और लम्बाई-चौड़ाई की अपेक्षा से शरीर परिमित क्षेत्र में व्याप्त होते हैं। जीव एक मुहूर्त तक इस अवस्था में ठहरता है। उस अन्तर्मुहूर्त में वह असातावेदनीय कर्म के प्रचुर मुद्गलों को उदीरणा से खींचकर, उदयावलिका में प्रविष्ट करके वेदता है और फिर उन्हें निर्जरित कर देता है। इस क्रिया का नाम वेदना समुद्घात है। २. कषायं समुद्घात क्रोधादि कषाय रूप मोहनीय कर्म आश्रित समुद्घात को कषाय समुद्घात कहते हैं। क्रोधादि तीव्र कषाय के उदय से ग्रस्त जीव जब अपने आत्म-प्रदेशी को बाहर फैलाकर तथा उनसे मुख, पेट, कर्ण आदि के छिद्रों तथा कर्मस्कन्धादि के अन्तरालों को भरकर परिमित क्षेत्र में व्याप्त होकर अन्तर्मुहूर्त तक रहता हैं, उस समय में प्रचुर कषाय- पुद्गलों की निर्जरा कर लेता है। यही क्रिया कषाय समुद्घात है। ३. मारणान्तिक समुद्घात मरणकाल में अन्तर्मुहूर्त शेष रहने पर आयुष्यकर्म का समुद्घात मारणान्तिक समुदूघात कहलाता है। मृत्यु के समय कोई जीव अन्तर्मुहूर्त पूर्व स्वयं के शरीर परिमाण चौड़ाई जितने तथा जघन्य रूप से अंगुली के असंख्यातवें भाग जितने लम्बाई के और उत्कृष्ट रूप से असंख्यात योजन जितने स्वयं के आत्म-प्रदेशों को शरीर से बाहर निकालता है। निकालने के बाद अगले भन में जहाँ उत्पन्न होना हैं वहाँ उस स्थान पर वह अपने आत्म-प्रदेशों को दण्ड रूप से फेंकता है। ऋजु गति से तो एक समय में ही उस स्थान तक दण्ड रूप बना लेता है और विग्रहगति से अधिकतम चार समय लगाता है। यह मारणांतिक समुद्घात अन्तर्मुहूर्त परिमाण ही है। इतने समय में जीव आयुकर्म के प्रभूत पुद्गलों को निर्जरित कर लेता है। इस क्रिया को मारणान्तिक समुद्घात कहते हैं, ४. वैक्रिय समुद्घात वैक्रिय शरीर का निर्माण करने हेतु विक्रिया शक्ति के प्रयोग द्वारा वैक्रिय शरीरनामकर्म के आश्रित होने वाले समुद्घात को वैक्रिय-समुद्घात कहते हैं। Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्पर्शन-द्वार १५९ वैक्रिय सन्धि बाला जीत अगो जीर्ण शरीर को पुष्ट एवं सुन्दर बनाने की या उसकी विकुर्वणा करने की इच्छा से अपने आत्म-प्रदेशों को दण्ड के आकार में बाहर निकालता है। उस दण्ड की चौड़ाई और मोटाई तो शरीर परिमाण होती है, किन्तु लम्बाई संख्यात योजन परिमाण हो सकती है। वह आत्म-प्रदेशों से ऐसा शरीर बनाकर अन्तर्मुहूर्त तक उसमें टिकता है। उतने समय में पूर्वबद्ध वैक्रिय शरीर नामकर्म के स्थूल पुद्गलों को निर्जरित कर देता है और अन्य नये तथा सूक्ष्म पुद्गलों का ग्रहण कर लेता है। यही वैक्रिय समुद्घात है। ५. तेजस् समुद्घात तपस्वियों को प्राप्त होने वाली तेजोलेश्या का औदारिक शरीर से बाहर निकलना तेजस् समुद्घात होता है। जिसके प्रभाव से तेजस् शरीर नाम कर्म के पद्गल आत्मा से अलग होकर बिखर जाते हैं। तेजोलेश्या की लब्धिवाला जीव सात आठ कदम पीछे हटकर घेरे और मोटाई से शरीर परिमाण एवं लम्बाई से संख्येय योजन परिमाण आत्म-प्रदेशों के दण्ड को शरीर से बाहर निकालकर, जिसके प्रति क्रुद्ध हुआ है, उसको जलाकर तेजस् शरीर नाम कर्म के बहुत से पुद्गलों का क्षय करता है, इसे ही तेजस् समुद्घात कहते हैं। ६. आहारक समुदपात यह शरीर चतुर्दशपूर्वधारी साधु के होता है। आहारक शरीर की रचना द्वारा होने वाला समुद्घात आहारक समुद्घात कहलाता है। आहारक लम्धिधारी साधु आहारक शरीर निर्माण की इच्छा से चौड़ाई और मोटाई में शरीर परिमाण और लम्बाई में संख्येय योजन परिमाण अपने आत्म-प्रदेशों के दण्ड को शरीर से बाहर निकालकर पूर्वबद्ध आहारक नामकर्म के कर्म पुद्गलों की निर्जरा कर लेता हैं इसे आहारक समुद्धात कहते हैं। ७. केवली समुद्घात अन्तर्मुहूर्त में मोक्षप्राप्त करने वाले केवली भगवान् के समुद्घात को केवली समुद्यात कहते हैं। वह वेदनीय, नाम और गोत्र कर्म को विषय करता है। अन्तर्मुहूर्त में मोक्ष प्राप्त करने वाले केवलज्ञानी अपने तीन अघाती कर्म (वेदनीय, नाम एवं गोत्र) की स्थिति आयु कर्म के बराबर करने के लिए यह समुद्घात करते हैं। इसमें आठ समय लगते हैं। केवलीसमुद्घात (काल) का विशेष विवेचन गाथा १९४ की व्याख्या में किया गया है, इच्छुक पाठक उसे वहाँ देखें। Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रम समुद्घात का किसको नाम वेदना ६. १६० १. ३. ४. 19. २. ५. कषाय वैक्रिय तैजस् मारणान्तिकी सर्वछवस्थ अन्तर्मुहूर्त आयुष्यकर्म के जीवों को कारण आहारक केवली सर्वस्वस्थ अन्तर्मुहूर्त असातावेदनीय जीवों को कर्म के कारण से। सर्वस्वस्थ अन्तर्मुहूर्त चारित्र मोहनीय जीवों को कर्म के कारण नारकी, चारों प्रकार के देवों, | तिर्थज्व पञ्चेन्द्रिय जीवसमास समुदघात यन्त्र कितना किस कर्म के परिणाम समय कारण एवं छद्यस्थ मनुष्यों को एवं छद्मस्थ मनुष्यो को व्यन्तरदेव अन्तर्मुहूर्त ज्योतिष्क देव नारळी, पंचे. न्द्रियतिर्यञ्चों चतुर्दश पूर्वधर मनुष्यों को अन्तर्मुहूर्त वैक्रिय शरीर नामकर्म के कारण अन्तर्मुहूर्त तैजस शरीर नाम कर्म के कारण आहारक शरीर नामकर्म के कारण केवलज्ञानी आठ समय आयुष्यकर्म के मनुष्यों को अतिरिक्त तीन अघाती कर्मों के कारण। असातावेदनीय कर्म वर्गणाओं की निर्जरा चारित्र मोहकर्म की कर्म वर्गणाओं की निर्जरा | आयुष्यकर्म निर्जरा की वैक्रिय शरीर नामकर्म के पूर्वबद्ध कर्म पुद्गलों की निर्जरा तथा नवीन कर्म पुद्गलों का ग्रहण | तैजस् शरीर नामकर्म के पुद्गलों की निर्जरा | शरीर आहारक नामकर्म के कर्म पुद्गलों की निर्जरा | आयुष्यकर्म के - अतिरिक्त शेष तीन अघाती कर्म वर्गगाओं की निर्जरा! (व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र) Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६१ स्पर्शन-द्वार किसमें कितने समुद्घात ? पज्जत्तबागरानिल नेरइएस य हर्वति चत्तारि । पंचसुरतिरियपंचिदिएसु सेसेसु तिगमेव ।।१९३।। गाथार्थ- पर्याप्त बादर वायुकाय तथा नारको जीवों मे चार समुद्घात होते है। देवता तथा तिर्यञ्च पश्चन्द्रिय में पाँच समुद्घात तथा शेष सभी में तीन समुदयात होते हैं। विवेखन-वैक्रिय करणलब्धि सम्पत्र पर्याप्त बादर वायकाय तथा नारकी जीवों में १, वेदना, २. कषाय, ३. मरण तथा ४. बैंक्रिय - ये चार समुद्घात सम्भव हैं। देवता तथा तिर्यश पञ्चेन्द्रिय मे तेजस् लब्धि होने के कारण पाँच समुद्घात सम्भव हैं। शंष अर्थात् पृथ्वीकाय, अपकाय, तेजस्काय, वनस्पतिकाय, हीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय तथा असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च मे तीन समुद्घात सम्भव होते हैं। समुद्घात का काल दंड कवाड़े रुपए लोए चउरो य पडिनियत्तते । केलिय अवसमए भिन्नमुहृत्तं भवे सेसा ।।११४।। गाथार्थ-केवली समुदधात मे दंड, कपाट, रुचक और लोकरूप आकार ग्रहण करने में चार समय लगते हैं तथा चार समय में वे आत्प-प्रदेश पुनः स्वस्थान पर लौट आते हैं। इस प्रकार केवलो समुद्घात आठ समय का होता है। शेष समुद्घातों का अन्तर्मुहूर्त काल परिमाण जानना चाहिये। केवली-समुद्घात के प्रथम समय में दण्ड, दूसरे समय में कपाट, तीसरे समय में रुचक अर्थात् मथानी का आकार देकर तथा चौथे समय में सम्पूर्ण लोक को आत्म-प्रदेश से पूरित किया जाता है तथा पुनः समुद्घात का संहरण करने में चार समय लगते हैं। इस प्रकार इसका काल आठ समय है। शेष सभी समुद्घातों का समय अन्तर्मुहूर्त परिमाण है। गुणस्थानों में स्पर्शना मिच्छेहि सव्वलोओ सासणमिस्सेहिं अव्वपदेसेहिं । पुछा उपसभागा पारस अष्ट्र छच्चेव ।। १९५।। गाधार्थ-चौदह गुणस्थानवी जीवो में से- मिथ्यादृष्टि सर्वलोक का और सास्वादन, मिश्र, अविरत सम्यग्दृष्टि और देशविरत सम्यग्दृष्टि लोक के चौदह भाग Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ जीवसमास (रज्जु) परिमाण क्षेत्र में से क्रमशः बारह, आठ, आठ तथा छ: भाग परिमाण क्षेत्र को स्पर्शित करते हैं। विवेचन-१, मिथ्यादृष्टि-सूक्ष्म एकेन्द्रिय सर्वलोक में व्याप्त होने से ऐसा कहा गया है कि मिथ्यादृष्टि सम्पूर्ण लोक अर्थात् चौदह परिमाण क्षेत्र को स्पर्शित करते हैं। २. सास्वादन-सास्वादन गुणस्थानवों जीव बारह रज्जु परिमाण क्षेत्र को स्पर्शित करता है। वह इस प्रकार है-- जब छठी नरक का जीव मध्यलोक में जन्म लेता है तब वह (छठी नरक से मध्यलोक तक) पांच रज्जु क्षेत्र का स्पर्श करता है तथा जब मध्य लोक से मनुष्य या तिर्यञ्च लोकान्त या ईषत् प्राग्भार पृथ्वी पर पृथ्वीकाय आदि के रूप में जन्म लेता है तब वह सात रज्जु परिमाण क्षेत्र का स्पर्श करता है। __यह स्पर्श समान गुणमा व्रती जो नी .क्षा से, स जीव की अपेक्षा से नहीं है। सास्वादन गुणस्थानवी जीव अधोलोक में नहीं जाता।। ३. मिनदृष्टि - तृतीय गुणस्थानवी जीव चौदह रज्जु में से आठ रज्जु का स्पर्श करता है। इसमें एक ही जीव आठ रज्जु परिमाण क्षेत्र को स्पर्श करता है। वह इस प्रकार है- जब कोई अच्युतदेवलोकवासी मिश्रदृष्टि जीव अपने भयनपत्ति मित्र को स्नेह से अच्युत देवलोक ले जाये तब उसे छ: रज्जु की स्पर्शना होती है। इसी प्रकार जब कोई मिश्रदृष्टि सहस्रार (पाँच रज्जु) देवलोक वाला देव अपने मित्र (नारकी जीव) की वेदना शान्त करने हेतु तीसरी नरक (तीन रज्जु) में जाता है तब वह मिश्रदृष्टि आठ रज्जु क्षेत्र का स्पर्श करता हैं। इससे ऊपर के देव अल्प स्नेह वाले होने से मित्र की पीड़ा शमनार्थ नीचे नहीं आते। ४. अविरत सम्यग्दृष्टि-यह भी पूर्वोक्त अनुसार आठ रज्जु क्षेत्र की स्पर्शना करता है। किन्तु प्राप्तिकार के अनुसार अविरतसम्यग्दृष्टि बारह रज्जु परिमाण क्षेत्र की स्पर्शना करता है। वह इस प्रकार-- मध्यलोक से अनुत्तर विमान में जन्म लेने वाले या वहाँ से च्युत होकर मध्यलोक में जन्म लेने वाले जीव सात रज्ज परिमाणक्षेत्र का स्पर्श करते हैं तथा मध्यलोक से छठी नरक एवं छठी नरक से मध्यलोक में जन्म लेने वाले अविरत सम्यग्दष्टि पाँच रज्जक्षेत्र की स्पर्शना करते हैं। इस प्रकार ऊपर में अनुत्तर विमान तक तथा नीचे में छठी नरक तक जाने के कारण अविरत सम्यग्दृष्टि जीवों को बारह रज्जु परिमाण क्षेत्र का स्पर्श होता है। सातवों नरक में सम्यक्त्व सहित जाने एवं सम्यक्त्व सहित आने का प्रज्ञप्ति में निषेध किया है अत: छठी नरक तक मानना चाहिए। Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्पर्शन्-द्वार ५. देशविरति- देशविरति गुणस्थानवर्ती जोव यहाँ से मरकर अच्युत देवलोक में जन्म लेने के कारण छ: रज्जु परिमाण क्षेत्र की स्पर्शना करता है। प्रत्तसंय: माद गुणस्थानों में स्पर्शना संसेहऽ संखभागो फुसिओ लोगो सजोगिकेवलिहिं । एगाईओ भागो बीपाइस परगपुढवीसु ।। १९६।। गाथार्थ- शेष प्रमतसंयत आदि गुणस्थानवती जीव लोक के असंख्यातवें भाग का ही स्पर्श करते हैं, किन्तु सयोगी केवली सम्पूर्ण लोक का स्पर्श केवली समुद्धात की अपेक्षा से करते हैं। नरक आदि की दूसरी पृथ्वी में एक रज्जु (तीसरी में दो रज्जु- इस प्रकार क्रमश: सातवीं पृथ्वी में छ: रज्जु) की स्पर्शना जानना चाहिये। प्रमत्त, अप्रमत्त, अपूर्वकरण आदि गुणस्थानवी शेष सभी जीव लोक के असंख्यातवें भाग का ही स्पर्श करते हैं, क्याकि वे जीव विग्रहगति में संयमभाव को छोड़कर असंयमभाव को स्वीकार करते हैं। सयोगी केवली समुद्घात के चौथे समय में सम्पूर्ण लोक का स्पर्श करते हैं। नरक गति में स्पर्शना नरक आदि में “एकाधिकः" शब्द से दो, तीन, चार, पाँच और छ: रज्जु क्षेत्र ग्रहण करना चाहिए। लोक का चौदहवां अंशरूप भाग एक रज्जु के समतुल्य होता है। अब यदि कोई जीव दूसरी नरक से आता है या उसमें जाता है तो मध्यलोक से दूसरी नरक तक पहुंचने में वह एक रज्जु परिमाण क्षेत्र का स्पर्श करता है। ऐसे ही तीसरी नरक से आने वाला या उसमें जाने वाला दो रज्जु का, चौथी नरक वाला तीन रज्जु का, पाँचवी नरक वाला चार रज्जु का, छठी नरक वाला पाँच रज्जु का तथा सावती नरक वाला छ: रज्जु परिमाण क्षेत्र का स्पर्श करता है। देवगति में स्पर्शना ईसाणंता मिच्छा सासण नव मिस्स अविरया अट्ठ । अट्ठ सहस्सारंतिय छऽच्चुयाऽसंखभागुप्पि ।। १९७।। गाथार्थ-- भवनपति से लेकर ईशान देवलोक तक के देव जो मिथ्यादृष्टि तथा सास्वादन गुणस्थानवर्ती होते हैं वे नवरज्जु की स्पर्शना करते हैं। मिश्रदृष्टि Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ जीवसमास तथा अवरित सम्यग्दृष्टि आठ रज्जु की स्पर्शना करते हैं। सहस्रार तक के देव आठ रज्जु की, अच्युत तक के देव छः रज्जु की तथा अच्युत से ऊपर वाले देवलोक के असंख्यातवें भाग की स्पर्शना करते हैं। विवेचन - भवनपति आदि से लेकर ईशान देवलोक तक के देव मिध्यादृष्टि तथा सास्वादानी देव नवरज्जु'की स्पर्शना करते हैं। जब ये देव अपने मित्रादि के कारण तीसरी नरक में जाते हैं तब दो रज्जु का स्पर्श करते हैं और जब ये ईषत्प्राग्भार (सिद्ध शिला) आदि स्थान पर पृथ्वीकाय आदि में जन्म लेते हैं तो सात रज्जु का स्पर्श करते हैं। इस प्रकार ये कुल मिलाकर नौ रज्जु का स्पर्श करते हैं। सौधर्मादि देवलोक के देव भी मिथ्यात्व तथा सास्वादन गुणस्थान की उपस्थिति में तीसरी नरक पृथ्वी तक जाने के कारण साढ़े तीन रज्जु का तथा ऊपर ईषत्प्राग्भार तक पृथ्वीकाय आदि में जाने के कारण साढ़े पाँच रज्जु का स्पर्श करते हैं। इस प्रकार कुल नौ रज्जु का स्पर्श करते हैं। वनपति से ईशान तक के मित्र तथा सम्यग्दृष्टि जीव आठ रज्जु का स्पर्श करते हैं। यह आठ रज्जु नीचे में तीन नरक तथा ऊपर मे अच्युत देवलोक तक जानना। तीसरी नरक से अच्युत देवलोक आठ रज्जु परिमाण क्षेत्र हैं। सहस्रार के देव भी इन आठ रज्जु को ही स्पर्शित करते हैं। अच्युत देवलोक के देव तीर्थंकरादि को वंदना हेतु जाने से छः रज्जु का स्पर्श करते हैं। अल्पमोह के कारण वे तीसरी नरक में नहीं जाते हैं। किन्तु सीत्येन्द्र देव (सीता का जीव) अच्युत देवलोक से रावण एवं लक्ष्मण के खैर के शमनार्थं तीसरी नरक में गये थे, यह अपवाद ही हैं। तिर्थ एवं मनुष्य गति की स्पर्शना नरतिरिएहि य लोगो सत्तासावोहि छऽजयगिहीहिं । मिस्सेहऽसंखभागो विगलिंदीहिं तु सव्वजगं । । १९८ ।। गाथार्थ - मनुष्य तथा तिर्यञ्च सम्पूर्ण लोक का स्पर्श करते हैं। इनमें सास्वादनी सात रज्जु का, अविरत सम्यक्त्वी और देशविरत छः रज्जु का, मिश्र दृष्टि लोक के असंख्य भाग का तथा विकलेन्द्रिय सम्पूर्ण लोक का स्पर्शन करते हैं। विवेचन - केचली समुद्घात की अपेक्षा से मनुष्य तथा सूक्ष्म एकेन्द्रिय की अपेक्षा से तिर्यञ्च सर्वलोक को स्पर्शित करते हैं। सास्वादन, तिर्यञ्च तथा मनुष्य ईषत्प्राग्भार पृथ्वी में उत्पन्न होने से सात रज्जू का स्पर्श करते हैं। Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्पर्शन्- द्वार १६५ अविरत सम्यक्त्वो तथा देशविरत मध्यलोक से अच्युतदेवलोक में जन्म लेने से छः रज्जु का स्पर्श करते हैं। मिश्रदृष्टि तिर्यञ्च या मिश्रदृष्टि मनुष्य का मिश्र गुणस्थान में मरण नहीं होने से वे अपने ही स्थान में लोक के असख्यातवें भाग का ही स्पर्श करते हैं। विकलेन्द्रिय उत्पाद और समुद्घात अवस्था में सम्पूर्ण लोक का स्पर्श करते है। इसे प्रज्ञापनाकार ने भी स्वीकार किया है। बाबरपज्जत्तावि व सबला विषला य समुहजववाए । सव्वं फोसंति जगं अह एवं फोसणाणुगमो । । ९९९ ।। गाथार्थ - बादरपर्याप्त, सकलेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय समुदघात या उपघात अवस्था में सम्पूर्ण लोक को स्पर्शित करते है। इस प्रकार स्पर्शना-द्वार जानना चाहिए। विवेचन - पृथ्वीकाय आदि बादर पर्याप्त एकेन्द्रिय, सम्पूर्ण इन्द्रियों वाले पचेन्द्रिय द्वीन्द्रिय आदि विकलेन्द्रिय समुद्घात अवस्था में या विग्रहगति रूप उपपात अवस्था में सर्वलोक का स्पर्श करते हैं। इस प्रकार जीव से सम्बन्धित लोक स्पर्शना द्वार को जानना चाहिये। अजीव द्रव्य की लोक स्पर्शना आइयुगं लोगफुडं गयग्रामणांगाडमेव सव्वगयं । कालो नरलोग फुडो पोग्गल पुण सव्वलोगफुडा ।। २०० ।। स्पर्शनाद्वारं ४ | गाथार्थ - प्रथम दो द्रव्य लोक का स्पर्श करके रहते हैं। आकाश द्रव्य किसी को अवगाहन करके नहीं रहता पर वह सर्वलोक में हैं। व्यवहार काल मनुष्य लोक में व्याप्त हैं, किन्तु - पुद्गल सर्वलोक का स्पर्श करते हैं अर्थात् उससे व्याप्त हैं। विवेचन – पाँच अजीव द्रव्य मे से धर्मास्तिकाय तथा अधर्मास्तिकाय सम्पूर्ण लोक का स्पर्श करके रहते हैं। आकाश अनवगाढ है अर्थात् सभी द्रव्य (जीव- अजीव) आकाश के आश्चित हैं परन्तु आकाश किसी के आश्रित नहीं । 'आकाश लोकालोक मे हैं। व्यवहार काल का वर्तन अढाई द्वीप अर्थात् मनुष्य लोक में है तथा पुद्गल सर्वलोकाकाश में व्याप्त है। चौथा स्पर्शन-द्वार समाप्त Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काल के प्रकार काल द्वार भागकालं छ । काली भवाकाई योच्छामि एक्कजीवं नाणाजीवे पशुच्या य ।। २०१ ।। गाथार्थ - काल के तीन प्रकार हैं१. भवायुकाल, २. कार्यस्थितिकाल तथा ३. गुणविभागकाल। आगे इस प्रकार के काल के तीनों विभागों का एकजीवाश्रित तथा अनेकजीवाश्रित- इन दो अपेक्षाओं से विवेचन करेंगे। विवेचन - "काल" की चर्चा पूर्व में विभाग ३ के 'परिमाणद्वार' में काल परिमाण के अन्तर्गत की जा चुकी है। वहीं काल का परिमाण एक समय से लेकर अनन्त उत्पसर्पिणी और अवसर्पिणीकाल तक बताया गया है। किन्तु यहाँ कालद्वार में १. भवायुकाल, २. कायस्थितिकाल तथा ३. गुणविभागकाल- ऐसे काल के तीन विभागों की चर्चा की जायेगी। १. भवायुकाल - प्राणी के एक भव से सम्बन्धित आयु को भवायुकाल कहा गया है। २. कापस्थितिकाल - प्राणी का पुनः पुनः उसी काया में जन्म लेना कार्यस्थितिकाल कहा गया है, यथा— पृथ्वीकाय के रूप में मरकर पुनः पुनः पृथ्वीकाय में जन्म लेने के काल को कार्यस्थितिकाल कहा गया है। ३. गुणविभागकाल - यहाँ गुण का तात्पर्य गुणस्थान है। प्रत्येक गुणस्थान में जीव जितने काल तक रहता है या रह सकता हैं, वह काल गुणविभागकाल कहलाता है। नारकी की उत्कृष्ट आयु १. भवायुकाल एगं च तिथिण सत्त य दस सत्तरसेवहुति बावीसा तेत्तीस उबहिनामा पुढची ठिई कमुक्कोसा ।। १०२ ।। गाथार्थ - एक, तीन, सात, दस, सतरह, बाईस तथा तैतीस सागरोपम क्रमशः सातों पृथ्वियों की उत्कृष्ट भवायुकाल जानना चाहिए। Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काल-द्वार विवेचन- १. रत्नप्रभा की एक सागरोपम, २. शर्कराप्रभा की तीन सागरोपम, ३, बालुकाप्रभा की सात सागरोपम, ४. पंकप्रभा की दस सागरोपम, ५. धूमप्रभा की सतरह सागरोपम, ६. तमप्रभा की बाईस सागरोपम तथा ७. तमस्तपप्रभा की तैतीस सागरोपम उत्कृष्ट भवायु स्थिति जानना चाहिए। यह काल एक भव की अपेक्षा से है। मारकी तथा देवों की जघन्यायु पहमादि जमुक्कोसंबीयादिसु सा अहणिया हो । घम्माए भवणवंतर घाससहस्सा दस महण्णा ।। २०३।। गाथार्थ-प्रथम आदि नरक को जो उत्कृष्ट आस्थिति है वहीं दूसरी आदि नरकों की जघन्य आयुस्थिति होती है। घम्मा नामक प्रथम नरक और भवनपत्ति तथा व्यन्तर देवों की जघन्य आयु दस हजार वर्ष की है। विवेचन- प्रथम नमक की उल्काप आरा ही इसी तरह की जयन्य आयु है। अर्थात् प्रथम नरक की उत्कृष्ट आयु एक सागरोपम है यही दूसरी नरक की जघन्य आयु है। दूसरे नरक की उत्कृष्ट भवायु तीन सागरोपम की है, यही तीसरे नरक की जघन्य आयु है। इसी क्रम से चौथे नरक की सात, पाँचवें नरक की दस, छठे नरक की सतरह तथा सातवे नरक की बाईस सागरोपम जघन्य आयु है। प्रथम नरक के नारकों और भवनपति तथा व्यन्तर देवों की जघन्य आयु दस हजार वर्ष की है। देवों की उत्कृष्ट आयु असुरेसु सागरमहियं सई पाल्लं दुवे य देसूणा। नागाईणुक्कोसा पल्लो पुण वंतरसुराणं ।। २०४।। गावार्थ-दक्षिण दिशा के असुरकुमारों की उत्कृष्ट आयु एक सागरोपम तथा उत्तर दिशा के असुरकुमारों की एक सागरोपम से कुछ अधिक होती है। दक्षिण दिशा के नागकुमारों की डेढ़ पल्योपम तथा उत्तर दिशा के नागकुमारों की दो पल्योपम से कुछ कम उत्कृष्ट आयु है। व्यन्तरदेवों की उत्कृष्ट आयु एक पल्योपम होती है। विवेचन- भवनवासी देवी के १० प्रकार हैं- १. असुरकुमार, २. नागकुमार, ३. सुवर्णकुमार, ४. विद्युत्कुमार, ५, अग्निकुमार, ६. द्वीपकुमार, ७. उदधिकुमार, ८. दिक्कुमार, ९. वायुकुमार एवं १०. स्तनित कुमार- ये Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ जीवसमास भी दो प्रकार के हैं मेरुपर्वत की दक्षिण दिशा में रहने वाले तथा मेरुपर्वत की उत्तर दिशा में रहने वाले दक्षिण दिशा की उत्कृष्ट आयु एक सागरोपम हैं तथा दक्षिण दिशा के इन्द्र बलीन्द्र की उत्कृष्ट आयु एक सागरोपम से कुछ अधिक है। देवों के इन्द्र चमरेन्द्र असुरकुमारों के देवों के अब चमरेन्द्र और बलीन्द्र के अतिरिक्त शेष नागकुमार आदि नवनिकाय के देवों की अर्थात् उनके अधिपति इन्द्र की आयु बताते हैं । दक्षिण दिशा के नागकुमार आदि नवनिकायों के अधिपति धरण प्रमुख नौ इन्द्रों की उत्कृष्ट आयु डेढ़ पल्योपम की है तथा उत्तर दिशा के नागकुमार आदि नवनिकायों के अधिपति भूतानंद आदि नौ इन्द्रों की आयु कुछ कम दो पल्योपम हैं। चमरेन्द्र की देवी की उत्कृष्ट आयु साढ़े तीन पल्योपम तथा बलीन्द्र की देवी की उत्कृष्ट आयु साढ़े चार पल्योपम है । उत्तरदिशावर्ती नागकुमारों की देवियों की उत्कृष्ट आयु कुछ कम एक पल्योपम तथा दक्षिणदिशावत नागकुमारों की देवियों तथा व्यन्तर देवियों की उत्कृष्ट आयु आधा पल्योपम हैं। पिशाच, भूत, यक्ष आदि आठ प्रकार के व्यन्तर देव एक पल्योपम की आयु वाले होते हैं। इन सभी की जघन्य आयु दस हजार वर्ष की है (बृहद्संग्रहणी - गाथा ५ ) | ― ज्योतिष्क एवं वैमानिक देवताओं की जघन्य तथा उत्कृष्ट आयु पल्लठ्ठ भाग पल्लं च साहियं जोइसे जहण्णियरं । हेडिल्लुक्कोसटिई सक्काणं जहण्णा सा ।। २०५ ।। गाथार्थ – ज्योतिष्क देवों की जघन्य आयु पल्योपम का आठवां भाग है तथा उत्कृष्ट आयु एक पल्योपम से कुछ अधिक हैं। सौधर्म आदि देवलोकों में नीचे के कल्प के देवों की जो उत्कृष्ट आयु है वही ऊपर के देवों की जघन्य आयु होती है। विवेचन – ज्योतिष्क देवों में सभी चन्द्रों, सूर्यो एवं नक्षत्रों के देवी की जयन्य आयु पल्योपम का चतुर्थांश तथा सभी तारागणों की जघन्य आयु पल्योपम का आठवाँ भाग मानी गई है। चन्द्र की आयु १ पल्य एवं १ लाख वर्ष, सूर्य की आयु १ पल्य और १ हजार वर्ष, ग्रह की आयु १ पल्य और नक्षत्र की आयु आधा पल्य तथा तारागणों की एक पल्य का चतुर्थांश भांग उत्कृष्ट आयु होती है। चन्द्रों, सूर्यो, महों तथा नक्षत्रों की देवयों की जघन्य आयु पल्य का चौथा भाग होती हैं तथा तारागणों की देवियों की जघन्य आयु पल्य का आठवाँ भाग Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काल-द्वार १६९ होती है। चन्द्रों की देवियों की अर्धपल्य तथा पांच हजार वर्ष सूर्यो की देवियों की अर्धपल्य और पाँच सौ वर्ष, ग्रहों की देवियों की अर्धपल्य, नक्षत्र की देवियों की चतुर्थ पल्य से कुछ अधिक तथा तारागण की देवियों की पल्य के आठवें भाग से कुछ अधिक उत्कृष्ट आयु होती है। (बृहद् संग्रहणी - गाथा 19 से ११३ । सौधर्मादिक देवविमानों में नीचे के देवों की जो उत्कृष्ट आयु हैं, वही ऊपर के देवलोकों की जघन्य आयु होती हैं। इसी प्रकार सौधर्म देवलोक की दो सागरोपम की उत्कृष्ट आयु ऊपर के सनत्कुमार देवलोक की जघन्य आयु है। ईशान देवलोक की दो सागरोपम से कुछ अधिक की जो उत्कृष्ट आयु है, वही ऊपर के माहेन्द्र देवलोक की जघन्य आयु होती हैं। वैमानिक देवों की आयु दो साहि सत्त साहिब दस चउदस सत्तरेव अङ्कारा । एक्काहिबा म एतो सक्काइसु सागरुवमाणा ।। २०६ ।। गाथार्थ - देवलोकों में क्रमशः दो, दो से कुछ अधिक, सात, सात से कुछ अधिक, दस, चौदह, सतरह, अठारह फिर क्रमशः से एक-एक की वृद्धि पूर्वक सर्वार्थसिद्ध विमान तक तैतीस सागरोपम को उत्कृष्ट आयु जाननी चाहिये । सौधर्म आदि देवलोकों की जघन्य एवं उत्कृष्ट आयु सम्बन्धी सारिणी १२ बेवर्लाक देवलोक अघन्यायु उत्कृष्टायु १ सौधर्म १ पश्योपम २ ईशान १ पल्थोपम से अधिक ३ सनत्कुमार २ सागरोपम ४ माहेन्द्र ५ ब्रह्म ६. लांतक ७ महाशुक्र १ चैवेयक तथा ५ अनुसार विमान ग्रैवेयक जघन्यायु उत्कृष्टायु १ सुदर्शन २ सागरोपम २ सुप्रतिबद्ध २२ सागरोपम २३ सागरोपम २३ सागरोपम २४ सागरोपम २४ सागरोपम २४ सागरोपम २ सागरोपम ३ मनोरम से अधिक ७ सागरोपम ४ सर्वतोभद्र २ सागरोपम ७ सागरोपम ५ विशाल से अधिक से अधिक २५ सागरोपम २५ सागरोपम २६. सागरोपम २४ सागरोपम २७ सागरोपम २८ सागरोपम २७ सागरोपम १० सागरोपमा ६ सुमनस १० सागरोपम १४ सागरोपमा ७ सौमनस्य २८ सागरोपम २१ सागरोपम १४ सागरोपमा १७ सागरोपम ८ प्रीतिकर २५ सागरोपम ३० सागरोपम Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० देवलोक ८ महास्रार ९ अनित १० प्राणत ११ आरण १२ अव्युत १२ देवलोक ९ प्रैवेयक तथा ५ अनुत्तर विमान जघन्यायु उत्कृष्टायु ग्रैवेयक जघन्यायु उत्कृष्टायु १७ सागरोपम १८ सागरोपम १ आदित्य ३० सागरोपम ३१ सागरोपम १८ सागरोपम १९ सागरी विजय १५ सागरोपम २० सागरोपम २ वैजयन्त २० सागरोपम २१ सागरोपम ३ जयन्त जीवसमास ३१ ४ अपराजित ३१ २१ सागरोपम २२ सागरोपम ५ सर्वार्थसिद्ध इयु तिर्यख की उत्कृष्टायु ३१ अगरोधम गरोपम ३ सागरोपम ३३ सागरोपम ३९ ܕ ܕ 1/ — $2 " ३३ सौधर्मदेवलोक की परिगृहिता देवियों की जघन्यायु १ पल्योपम तथा उत्कृष्टायु ७ पल्योपम तथा अपरिगृहिता देवियों की जघन्यायु १ पल्योपम तथा उत्कृष्टायु ५० पल्योपम होती है। इसी प्रकार ईशान देवलोक को परिगृहिता देवियों की जघन्यायु १ पल्योपम से अधिक तथा उत्कृष्टायु ९ पल्योपम तथा अपरिगृहिता देवियों की जघन्यायु १ पल्योपम से अधिक तथा उत्कृष्टायु ५५ पल्योपम होती है। बावीस सस तिनि य घास सहस्त्राणि दस य उक्कोसा | " उपर्युक्त आयु बादरएकेन्द्रियजीवों की अपेक्षा से है। वारस अउणापनं छम्पिय वासाणि दिवसमासा य । पुढविदगानिलपसेयतरुसु तेऊ तिरायं च ।। २०७ ।। गाथार्थ - पृथ्वीकाय की बाईस हजार वर्ष, अप्काय की सात हजार वर्ष, वायुकाय की तीन हजार वर्ष वनस्पति की दस हजार वर्ष तथा तेजस्काय की तीन अहोरात्र उत्कृष्ट आयु होती है। नोट " जलथलखहसंपुच्चिमपज्जतुक्कोस पुष्कोडीओ । वरिसावां चुलसीई बिसत्तरी वेव य सहस्सा ।। १०९ ।। बेदिबाहयाणं नरतिरियाणं तिपल्लं च ।। २०८।। गाथार्थ -- द्वीन्द्रिय की बारह वर्ष, त्रीन्द्रिय की उनपचास (४९) दिन चतुरिन्द्रिय की छः मास और मनुष्य तथा तिर्यञ्च की तीन पल्योपम उत्कृष्ट आयु होती है। 115' さう 12 Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काल-द्वार १७१ गाधार्थ- जलचर, स्थलचर, खेचर तथा संमूर्छिम पर्याप्त की उत्कृष्टायु क्रमशः पूर्वकोटिवर्ष, चौरासी हजार वर्ष तथा बहत्तर हजार वर्ष है। नोट-इस गाथा में सम्मृच्छिम अर्थात् स्त्री-पुरुष के संयोग के बिना उत्पन्न होने वाले पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च की चर्चा की गई है। अब संयोग से उत्पन्न होने वाले गर्भज तिर्यञ्चों की आयु की चर्चा करेंगे। सेसि तु गम्भयाणं उक्कासं होई पुख्यकोड़ीओ। तिणि म पल्ला भणिया पल्लस्स असंखभागो उ ।।२१०।। गाथार्थ-जलचर, थलचर, खेचर, गर्भज पर्याप्त की उत्कृष्ट आयु क्रमश: पूर्वकोटि वर्ष, तीन पल्योपम तथा पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग होती है। एएसिं च जहपणं उभयं साहार सबसुहमाणं । अंतोमुत्तमाऊ सव्वापज्जनाणं च ।।२११।। गावार्थ- पूर्वगाथाओं में कहे गये सभी जीवों अर्थात् बादर-एकेन्द्रिय जीवों से लेकर पञ्चेन्द्रिय तक के जीवों को जघन्य आयु अन्तर्मुहूर्त परिमाण होती है, किन्तु सभी सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवों, साधारण वनस्पतिकाय के जीवो तथा सभी अपर्याप्त जीवों की उत्कृष्ट एवं जघन्य आयु अन्तर्मुहूर्त परिमाण ही होती है। विवेचन- इस प्रकार गाथा २०७ से लेकर २१० तक विभिन्न जीवों की उत्कृष्ट आयु बतायी गयी थी। अब इस गाथा में पूर्व गाथा में कथित सभी बादर जीवों की जघन्य आयु अन्तर्मुहूर्त बतायी गयी है। किन्तु साधारण वनस्पतिकाय, पाँचों सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवों तथा समस्त अपर्याप्त जीवों की उत्कृष्ट तथा जघन्यदोनों आयु अन्तर्मुहुर्त परिमाण बतलायी है। सर्वजीवानित आयु एक्कगजीवाउठिा एसा बहुजीषिया उ सव्वद्ध। मणुयअपज्जत्ताणं असंखभागो ३ पल्लस्स ।। २१२।। गावार्थ- अभी तक एक जीवाश्रित आयु की स्थिति बताई गयी थी अब सर्वजीवाश्रित आयु का सर्वकाल जानना चाहिये। अपर्याप्त मनुष्य तो पल्योपम के असंख्यातवें भाग जितने ही होते हैं। विवेधन-पूर्व गाथाओं में एक जीवाश्रित नारकों, देवों, मनुष्यों आदि की आयु बतायी गई थी। इस गाथा में सर्वजीव विषयक आयु बतायी गई। ऐसा कभी नहीं होता कि नरक नारकी जीवों से खाली हो जाये अर्थात् सारे नरक के जीव परकर दूसरे स्थान पर पहुँच जाये। ऐसा ही देव, मनुष्य, तिर्यञ्च आदि अन्य के विषय में भी समझना चाहिये। Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ जीवसमास पर्याप्त मनुष्य तो सर्वकाल में होते हैं, किन्तु अपर्याप्त मनुष्य तो अधिकतम पल्योपम के असंख्यातवें भाग जितने काल में ही होते हैं। कभी-कभी बारह मुहूर्त तक कोई भी अपर्याप्त मनुष्य नहीं होता है, अर्थात् अपर्याप्त मनुष्य कभी होते हैं और कभी नहीं होते हैं। शेष सभी अर्थात् नारक, तिर्यञ्च, देवता और पर्याप्त मनुष्य तो सभी कालों में होते ही हैं। इस प्रकार एकजीवाश्रित तथा सर्वजीवाश्रित भवायु की चर्चा पूर्ण हुई। (भवायुकाल सम्पूर्ण हुआ) २. कायस्थितिकाल एक्केक्कभवं सुरनारयाओ तिरिया अर्णतमवकालं । पंचिंदियतिरियनरा सतहमला भवग्गहणे ।।२१३।। गाथार्थ- देव तथा नारकों की कायस्थिति एक-एक भव की, तिर्य की अनन्त भव की तथा पश्शेन्द्रिय तिर्यञ्च और मनुष्य की सात-आठ भव की कायस्थिति जाननी चाहिये। विवेचन-पुन:-पुन: उस ही काय में जन्म लेना कास्थिति है। देव तथा नारक पुन: उस ही काय में जन्म नहीं लेते, अत: उनकी कायस्थिति एक ही भव की होती है। तिर्यच मरकर पुनः-पुनः तिर्यश्च बन सकते हैं। प्रज्ञापनासूत्र में कहा है-- हे भगवन् ! तिर्यञ्च कितनी बार स्वयोनि में जन्म लेते हैं और कितने काल तक उसमें रह सकते है। हे गौतम ! जघन्य से एक भव तथा उत्कृष्ट से अनन्त भव तथा काल से अनन्त उत्सर्षिणी-अवसर्पिणी काल अर्थात् असंख्यात पुद्गल परावर्तन काल तक तथा क्षेत्र से सम्पूर्ण लोक में हो सकते हैं। प्रश्न- पजेन्द्रिय तिर्यश्च-पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च में तथा मनुष्य-मनुष्य में कितनी बार उत्पन्न हो सकते हैं? और कितने काल तक उसी योनि में रह सकते हैं। उत्तर- भव की अपेक्षा से तिर्यश्च तथा मनुष्य दोनों ही सात-आठ बार स्वकाय में जन्म ले सकते हैं तथा काल की अपेक्षा सात पूर्वकोटि और तीन पल्योपम जितने काल तक दोनों की स्वकाय स्थिति होती है। एकेन्द्रियादि की कापस्थिति एगिदियहरिमंति व पोग्गलपरियहवा असंखेज्जा । अगरज निओया असंखालोमा पुरविमाई ॥२१॥ Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काल-द्वार १७३ गाथार्थ वनस्पतिकाय तक के एकन्द्रिय जीव असंख्यात पगलपरावर्तन काल तक उसी काय में प सकते हैं। निगः के जीन शहाई पन्नात पानि तक स्वकाय में रहते हैं,क्षेत्र की अपेक्षा पृथ्वीकाय आदि असंख्यलाक तक स्वतंत्र में रहते हैं। विवेचन- हरितान्त अर्थात् जिसके अन्त में हरितकाय, वनस्पतिकाय आती हैं, ऐसे पृथ्वीकाय, अपकाय, तेजस्काय, वायुकाय एवं वनस्पतिकाय अपनी स्वकाय में असंख्यात पुद्गल परावर्तन तक रहते है। प्रज्ञापना में गौतम ने पूछा, हे प्रभु! एकन्द्रिय जीव मरकर एकेन्द्रिय में कितने काल तक पैदा हो सकते हैं? हे गौतम ! जघन्य से एक अन्तरर्मुहूर्त तथा उत्कृष्ट से अनन्तकाल तक स्वकाय में उत्पन्न हो सकती हैं। काल की अपेक्षा से अनन्त उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी काल तक स्वकाय में रह सकती है। क्षेत्र की अपेक्षा से असंख्यात क्षेत्र परिमाण लोक में हो सकती हैं। काल की अपेक्षा से निगोद जघन्य से अन्तर्मुहर्त तथा उत्कए से अनन्त उत्सर्पिणी काल तक तथा क्षेत्र की अपेक्षा से दाई पुद्गल परावर्तन काल तक स्वक्षेत्र में जन्म-मरण कर सकते हैं। पृथ्वीकाय स्वकाय में काल की अपेक्षा सं असंख्यात उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी तक तथा क्षेत्र की अपेक्षा से असंख्यात लोकाकाश जिसने प्रदेश में रह सकते हैं। एकेन्द्रिय की कास्थिति कम्पठिङ्गबायराणं सुहमा असंखया भवे लोगा। अंगुलअसंखभागो बायरएगिदियतरूणं ।। २१५।। गाथार्थ- बादर पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय तथा वायुकाय की कायस्थिति मोहनीय-कर्म जितनी अर्थात् सत्तर कोटा-कोटि सागरोपम है। सूक्ष्म पृथ्वीकाय आदि की असंख्यात लोक परिमाण स्थिति है। बादर एकेन्द्रिय वनस्पति की कायस्थिति अंगुल के असंख्यातवें भाग परिमाण है। विवेचन- कर्मस्थिति से यहाँ उत्कृष्ट कर्मस्थिति ली गई है। उत्कृष्ट कर्मस्थिति मोहनीयकर्म की है अत: यहाँ कर्मस्थिति से तात्पर्य मोहनीयकर्म की उत्कृष्ट स्थिति से है। इस प्रकार पृथ्वी आदि चारों कार्य को उत्कृष्ट कास्थिति सत्तर कोटा-कोटी सागरोपम हैं। प्रज्ञापना में सूत्र १३०६ में गौतम स्वामी ने प्रश्न किया है-हे भगवन् ! बादर पृ काय, बादर पृथ्वीकाय में कितने समय तक रह सकती है? हे गौतम| जघन्य से अंतर्मुहूर्त तथा उत्कृष्ट से सत्तर कोटा-कोटी सागरोपम काल तक। इसी प्रकार अपकाय, तेजस्काय तथा वायुकाय की कायस्थिति भी जाननी चाहिए। Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ जीवसमास सूक्ष्म नामकर्म के उदय वाले पृथ्वीकाय आदि के द्वारा बार-बार काय में जन्म-मरण करने के कारण उनकी कास्थिति क्षेत्र अपेक्षा से असंख्यात लोक परिमाण है। __ प्रज्ञापनासूत्र (सूत्र १३०० ) में पूछा गया है- हे भगवन् ! सूक्ष्म जीव कितने काल तक सूक्ष्म रूप मे रहता है? हे गौतम ! जघन्यत: अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टत: असंख्यात उत्सर्पिणी-अवमर्पिणी तक तथा क्षेत्र से असंख्यात लोक तक सूक्ष्मजीव सृक्ष्मपर्याय में बना रहता है। ___ पाँची सक्ष्म एकेन्द्रिय जीवों तथा बादर पृथ्वी काय आदि चार कायों की कायस्थिति बताइ अब स्थूल (बादर) वनस्पति की काय-स्थिति बताते हैं। प्रज्ञापना (सूत्र १३०८) में पूछा गया है कि- हे भगवन् ! बादर वनस्पतिकाय बादर रूप में कब तक होती है? हे गौतम ! जघन्यत: अन्तर्मुहर्त तथा उत्कृष्टत: असंख्यात उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी तक तथा क्षेत्र से अंगुल के असंख्यातवें भाग परिमाण क्षेत्र जानना चाहिए। विकलेन्द्रिय तथा पञ्चेन्द्रिय की कास्थिति वापरपजसाणं वियलसपज्जतइंदियाणं च । उक्कोसा काठिा वाससाहस्सा उ संखेमा ।। २१६ ।। गाथार्थ-बादर पर्याप्त विकलेन्द्रिय तथा पर्याप्त पभेन्द्रिय जीवों की उत्कृष्ट कास्थिति संख्यातसहस्रवर्ष जानना चाहिये। विवेचन- बादर पर्याप्त विकलेन्द्रिय जीवों एवं पर्याप्त पञ्चेन्द्रिय जीवों की उत्कृष्ट कायस्थिति संख्यातसहस्रवर्ष की है। सामान्यत: बादर पर्याप्त जीवों की बादर पर्याप्त में पुन:- पुनः जन्म होने से उनकी उत्कृष्ट कायस्थिति साधिक शत सागरोपम पृथक्त्व परिपाण है। प्रज्ञापना (सूत्र १३२०) में पूछा गया है कि हे भगवन् ! बादर सकायिक पर्याप्त, बादर त्रसकायिक पर्याप्त के रूप में कितने काल तक रह सकते हैं? हे गौतम! जघन्यत; अन्तर्मुहूर्त तथा उत्कृष्टत: कुछ अधिक शतसागरोपम पृथक्त्व पर्यन्त बादर त्रसकायिक पर्याप्त के रूप में बने रह सकते हैं। विकलेन्द्रिय अर्थात् द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय तथा चतरिन्द्रिय की उपरोक्त कायस्थिति आगमों के अनुसार है। जबकि कर्मसिद्धान्त सम्बन्धी ग्रन्थोंआगमिकों में कहीं-कहीं मतभेद देखा जाता है। किन्तु यहाँ यह अन्तर मात्र शाब्दिक प्रश्न--- आगम में इनकी कायस्थिति कितनी कही गई है? Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काल द्वार १७५ उत्तर — विकलेन्द्रिय की कायस्थिति संख्यात काल जितनी बलायी गई है। प्रज्ञापना (सूत्र १२८१ - १२८४ ) में बताया गया है कि हीन्द्रिय पर्याप्त जीव द्वीन्द्रिय पर्याप्त जीव के रूप में जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त तथा उत्कृष्टतः संख्यात वर्षों तक रहता है। 7 जीन्द्रिय पर्याप्त त्रीन्द्रिय पर्याप्त के रूप में जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त तथा उत्कृष्टतः संख्यात रात-दिन तक त्रीन्द्रिय में रहता है। चतुरिन्द्रिय पर्याप्त जीव चतुरिन्द्रिय पर्याप्त जीव के रूप मे जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त तथा उत्कृष्टतः संख्यात मास तक चतुरिन्द्रिय में रहता है। पञ्चेन्द्रिय पर्याप्तजीव पञ्चेन्द्रिय पर्याप्त के रूप में जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त तथा उत्कृष्टतः शतपृथकृत्यसागरोपम तक पचेन्द्रिय पर्याप्त के रूप में रहता है। पचेन्द्रिय तिर्य तथा मनुष्य की उत्कृष्ट कार्यस्थिति तिणि य पल्ला भणिया कोडिपुहुतं च होइ पुव्वाणं । पंचिंदियतिरियनराणमेव उठि । २९७ ।। गाथार्थ – पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च और मनुष्य की उत्कृष्ट कार्यस्थिति तीन पल्योपम और पूर्वकोटि पृथक्त्व (१ करोड़ पूर्व से ९ करोड़ पूर्व ) बतायी गई हैं। विवेचन - पूर्वकोटि आयु वाले तिर्यञ्च पञ्चेन्द्रिय यदि अपनी ही काय मे पुनः पुनः जन्म ले तो उत्कृष्टतः वे सात बार उत्पन्न होते हैं, जिससे स्वपर्याय में उनकी कायस्थिति सात पूर्वकोटि काल तक होती हैं, आठवीं बार यदि वे तिर्यञ्चगति में जन्म लें तो निश्चित रूप से असंख्यातवर्ष की आयु वाले होंगे वहाँ तीन पल्योपम की ही उत्कृष्ट आयु होती है। इस प्रकार पञ्चेन्द्रिय तिर्यच आठों भव में पूर्वकोटि पृथक्त्व साधिक तीन पल्योपम की उत्कृष्ट कार्यस्थिति वाले हो सकते हैं। इसी प्रकार मनुष्य के विषय में भी जान लेना चाहिये। पर्याप्त आदि की कार्यस्थिति पज्जत्तवस्यलिंदियसहस्सममहिय मुबहिनामाणं । दुगुणं च तसतिभवे सेसावभागो मुहुसंतो ।। २१८।। गाथार्थ - सकलेन्द्रिय पर्याप्त की उत्कृष्ट कार्यस्थिति हजार सागरोपम से कुछ अधिक तथा त्रसपर्याय के शेष विभागों की कार्यस्थिति उससे दुगुनी अर्थात् दो हजार सायरोपम की होती है। सभी की जघन्य कार्यस्थिति अन्तर्मुहूर्त की ही होती है। विवेचन - पर्याप्तक का लब्धि या करण से युक्त पर्याप्तक के रूप में पुनः पुनः उत्पन्न होने की उत्कृष्ट कार्यस्थिति कुछ अधिक सागरोपम पृथकृत्य होती Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ जीवसमास है। हे भगवन्त ! पर्याप्तक, पर्याप्तक के रूप में कितने काल तक रह सकता है? हे गौतम! जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त तथा उत्कृष्टतः से साधिक सौ सागरोपम पृथक्त्य काल तक रह सकता है। प्रश्न- इस गाथा में पर्याप्त सकलेन्द्रिय की कायस्थिति का पुनः विवेचन क्यों किया गया, जबकि यह चर्चा पूर्व गाथा में की जा चुकी थी? · उत्तर--- पूर्वगाथा में तिर्यञ्च मनुष्य आदि के प्रसंग में यह चर्चा की गई थी, यहाँ सामान्य रूप से यह चर्चा की गई है। पुनः इस गाथा में उनकी काय स्थिति हजार सागरोपम से अधिक कही गई है, यह आगमों (प्रज्ञापना) के अनुसार नहीं है, क्योंकि प्रज्ञापनासूत्र में उनकी कार्यस्थिति साधिक सागरोपम शतपृथक्त्व बताई गई है। प्रस्तुत गाथा में त्रस की कार्यस्थिति दो हजार सागरोपम से कुछ अधिक बताई गई है। प्रज्ञापनासूत्र में भी कहा गया है— हे गौतम! त्रसकाय की जघन्य कार्यस्थिति अन्तर्मुहूत उत्कृष्ट दिसे कुछ अधिक है। जघन्य कायस्थिति तो सभी की अन्तर्मुहूर्त बताई गई हैं। इस प्रकार जघन्य और उत्कृष्ट के मेदपूर्वक जीवों की कार्यस्थिति का विवेचन किया गया। अब गुणस्थानों की अपेक्षा से काल की चर्चा करेंगे। (कावस्थिति का विवचेन सम्पूर्ण हुआ) ३. गुणविभाग काल गुणस्थानों की कालस्थिति जीवों की अपेक्षा से विध्यादृष्टि आदि गुणस्थानों का काल मिम अविरबसप्पा देसे विरया पमतु इमरे य नागाजीव पच्च सव्वे कालं सजोगी च ।।२१९।। गाथार्थ - मिध्यात्व, अविरतिसम्यग्दृष्टि, देशविरत, प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत तथा सयोगीकेवली गुणस्थान अलग-अलग जीवों की अपेक्षा से सर्वकाल में होते हैं। विवेचन- गुणविभाग काल में गुणस्थानों की अपेक्षा से काल की चर्चा की गई है। इसमें मिध्यात्वादि गुणस्थानों में रहे हुए जीवों की कालस्थिति के सम्बन्ध में चर्चा की गई है। अनेक जीवों की अपेक्षा से मिध्यादृष्टि गुणस्थान सर्वकाल में पाया जाता है। नारकों, मनुष्यों तथा देवों में मिध्यादृष्टि जीव असंख्य हैं तथा तिर्यों में अनन्त हैं। Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७७ अविरतसम्यग्दृष्टि, देशविरत, प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंगत तथा सयोगीकवली गुणस्थान भी सर्वकालों में पाये जाते हैं। चौथे एवं पांचवें गुणस्थानवर्ती जीव क्षेत्र की अपेक्षा से लोक के असंख्यातवें भाग की प्रदेश राशि के सम्मान से होते हैं। प्रमत्तसंयत की संख्या हजार कोटि पृथकृत्व अर्थात् दो हजार करोड़ से नव हजार करोड़ तक, अप्रमत्तसंयत संख्यात तथा सयोगकेवली कोटि पृथकत्व अर्थात् दो करोड़ से नत्र करोड़ होते हैं। काल-द्वार अनेक जीवों की अपेक्षा से सास्वादन तथा मिश्र गुणस्थान का काल पल्लासंखियभागो सासणमिस्सा य हुति उक्कोसं । अविरहिया य जहयोण एक्कसमयं मुहुसंतो ।। २२० ।। गाथार्थ - सास्वादन एवं मिश्रदृष्टि (सम्यक् मिथ्यादृष्टि) गुणस्थान का काल अधिकतम पल्योपम के असंख्यातवें भाग तक और न्यूनतम एक समय से लेकर अन्तर्मुहूर्त तक निरन्तर होते हैं। विवेचन - द्वितीय तथा तृतीय गुणस्थान जघन्यतः एक समय से लेकर अन्तर्मुहूर्त तक तथा उत्कृष्टतः पल्योपम के असंख्यातवें भाग तक पाया जाता है, फिर जरुर अन्तराल आता है। एक जीव की अपेक्षा से सास्वादन एवं मिश्र गुणास्थान का काल सासवणेगजीव एक्कगसमचाइ जाव छावलिया । सम्मामिच्छद्दिड्डी अवरुक्कोसं मुहुर्ततो ।। २२१ ॥ गाथार्थ - एक जीव की अपेक्षा से सास्वादन गुणस्थान एक समय से लेकर छः आवलिका तक और मिश्रदृष्टि गुणस्थान अन्तर्मुहूर्त काल तक रहता है। विवेचन - सास्वादन गुणस्थान किसी को एक समय, किसी को दो समय किसी को तीन किसी को चार, किसी को पाँच तथा किसी को छ: समय तक रहता है। अतः सास्वादन गुणस्थान का काल जघन्यतः एक समय तथा उत्कृष्टतः छः आवलिका परिमाण कहा गया है। मिश्र गुणस्थान का काल जघन्य एवं उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त परिमाण कहा गया है। एक जीव की अपेक्षा से मिथ्यात्व गुणस्थान का काल मिच्छत्तमणाईचं अजयसिगं सपज्जवसियं च । साङ्गयसपज्जवलियं मुहुरा परियट्टमक्षूणं ।। २२२० Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवसमास गाथार्थ - मिथ्यात्व गुणस्थान अनादि अपर्यवसित (अनन्त) अनादि स्वपर्यवसित ( सान्त) तथा सादि सपर्यवसित ऐसे तीन प्रकार का होता है। इनमे सादि सपर्यवसित अन्तर्मुहूर्त से लेकर अर्धपुद्गलपरावर्तन काल तक रहता है। १७८ विवेचन – सम्यक्त्व को आवरित करने वाले पुद्गलों के कारण से प्राप्त विपरीतरुचि को मिथ्यात्व कहा गया है। इसके तीन हो भंग बनते हैं १. अनादि अनंत- अभव्य जीत्रों में मिध्यात्व गुणस्थान का काल अनादि-: द- अनन्त है। २. अनादि सांत - भव्य जीवो की अपेक्षा से मिथ्यात्व का काल अनादिसांत है, क्योकि सम्यक्त्व होते ही मिथ्यात्व का अन्त हो जाता है। ३. सति जो कम सम्पत्वको स्याग कर पुनः मिथ्यात्व को प्राप्त करें, उनकी अपेक्षा से मिध्यात्व काल सादि और सांत है। सादि- सान्त मिध्यात्वगुणस्थान जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त तक तथा उत्कृष्टतः अर्धपुद्गलपरावर्तन काल पर्यन्त हो सकता है क्योंकि एक बार सम्यक्त्व प्राप्त कर लेने पर पुनः मिध्यात्व में जाकर भी जीव अधिकतम अर्धपुद्गल परावर्तन काल मे पुनः सम्यक्त्व को प्राप्त कर मोक्ष का अधिकारी बन जाता है। ४. सादि- अनन्त - सादि- अनन्त नामक मिथ्यात्र का चतुर्थ भंग सम्भव नहीं हैं। सम्यक्त्व को प्राप्त कर पुनः मिथ्यात्व को प्राप्त करना सादि मिध्यात्त हैं। किन्तु जिसे एक बार सम्यक्त्व की प्राप्ति हो गयी वह तो निश्चित रूप से (कभी न कभी) मोक्ष जरूर प्राप्त करता है अर्थात् उसके मिथ्यात्व का अन्त अवश्य होता हैं। । अतः वह 'अनन्त' नहीं होता है। अतः सादि- अनन्त नामक चतुर्थ भंग नहीं बनेगा। प्रज्ञापना (सूत्र ३४५) में भी मिध्यादृष्टि जीवों का त्रिविध वर्गीकरण किया गया है, जो इस प्रकार है- १. अनादि अनन्त (अपर्यवसित) — जो अनादि काल से मिध्यादृष्टि हैं तथा अनन्तकाल तक मिथ्यादृष्टि बने रहेंगे, ऐसे अमव्य जीव । २. अनादि- सान्त (सपर्यवसित) जो अनादि काल से मिथ्यादृष्टि था किन्तु वर्तमान में जिसने मिथ्यात्व का अन्त कर दिया ऐसा भव्यजीव । ३. सादि सान्त- जो सम्यक्त्व प्राप्त कर मिथ्यादृष्टि हो गया था, परन्तु पुनः सम्यग्दर्शन प्राप्त कर जिसने मिध्यात्व का अन्त कर दिया। केवली अब एक जीव की अपेक्षा अविरतसम्यग्दृष्टि देशविरत तथा सयोगी इन तीन गुणस्थानों के काल का विचार करेंगे । -- Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काल द्वार अविरत सम्पक् दृष्टि आदि गुणस्थानों का काल - तेसीस उपहिनामा साहीमा हुति अजयसम्याणं । देसजइसजोगणिय पुव्वाणं कोडिदेसूणा ।। २२३ ।। बालार्थ एक जीव की अपेक्षा रत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान का काल साधिक तैतीस सागरोपम है। देशविरत तथा सयोगीकेवली गुणस्थान का काल कुछ कम पूर्वकोटि वर्ष का हैं। विवेचन- एक जीव की अपेक्षा से अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान का काल साधिक तैतीस सागरोपम है। वह इस प्रकार है--- कोई जीव उत्कृष्ट स्थिति वाले क्षायिक सम्यक्त्व के साथ अनुत्तर विमान में उत्पन्न हो तो वहाँ पर उसकी आयु तैतीस सागरोपम होगी, पुनः वहाँ से च्यवकर मनुष्य जीवन में जब तक विरति चारित्र ग्रहण न करे, तब तक वह अविरत सम्यक्त्वी रहेगा। इस प्रकार इसका काल साधिक तैतीस सागरोपम कहा गया है। एक जीव की अपेक्षा से देशविरत तथा सयोगकेवली गुणस्थानों का उत्कृष्ट काल कुछ कम पूर्वकोटि वर्ष है। यथाआठ वर्ष का बालक देशविरति या सर्वविरति स्वीकार कर केवलज्ञान प्राप्त करें तो इसका काल आठ वर्ष कम पूर्वकोटिं वर्ष होगा। JOL क्षीणमोह एवं अयोगकेवली गुणस्थान का काल १७९ एएसिं च जहणं खथगाण अजोगि खीणमोहाणं । नाणाजी एवं परापर ठिई मुहुसंतो ।। २२४ ।। गावार्थ- पूर्व गाथा में कथित तीनों गुणस्थानों का जघन्य काल तो अन्तर मुहूर्त ही है। क्षपकश्रेणी पर आरुढ़ क्षीणमोह गुणस्थान एवं अयोगीकेवली गुणस्थान का उत्कृष्ट तथा जघन्य काल एक जीव की अपेक्षा एवं अनेक जीवों की अपेक्षा से अन्तर्मुहूर्त परिमाण जानना चाहिये । विवेचन- गाथा क्रमांक २२३ में हमने अविरतसम्यग्दृष्टि, देशविरत सम्यग्दृष्टि तथा सयोगकेवली गुणस्थानों का उत्कृष्ट काल बताया था। इस गाथा में इन तीन गुणस्थानों का जघन्यकाल काल अन्तर्मुहूर्त परिमाण बताया गया है। प्रश्न जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त किस अपेक्षा से बताया गया है? अविरतसम्यग्दृष्टि, देशविरत तथा सयोगीकेवली गुणस्थान का १. अविरत सम्यग्दृष्टि औपशमिक सम्यक्त्व पाकर पुनः मिथ्यात्व में आने पर, २. देशविरत को स्वीकार करके उसका अन्तर्मुहूर्त में त्याग कर देने पर तथा Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० जीवसमास ३. सयोगीकेवली अवस्था प्राप्त कर तुरन्त मोक्ष प्राप्त करने पर- इन तीनों स्थितियों में इन तीनों गुणस्थानों का जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त परिमाण कहा गया है। सम्पूर्ण क्षपक श्रेणी का काल भी अन्तर्मुहूर्त परिमाण है। अयोगी केवली का काल पाँच हस्वाक्षर परिमाण होने से इसका भी एक जीव की अपेक्षा से या अनेक जीवों की अपेक्षा से उत्कृष्ट एवं जघन्य काल अन्तर्मुहुर्त परिमाण है। क्षीणमोहगुणस्थान का काल भी अन्तर्मुहर्त परिमाण है, उसके बाद वह केवलज्ञान प्राप्त कर ही लेता है। एक जीव की अपेक्षा से एवं अनेक जीवों की अपेक्षा से इसका जघन्य एवं उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त परिमाण ही है, क्योकि उसके बाद निश्चय हो अन्तराल पड़ता है। अब प्रमतसंयत आदि गुणस्थानों की चर्चा करेंगेप्रमत्तसंपतादि गुणस्थान एगं पमत इयरे उमए उवसामगा य उपसंता। एग समपं जा भिन्नमुहुसं उक्कोसं ।। २२५।। गाथार्थ-प्रमत्तसंयत तथा अप्रमतसंयत का एक जीव की अपेक्षा से तथा उपशामक तथा उपशान्तमोही का एक तथा अनेक जीवों की अपेक्षा से जघन्य काल एक समय तथा उत्कृष्ट काल अन्तर्महर्त परिमाण है। विवेचन-एक जीव की अपेक्षा से प्रमत्तसंयत तथा अप्रमत्तसंयत गुणस्थानों का जघन्य काल एक समय तथा उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। उसके बाद प्रमत्तसंयमी अप्रमत्त भाव को तथा अप्रमत्तसंयमी प्रमत्त भाव को अवश्य प्राप्त करता है या फिर मरण को प्राप्त करता है। मोहनीयकर्म का उपशमन करने वाला उपशामक कहलाता है। वह उपशम श्रेणी में हो तो अपूर्वकरण, अनिवृत्तिबादरसम्पराय एवं सूक्ष्मसम्पराय नामक गुणस्थान का स्पर्श करता है। ग्यारहवें उपशान्तमोह गणस्थान में पहुंचने पर उसे उपशान्तमोही कहा जाता है.-- इसे छयस्थ वीतराग भी कहते हैं। इन गणस्थानों का एक जीव की अपेक्षा से या अनेक जीवों की अपेक्षा से जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है, क्योंकि उसके बाद या तो गिर कर अन्य गुणस्थान को प्राप्त करेगा या मरण होने पर अनुत्तर विमान में उत्पन्न होने से अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान को प्राप्त करेगा। परक तथा देवों में सम्ममय की काल मर्यादा मिच्छा भवडिया सम्म देसूणमेव उसकोस । अंतोमुतमवरा नरएस समा य देवेस ।। २२।। Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काल-द्वार १८१ गाथार्थ-नारको में मिथ्यात्व की उत्कृष्ट स्थिति भवस्थिति के समतुल्य होती है किन्तु सम्यक्त्व की स्थिति मवस्थिति से कुछ कम होती है। देवों में सम्यक्त्व तथा मिथ्यात्व दोनों ही भव स्थिति तुल्य होती हैं। देव तथा नारक- दोनो में सम्यक्त्व एवं मिथ्यात्व की अधन्य स्थिति अन्तमुहूर्त परिमाण है। विवेधन-जब कोई पिथ्यात्वी तिर्यञ्च या मनुष्य मरकर नरक में उत्पन्न होता है तथा वहाँ सम्यक्त्व को प्राप्त नहीं करता तो उसके मिथ्यात्व का उत्कृष्ट स्थिति भवस्थिति के समतुल्य होती है। जब कोई जीब सम्यक्त्व का परित्याग करके ही नरक में जन्म लेता है और यदि वह नरक में जन्म लेते ही सम्यक्त्व को प्राप्त कर ले तब भी उसके सम्यक्त्व की स्थिति उसकी भय स्थिति से कुछ कम ही होगी। विशेष-यहाँ गाथाकार ने नरक में सम्यक्त्व की स्थिति भवायू में कुछ कम बताई है। जबकि प्रथमादि नरक में क्षायिक सम्यक्त्व वाले जीव भी जाते हैं। क्षाधिक सम्यक्त्व का कभी पत्तन नहीं होता, वह आकर कभी जाता नहीं; अत: उस अपेक्षा से उसका काल भवस्थिति से कम नहीं होगा? हाँ क्षायोपशमिक सम्यक्त्व में इस प्रकार की भवस्थिति से कुछ कम काल मर्यादा सम्भव है। कुछ आचार्यों की मान्यता यह है कि सम्यक्त्व से युक्त जीव नरक में नहीं जाता है। यदि किसी ने पूर्व में नरकाय का बन्ध कर लिया हो और बाद में उसे क्षायिक सम्यक्त्व प्राप्त हुआ तो भी वह मरणकाल में सम्यक्त्व का वमन करके ही नरक में जायेगा। देवताओं का सम्यक्त्व भी नारक तुल्य समझना चाहिये। नारीदत् देवों में भी सभ्यस्त्व भवस्थिति पर्यन्त अथवा भवस्थिति से कुछ न्यून समझना चाहिये। मिथ्यात्व की स्थिति तो देवों में भी मदत्ति पर्यन्त है। नारक तथा दव मे सम्यक्त्व या मिध्यात्व का जघन्य काल लो अन्तर्मुहूर्त जितना ही है। अपर्याप्तावस्था में उपशम सम्यक्त्व की उपस्थिति का प्रश्न तस्वार्थकार अपर्याप्तावस्था में तीनों सम्यक्त्व का सदभाव स्वीकार करते हैं। कर्मग्रन्थ ४ गाथा १४ मे कहा है कि आयु पूर्ण हो जाने पर जब कोई उपशम-सम्यक्त्वी ग्यारहवं गुणस्थान से च्युत होकर अनुत्तरविमान में पैदा होता है तब उसे अपर्याप्तावस्था में उपशम सम्यक्त्व होता है। यह मन्तव्य छठे कर्मग्रन्थ की चूणी तथा पंचसंग्रह के मतानुसार भी समझना चाहिये। चूर्णी के अनुसार अपर्याप्तावस्था में नारकों में क्षायोपशमिक और क्षायिक- ऐसे दो सम्यक्त्य तथा देवों में उपशम सहित तीनों सम्यक्त्व पाये जाते हैं। पञ्चसंग्रह के प्रथमद्वार की गाथा २५ तथा उसकी टीका में उक्त चर्णि के मत की पुष्टि की गयी है। गोम्मटसार Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ जीवसमास भी इसी मत की पुष्टि करता है। जीवकाण्ड की ७२९वीं गाथा में भी यही बात कही गयी हैं। कई आचार्य उपशम सम्यक्त्व को अपर्याप्तावस्था में नहीं मानते, उनके भत से पर्याप्त जीव हो उपशम सम्यक्त्व के अधिकारी हैं। जीवविजय जी ने अपने टब्बे में इस प्रकार लिखा है कि जो जीव उपशम श्रेणी की पाकर ग्यारहवें गुणस्थान में मरते हैं. वे सर्वार्थसिद्धि विमान में क्षायिक सम्यक्त्व सहित पैदा होते हैं और लवसप्तक कहलाते हैं। कमस्वाद से आस्थिति पात (सारे चार किम होने से उन्हें देव का जन्म ग्रहण करना पड़ता है। यदि उन्हें सात लव और मिल जाते तो वे क्षायिक श्रेणी मांडकर, केवलज्ञान को प्राप्तकर मोक्षलक्ष्मी का वरण कर लेते। तिर्यञ्च तथा मनुष्य गति में सम्यक्त्व की काल मर्यादा मिच्छाणं कायठिई उक्कोस भवष्ठिई य सम्मानं । तिरियनरेगिंदियमाइएस एवं विभङ्गदव्या ।। २२७।। गाथार्थ - तिर्यञ्च तथा मनुष्य में मिथ्यात्व की उत्कृष्ट स्थिति उनकी कार्यस्थिति के समतुल्य हो सकती हैं। पञ्चेन्द्रिय तिर्यच एवं मनुष्यों में सम्यक्त्व की उत्कृष्ट स्थिति भी भवस्थिति के समरूप हो सकती हैं। एकेन्द्रिय आदि में स्वयं ही इसकी विचारणा कर लेनी चाहिये। विवेचन – तिर्यों तथा मनुष्यों में मिध्यात्व को उत्कृष्ट काल स्थिति उनकी काय स्थिति के समान जानना चाहिये। तिर्यञ्च जब तक तिर्यञ्च भाव को नहीं छोड़ते तब तक उसी काय में रहते । आगम में उनका यह काल असंख्य पुद्गल परावर्तन जितना कहा गया है। हैं। मनुष्य भी सामान्यतः आठ भवो मे पूर्वकोटिपृथक्त्व (२ से ९ करोड़ तक ) साधिक तीन पल्योपम की कायस्थिति वाले हैं। मनुष्य का मिथ्यात्व काल भी कायस्थिति के समान माना गया है। इसी प्रकार तिर्यञ्चों तथा मनुष्यो में स्वम्यक्त्व का काल भवस्थिति के समान बताया गया है तथा भवस्थिति का काल तीन पत्योपम जितना है। जब कर्मभूमि का मनुष्य असंख्यात वर्ष की आयु वाले तिर्यच की आयु बांधकर दर्शन सप्तक का क्षय करके तथा क्षायिक समकित प्राप्त करके देवकुरु, उत्तरकुरु में तीन पल्योपम आयु वाले तिर्यञ्च के रूप में उत्पन्न होता है। तब उसका क्षायिक सम्यक्त्व तीन पल्योपम स्थिति वाला होता है। जब कर्मभूमि का मनुष्य Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काल-द्वार १८३ पहले असंख्यात वर्ष आयु वाले मनुष्य का आयु बांधकर क्षायिक सम्यक्त्व प्राप्त कर देवकुरु आदि में तीन पल्योपम की आयु वाला मनुष्य बनता है तब उसके सम्यक्त्व की स्थिति भी तीन पल्योपम काल जितनी होती है। यह चर्चा क्षायिक सम्पदा की अपेक्षा से की गई है। क्षयोपशामिक सम्यक्त्व -इसका काल इतना नहीं है। इसका कारण यह है कि पूर्वभव में असंख्य वर्ष की आयु बांधने वाले मनुष्यों एवं तिर्यचों को क्षायोपशमिक सम्यक्त्व नहीं होता है। क्षायोपशमिक सम्यक्त्व वाला जीव मरकर वैमानिक देवलोक में जाता है। यह सम्यक्त्व तद्भव में तो पर्याप्तावस्था में ही होता है, अपर्याप्तावस्था में नहीं होने से इसका काल भव स्थिति से कुछ कम कहा गया है। एकेन्द्रियादि- एकेन्द्रिय में सम्यक्त्व का अभाव है। कहीं-कहीं अपर्याप्तावस्था में एकेन्द्रिय को भी सम्यक्त्वी कहा है परन्तु इस अवस्था का काल अत्यल्प होने से यहाँ उसकी विचारणा नहीं की गई है। मनुष्य में सास्वादन तथा मित्रगुणस्थान सासापणमिस्साणं गाणाजीवे पाच्छ मणुएस । अंतोमुक्तमुक्कोसकालमवरं जहुषिष्ठं ।। २२८।। गामार्थ- अनेक जीवों की अपेक्षा से मनुष्यों में सास्वादन तथा मिश्र गुणस्थान का उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहर्त होता है। जघन्य काल तो जैसा पूर्व में कहा गया है वैसा ही जानना चाहिये। विवेचन- अनेक जीवों की अपेक्षा से सास्वादन तथा मिश्र (सम्यक् मिथ्या-दृष्टि) गुणस्थान का उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा गया है, वह किस प्रकार? सास्वादनी और मिश्रदृष्टि सतत् होते रहते हैं। फिर भी दोनों का उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा गया है क्योंकि उसके बाद अवश्य अन्तराल पड़ता है। प्रश्न- यह तो अनेक जीवों की अपेक्षा से उत्कृष्ट स्थिति बताई गई है परन्तु एक जीव की अपेक्षा से उनका जघन्य और उत्कृष्ट काल कितना है? उत्तर--- इस गाथा में अनेक जीवों की अपेक्षा से उनका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा गया है जघन्य स्थिति तो गाथा २२० के अनुसार एक समय से लेकर अन्तर्मुहूर्त सक जानना चाहिए। एक जीव की अपेक्षा से इन दोनों गुणस्थान की काल-मर्यादा गाथा २२१ के अनुसार ही समझना चाहिये। Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ जीवसमास काययोग काओगणतकालं वाससहस्सा उराल बावीसं। समयतिर्ग कम्माओ सेसा जोगा मुहुनतो ।।२२।। गामार्म-काययोग अनन्तकाल तक होता है। मात्र औदारक काययोग बाईस हजार वर्ष तक, मात्र कार्मण काययोग तीन समय तक तथा शेष योग अन्तर्मुहूर्त तक होते हैं। विवेचन-जो एकत्रित करे वह काय तथा जिससे जीव कर्मों के साथ जुड़े वह योग हैं। काय अर्थात् शरीर का कर्मों से योग होना काययोग कहलाता है। १. काययोग-- इसमें जोव अनन्तकाल तक रहता है। किन्तु मनोयोग और वचनयोग से रहित मात्र काबयोग में रहने वाले एकेन्द्रिय जीव होते हैं। ये एकेन्द्रिय असंख्य पुद्गलपरावर्तन अर्थात् अनन्तकाल तक काययोग में ही रहते हैं। यहाँ अन्य दोनों योगो का अभाव है। इस प्रकार एकेन्द्रिय जीव को मात्र काययोग अनन्तकाल तक होता है। २. औदारिक काययोग-मात्र औदारिक काययोग अधिकतम बाईस हजार वर्ष तक पृथ्वीकायिक जीवों को होता है। प्रश्न- असंख्य वर्ष आयु वाले मनुष्य तथा तिर्यञ्च को तीन पल्योएम की उत्कृष्ट आयु तक औदारिक काययोग रहता है, फिर बाईस हजार वर्ष ही क्यों कहा गया? उत्तर- यह सत्य है. परन्तु यहाँ बात मात्र औदारिक काययोग की है मन-वचन युक्त काययोग की नहीं। अत: एक भव में मात्र औदारिक काययोग को प्राप्त करने वाले की उत्कृष्ट स्थिति बाईस हजार वर्ष बतायी गई है। ३.कार्मण काममोग-विग्रहगति की अपेक्षा से मात्र कार्मण काययोग तीन समय का होता है। विग्रहकाल में जीव को मात्र कार्मण काययोग तथा उससे अनादि सम्बन्ध वाला तेजसू काययोग रहता है। यहाँ कार्मण के साथ तेजस् का अध्याहार कर लिया गया है क्योकि ये दोनों शरीर सदा साथ-साथ रहते हैं। तत्त्वार्थकार ने कहा है- अनादि सम्बन्ध, अप्रतिमाते, सर्वस्य (तत्वार्थसूत्र २/४१-४३) दोनों शरीर का अनादि सम्बन्ध है, दोनों अप्रतिपाती है तथा समस्त संसारी जीवों के होते हैं। चार समय की विग्रह गति में भी तीन समय का ही कार्मण काययोग होता है। शेष सभी अर्थात् बैंक्रियकाययोग, आहारककाययोग, मनोयोग तथा वचनयोग का उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त जितना है वह कैसे? Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कान-द्रार वैक्रिय काययोग- मन और वचनयोग से रहित मात्र वैक्रिय काययोग लब्धिधारी वायुकाय को होता है देव आदि को नहीं होता, क्योकि उनको मन-वचन योग होता है। वायुकाय को भी उत्कृष्ट से बैंक्रिय काययोग अन्तर्मुहूर्त तक ही होता है। आहारक कापयोग- यह काययोग तां चौदह पूर्वधारी को ही होता है और वह भी अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त ही रहता है। मनोयोग एवं वनयोग-इन दोनों का काल भी अन्तर्मुहूर्त जितना है। इस प्रकार यहाँ योग का उत्कृष्ट काल बताया गया है। काययोग का तथा उसमें भी औदारिक तथा आहारक काययोग का जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है। वैनिय काययोग, कार्मण काययोग, मनोयोग तथा वचनयोग- इन सभी का जघन्य काल एक समय का है। सीवेद तथा पुरुषवेद का उत्कृष्ट काल देवी पणपण्णाऊ हत्यितं पल्लसयपुततं तु। पुरिस सपिणतं च सपा व उपहीणं ।। २३०।। गाथार्च-एक भव की अपेक्षा खीत्व का (काल अधिकतम)पचपन पल्योपम होता है यह काल देवियों की अपेक्षा से है किन्तु अनेक भवों की अपेक्षा से)खीत्व का(अधिकतम)काल शत पृथक्त्व सौ पल्योपम का होता है। पुरुषत्व और संज्ञीत्व का (अधिकतम) काल शतपृथक्त्व सागरोपम का होता है। विवेचन-एक भव की अपेक्षा से दूसरे देवलोक की अपरिगृहीता देवी का, स्त्रीत्व का उत्कृष्ट काल पचपन पल्योपम का होता है। अनेक भवों की अपेक्षा से निरन्तर स्त्रीवेद प्राप्त करने पर इस की उत्कृष्ट स्थिति पूर्वकोटि पृथक्त्व सौ पल्योपम है। अनेक भव की अपेक्षा से पुरुषवेद की उत्कृष्ट स्थिति शतपृथक्त्य सागरोपम से कुछ अधिक है तथा जघन्य से तो इन सभी का काल अन्तर्मुहूर्त ही है। संजीव की उत्कृष्ट स्थिति भी पुरुषवेद के समान ही समझना चाहिए। लेश्यादि का काल अंतमहत्तं तु परा जोगुवओगा कसाय लेसा य। सुरनारएस प पुणो भवद्विई होड़ लेसाणं ।। २३१।। Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ जीक्समास गाथार्थ- योग, उपयोग, कषाय और लेश्या का उत्कृष्ट स्थितिकाल अन्तर्मुहूर्त जितना है। पुनः देवों तथा नारकों में भवाश्रित लेश्या का काल भव स्थिति तुल्य होता है। विवेचन- योग अर्थात् मन, वचन तथा काय। जब व्यक्ति शान्त स्थिति में बैठा रहता है उस समय भी उसका मन सक्रिय रहता है। मन के सक्रिय रहने से जीव मनोयोग प्रधान होता है, कि त बोल जाता है। गहचानयोग प्रमान स्थिति है तथा खड़े होकर चलना, दौड़ना यह काययोग प्रधान स्थिति है। तीनों योगों में से एक समय में एक योग प्रबल एवं प्रधान रहता है शेष योग गौण रहते हैं। इन योगों का काल अन्तर्मुहूर्त में बदल जाता है। यह बात स्थूल रूप से गम्य नहीं है, किन्तु पर्याय परिवर्तन के साथ-साथ इनमें भी परिवर्तन होता रहता है। कराय- क्रोध, मान, माया तथा लोभ की उत्कृष्ट स्थिति भी अन्तर्मुहूर्त जितनी है। यद्यपि क्रोध आदि सत्ता में तो विद्यमान हैं, परन्तु उनमें उपयोग की अपेक्षा से इनका काल अन्तर्मुहूर्त है। हे भगवन्! क्रोध कषाय का काल कितना होता है? हे गौतम! जघन्य तथा उत्कृष्ट दोनों अपेक्षाओं से अन्तर्मुहूर्त जितना ही होता है। इसी प्रकार मान, माया तथा लोभ का काल भी न्यूनतम एक समय तथा अधिकतम अन्तर्मुहूर्त ही है। लेश्या-लेश्या में भी भाव-लेश्या का काल जघन्य तथा उत्कृष्ट दोनों अपेक्षा से अन्तर्मुहूर्त होता है। परन्तु द्रव्य लेश्या तो भवस्थिति तुल्य जानना चाहिये। देव तथा नारक में लेश्या की स्थिति भव स्थिति तुल्य बताई गयी है वह द्रव्य-लेश्या की अपेक्षा से जानना चाहिये। भाव-लेश्या तो सभी जीवों की प्रतिसमय परिवर्तित होती रहती है। मति आदि पाँच ज्ञानों की काल-मर्यादा छावहिउयहिनामा साहिया महसुओहिनाणाणं । अणा म पुष्चकोडी मणसम इयछेयपरिहारे ।। २३२।। गाथार्थ- मतिज्ञान, श्रुतज्ञान तथा अवधिज्ञान का काल माधिक छियासठ (६६) सागरोपम है। मन; पर्ययज्ञान, सामायिक चारित्र, छेदोपस्थापनीय चारित्र तथा परिहारविशुद्धि चारित्र का काल देशोन (कुछ कम) पूर्वकोटि वर्ष है। विवेचन-तीन ज्ञान-कोई जीव सम्यग्दर्शन सहित दो बार विजय देवलोक में या तीन बार अच्युत देवलोक में तथा कुछ समय मनुष्य भव में रहने से छियासठ Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काल- द्वार १८७ सागरोपम तक तीन ज्ञान युक्त हो सकता है। अनेक जीवों की अपेक्षा से तो नीन ज्ञान सर्वदा सम्भव है। - मन:पर्ययज्ञान – यदि कोई जीव चारित्र लेते ही मन:पर्ययज्ञान प्राप्त कर ले और उसकी शेष आयु पूर्वकोटि वर्ष हो तो उसमें से गर्भकाल तथा आठ वर्ष निकाल देने पर मन:पर्ययज्ञान का उत्कृष्ट काल कुछ कम कोटि वर्ष पूर्व का होता है। जघन्य से मन:पर्ययज्ञान एक समय का हैं। भवान्तर में अर्थात् देवादिगतियों में मन:पर्ययज्ञान का अभाव हैं। केवल ज्ञान का काल सादि अनन्त माना गया है, क्योंकि यह ज्ञान प्राप्त होने पर जाता नहीं हैं। सामायिक तथा छेदोपस्थापनीय चारित्र- इन दोनों चारित्र का काल भी मन:पर्ययज्ञानवत् समझना चाहिए। कारण, कोई भी जीव जब चारित्र ग्रहण करता हैं तब उसकी उम्र आठ वर्ष को होनी अपेक्षित हैं। अतः पूर्वकोटि वर्ष मे से आठ वर्ष कम इन दोनों चारित्रों का काल समझना चाहिए। परिहारविशुद्धि चारित्र - इस चारित्र को स्वीकार करने वाला आठ वर्ष की वय में दीक्षा लेने और उसके पश्चात् बीस वर्ष की दीक्षा पर्याय होने के बाद ही दृष्टिवाद पढ़ने का अधिकारी बनता है, क्योंकि बीस वर्ष की दीक्षा पर्याय से पूर्व दृष्टिवाद पढ़ने का निषेध हैं। उसके बाद अठारह मास तक अविच्छिन्न रूप से उसका अध्ययन करता है। इस प्रकार वह उन्तीस (२९) वर्ष और ६ माह कम पूर्वकोटि वर्ष तक परिहारविशुद्धि चारित्र का पालन कर सकता है। - सूक्ष्मसम्पराय चारित्र – इसका काल जघन्य से एक समय तथा उत्कृष्ट से अन्तर्मुहूर्त काल है। अथाख्यात चारित्र – यह चारित्र जघन्य से एक समय तथा उत्कृष्ट से देशोन पूर्व कोटि वर्ष की स्थिति वाला जानना चाहिये। (केवलज्ञान की स्थिति सादि - अनन्त काल है ) । विभङ्गज्ञानादि का काल विजयंगस्स भवङ्गि वक्खुस्सुदहीण वे सहस्साइं । नाई अपज्जवसिओ सपज्जवसिओ सिय अवक्खू ।। २३३ ।। गाथार्थ - विभङ्गज्ञान का काल भवायु तुल्य होता है। चक्षुदर्शन का काल दो हजार सागरोपम है। अचक्षुदर्शन तीन प्रकार का है— अनादि अपर्यवसित (अनन्त), अनादि सपर्यवसित (सांत) तथा सादि - सान्त | विवेचन - पूर्व गाथा में पाँच ज्ञानों का काल बताया गया था। अब तीन अज्ञान का काल बताते हैं। मति अज्ञान, श्रुत- अज्ञान तथा विभङ्गज्ञान- ये अज्ञान Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ जीवसमास के तीन प्रकार हैं। इनमें मति-अज्ञान एवं श्रुत-अज्ञान अभव्य जीव को अनादि-अनन्त काल तक रहता है किन्तु मिथ्यादृष्टि भव्य को अनादि-सान्त काल पर्यन्त रहता है सम्यक्त्व से पतित को जघन्यत: अन्तर्मुहूर्त तथा उत्कृष्टत: अपार्ध पुद्गलपरावर्तन काल तक रहता है। विभङ्गज्ञान की स्थिति तो सूत्रकार ने गाथा में भी स्पष्ट की है। किसी मनुष्य मा तिर्यञ्च को विभाज्ञान हुआ हो तो वह देशोन पर्वकोटि वर्ष तक रहता है। फिर मरकर यदि वह सातवीं नरक पृथ्वी में जाये तो तैतीस सागरोपम तक विमङ्गज्ञान रहता है। इस प्रकार दो भवों के सातत्य से विभङ्गज्ञान की स्थिति देशोन पूर्वकोटि वर्ष से अधिक तैतीस सागरोपम की होती है। जघन्य से तो इसका काल समय जानना चाहिये। प्रज्ञापना (सूत्र १३५३) में यह पूछा गया है कि हे भगवन्! विभङ्गशान कितने काल तक रहता है? हे गौतम ! न्यूनतम एक समय तथा अधिकतम देशोन पूर्वकोटि अधिक तैंतीस सागरोपम पर्यन्त विभङ्गशान रहता है। वक्षवर्शन-गाथा में चक्षुदर्शन का काल दो हजार सागरोपम कहा है परन्तु इतना काल उचित नहीं लगता। प्रज्ञापना (सूत्र १३५४) मे यह प्रश्न किया गया है कि हे भगवन् ! चक्षुदर्शन कितने काल तक रहता है? हे गौतम ! चक्षु-दर्शन न्यूनतम अन्नहर्त तथा अधिकता बल अधिक ा मागोगम तक रहता है। आगम में चतुरिन्द्रिय की कायस्थिति संख्यात वर्ष तथा पश्चेन्द्रिय की साधिक एक हजार सागरोपम मानी गई है। चतुरिन्द्रिय तथा पश्चेन्द्रिय को छोड़कर अन्य किसी को चक्षुदर्शन होता भी नहीं। अतः आगम कथित काल ही उपयुक्त लगता है। इस ग्रन्थ में चक्षुदर्शन का काल दो हजार सागरोपम कहा गया है, वह उचित नहीं लगता। शेष तथ्य केवली गम्य है। अचक्षुदर्शन - अचक्षुदर्शन का काल इस ग्रन्थ में तीन प्रकार का बताया गया है - १. अनादि-अनन्त, २. अनादि-सान्त और ३. सादि-सान्त जबकि प्रज्ञापना (सूत्र १३५५) में दो प्रकार का ही बताया गया है। हे गौतम ! अचक्षुदर्शन दो प्रकार का कहा गया है-- अनादि-अनन्त तथा अनादि-सान्त। जबकि जीवसमास के कर्ता ने अचक्षुदर्शन को सादि-सान्त भी बताया है। अनादि-अनन्त- अभव्य जीवों में स्पशेन्द्रिय तो सर्वकाल में होती है। अत: उनसे स्पर्शेन्द्रिय की अपेक्षा अचक्षुदर्शन लब्धि के रूप में अनादि-अनन्त काल पर्यन्त रहता है। अनादि-सान्त-- भव्यजीवों की अपेक्षा से अचक्षुदर्शन अनादि-सान्त है। भव्य जीवों में स्पशेन्द्रिय के अपेक्षा से अचक्षुदर्शन लब्धि अनादि काल से है, परन्तु केवल ज्ञान प्राप्त होने के बाद अचक्षुदर्शन का अन्त होने से उनका अचक्षुदर्शन अनादि-सान्त है। Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काल- द्वार १८९ इस प्रकार अभव्य जीव जो कभी सिद्धि प्राप्त नहीं करेगा उसकी अपेक्षा से अचक्षुदर्शन अनादि- अनन्त है तथा भव्य जीव जो सिद्धि प्राप्त करेंगे उनकी अपेक्षा से अचक्षुदर्शन अनादि- सान्त है। जहाँ तक अचक्षुदर्शन के सादि और सान्त होने का प्रश्न हैं, यह लब्धि की अपेक्षा से न होकर उपयोग की अपेक्षा से हैं क्योंकि चक्षुदर्शन में उपयोग होने पर उसी समय अचक्षुदर्शन में उपयोग नहीं रहता है। अतः उस काल में अचक्षुदर्शन का अन्त हो जाता है। इसी अपेक्षा अचक्षुदर्शन को सादि से सान्त कहा गया होगा। भव्यादि की स्थिति भन्यो अगाड़ संतो अशाइऽणंतो भवे अथव्वो । सिद्धो य साइयांसो असंखभागंगुलाहारी ।। २३४ ।। गाथार्थ - भव्य जीवों का संसार परिभ्रमण काल अनादि सान्त है। किन्तु अभव्य जीवों का संसार परिभ्रमण काल अनादि अनन्त है। सिद्ध अवस्था का काल सादि - अनन्त है । आहारक जीव अंगुली के असंख्यातवें भाग परिमाण 4 विवेचन- भव्य जीव के मोक्षगामी होने के कारण उनका संसार अनादि- सान्त है। जबकि अभव्य जीव द्वारा कभी भी मोक्ष प्राप्त न कर सकने के कारण उनका अनादि-अनन्त संसार परिभ्रमण है। सिद्ध भवभ्रमण से मुक्त होने के कारण उनकी मोक्षदशा सादि-अनन्त होती है क्योंकि मुक्ति काल विशेष में प्राप्त होने से सादि और मुक्ति से संसारदशा में लौटना सम्भव नहीं होने से अनन्त होती हैं। आहारक - प्रज्ञापना (सूत्र १३६४ ) में पूछा गया हैं कि भगवन् ! आहारक जीव लगातार कितने काल तक आहारक रूप में रहता है? गौतम आहारक जीव दो प्रकार के कहे गये हैं- ( १ ) छद्यस्थ आहारक तथा ( २ ) केवली आहारक । १. छद्मस्थ आहारक - जघन्य दो समय कम क्षुद्रभव ग्रहण जितने काल तक और उत्कृष्ट असंख्यात काल तक आहारक रूप में रहता है अर्थात् उत्सर्पिणी- अवसर्पिणी तक तथा क्षेत्रत: अंगुल के असंख्यातवें भाग परिमाण समझना चाहिये। २. केवली आहारक - जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक तथा उत्कृष्ट देशोन कोटिपूर्व तक आहारक रूप में रहता है। छद्मस्थ आहारक का न्यूनतम काल क्षुद्र भव के काल से दो समय होता हैं, क्योंकि प्रथम समय से जन्म होता है और दूसरे समय में मरण । अतः इन Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९० जीवसमास दोनों समय को छोड़कर शेष दशा में आहारक ही रहता है इसलिए आहारक दशा का जघन्यकाल दो समय कम क्षुद्र भव जितना होता है। गुणों का जघन्य काल (अन्तर्मुहूर्त) काओगी नर नाणी मिच्छ मिस्सा स बल सण्णी य । आहारकसायीवि य जहण्णमंतोमुहुत्तंतो ।। २३५।। गाथार्थ-काययोग, पुरुषत्व, ज्ञानीत्व, मिथ्यात्व, मिश्रगुणस्थान, चक्षुदर्शन, संज्ञीत्व आहारक तथा कषाय इन सबका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त परिमाण है। १. शाययोंगी.. जापा.-- (सूत्र १३३४) में प्रश्न किया गया हैभगवन्। काययोग का काल कितना है? हे गौतम ! जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त तथा उत्कृष्टत: वनस्पतिकाय के काल पर्यन्त जानना चाहिये। २. पुरुषवेद-प्रज्ञापना (सूत्र १३२८) में पूछा गया है- भगवन् ! पुरुषवेद का काल कितना है? गौतम ! जघन्यत: अन्तर्मुहूर्त तथा उत्कृष्टत: कुछ अधिक सागरोपम पृथक्त्व जानना चाहिये। ३. ज्ञानी- प्रज्ञापना (सूत्र १३४६) में यह पूछा गया है— भगवन्! जीव कितने काल तक ज्ञानी पर्याय में रहता है? हे गौतम ! ज्ञानी दो प्रकार के कहे गये हैं--- इनमें से सादि-सान्त (सपर्यवसित) जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त तक तथा उत्कृष्टतः कुछ अधिक छियासठ सागरोपम काल जानना चाहिये।। ४. मिथ्याव-मिथ्यात्व का काल अभव्यत्व की अपेक्षा अनादि-अनन्त तथा भव्यत्व की अपेक्षा सादि-सान्त होता है। उसे जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त तथा उत्कृष्टतः अनन्त जानना चाहिये। ५. मिश्र- मिश्रगुणस्थान का काल (जीवसमास गाथा २१ के अनुसार) जघन्यत: एवं उत्कृष्टत: दोनो ही अन्तर्मुहूर्त जानना चाहिये। ६. पक्षदर्शन- प्रज्ञापना (सूत्र १३५४) में यह प्रश्न किया गया है- हे भगवन् ! चक्षुदर्शन का काल कितना है ? हे गौतम! जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त तथा उत्कृष्टत: कुछ अधिक हजार सागरोपम का है। जब कोई त्रीन्द्रिय जीव चतुरिन्द्रिय में उत्पन्न होकर अन्तर्मुहूर्त काल में Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काल-द्वार मरण प्राप्त करता है तब उसका जघन्य काल अन्तर्मुहर्त होता है तथा उत्कृष्ट काल कुछ अधिक हजार सागरोपम पश्चन्द्रिय तिर्वज्ञ एवं नारक की अपेक्षा से कहा है। ७. संझी-प्रज्ञापना (सूत्र १३८९) में पूछा गया है भगवन् ! संज्ञी पर्याय का काल कितना है? हे गौतमः जघन्यत; अन्तर्मुहूर्त तथा उत्कृष्टतः कुछ अधिक सागरोपम पृथक्त्व काल है। ८. आहारक-प्रज्ञापना (सूत्र १३६४) भगवान ने इस प्रश्न का कि आहारक जीव का काल कितना है? उत्तर देते हुए कहा है - हे गाँत्तम ! जघन्यतः दो समय कम क्षुद्र भव ग्रहण जितना काल तथा उत्कृष्टत: असंख्यात काल तक जानना चाहिये। १. कषाय – जीवसमास (गाथा २३१) के अनुसार कषाय का काल जघन्यत: तथा उत्कृष्टत; अन्तर्मुहुर्त बतलाया गया है। प्रज्ञापना (सूत्र १३५२) में क्रोध, मान, माया को उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्त कही गई हैं परन्तु लोभ की स्थिति जघन्यत: एक समय तथा उत्कृष्टत: अन्तर्मुहूर्त कही है। गाथा में तो मात्र जघन्य काल की चर्चा है, किन्तु विवेचन में जघन्य एवं उत्कृष्ट दोनों की ही चर्चा कर दी गई है। गुणों का जघन्य काल (एक समय) मणवठरलविउव्विय आहारमकम्म जोग अणरित्थी। संजमविभागविन्भंग सासणे एगसमयं तु ।। २३६।। गाथार्थ- मनोयोग, वचनयोग, औदारिक काययोग, वैक्रिय काययोग, आहारक काययोग, कार्मण काययोग, नपुसकवेद, स्वीवेद, संयम के पाँचों प्रकार, विभङ्गज्ञान तथा सास्वादन गुणस्थान इन सभी का जघन्य काल एक समय परिमाण है। विवेचन- गाथा में आए हुए “जोग' शब्द की उसके पूर्व में आये हुए शब्दों के साथ योजना करनी चाहिये। १. मनोयोग-कोई गर्भज पञ्चेन्द्रिय मनः पर्याप्ति पूर्ण करते ही मरण को प्राप्त करे तो उसे एक समयवर्ती मनोयोग होगा। २. वचनयोग- कोई जीव भाषा पर्याप्ति पूर्ण करके एक समय बाद मरण को प्राप्त करे तो उसे एक समयवर्ती वचनयोग होगा। Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवसमास प्रज्ञापना के सूत्र क्रमांक १३२२.२३ मं भी मनायोग तथा वचनयोग का जघन्य काल एक समय तथा उत्कृष्टकाल अन्नर्मुहूर्त बताया गया है। ३. औदारिक कायद्योग- आटापिक शरीर वाला वैक्रिय शरीर की रचना के पश्चात् जब आदारिक शरीर प्राप्त करके एक समय बाद ही मरण को प्राप्त हो जाय या पुनः वैक्रिय शरीर बनाये तो उसका औदारिक काययोग का जघन्य काल एक समय होगा। इसी प्रकार वायुकाय के जीव वैक्रिय शरीर का त्याग कर औदारिक शरीर प्राप्त करके पुनः एक समय के बाद ही वैनिय शरीर को अथवा मरण को प्राप्त हो तो उनके भी औदारिक काययोग का जघन्यकाल एक समय होता है। ४. वैक्रिय काययोग-काई जीव औदारिक शरीर से एक समय के लिए वैक्रिय शरीर प्राप्त कर पुनः औदारिक शरीर में आ जाये तो उनके वैक्रिय काययोग का काल मात्र एक समय का होता है। ५. आहारक काययोग-चौदह पूर्वधर मुनि आहारक शरीर बनाकर कार्य सिद्धि के काल में मनोयोग एवं वचनयोग पूर्ण करने बाद एक समय तक आहारक काययोग का अनुभवन करके पुनः औदारिक शरीर स्वीकार करते हैं तो उनके आहारक काययोग का जघन्य काल एक समय होता है। सामान्यतया आहारक काययोग का जघन्य एवं उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त बतलाया गया है। ६. कार्मण काययोग-विग्रहगति कर रहे जीव का एक या दो समय का अनाहारक काल ही कार्मण काययांग का जघन्य काल होता है। ७. नपुंसक वेद गाथा में 'अणर' शब्द आया है इसका अर्थ है जो नर नहीं है अर्थात् नपुंसक है। प्रज्ञापना (सूत्र १३२९) में प्रश्न किया गया है कि है भगवन् ! नपुंसक वेद का काल कितना होता है? हे गौतम ! जघन्य से एक समय तथा उत्कृष्ट से वनस्पतिकाय की कायस्थिति पर्यन्त जीव नपुंसक वेद में रह सकता है। कोई जीव नपुंसक आदि तीनो वेदी का उपशम करने के पश्चात् पुनः एक समय तक नपुंसक वेद को प्राप्त कर मरण प्राप्त करे तो उसके नपुंसक वेद का जघन्य काल एक समय होता है। ८. स्त्रीवेद-प्रज्ञापनासत्र (सूत्र १३२७) में यह पूछा गया है कि हे भगवन्! स्त्रीवेद का काल कितना है? गौतम ! स्त्रीवेद का काल जघन्य से एक समय तथा उत्कृष्ट से पूर्वकोटि अधिक पल्योपम तक होता है। .. १. संपम- संयम अर्थात् चारित्र के पाँच प्रकार हैं १. सामायिक, २. छेदोपस्थापनीय, ३. परिहारविशुद्धि, ४, सूक्ष्मसम्पराय तथा ५. यथाख्यात! प्रज्ञापना (सूत्र १३५८) में पूछा गया है कि हे भगवन् ! संयम का काल कितना हैं? हे गौतम ! जघन्य से एक समय तथा उत्कृष्ट से देशोन कोटि पूर्व वर्ष तक का है। Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काल-द्वार १९३ १०. विभंगज्ञान-प्रज्ञापना (सूत्र १३५३) में प्रश्न किया गया है कि हे भगवन् ! विभंगज्ञान का काल कितना है? है गौतम जघन्यकाल एक समय तथा उत्कृष्ट काल देशोन पूर्वकोटि अधिक तैतीस सागरोपम तक होता है। ११. सासावन-सास्वादन गुणस्थान का जघन्यकाल एक समय तक उत्कृष्ट काल छ: आवलिका का कहा गया हैं। (जीवसमास, गाथा २२१)। जघन्यकाल आगाज्मा व सथा वीसपद्धत्तं च होड़ वासाणं। छेपपरिहारगाणं जाहण्णकालाणुसारो उ ।। २३७।। गाथार्थ-छेदोपस्थापनीय चारित्र का जघन्य काल ढाई सौ (२५०) वर्ष तथा परिहारविशुद्धि का जघन्य काल बीस पृथक्त्व वर्ष अर्थात् एक सौ अस्सी वर्ष जानना चाहिये। विवेचन- दोनों चारित्र को जघन्य स्थिति बतायी जाती है १. छेदोपस्थानीय बारिश-नोशथा नील सा यह जय काल अनेक जीवों की अपेक्षा से है। उत्सर्पिणी के तीसरे आरे में प्रथम तीर्थकर के द्वारा संघ स्थापना के पश्चात् छेदोपस्थापनीय चारित्र का प्रारम्भ होता है। फिर दूसरे से तेईस तीर्थकर के काल में इस चारित्र का अभाव रहता है। २. परिहारविराजि चारित्र- इसका जघन्य काल बीस पृथक्त्व अर्थात् (Ex२०=१८०) वर्ष है। यथा सौ वर्ष की आयु वाले नौ साधु- उनतीस (गर्भकाल सहित ९ वर्ष में दीक्षा लें तथा २० वर्ष का चारित्र पर्याय हो) वर्ष की उम्र में अवसर्पिणी के अंतिम तीर्थकर (यथा महावीर प्रभु) के पास परिहारविशद्धि चारित्र को स्वीकार कर के इकहत्तर (७१) वर्ष तक इस चारित्र का पालन करे। पुन: एक नौ साधुओं का समुदाय इन चारित्रधारियों से परिहारविशुद्धि चारित्र को स्वीकार कर एकहत्तर (७१) वर्ष इस चारित्र को पालन करे तो इसका जघन्य काल एक सौ बयालीस (१४२) वर्ष होता है। यह काल बीस पृथक्त्व (१८०) वर्ष के अन्दर है। अत: इसका काल बीस पृथक्त्व कहा गया है। . यह चारित्र तीर्थकर या तीर्थकर के हाथ से दीक्षित ही दे सकते हैं अन्य कोई नहीं। अतः उसके बाद इस चारित्र की परम्परा नहीं चलती है। उत्कृष्ट काल कोरिसपसास्साई पनासं हंति उयहिनामाणं । दो पुखकोडिळणा नाणाजीवेहि उक्कोस्सं ।। २३८।। Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवसमास गाथार्थ - छेदोपस्थापनीय का उत्कृष्ट काल पचास लाख कोटि सागरोपम तथा परिहारविशुद्धि का उत्कृष्ट काल देशोन दो पूर्व क्रोड वर्ष अनेक जीवों के आश्रय से समझना चाहिये । १९४ विवेचन - छेदोपस्थापनीय अवसर्पिणी काल के प्रथम तीर्थकर के तीर्थ में इसका उत्कृष्ट काल पचास जाल कोट सागरोपम होता है। अन्य तीर्थकर अर्थात् दूसरे तीर्थंकर से बाईसवे तीर्थकर के काल में इसका अभाव हैं, क्योंकि उनके शासनकाल में मात्र सामायिक चारित्र होता है। - परिहारविशुद्धि - अनेक जीवों की अपेक्षा इसका काल देशांन दो पूर्वकोटि वर्ष है। वह इस प्रकार है- अवसर्पिणी काल में प्रथम तीर्थंकर के पास्त्र पूर्वकोटि वर्षायु वाले नवसाधुओं का गण उनतीस वर्ष की उम्र के बाद परिहारविशुद्धि चारित्र स्वीकार करे तथा यावज्जीवन पालन करे। इन्हीं से फिर पूर्व कोटी वर्षायु वाले नव साधुओं का दूसरा गण यह चारित्र स्वीकार कर यावज्जीवन पालन करे। इसके बाद फिर कोई यह चारित्र स्वीकार नहीं कर सकता, कारण पूर्व में कहा गया है कि यह चारित्र तीर्थंकर या तीर्थंकर के हस्तदीक्षित ही देने के अधिकारी हैं अन्य कोई नहीं। इस प्रकार अट्ठावन (२९+२९=५८) वर्ष कम दो पूर्व कोटि वर्ष तक इस चारित्र की सतत् विद्यमानता / सम्भावना है। ये दोनों चारित्र प्रथम तथा अन्तिम तीर्थकरों के काल में ही होता हैं। बाईस तीर्थंकर के काल में तथा महाविदेह क्षेत्र में इसका अभाव है। व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र में पूछा गया हैं कि हे भगवन्– छेदोपस्थापनीय संयत का काल कितना है? हे गौतम! जघन्य से ढाई सौ वर्ष तथा उत्कृष्ट से पचास लाख कोटि सागरोपम काल हैं। हे भगवन् ! परिहारविशुद्धि का काल कितना है? हे गौतम! जघन्य से बीस पृथक्त्व वर्ष तथा उत्कृष्ट से दो पूर्वकोटि वर्ष हैं। सामायिक तथा यथाख्यातचारित्र इन गाथाओं में सामायिक आदि चारित्र का काल वर्णन नहीं किया गया इसका क्या कारण है? क्योंकि सामायिक चारित्र तथा यथाख्यातचारित्र महाविदेह में अविच्छिन्न रूप से वर्तते हैं - अर्थात् इनका किसी भी काल में अभाव न होने से इनका अन्तर जघन्य या उत्कृष्ट काल नहीं होता हैं। सूक्ष्मसम्पराय चारित्र - सूक्ष्मसम्पराय चारित्र का जघन्य तथा उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त परिमाण ही जानना चाहिये। Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काल-द्वार योगों का काल (अनेकजीवामयी) पल्लासंखिपभागो वेनियमिस्सगाण अणुसारो। भित्रमानं आहारमिसमासेमाण सव्वद्धं ।। २३९।। गाथार्थ- वैक्रियमिश्र काययोग का सततकाल पल्योपम के असंख्यात के भाग जितना है तथा आहारकमिश्र काययोग का सततकाल अन्तर्महर्त परिमाण ही होता है। शेष योग सदैव होते रहते हैं। ___ विवेधन-वैकिपमिश्र काययोग-जिसमें वैक्रिय काय का कार्मण काय के साथ योग होता है, यह वैक्रिय मिश्र काययोग है। नरक तथा देवगति में पल्योपम के असंख्यातवें भाग परिमाण उत्कृष्ट से वैक्रियमिश्र काययोग सतत प्राप्त है, उसके बाद उसका विरह है। वैक्रिय लब्धिधारी तिर्यश्च तथा मनुष्य बैंक्रियशरीर का आरम्भ या बैंक्रिय शरीर का त्याग करते समय वैक्रिय मिश्रकाय योग वाले होते हैं, ये हमेशा होते हैं। इनका विच्छेद कभी नहीं होता है। सामान्यतः नरक में सदा होते हैं। आहारकमिश्न काययोग- औदारिक शरीर के साथ आहारक शरीर का मिश्रण आहारकमिश्र काययोग कहलाता है। वह अन्तर्मुहर्त तक रहता है। पन्द्रह कर्म-भूमियों में चौदह पूर्वो के धारक मुनि सतत रूप से अन्तर्मुहूर्त तक ही आहारक मित्र काययोग में होते हैं। उसके बाद या तो मात्र आहारक काययोग होता है या उसका अभाव होता है। औदारिकमिन काययोग तथा औदारिक काययोग-ये दोनों ही असंख्यात लोकाकाश के प्रदेशों की राशि के समतुल्य होते हैं, क्योंकि ये दोनों काययोग सामान्यतः तिर्यश्च तथा मनुष्यों में अविच्छिन्न (सतत) रूप से होते हैं। कार्मण काययोग-कार्मण काययोग तो सर्वसंसारी जीवों को हमेशा होता है, उसका कभी भी अभाव नहीं होता। शेष सत्य वचनयोग, असत्य वचनयोग, सत्य मनोयोग, असत्य मनोयोग तो विभित्र जीवों की अपेक्षा से सर्वकाल में ही होते है। औदारिक शरीर तथा बैंक्रिय शरीर सतत रहते हैं पर आहारक शरीर का कभी-कभी उत्कृष्ट से लोक में, छ: माहपर्यन्त अभाव होता है तथा एक समय में आहारक शरीर जघन्य से एक, दो, तीन, चार तक होते हैं तथा उत्कृष्ट से एक समय में एक साथ सहस्त्र पृथक्त्व (१०००से लेकर ९०००) तक होते हैं। _इस प्रकार जीवसमास की भवस्थिति, कायस्थिति तथा गुणविभाग स्थिति विषयक काल की चर्चा हुई। अब ग्रन्थकार इस विषय का उपसंहार कर रहे हैं Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवसमास उपसंहार एत्य य जीवसमासे अणुमज्जिय सुमनिउणमाकुसले। सहमं कालविभागं विमएज्ज सुष्मि उवउत्तो ।। २४०।। गाचार्भ- सूक्ष्म तथा निपुण मति से युक्त कुशल जीवों को इस जीवसमास रूपी सागर में डुबकी लगा करके श्रुतज्ञान में उपयोग वाले होकर सूक्ष्म काल विभाग को जानना चाहिये। अजीव द्रव्य का काल तिष्णि अणा अणंता तीया खलु अणाइया संता । साअणंता एसा सपओ पुण वद्यमाणमा ।। २४१।। गाथार्थ-तीन द्रव्य अनादि-अनन्त हैं। काल द्रव्य तीन प्रकार का है। उसमें १. अनादि-सान्त, २. सादि-अनन्त तथा ३. वर्तमान काल "समयम' मा ! विवेचन-तीनों द्रव्य अर्थात् १. धर्मास्तिकाय, २. अधर्मास्तिकाय तथा ३. आकाशास्तिकाय ये अनादिकाल से हैं तथा अनन्तकाल तक रहेंगे। काल द्रव्य भी सामान्यत: तो अनादि-अनन्त ही है पर विशेष रूप से विचार करने पर उसके तीन भेद हैं- १. भूत, २. वर्तमान तथा ३. भविष्य। अद्धा से आशय काल का है। इनमें भूतकाल अनादि-सान्त होता है, २. वर्तमान काल "समय" रूप होता है तथा ३. भविष्यकाल सादि-अनन्त होता है। पुद्गल का काल कालो परमाणुस्स य दुपएसाईणमेव खंघाणं । समओ जहपणमिपरो उस्सप्पिणिओ असंखेज्जा।।२४२।। कालधार५ गाथार्थ- परमाणु तथा द्विप्रदेशी आदि विभिन्न स्कन्धों का काल जघन्यतः एक समय तथा उत्कृष्टतः असंख्यात उत्सर्पिणी पर्यन्त समझना चाहिये। विवेचन-परमाणु, द्वयणुक, त्यणुक, चतुरणुक आदि स्कन्धों का सत्ताकाल जघन्यतः से एक समय तथा उत्कृष्टतः असंख्यात उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी कालपर्यन्त समझना चाहिये। पांचवां "कालद्वार" समाप्त Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्तर-द्वार १. उपपात स्थान --. . अन्तर-काल की परिभाषा जाम लामो अत्स्य पाये जोग भाडे हिरो दाह जाप न उपोह भाषो सो व तमंतरं हवइ।। २४३।। गाथार्थ-जीव की जिस गति और जिस पर्याय अर्थात् अवस्था को छोड़कर अन्य किसी गति या अवस्था (पर्याय) में उत्पत्ति हुई हो, जब तक पुनः उसी गति या अवस्था की प्राप्ति नहीं हो तब तक के काल को अन्तर-काल कहते हैं। विवेचन-नो जीव जिस गति को या जिन भावों (पर्यायों) को छोड़कर आया है उन्हें जब तक पुनः प्राप्त न कर ले, तब तक के काल को अन्तर काल कहते हैं, यथा-कोई जीव देवगति से मनुष्यगति में आया और जब तक वह पुनः देवगति प्राप्त न कर ले तब तक का काल देवगति का अन्तर-काल है। सव्या गई नराणं सन्नितिरिम्वाण जा सहस्सारो। पम्माएँ भवगवंतर गच्छा सयलिंदिय असण्णी ।। २४४।। गाथार्थ- मनुष्यों की गति सर्वत्र है। संज्ञी तियञ्च सहस्रार देवलोक तक जाते हैं। असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय घम्मानरक, भुवनपति तथा व्यन्तर-देव में जाते हैं। विवेचन-मनष्य मरकर चारों ही गतियों में जन्म ले सकता है। चारों गतियों के अतिरिक्त मनुष्य पंचमगति मोक्ष भी प्राप्त कर सकता है। संझी-पंचेन्द्रिय-तिर्यंच भी चारों गतियों में जन्म ले सकते हैं पर मनुष्य की अपेक्षा उनकी देवगति का व्याप्ति-क्षेत्र कम है यथा-वैमानिक देवों में वे मात्र आठवें सहस्रार देवलोक तक ही जन्म ले सकते हैं। ___ असंज्ञी-पंचेन्द्रिय भी चायें गतियों में जन्म ले सकते हैं परन्तु संशी-पंचेन्द्रिय की अपेक्षा उनका क्षेत्र सीमित होता है। संशी-पंचेन्द्रिय सातवीं नरक तक जन्म ले सकता है परन्तु असंही-पंचेन्द्रिय मात्र प्रथम धम्मा नरक तक ही जन्म ले सकते हैं। आयु में भी वे पल्योपम के असंख्यातवें भाग परिमाण आयु वाले होते हैं, अधिक नहीं। Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८ जीवसमास देवगति में भी मात्र भवनपति तथा व्यन्तर में जन्म ले सकते हैं। उनकी अधिकतम आयु भी प्रथम नरक की आयु के समतुल्य ही होता है। तिरिएस लेडवाऊ सेसति-रिक्खा य तिरियमणुएस तमसमपा सयलपसू मणुयगई आणयाईमा ।। २४५।। गाथार्थ- तेजस्काय तथा वायुकाय के(एकेन्द्रिय तिर्यंच)जीव तिर्यश्च में ही उत्पन्न होते हैं। शेष तिर्यच अर्थात् पृथ्वीकाय, अपकाय तथा वनस्पतिकायादि के जीत्र पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च तथा मनुष्यगति में भी उत्पन्न हो सकते है। लमतमा अर्थात् सातवी नरक के नारकी पात्र पचन्द्रिय तियञ्च में ही जन्म लेते हैं तथा आनत आदि देवलोकों के देव मनुष्यगति में ही उत्पन्न होते हैं। विवेचन-तेजस्काय तथा वायुकाय के जीव मात्र तियंश्च गति में ही उत्पन्न होते हैं, नरक देव तथा मनुष्यगति में उत्पन्न नहीं होते हैं। शेष पृथ्वीकाय, अपकाय, वनस्पतिकाय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय आदि तिर्यञ्च गति तथा मनुष्यगति में जन्म ले सकते हैं किन्तु नारक तथा देवगति में नहीं। सातवीं नरक के नारकी जीव मात्र तिर्यच गति में जन्म लेते है, मनुष्य गति में नहीं। वृहद्संग्रहणी गाथा २९३ तथा व्याख्याप्रज्ञप्ति- सूत्र के चौबीसवें शतक के इक्कीसवें उद्देशक में भी यही बात कही गई हैं (नो अहेसत्तम पुढविनेर हिलो उपवजंति) आनतादि- ऊपर के देवलोक के देव मरकर मात्र मनुष्य ही बनते हैं। देवगति वाले कहाँ-कहाँ जन्म ले सकते हैं इसे अगली गाथा में स्पष्ट किया गया है। विशेष-नारकी जीवो में प्रथम नरक से निकलकर चक्रवर्ती, प्रथम एवं दूसरे नरक से निकलकर बलदेव या वासुदेव; प्रथम, द्वितीय एवं तृतीय नरकों से निकलने वाले जोय तीर्थंकर पद प्राप्त कर सकते हैं। इसी प्रकार चौथो नरक से निकलने वाले जीव केवलज्ञान, पांचवी नरक से निकलने वाले जीव सर्वविरति चारित्र अर्थात् संयम, छठी नरक से निकलने वाले जीव देशविरति चारित्र या अणुव्रत तथा सातवी नरक से निकलने वाले जीव समकित प्राप्त कर सकते हैं। (वृहद्संग्रहणी, गाथा २९१-२९२) नरक से निकलने वाले जीव निश्चय ही गर्भज,पर्याप्त संख्यात आयुवाले मनुष्य या तिर्यञ्चगति में जन्म लेते हैं, अन्यत्र नहीं। (वृहसंग्रहणी, गाथा-२९०) Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्तर-द्वार १९९ गर्भज से सम्मूच्छिम, पर्याप्त कहने से अपर्याप्त तथा संख्यात आयुवाले कहने से असंख्यात आयु वाले युगलिकों का स्वतः निषेध हो गया है। शेषनारक तथा देव की उत्पत्ति पंचेन्द्रियतिरियनरे सुरनेरङ्गयाय सेसच्या जंति । अह पुढविउदय हरिए ईसाणंता सुरा जंति ।। २४६ ।। गाथार्थ - शेष देव तथा नारकी जीव पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च तथा मनुष्य गति में जन्म ले सकते हैं। ईशान देवलोक तक के देव पृथ्वीकाय, अपूकाय तथा वनस्पति काय में भी जन्म ले सकते हैं। विवेचन – आनत-प्राणत आदि के ऊपर वाले देवों को छोड़कर शेष अर्थात् भवनपति, व्यन्तर एवं ज्योतिष्क देव तथा वैमानिक देवों में सौधर्म, ईशान, सनत्कुमार, माहेन्द्र, बह्यलोक, लान्तक, महाशुक्र तथा सहस्त्रार देवलोक के देव तिर्यच तथा मनुष्य दोनों गतियों में जाते हैं। नारक — सातवीं तमः तमप्रभा नरक को छोड़कर शेष छह नरक के नारकी तिर्य तथा मनुष्य दोनों गति में जन्म ले सकते हैं। (सातवीं नरक के जीव मात्र तिर्यञ्च में ही जाते हैं) भवनपति, व्यन्तर, ज्योतिष्क तथा वैमानिक में सौधर्म तथा ईशान देवलोक के देव पृथ्वीकाय, अप्काय तथा वनस्पतिकाय में जन्म ले सकते हैं। इससे ऊपर के छह देवलोकों के देव अर्थात् सहस्रार देवलोक तक देव, तियंच या मनुष्य गति में जन्म ले सकते है, किन्तु एकेन्द्रिय में नहीं। आठवें देवलोक से ऊपर वाले तो मात्र मनुष्य गति में ही जन्म लेते हैं, अन्य में नहीं । २. अन्तर अभाव- काल एकेन्द्रिय चयणुदवाओ एगिंदियाण अविरहियमेव अणुसमयं । हरियाणंता लोगा सेसा काथा असंखेज्जा ।। २४७।। गाथार्थ एकेन्द्रिय जीव का च्यवन (मृत्यु) तथा उपपात (जन्म), अविरहित ( निरन्तर ) रूप से प्रत्येक समय होता रहता है। उसमें भी प्रत्येक समय में अनन्त वनस्पतिकायिक जीव तथा असंख्यात शेष सभी कायों के जीव मरते हैं तथा उत्पन्न होते हैं। विवेचन व्यवन अर्थात् मरण । उपपात अर्थात् जन्म। एकेन्द्रिय जीवों का जन्म और मरण निरन्तर अर्थात् प्रति समय होता रहता है। निरन्तर इनका Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवसमास जन्म-मरण होने से इसमे अन्तर (विरह) काल नहीं होता। इनमे प्रतिसमय अनन्त वनस्पतिकायिक जीव और असंख्यात अन्य कायिक जीव जन्म-मरण करते है। अलकाय आवलिपअसंखेज्जाभागोऽसंखेमरासि उववाओ। संखियसमये संखेजमाण अलेष सिद्धाणं ।। २४८।। गाथार्थ-वर्गों के जिन जीवों का परिमाण असंख्यात है उनका निरन्तर जन्म (उपपात) आवॉलका के असंख्यात भाग में जितने समय होते हैं उतने समय तक जानना चाहिए। जिन वर्गों के जीवों की संख्या संख्यात है उनका निरन्तर जन्म संख्यात समय तक और सिद्धों का निरन्तर उपपात आठ समय का जानना चाहिये। उसके पश्चात् अन्तराल अवश्य होता है। विवेचन-एकेन्द्रिय का विवेचन पूर्ण हुआ, उसी क्रम में अब त्रसकाय का विवेचन किया जाता है। यहाँ मूल (गाथा) में त्रस शब्द न आने पर भी बुद्धि से उसका ग्रहण कर लेना चाहिये। असंख्यात-जिसवर्ग (राशि) में जीवों की मात्रा असंख्यात होती है वे जीव असंख्यात राशि वाले कहलाते हैं। वे राशियाँ अर्थात् वर्ग इस प्रकार हैं-१. द्वीन्द्रिय २. जीन्द्रिय ३. चतुरिन्द्रिय ४. पंचेन्द्रिय तिर्यश्च ५. संमूर्छिम मनुष्य ६. अप्रतिष्ठान नरकावास के नारक जीवों के अतिरिक्त शेष सभी नारक तथा ७. सर्वार्थसिद्ध विमान के देवों के अतिरिक्त शेष सभी देव। इन स समुदाय रूप सातों राशियों अर्थात् वर्गों के जीव सातों ही राशियों में जन्म-मरण, च्यवन और उपपात करते रहते हैं। प्रश्न- यह निरन्तर उत्पत्ति कब तक होती है? उतर-उत्कृष्ट से यह निरन्तर उत्पत्ति आवलिका के असंख्यातवें भाग जितने समय-परिमाण तक होती है। उसके बाद अन्तराल होता है द्वीन्द्रिय, प्रीन्द्रिय तथा चतुरिन्द्रिय, प्रत्येक का यह अन्तराल जघन्य से एक समय का तथा उत्कृष्ट से अन्तर्मुहूर्त परिमाण आगम में कहा गया है। (प्रज्ञापना-सूत्र ५८१-५८३) संख्यात- १. गर्भज मनुष्य २. अप्रतिष्ठान नरक के नारकी तथा ३. सर्वार्थसिद्ध विमानवासी देव-इन तीनों ही वर्गों अर्थात् राशियों में प्रत्येक में संख्यात जीव होने से तीनों राशियों में प्रत्येक में उपपात (जन्म) तथा मरण (च्यवन) संख्यात समय तक सतत् होता है, उसके बाद अन्तर (विरह) पड़ना सम्भव है। Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ T अनर २०१ इन तीनों ही राशियों में जघन्य से एक, दो, तीन, चार आदि उत्कृष्ट से संख्यात जीव उत्पन्न होते हैं। ये तीनों राशियाँ संख्यात परिमाण वाली हैं। संख्यात में असंख्यात का मरण (च्यवन) तथा उपपात (जन्म) नहीं हो सकता। सिद्ध-सिद्धों के उपपात की निरन्तरता आठ समय तक होती है (अर्थात् सिद्ध गति में जीव आठ समय तक निरन्तर जा सकते हैं) परन्तु उनका च्यवन अर्थात् मरण नहीं होता अर्थात् वे अपने स्थान से च्युत नहीं होते। इस प्रकार इस गाथा में असंख्यात रूप सात राशियों, संख्यात रूप तीन राशियों तथा सिद्धों के च्यवन तथा उपपात की चर्चा की गई है। सिद्ध बत्तीसा अडचाला सट्टी बावतरी व बोद्धव्या । चुलसीई छण्णउ दुरहिय अद्भुतरसयं च ।। २४९ ।। 1 गाथार्थ - बत्तीस, अड़तालीस, साठ, बहत्तर, चौरासी, छियानवें, एक सौ दो, एक सौ आठ- - इस प्रकार क्रमश: अधिकतम आठ समय से लेकर न्यूनतम एक समय में सिद्ध होते हैं। विवेचन - इस गाथा को निम्नलिखित गाथा से संयोजित करके गाथा को जानना चाहिये J अठ्ठय, सत्तय, छप्पय क्षेत्र चत्तारि तिनि, दो, एक्कं । बत्तीसाइ पश्सुं समया मणिया जहासंखं । । उपर्युक्त गाथा में क्रमशः आठ, सात, छह, पाँच, चार, तीन, दो, एक का संयोजन करना । १. जब प्रति समय कम से कम एक तथा उत्कृष्ट से बत्तीस (३२) सिद्ध हो तो सतत् रूप से आठ समय तक सिद्ध होते हैं। २. जब तैतीस (३३) से लेकर अड़तालीस (४८) तक प्रति समय सिद्ध होते हैं तब निरन्तर सात समय तक सिद्ध होते हैं। ३. जब प्रतिसमय उनपचास (४९) से लेकर साठ (६०) तक सिद्ध हों तब सतत रूप से छह समय तक सिद्ध होते हैं। ४. जब प्रतिसमय इकसठ (६१) से लेकर बहत्तर (७२) तक सिद्ध हों तब सतत रूप से पाँच समय तक सिद्ध होते हैं। Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवसमास ५. जब प्रतिसमय तिहत्तर (७३) से लेकर चौरासी (८४) तक सिद्ध हों तब सतत रूप से चार समय तक सिद्ध होते हैं। २०२ ६. जब पच्चासी (८५) से लेकर छियानवें (९६) तक प्रतिसमय सिद्ध हों तब निरन्तर तीन समय तक सिद्ध होते हैं। ७. जब प्रतिसमय सत्तानवें (९७) से लेकर एक सौ दो (१०२) तक सिद्ध हों तब निरन्तर दो समय तक सिद्ध होते हैं। ८. जब कम से कम ( जघन्य ) एक सौ तीन (१०३) तथा अधिकतम ( उत्कृष्ट ) एक सौ आठ (१०८) सिद्ध हों तब वे एक समय में सिद्ध होते हैं। उसके बाद अवश्य ही अन्तराल होता है। (बृहदसंग्रहणी, गाथा - ३४७ ) इस प्रकार इन गाथाओं में जीव स्थानकों में जब तक अन्तर नहीं होता तब तक का काल बताया गया है। अब कहाँ-कहाँ जीव स्थानकों में अन्तर होता हैं उसका विवेचन किया जा रहा है। नोट - ( यह गाथा वृहदसंग्रहणी में यथावत् विद्यमान है | ) ३ अन्तर- द्वार नारक, निर्बंध, मनुष्य चडवीस मुहूता सत दिवस पक्खो य मास दुग चउरो । छम्मासा रचणाइसु (छप्पडमासु बारस) चडवीस मुहुत्त सपियरे । । २५० ।। गाथार्थ - चौबीस मुहूर्त सात दिन, पन्द्रह दिन, एक मास, दो मास, चार मास और छः मास क्रमशः रत्नप्रभा आदि सात नरकों में अधिकतम अन्तर- काल जानना चाहिये। संज्ञी तथा इतर ( असंज्ञी मनुष्य) का अन्तर - काल अधिकतम चौबीस मुहूर्त का होता है। विवेचन - नरकों में प्राय: नारकी जीव सतत रूप से उत्पन्न होते रहते हैं। उनमें कभी-कभी ही अन्तराल पड़ता है। यह अन्तराल न्यूनतम सभी नरकपृथ्वियों में एक समय का होता है, किन्तु अधिकतम अन्तराल प्रत्येक नरक में इस प्रकार है १. रत्नप्रभा पृथ्वी में चौबीस मुहूर्त का, २. शर्कराप्रभा में सात दिन का, में ३. बालुकाप्रभा में पन्द्रह दिन का ४. पंकप्रभा में एक मास का ५. धूमप्रभा दो मास का ६. तमस्तमप्रभा में चारमास का तथा ७ तमस्तमप्रभा में छः मास Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्तर- द्वार २०३ का उत्कृष्ट उत्पत्ति विरह काल हैं। ठीक इसी प्रकार से सातो नरक में च्यवन का विरह काल जानना चाहिये। (प्रज्ञापनासूत्र, सूत्र ५६९ से ५७५) सभी नरको का सामान्य अन्तर- काल प्रज्ञापनासूत्रादि में इस प्रकार बताया है- 'हे भगवान्! नरक गति कितने काल तक उपपात रहित होता है? हे गौतम! जघन्यतः एक समय तक तथा उत्कृष्टन बहू तक जाना चाहिए।' यहाँ एक प्रश्न उठता है कि जब सातों पृथ्वियों का अलग-अलग काल परिमाण कहा, तो फिर सामान्य से क्यों कहा? इसका कारण है कि नरकगति में सातों नरकों का समूह रूप है जैसे एक मकान में सात मंजिलें होती हैं परन्तु कुल मिलाकर वह एक ही मकान कहा जाता है। सभी मंजिल में विभिन्न गोत्र के लोगों के रहने पर भी वे सभी एक ही मकान के निवासी कहे जाते हैं। उसी प्रकार सातों नरकों के निवासी सामान्यतः नारक ही कहे जाते हैं। नारक समुदाय का उत्कृष्ट विरहकाल (अन्तरकाल) बारह मुहूर्त कहा गया है। संज्ञी तिर्यञ्च तथा मनुष्यों का विरह-काल- मूल गाथा में संज्ञी व इतर शब्द दिया है तथा उसका अन्तर काल चौबीस मुहूर्त बताया गया है। प्रज्ञापनासूत्र (सूत्र ५६१-५६२) के अनुसार- हे भगवान्! तिर्यञ्च गति कितने काल तक उपपात (उत्पत्ति) रहित होती है? हे गौतम! जघन्य से एक समय तथा उत्कृष्ट से बारह मुहूर्त तक। इसी प्रकार से मनुष्य का विरह काल भी जानना चाहिये । (बृहद् संग्रहणी, गाथा ३३७ एवं ३४० ) 3 सभी संज्ञी (नरक, तिर्यञ्च मनुष्य तथा देव ) का जघन्य अन्तर काल एक समय का तथा उत्कृष्ट अन्तर- काल बारह मुहूर्त का है। (प्रज्ञापना सूत्र, ५६० से ५६३) असंज्ञी ( सम्मूर्च्छिम) पश्चेन्द्रिय तथा मनुष्य का अन्तर- काल गाथा में संमूर्च्छिम तिर्यञ्च का विरह - काल भी नहीं बताया गया है। द्वीन्द्रिय त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय तथा पंचेन्द्रिय का उत्कृष्ट अन्तर- काल अन्तर मुहूर्त का जानना चाहिए - ( प्रशापनासूत्र, सूत्र ५८१ से ५८४) एवं (बृहद्संग्रहणी गाथा - ३३६) मूलगाथा में सम्मूर्च्छिम मनुष्य का अन्तरकाल उत्कृष्टतः चौबीस मुहूर्त बताया गया है। जघन्यतः तो सभी का विरह काल एक समय का होता है। (प्रज्ञापनासूत्र५८५ तथा बृहद्संग्रहणी, गाथा - ३४०) Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जावसमास प्रसकायादि थावरकालो तसकाइमाण एगिदियाण तसकालो। वायरसहमे हरिएअरे व कमसो पउंजेज्जा ।। २५१।। गाथार्थ-सकाल का अन्सर-काल स्थावरकाय के स्थितिकाल के समुतल्य है। एकेन्द्रिय का अन्तरकाल त्रस जीवों की काय-स्थिति के काल के समतुल्य होता है। बादरकाय का विरह काल सूक्ष्मकाय की काय-स्थिति के समतुल्य होता है। सूक्ष्मकाय का अन्तरकाल बादरकाय को काय-स्थिति जितना होता है। वनस्पतिकाय का अन्तरकाल पृथ्वीकायादि के काय-स्थिति के समतुल्य होता है तथा पृथ्वीकायादि का अन्तरकाल वनस्पतिकाय की काय-स्थिति के समान होता है। विवेधन-त्रसकाय का परित्याग कर अन्यकाय में जन्म लेकर पुनः उसकाय को प्राप्त करने का अन्तर-काल स्थावरकाय की काय-स्थिति के समतुल्य अर्थात् आलिका का असंख्यातवां माग राशि परिमाण पुद्गल परावर्तन रूप है। एकेन्द्रिप-एकेन्द्रियकाय छोड़कर पुन: एकेन्द्रियकाय को प्राप्त करने का उत्कृष्ट अन्तर-काल त्रसकाल के स्थिति परिमाण अर्थात् साधिक दो हजार सागरोपम परिमाण है। बादर-बादर-नाम कर्मोदय वाले पृथ्वी आदि का पुन: पृथ्वंकापादि में जन्म लेने का उत्कृष्ट विरह-काल सूक्ष्म जीवों का स्थितिकाल परिमाण अर्थात् असंख्यात लोकाकाश प्रदेश-राशि में प्रत्येक का अपहरण करते हुए असंख्यात उत्सर्पिणीअवसर्पिणी परिमाणकाल जानना चाहिए। सूक्ष्म-सूक्ष्म पृथ्वीकायादि में से निकलकर पुन: सूक्ष्मकाय में जन्म लेने का उत्कृष्ट अन्तर-काल बादर जीव का स्थितिकाल परिमाण अर्थात् सत्तर कोटा-कोटी सागरोपम का है। बनस्पतिकाम-वनस्पतिकाय का पुन: वनस्पतिकाय में जन्म लेने का उत्कृष्ट विरहकाल पृथ्वीकाय आदि का स्थिति-काल अर्थात् असंख्यात लोकाकाश की प्रदेश राशि का प्रत्येक समय अपहरण करने पर जितना उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी काल व्यतीत होता है उतने काल परिमाण जानना चाहिये। पश्वीकापादि-पृथ्वीकाय, अपकाय, तेजस्काय तथा वायुकाय में से निकल कर जीव पुनः इन्ही कायों को प्राप्त करने का अन्तर-काल वनस्पतिकाय के काय-स्थिति के समतल्य स्थिति अर्थात् आवलिका का असंख्यातवें भाग में रहे समय जितना पुद्गल परावर्तन स्वरूप काल तुल्य जानना चाहिये। जघन्य से सभी का अन्तर-काल अन्तर्मुहर्त परिमाण जानना चाहिये। Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्तर-द्वार २०५ एकेन्द्रियादि हरिएयरस्य अन्तर असंखया होति पोग्गलपरहा। अपरडा पत्तेपतरुस्स उक्कोसं ॥२५२।। गाथार्थ-वनस्पति के अतिरिक्त अन्य एकेन्द्रियों का उत्कृष्ट अन्तर-काल असंख्यात पुद्गल परावर्तनकाल के समतुल्य है। प्रत्येक वनस्पतिकाय आदि का उत्कृष्ट अन्तर-काल अढाई पुद्रलपरावर्तनकाल है। विवेचन- हरितकाय (वनस्पति) से इतरकाय, पृथ्वीकाय, अपकाय, तेजस्काय, वायुकाय तथा सकाय है। वनस्पतिकाय के आंतरिक्त इन पृथ्वाकाय आदि चारों कायों में से निकलकर पुन: उसी काय में उत्पन्न होने का अन्तरकाल जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त तथा उत्कृष्टत: आलिका के असंख्यातवें भाग में रही हुई समय-राशि में जितने समय होते हैं उतने ही पुल परावर्तनकाल के समतुल्य होते हैं। २. प्रत्येक काय से आशय साधारण वनस्पतिकाय के अतिरिक्त शेष सभी (पाँचों) कायों से हैं। प्रत्येक शरीर राशि में से निकलकर जीव साधारण शरीर में उत्पन्न हो और पुनः प्रत्येक शरीर में जन्म ले तो उसका अन्तर-काल जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त है तथा उत्कृष्टत: अढाई पुद्गल परावर्तन काल जितना बताया गया है। अढाई पुद्रल परावर्तन जितने काल तक साधारण वनस्पति काय में रहने के बाद पुनः जीव प्रत्येक काय (प्रत्येक शरीर) में जन्म लेता है। प्रज्ञापनासूत्रसूत्र ५७९-५८० के अनुसार सामान्यत: पाँचों ही एकेन्द्रिय जीवों का उपपात (जन्म) निरन्तर होता है, उनमें अन्तर-काल नहीं होता है। वे उपपात-विरह से रहित हैं। बादर निगोद, तिर्य आदि बापरसुहनिओमा हरियत्ति असंखया भवे लोगा। उपहीण सबहुतं तिरियनपुंसे असण्णी य ।।२५३।। गाचार्य- बादर निगोद, सूक्ष्मनिगोद तथा वनस्पतिकाय का अन्तर-काल असंख्यात लोक परिमाण होता है। तिर्यश्चगति, नपुंसकवेद तथा असंज्ञी का अन्तरकाल शतपृथक्त्व अर्थात् (१०० से ९००) सागरोपम जितना होता है। विवेचन-निगोद-निकृष्ट गोदः इति निगोद अर्थात् सबसे निम्न स्थान निगोद का है क्योंकि निगोद में जीव नारक जीवों की अपेक्षा अधिक वेदना भोगता है। अनन्त जीवों के पिण्डभूत एक शरीर को निगोद कहते हैं, यथा जमीकन्दगाजर, मूली, अदरक, आलू आदि। सूई के अग्रभाग जितने क्षेत्र में बादर निगोद Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ जीवसमास के अनन्त जीव रहते हैं। सूक्ष्म निगोद के जीव तो उससे भी अधिक होते हैं। कला है. - गोलाय असंखिज्जा, संखनिगोवगोलओ भणिओ । हक्कक्कम्मि निगोए अनन्त जीवा गुणेयत्वा ।। १ ।। असंख्य निगोद के समुदाय रूप एक गोला होता है। लोकाकाश के जितने आकाश- प्रदेश हैं उतने ही सूक्ष्म निगोद जीवो के गोले है। एक-एक गोले में असंख्यात निगोद हैं। एक-एक निंगोद में अनन्त जीव हैं। भूत, भविष्य तथा वर्तमान इन तीनों काल के समय प्रदेशों की जो संख्या होती जीव एक-एक निगोद में हैं। निगोद के दो प्रकार हैं उससे अनन्तगुणा J १. व्यवहार राशि- जो एक बार निगोद से निकल कर पुनः निगोद में जन्म लेते हैं, वे निगोद के जीव व्यवहार राशि कहलाते हैं। २. अव्यवहार राशि- अव्यवहार राशि के सम्बन्ध में कहा गया है अस्थि अनंता जीवा जेहि न पतो तसत परिणामो । उप्पज्जति खयंति व पुणो वि सत्येव तत्येव ।।१।। अर्थात् - ऐसे जीव अनन्त हैं जिन्होंने कभी त्रसत्व भाव को प्राप्त ही नहीं किया है, निगोद में ही पुनः पुनः जन्म-मरण करते हैं। ये निगोद के जीव एक वांस में साढे सत्तरह बार (१७ बार मरण तथा १८ बार जन्म) जन्म-मरण करते हैं। निगोद के जीव अत्यन्त अल्पायु वाले होते हैं। बादरनिगोद, सूक्ष्मनिगोद तथा वनस्पतिकाय का अन्तरकाल असंख्यात लोक परिमाण (पूर्ववत्) जानना चाहिए। तिर्यश्च - तिर्यञ्च में से निकलकर तीनों गतियों में भ्रमण कर पुनः तिर्यञ्चत्त्व प्राप्त करने का अन्तर- काल जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त तथा उत्कृष्टतः साधिक सौं सागरोपम पृथक्त्व काल हैं। नपुंसक - जीव नपुंसक वेद को छोड़कर पुनः नपुंसकता प्राप्त करे। इसका उत्कृष्ट अन्तर-काल साधिक सौ सागरोपम तुल्य होता है। असंज्ञी -- संज्ञी पञ्चेन्द्रिय के अतिरिक्त सभी जीव असंज्ञी हैं। असंज्ञी का अर्थ है विवेकशील से रहित । एकेन्द्रिय जीवों से लेकर असंज्ञी पचेन्द्रिय तक जीव असंशी कहलाते हैं। सम्मूर्च्छिम पंचेन्द्रिय का ग्रहण नहीं किया गया है क्योंकि उनका अन्तर- काल वनस्पति की काय स्थिति के तुल्य होता है और यह काल असंख्यात पुलपरावर्तन के काल जितना है। यह काल गाथा के अनुसार नहीं है।) Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्तर- द्वार २०७ अतः यहाँ असंज्ञी से आशय सम्मूर्च्छिम तिर्यञ्च पंचेन्द्रिय के अतिरिक्त शेष सभी द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रिय हैं। आश्रित अन्य एवं उत्कृष्ट अन्तर काल (एक देवलोकों का एक जीवाश्रित) जावीसाणं अंतोमुहुत्तमपरं सणकुसहसारो । नव दिण मासा वासा अणुत्तरोक्कोस उयशिदुगं ।। २५४ ।। . गाथार्थ - ईशान देवलोक तक के देवो का न्यूनतम अन्तराल अन्तर्मुहूर्त, सनत्कुमार से सहस्रार तक के देवों का नौं दिन आनत से अच्युत तक के देवो का नौ मास, नवप्रवेयकों का नौ वर्ष होता है। सर्वार्थसिद्ध विमानवासियों को छोड़कर शेष अनुत्तर विमानवासी देवों का उत्कृष्टतः अन्तर- काल दो सागरोपम हैं। विवेचन - भवनवासी देवों से ईशान तक के देवों का अन्तर-काल ग्रन्थकार ने अन्तर्मुहूर्त बताया है- यदि कोई देव च्यवकर अर्थात् देव शरीरत्याग कर मछली आदि में जन्म लेकर पुनः देव बने तो अन्तरकाल जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त होता है किन्तु उत्कृष्टतः वनस्पति आदि में जाने पर आवलिका के असंख्यातवें भाग में रहे असंख्यात समय प्रदेशों की संख्या के समतुल्य असंख्यात पुगल परावर्तन काल जितना हो सकता हैं । ग्रंथकार के अनुसार जघन्य से सनत्कुमार से लेकर सहस्त्रार के देवों में यदि कोई देव व्यवकर पुनः उस ही स्थान में जन्म ले तो कम से कम वह नौ दिन पूर्व जन्म नहीं ले सकता। इसी प्रकार आनत, प्राणत, आरण तथा अच्युत के देवलोक के देव च्यवकर नौ मास से पूर्व पुनः उसी देवभव को प्राप्त नहीं कर सकते । नव ग्रैवेयकों के देव तथा चार अनुत्तर विमानवासी देव नौ वर्ष से पूर्व उनमें पुनः जन्म नहीं ले सकते हैं। किन्तु चारों अनुत्तरविमान वासी देवों की उत्कृष्टतः विरह स्थिति अंथकार ने दो सागरोपम के समतुल्य बतलाई है। सर्वार्थसिद्ध विमान में तो अन्तर- काल है नहीं क्योंकि वहाँ से च्यवन के बाद पुनः वहाँ कोई जन्म लेता ही नहीं, वहाँ से च्यवकर जीव मनुष्यभव प्राप्त करके अन्त में मोक्ष को चला जाता है। व्याख्याप्रज्ञप्ति में अन्तर - काल का परिमाण इससे भिन्न बतलाया गया हैं। देवलोक का सर्व जीव आश्रित उत्कृष्टतः अन्तर- काल नवदिण वीसमुत्ता वारस दिन दस मुहुत्तया इंति । अन्नं तह बावीसा पणबाल असीइ दिवससयं । । २५५ । Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवसमास संखेसमासधासा सपा सहस्सा य सपसहस्सा या दुसु२ तिसु २ पंचसु अणुतरे पल्लऽ संखइमा।। २५६।। गाथार्थ- प्रथम एवं दूसरे देवलोक का नौ दिन बास महतं, तीसरे एवं चौथे देवलोक का बारह दिन दस मुहूर्त, पाँचने, छठे एवं मातवें देवलोक का साढ़े बाईस दिन, आठवें, नवें एवं दसवें देवलोक का पैतालीस दिन, ग्यारहवें देवलोक का असर दिन तथा बारहवें देवलोक का सौ दिन . (२५५) दो (आनत-प्राणत) मे सख्यातमास. दो (आरण-अच्युत) में संख्यात वर्ष, तीन (अधोग्रैवेयक) में सौ वर्ष, तीन (मध्य- ग्रैवेयक) में हजार वर्ष, तीन (ऊपरी अवेयक) मे लाख वर्ष तथा पांच अनुत्तर में पान्योपम का असंख्यातवा भाग (उत्कृष्ट विरह-काल) है। विवेचन-इन गाथाओं में देवलोकों का उत्कृष्ट विरह-काल बताया गया है। बृहदसंग्रहणी (गाथा १५१) एवं प्रज्ञापनासूत्र (सूत्र-५७६ से ६.६) के अनुसार देवों का उत्कृष्ट अन्तरकाल इस प्रकार बतलाया गया है १. भवनवासी, २. व्यंतर, ३. ज्योतिष्क तथा '४. वैमानिकों में तथा मौधर्म से ईशान तक- जघन्य से एक समय तथा उत्कृष्ट चौबास महतं है। उसके बाद सभी का उत्कृष्टत: अन्तर-काल इस प्रकार है सनत्कुमार--- नौ दिन बीस मुहूर्ता, माहेन्द्र बारह दिन दस मुहूर्त, ब्रह्मलोक साढ़े बाईस दिन, लान्तक- पैंतालीस दिन, महाशुक्र- अस्सरी दिन, सहस्त्रार- सौ दिन, आनत एवं प्राणत- सख्यात मास, आरण एवं अच्युत- संख्यात वर्ष! अवेयको में- अधः तीन अयेयक संख्यात सौ वर्ष। मध्य तीन अवेयक संख्यात सहस्र वर्ष। ऊपरि तीन ग्रंवेयक संख्यात लाख वर्ष है। अनुत्तर में— विजय, वैजबन्त, जयन्त तथा अपराजित असंख्यात वर्ष तशा सर्वार्थसिद्ध में पल्योपम का संख्यातवा भाग है। मिथ्यात्व का अन्तर-काल मिच्छसि उहिनामा बे छापली परं तु देसूणा। सम्मत्तमणुगग्रस्स य पुग्गलपरियट्टमदपो।। २५७।। गाथार्थ-मिथ्यात्व का परित्याग करके पुनः मिथ्यात्व को ग्रहण करने का उत्कृष्ट का अन्तर-काल मुहूर्त से कुछ कम दो छियासठ (६६-६६) अर्थात एक सौ बत्तीस सागरोपम है, अन्य कुछ विचारकों के अनुसार इससे भी कम है। किन्तु सम्यक्त्व का दमन कर पुन: समक्त्व को प्राप्त करने का उत्कृष्ट अन्तर-काल अर्धपुद्गलपरावर्तन है। Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्तर-द्वार २०१ विवेचन - मिध्यात्व त्याग कर सम्यक्त्व को पाने वाला उत्कृष्टतः पुनः मिथ्यात्व को कितने समय बाद प्राप्त करता है यह इस गाथा में बताया गया है। साधिक दो छियासठ सागरोपम काल अर्थात् एक सौ बत्तीस सागरोपम में अन्तरमुहूर्त से इसे इस प्रकार जानना चाहिये कोई मिध्यात्व से ( क्षायोपशमिक ) सम्यक्त्व में जाने वाला छियासठ सागरोपम तक सम्यक्त्व में रहे फिर अन्तर्मुहूर्त मिश्रगुणस्थान को प्राप्त कर पुनः सम्यक्त्व को प्राप्त कर छियासठ सागरोपम काल तक उसमें रहे। उसके बाद या तो वह सिद्ध हो जाता है अथवा मिथ्यात्वी । इस आधार पर कुछ आचार्य मिथ्यात्व का उत्कृष्ट विरह काल दो छियासठ सय से अन्तर्मुहूर्त कम मानते हैं। चतुर्थ गुणस्थान में औपशमिक सम्यक् दर्शन को प्राप्त कर क्रमश: उसका अनुगमन करता हुआ देशविरत प्रमत्तसंयत या सर्वविरत अप्रमत्तसंयत अपूर्वकरण, अनिवृत्ति- करण, सूक्ष्म- सम्पराय तथा उपशान्त- मोह नामक ग्यारहवें गुणस्थानवर्ती जीव सम्यक् - दर्शन का वमन कर पुनः उसे अवश्य प्राप्त करते हैं, इसका उत्कृष्टतः अन्तर- काल अर्धपुद्गल परावर्तन है। सम्यक्त्वानुगत अर्थात् चतुर्थ गुणस्थान से लेकर ग्यारहवें गुणस्थान तक औपशमिक सम्यक् दर्शन का अनुगमन वाला जीव इन सभी गुणस्थानों को छोड़ने के बाद अर्धमुगल परावर्तन कालपर्यन्त संसार परिभ्रमण कर पुनः उन्हें अवश्य प्राप्त करता है। क्षायिक सम्यक्त्व वाले अर्थात् क्षपक, क्षीणमोही तथा सयोगी केवली जीवों में मिथ्यात्व एवं सम्यक्त्व का अन्तर काल नहीं होता, क्योंकि इन सभी का पतन संभव नहीं है। अतः सम्यक्त्व सम्पन्न होते हुए भी इनका मिथ्यात्व या सम्यक्त्व के अन्तर काल के परिगणन का समावेश नहीं किया गया है। नोट- मुहूर्त अड़तालीस मिनिट : इसमें एक समय कम होने पर इसे अन्तर्मुहूर्त कहा जाता है। अतः एक समय से लेकर अड़तालीस मिनिट से एक स्वमय कम तक का सम्पूर्ण काल अन्तर्मुहूर्त में ही परिगणित किया जाता हैं। जघन्यकाल सासाणुवसमसम्म पल्लासंखेञ्जभागमवरं तु । अंतोद्भुतमियरे खवगस्स उ अंतरं नति । १२५८ ॥ गाथार्थ — सास्वादन गुणस्थान और औपशमिक सम्यक्त्व का जघन्य अन्तर- काल पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग है इतर (अन्य ) गुणस्थानों का जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त परिमाण है। क्षपक का अन्तर काल नहीं है। Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० जीवसमास विवेचन-सास्वादन गुणस्थानवतों तथा औपशमिक सम्यग्दृष्टि, सास्वादन गुणस्थान तथा उपशम सम्यक्त्व का त्याग कर पुन: उसे प्राप्त करता है उसका जघन्य अन्तर-काल पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग होता है। यहाँ उपशम श्रेणी से पतित होते हुए सास्वादन गुणस्थानवर्ती अथवा औपशमिक सम्यग्दृष्टि की अपेक्षा से विवक्षा न करते हुए अनादि मिथ्यादृष्टि जिसने सम्यक्त्व और मिश्रपुञ्ज का उद्वर्तन किया है अथवा जिसके मोहनीय की छब्बीस प्रकृति सत्ता में हैं ऐसा मिथ्यात्वी पूर्व वर्णित क्रम से औपशमिक सम्यक्त्व प्राप्त करता है और वही औपशमिक सम्यक्त्व का वमन करते समय में पूर्व कथित न्याय से सास्वादन गुणस्थान को प्राप्त होता है। ये दोनों ही गुणस्थानवर्ती चारों गति में हैं। दोनों विशेष होने से यहाँ इनका कथन किया गया है। दोनों कम से कम पल्योपम के असंख्यातवे भाग के पश्चात ही किस प्रकार पर्व स्थिति प्राप्त करते हैं वह बताते हैं- औपशमिक सम्यग्दृष्टि और सास्वादन गुणस्थानवर्ती जीव के मिथ्यात्व दशा में जाने के बाद सम्यक्त्त मोहनीय तथा मिन मोहनीय कर्मों का पुञ्ज सत्ता में रहता है। इन दोनों के सत्ता में रहने तक औपमिक सम्यक्त्व तथा सास्वादन गुणस्थान की प्राप्ति संभव नहीं। वह उन सम्यक्त्व मोहनीय तथा मिश्र मोहनीय के दलिकों को मिथ्यात्व मोहनीय के पुञ्ज में प्रतिसमय डालता हे इस प्रकार नाश करते हुए दोनों के दलिक पल्योपम के असंख्यातवें भाग में ही समाप्त होते हैं अर्थात बिल्कुल नष्ट हो जाते हैं-(ऐसा कर्म-प्रकृति में कहा गया है)। तब ही वह जीव सास्वादन गुणस्थान या ऑपशमिक सम्यक्त्व को पुन: प्राप्त कर सकता है। शेष सभी अर्थात् प्रथम गुणस्थानवर्ती तथा चौथे से लेकर ग्यारहवें गुणस्थानवर्ती सभी जीव का जघन्य अन्तर-काल अन्तर्मुहूर्त है ऐसा पूर्व गाथा में बताया गया है। कोई भी जीव उपशम श्रेणी से आरोहण एक भव मे दो बार हो कर सकता है। क्षपक श्रेणी से आरोहण करने पर अन्तर-काल नहीं होता है, क्योंकि क्षपक जीव आगे ही बढ़ता है, गिरता नहीं। वह नियम से उसी भव में मोक्ष जाता है। गुणस्थान पल्लाऽसंखियभागं सासणमिस्सासमतमणुएस। वासपुतं उवसामएस खवगेसु छम्मासा।। २५९।। गाचार्य-सामान्यतः लोक में सास्वादन एवं मिश्र गुणस्थानवी जीवों तथा असंज्ञी अर्थात् संमूर्छिम मनुष्यों का पल्योपम के असंख्यातवें भाग परिमाण काल Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २११ अन्तर-द्वार तक अन्तराल हो सकता है। उपशामकी का वर्ष पृथक्त्व तथा आपका का छ: मास नक उत्कृष्ट अन्तराल हो सकता है। विवेचन- सास्वादन द्वितीयगुणस्थानवर्ती, मिश्र तृतीय गुणस्थानवती तथा असंज्ञी मनुष्य अर्यात् जो लब्धि तथा करण से सदा अपयःप्त रहत है ऐसे संमच्छिम मनुष्य इन तीनों राशियो (वर्गों) का समस्त लोक में पल्यापम के असंख्यात 'माग तक पूर्णतः अपाय हो सकता है। उपशामक-जो मोहनीय-कर्म को उपशमित करे. ऐसे उपशमश्रेणी से आरोहण करने वाले जीवों का उत्कृष्ट अन्तर-काल वर्ष पृथक्त्व (१ से ९ वर्ष तक) जानना चाहिये। क्षपक- लोक में कभी-कभी अधिकतम छ: मासपर्यन्त से क्षपक श्रेणी से आरोहण करने वाले जोबों का अभाव हो सकता है। अयोगी केवलो का अन्तराल भी उत्कृष्टतः छ: मासापर्यन्त जानना चाहिये। मिथ्याष्टि, अविरत सम्यक्-दृष्टि. प्रमनस्यत, अप्रमत्तसंयत तथा सयोगी केवलो का विरह-काल (अन्तराल) नहीं होता है। उपरोक्त गुणस्थानवती जीन लोक में सदा रहते ही है। संमूर्छिम मनुष्य मे मात्र मिथ्यादृष्टि गुणस्थान होता है। यहां संमृच्छिंम मनुष्य का विरहकाल बताया है न कि मिध्यादृष्टि गुणस्थान का विरहकाल। क्योकि मिथ्यादृष्टि तो सर्वकाल में होते हैं। योग आहारमिस्सजोगे वापुहुत्तं विउविमिस्सेसु। बारस हुंति मुहुत्ता सव्वेसु जहण्णओ समओ।। २६०।। गाथार्थ- आहारक मित्र काय-योग का वर्ष पृथकत्व, वैक्रियमिश्र-काय-योग का बारह मुहूर्त का अन्तर-काल होता है। शेष सभी में जघन्य से एक समय का अन्तर-काल होता है। विवेचन आहारकमिश्न- औदारिक शरीर के साथ बनने वाला आहारक शरीर आहारकमिश्र काययोग कहलाता है। आहारक शरीर बनाना प्रारंभ करने के बाद जब तक वह पूर्ण न हो जाय तब तक का काल आहारक-मिश्र-काल कहलाता है। इसमें उत्कृष्ट से वर्ष पृथकत्व (१ वर्ष से ९ वर्ष) का अन्तर होता है। Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवसमास प्रज्ञापनासूत्र में आहारकमिश्र काययोग का अन्तर- काल छः पास बताया गया हैं। तत्त्व केवलीगम्य हैं। २१२ मिश्र का वैक्रिय मिश्र - कार्मण शरीर के साथ वैक्रिय शरीर का निर्माण होना वैक्रियकहरात नारक को होता है। इसका उत्कृष्ट से विरहकाल बारह मुहूर्त परिमाण है। नारक तथा देव योनियों में उत्कृष्टतः उत्पत्ति विरहकाल बारह मुहूर्त का कहा गया है। शेष औदारिक काययोग, औदारिकमिश्र काययोग, वैक्रिय काययोग, कार्मण काययोग, मनोयोग, वचनयोग का विरहकाल नहीं होता। ये योग निरन्तर लोक में पाये जाते हैं। आहारकमिश्र कहने से आहारक का अन्तर- काल स्वतः स्पष्ट हो जाता है, क्योंकि आहारकमिश्र और आहारकयोग की विद्यमानता मात्र अन्तर्मुहूर्त परिमाण है। पिछली गाथाओ के अनुसार सास्वादन गुणस्थान से लेकर बैक्रियमिश्रकाययोग तक का जघन्य अन्तर- काल एक समय का समझना चाहिये । तेवद्वी चुलसीई वाससहस्साइं छेद्यपरिहारे । अक्षरं परमुदहीणं अड्डारस कोडीकोडी ओ ।। २६१ । । गाध्यार्थ - त्रेसठ (६३) हजार वर्ष पर्यन्त छेदोपस्थापनीय चारित्र का तथा चौरासी (८४) हजार वर्ष पर्यन्त परिहारविशुद्धि चारित्र का जघन्य अन्तर काल होता है। दोनो अर्थात् छेदोपस्थापनीयचारित्र तथा परिहारविशुद्धिचारित्र का उत्कृष्ट अन्तर- काल अठारह कोटाकोटी सागरोपम है । विवेचन जघन्यतः :- इस अवसर्पिणी में दुषमा नामक पांचवें आरे के अन्त में भरत तथा ऐरावत क्षेत्र में छेदीपस्थापनीयचारित्र का विच्छेद (विरह) हो जाता है, अतः अवसर्पिणी के छठे आरे में वह नहीं होता हैं । पुनः उत्सर्पिणी के प्रथम तथा द्वितीय आरे में भी उसका अभाव रहता है। इस प्रकार इक्कीस इक्कीस हजार वर्ष के तीन आरों के काल (२१०००x३=६३०००) त्रेसठ हजार वर्ष तक इस चारित्र का अभाव ( अन्तराल ) रहता हैं। - परिहारविशुद्धिचारित्र का अभाव तो पांचवे आरे के प्रारंभ में ही हो जाता है। अतः अवसर्पिणी का पांचवा तथा छठा आरा और उत्सर्पिणी का पहला तथा दूसरा आरा अर्थात् चौरासी हजार वर्ष (२१०००x४=८४०००) तक परिहारविशुद्धिचारित्र का अभाव रहता है। Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्तर-द्वार २१३ उत्कृष्टतः - इन दोनों प्रकार के चारित्रों का उत्कृष्ट विरहकाल अटारह कोटाकोटी सागरोपम का है। उत्सर्पिणी में सुषमा दुषमा नाम का चौथा आरा प्रारम्भ होने से पूर्व हो दोनो चारित्र का विच्छेद हो जाता है जिससे चौथे आर का दो कोटाकोटी सागरोपम, सुषमा नामक पांचवे आर का तीन कोटा कोटी सागरोपम तथा सुषमा- सुषमा नामक छठे आरे का चार कोटाकोटी सागरोपम काल । इस प्रकार उत्सर्पिणी के नौ कोटाकोटी सागरोपम तथा इस ही प्रकार अवसर्पिणी के नी कोटाकोटी सागरोपम ( कुल १८ सागरापम) तक इन दोनों (छेदोपस्थापनीयचारित्र तथा परिहारविशु का विक सम्यक्त्व, विरति आदि सम्मत्तसत्तगं खलु विरयाविरईय होई बोडसगं । विरईए पनरसगं विरहियकालो अहोरत्ता । । २६२ । । गाथार्थ - सम्यक्त्व स्वीकार करने वालों का सात दिन रात्रि तक का देशविरति स्वीकार करने वालों का चीदह दिन-रात्रि तक का तथा सर्वविरति चारित्र स्वीकार करने वालों का पन्द्रह दिन रात तक का उत्कृष्ट विरहकाल होता है। विवेचन — सम्यक्त्व - यह दो प्रकार का है- एक पूर्व से स्वीकृत ( पूर्व प्रतिपत्र) तथा दूसरा वर्तमान में स्वीकार करने वाला ( प्रतिपद्यमान)। इनमें प्रथम प्रकार के पूर्वप्रतिपन्न सम्यक्त्व आदि का कभी विरह नहीं होता पर प्रतिपद्यमान सम्यक्त्व ग्रहण करने वाले कभी होते हैं और कभी नहीं होते हैं। इनका जघन्यतः अन्तर- काल ( विरहकाल ) एक समय तथा उत्कृष्टतः सात अहोरात्रिपर्यन्त का होता है। देशविरति - देशविरति में भी पूर्व स्वीकृत अर्थात् पूर्व प्रतिपत्र सदैव ही असंख्यात होते हैं परन्तु देशविरति स्वीकार करने वालों (प्रतिपद्यमान) का विरहकाल जघन्यत: एक समय तथा उत्कृष्टतः चौदह दिन का होता है। आवश्यक सूत्र में देशविरति का उत्कृष्ट अन्तर काल बारह दिन कहा गया है। सर्वविरति पूर्व प्रतिपन्न सर्वविरतिचारित्र वाले जो सदैव संख्यात रहते हैं परन्तु प्रतिपद्यमान अर्थात् सर्वविरतिचारित्र ग्रहण करने वालों का विरहकाल जघन्यतः एक समय का तथा उत्कृष्टत: पन्द्रह दिन का होता है। द्वारों का चिन्तन भवभावपरत्तणं कालविभागं कमेणऽणुगमित्ता । भावेण समुवत्तो एवं कुज्जऽ तराणुगमं । । २६३ । । Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवसमास गाथार्थ - भव अर्थात् संसार तथा भाव अर्थात् संसार में परिभ्रमण करने वोले जीवों की विभिन्न अवस्थाएँ — इन दोनों की जानकारी कराने वाले इस काल विभाग को क्रमशः जानकर और इनके अन्तर काल का अनुगमन कर भाव- द्वार अर्थात् वृति के द्वारा अप्रमत या सजग बनना चाहिए। २१४ विवेचन- इस गाथा में तीन द्वारों की चर्चा की गई हैं- १. कालद्वार, २. अन्तरद्वार, ३. भाषद्वार। पूर्व अध्याय में कालद्वार की चर्चा की कि जीव कितने काल तक किस पर्याय में रहता है। इस अध्याय में अन्तरद्वार की चर्चा करते हुए यह बताया गया हैं कि जीव एक पर्याय को छोड़कर दूसरी पर्याय को ग्रहण करता है। पुनः उसी पर्याय को प्राप्त करने में कितना अन्तर- काल होता है इसकी चर्चा की। अब अग्रिम अध्याय में भावद्वार का श्रवण कर सावधान बनने की बात यहाँ कही गई है। अजीव का अन्तरकाल परमाणू दव्वाणं दुएएसाईणमेव खंभाणं । समओ अनंतकालोति अंतरं नत्थ सेसाणं । । २६४ । । अन्तरदारं ६ | गाथार्थ - द्विप्रदेशी, त्रिप्रदेश आदि विभिन्न स्कन्ध द्रव्यों से स्कन्ध या परमाणुओं को अलग होकर पुनः संयोजित होने का जघन्य अन्तर- काल एक समय का तथा उत्कृष्ट अन्तर काल अनन्तकाल का है। शेष द्रव्यों का अन्तर- काल नहीं है। विवेचन - किसी भी स्कन्ध से टूटकर परमाणु या स्कन्ध के अलग होने तथा पुनः उस ही स्कन्ध के साथ संयुक्त होने का जघन्य अन्तर काल एक समय का तथा उत्कृष्ट अन्तर- काल अनन्तकाल का है। जबकि कोई परमाणु किसी स्कन्ध से जुड़ता है और पुनः उससे टूटकर परमाणुत्व को प्राप्त करता है उसका अन्तर- काल जघन्यतः एक समय का तथा उत्कृष्टतः असंख्यात काल जितना होता है। हे भगवन्! परमाणु के पुनः परमाणुत्व प्राप्त करने का अन्तर- काल कितना हैं? हे गौतम! जघन्यतः एक समय तथा उत्कृष्टतः असंख्यात काल है। द्विप्रदेशी, त्रिप्रदेशी आदि स्कन्धों का जघन्यतः एक समय का तथा उत्कृष्टतः अनन्तकाल का अन्तर जानना चाहिए। Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्तर-द्वार पुद्गल के अतिरिक्त अन्य चारो द्रव्य धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय तथा कालद्रव्य में अन्तर-काल नहीं है। ये द्रव्य स्वस्वरूप का त्याग कर पुन: उसे प्राप्त करें ऐसा कभी नहीं होता, अत: इनमें अन्तर-काल या विरहकाल नहीं हैं। छठा अन्तर-द्वार समाप्ता Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-द्वार जीव के भाव उक्सम रवायो पीसो उडओ परिणाम सन्निवाओ य एसा जीव समासो परिणामुदओ अजीवाणं।। २६५।। गाथार्थ औपशमिक, क्षायिक, मिश्न (क्षायोपशमिक) औदयिक, पारिणामिक तथा सन्निपातिक– ये जीवों की छ; प्रकार की भावदशा होती है। अजीवीं में पारिणामिक और औदयिक ये दो प्रकार की अवस्था होती हैं। विवेचन १. औपशमिक-- पानी के नीचे जमी हुई मिट्टी के तुल्य या राख के नीचे दबी हुई अग्नि के तुल्य कर्मों को उपशमित करने से जो भाव होते हैं, वे औपशमिक भाव कहलाते हैं। २. क्षापिक- स्वच्छ हुए पानी के समान या बुझी हुई अग्नि के समान जो भाव कर्मों के क्षय से प्राप्त होते हैं वे क्षायिक भाव कहलाते हैं। २.मायोपशामिक- आंशिक रूप से कर्मों के क्षय से और आंशिक रूप से कर्मों के उपशमन से जो भाव (अवस्था) प्राप्त होती है वह क्षायोपशमिक कहलाती है। ४. आदमिक-ज्ञानावरणादि कर्मों का उदय में आना औदायिक भाव है। ५. पारिणामिक-द्रव्य में जो स्व या परपर्याय रूप परिणमन चल रहा है वह पारिणामिक भाव है। ६. सनिपातिक-सत्रिपात का अर्थ है संयोग। जो उपर्युक्त कहे भावों का संयोग करे वह सत्रिपातिक भाव है। अजीव में स्वद्रव्य से सम्बन्धित उदय तथा स्वद्रव्य से सम्बन्धित परिणमन चलता है। उदय में रूप, वर्ण, गंध, रस, स्पर्शादि तथा परिणमन में विगलन, विध्वंसनादि परिवर्तन सतत चलता रहता है, यथा शरीर, फल आदि में __ औपशमिक, क्षायिक तथा क्षायोपशमिक भाष सो जीव में ही संभव हैं अजीव में नहीं। किन्तु ओदयिक तथा पारिणामिक भाव जीव-अजीव दोनों में ही पाये जाते हैं फिर भी उनके अनुभव की क्षमता जीव में है अजीव में नहीं। Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव द्वार २१७ तत्त्वार्थसूत्रकार ने गाँवों के पेद असून १ में) क्र... दो, नौ, अठारह, इक्कीस और तीन बताये हैं। वहाँ भाव पाँच बताये हैं जबकि 'जीव समास में छः बतलाये गये हैं। आठ कर्म में पाँच भाव उवसमिओ ब्रहओ मीसो य मोहजा भावा । दवसमरहियर घाइ होति उ सेसाई ओदइए । । २६६ ।। गाथार्थ – औदयिक, औपशमिक, क्षायिक तथा क्षायोपशमिक ये चारों भाव मोहनीय कर्म में होते हैं। औपशमिक के अतिरिक्त तीन भाव घाती कर्मों में होते हैं। शेष कर्म औदयिक होते हैं। विवेचन- गाथा में कथित औदयिक, औपशमिक क्षायिक तथा क्षायोपशमिक ये चारों भाव मोहनीय कर्म में होते हैं। औपशमिक के अतिरिक्त तीन भाव शेष घाती कर्मों में होते हैं, किन्तु शेष अघाती कर्म मात्र औदायिक हैं। १. औपशमिक भाव - यह भाव मोहनीय कर्म में होता है। प्रदेशोदय और विपाकोदय दोनों प्रकार से कर्मों का रूक जाना उपशम है। इस प्रकार का उपशम सर्वोपशम कहलाता है और यह सर्वोपशम मोहनीय कर्म का ही होता है, शेष का नहीं। औपशमिक भाव के दो भेद हैं १, सम्यक्त्व मोहनीय तथा २. चारित्र मोहनीय। ये दोनों मोहनीय कर्म के उपशम से ही होते हैं। 2 औपशमिक के अतिरिक्त शेष तीन भाव औदयिक क्षायिक तथा क्षायोपशमिक — ये शेष तीन भाव तीन कर्मों अर्थात् ज्ञानावरणीय दर्शनावरणीय तथा अन्तराय में ही पाये जाते हैं, मोहनीय कर्म में नहीं। क्योंकि ऐसा सूत्र भी है- "मोहस्सेवोवसमो" कर्म ग्रन्थों में भी कहा हैं कि मोहनीय कर्म का हो उपशम होता है शेष का नहीं। J शेष चारों अघाति कर्मों अर्थात् वेदनीय, आयु, नाम तथा गोत्र में औदायिक भाव पाया जाता है क्योंकि चार घाती कर्मों का क्षय होने पर भी आयु आदि चार अघाती कर्मों का उदय अयोगी केवलावस्था तक रहता है। इस प्रकार ऑपशमिक भाव का स्पष्टीकरण कर चुके हैं। आगे शेष भावों को स्पष्ट करेगें। २. क्षायिक भाव- किसी कर्म के सर्वथा क्षय होने पर जो चैतसिक अवस्थाएँ प्रकट होती हैं उसे क्षायिक भाव कहते हैं। यह भाव नौ प्रकार का है। चार घाती कर्मों के क्षय से नौ लब्धियाँ प्रकट होती हैं जिनकी चर्चा गाथा २६७ में की गई है। Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ जीवसमास ३. क्षायोपशमिक भाव-उदय में आये हुए कर्मों का क्षय तथा उदय में नहीं आये हुए कर्मों का उपशम होना क्षयोपशम है। इसकी चर्चा गाथा २६८ में करणे हा इरोम ने बताई है: जत्थार्थकार ने क्षयोपशम के अठारह भेद बताये हैं। यहाँ चारित्र के चार प्रकार न बताते हुए एक ही प्रकार बताया गया है। ४. औदपिक भाव-- यथा समय उदय को प्राप्त आठ कमों के फल या विपाक का अनुभव करना उदय है। उदय की अवस्था में होने वाला भाव औदयिक है। प्रस्तुत ग्रंथ की गाथा २६९ में औदयिक के अट्ठाईस भेद बलाये हैं जबकि तत्त्वार्थकार ने इसके इक्कीस भेद ही किये हैं। ५. पारिणामिक भाव-पाँचवाँ भाव पारिणामिक भाव है। निज स्वभाव से निज स्वभाव में परिणत होते रहना पारिणामिक भाव है। अवस्थित वस्तु का पूर्व अवस्था का त्याग किये बिना उत्तरावस्था में चले जाना परिणाम कहलाता है। प्रस्तुत ग्रंथ की गाथा २६९ में पारिणामिक भाव के तीन प्रकार बताये हैं। कर्म ग्रंथ तथा तत्त्वार्थकार ने भी इन्हीं तीन भेदों को स्वीकार किया है। अनुयोगद्वार तथा प्रवचनसारोद्धार में पारिणामिक भाव के दो भेद बातये हैं-१. सादि पारिशामिक भाव तथा २. अनादि पारिणामिक भाव। १. जीव द्रष्य में उपर्युक्त पाँचों ही भाव पाये जाते हैं। २. अजीव द्रव्यों में पुद्गल द्रव्य में औंदयिक तथा पारिणामिक भात्र पाये जाते हैं। शेष चार धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय तथा काल में मात्र पारिणामिक भाव पाया जाता है। ऐसा गाथा २७० में बताया गया है। पुद्रल द्रव्य में भी परमाणु पुद्गल और द्वयणुकादि सादि स्कन्ध पारिणामिक भाष वाले ही हैं किन्तु औदारिक आदि शरीर रूप स्कन्धों में पारिणामिक और औदयिक दोनों भाव पाये जाते हैं। ____ कर्म-पुद्गल में जीव के सहयोग से तो औपशमिक आदि पांचों भाव होते हैं। क्षाधिक तथा उपशामिक भाव केलिए नाणदसण खाइयसम्मं च चरणदाणाई। नव खाया लबीओ उपसमिए सम्म धरणं च।। २६७।। गायार्थ- केवलज्ञान, केवलदर्शन, क्षायिक सम्यक्त्व, क्षायिक चारित्र, दानादि पांच लब्धियाँ- ये नौ प्रकार की क्षायिक लब्धि हैं। Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव द्वार २१९ औपशमिक सम्यक्त्व तथा औपशमिक चारित्र ये दो उपशम लब्धि हैं। विवेचन - उपर्युक्त नौ लब्धियाँ क्षायिक भाव से ही प्राप्त होती हैं। नौ क्षायिक लब्धियाँ १. ज्ञानावरण का सम्पूर्णत: क्षय होने पर केवलज्ञान" प्राप्त होता है। २. दर्शनावरण का सम्पूर्णत: क्षय होने पर केवलदर्शन" प्राप्त होता है। ३. मोहनीय कर्म के दर्शन सप्तक अर्थात् चार अनन्तानुबन्धी कषाय तथा दर्शनमोहनीयत्रिक का क्षय होने से क्षायिक सम्यक्त्य" प्राप्त होता है। ४. सम्पूर्ण चारित्र मोहनीय का क्षय होने से क्षायिक चारित्र होता है। ५. ९. अन्तराय कर्म का क्षय होने पर दानादि पाँच लब्धियाँ प्राप्त होती हैं। दो उपशम लब्धियाँ १. दर्शन सप्तक के उपशान्त होने पर औपशमिक सम्यक्त्व" होता है। २. चारित्र मोहनीय के उपशान्त होने पर औपशमिक चारित्र" होता है। क्षायोपशमिक (मिश्र) माव - नाणा व अण्णाणा तित्रि व दंसण लिगं च गिहिधम्मो । वेब च चारितं दग्णाग मिस्सगा भावा ।। २६८ ।। गाथार्थ --- चार ज्ञान, तीन अज्ञान, तीन दर्शन, गृहस्थधर्म, वेदक सम्यक्त्व, चार चारित्र तथा दानादि पाँच लब्धियाँ- ये मिश्र अर्थात् क्षायोपशमिक भाव में भी सम्भव है। विवेचन क्षायोपशमिक भाव के २१ भेद - - चार ज्ञान अर्थात् मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधि ज्ञान तथा मन:पर्ययज्ञान, तीन अज्ञान अर्थात् मति अज्ञान, श्रुत अज्ञान तथा विभंगज्ञान, तीन दर्शन अर्थात् चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन तथा अवधिदर्शन, देशविरति अर्थात् गृहस्थधर्म, वेदक समयक्त्व अर्थात् क्षायोपशमिक सम्यक्त्व | चार चारित्र - सामायिक, छेदोपस्थापनीय, परिहारविशुद्धि तथा सूक्ष्म सम्पराय । पाँच लब्धियाँ - दान, लाभ, भोग, उपभोग तथा वीर्य लब्धि । Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जोवसपास प्रश्न – किसके क्षयोपशम से किस लब्धि की प्राप्ति होती है? - १. ज्ञानावरण के क्षयोपशम से चार ज्ञान तथा तीन अज्ञान प्राप्त होते हैं। २. दर्शनावरण के क्षयोपशम से तीन दर्शन प्राप्त होते हैं। २२० ३. अप्रत्याख्यानी कषाय चतुष्क के क्षयोपशम से देशविति चारित्र प्राप्त होता हैं। ४. दर्शन सप्तक (अनन्तानुबन्धी कषाय चतुष्क एवं तीन प्रकार का दर्शन मोह) के क्षयोपशम से क्षायोपशमिक सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है। ५. चारित्र मोहनीय के क्षयोपशम से चारों चारित्रों की प्राप्ति होती है। ६. अन्तरस्य कर्म के क्षयोपशम से पाँच लब्धियाँ प्राप्त होती है। प्रश्न- पाँचो लब्धियों आपने क्षायिक भाव की कही तथा क्षायोपशमिक की भी कही, इसका कारण क्या हैं? उत्तर - क्षय से प्राप्त पाँचों लब्धियाँ केवली को होती है तथा क्षायोपशमिक भाव से प्राप्त पाँचों लब्धियाँ छद्यस्थ को होती हैं। दोनों में यही अन्तर है। औदयिक तथा पारिणामिक भाव कापसाकसाथ अन्नाण अस्य अस्सण्णी । मिच्छाहारे उदया जियभष्वियरतिबलहावो ।। २६९ ।। गाथार्थ - गति, काय, वेद, लेश्या, कषाय, अज्ञान, अविरति असंज्ञीत्व, मिथ्यात्व और आहारकत्त्व - ये औदयिक भाव हैं। जीवत्व, भव्यत्व तथा अभव्यत्व ये तीन पारिणामिक भाव हैं। विवेचन गति काय वेद लेश्या : चारों गतियाँ औदयिक भाव में आती हैं यथा-नरक गति, तिर्यञ्च गति मनुष्य गति तथा देवगति । I : नाम कर्म के उदय से जीव पृथ्वी आदि छःकायों, गति, जाति प्रत्येक शरीर तथा स्थावर शरीर आदि शरीरों को प्राप्त करता है। : नो कषाय (मोहनीय कर्म के उदय से जीव स्त्रीवेद, पुरुषवेद तथा नपुंसकवेद को प्राप्त करता है। : कषाय मोहनीय कर्म तथा तीनों योग के उदय से "योग परिणाम रूप लेश्या" होती हैं। Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माव-द्वार कपाव : कषाय मोहनीय कर्म के उदय से जीव क्रोधादि कषायों से आक्रान्त हैं। अज्ञान । ज्ञानावरणादि तथा मिथ्यात्व मोहनीय कर्म के उदय से जीवमति आदि अज्ञान को प्राप्त करता है। अविरति : चारित्र मोहनीय अर्थात् अप्रत्याख्यानी कषाय चतुष्क के उदय से जीव को विरति प्राप्त नहीं होती है। असंजी :: मनोअपर्याप्त नाम कर्म तथा ज्ञानावरण के उदय से जीव असंज्ञीत्व (विवेकाभाव) को प्राप्त करता है। मिष्णव : मिथ्यात्व मोहनीय कर्म के उदय से जीव मिथ्यात्व-दशा को प्राप्त करता है। आहारकत्व : क्षुधावेदनीय तथा आहार पर्याप्ति नाम कर्म के उदय से जीव आहार ग्रहण करता है। पारिणामिकभाव : जीवत्व, भव्यत्व तथा अमव्यत्व- ये तीन पारिणामिक भाव हैं। जीवत्व-जीवन की योग्यता रूप स्थिति। भव्यत्व—मोक्ष जाने की योग्यता रूप स्थिति। अभव्यता-मोक्ष जाने की अयोग्यता रूप स्थिति। प्रश्न-आप ने पांचों भावों की बात की पर छठे सन्निपातिक भाव की तो चर्चा ही नहीं की? उत्तर-सनिपातिक भाव औदयिक आदि पाँच भावों से अलग नहीं होता है। वह तो विभिन्न भावों को सांयोगिक अवस्था का नाम है अत: उसकी अलग से चर्चा नहीं की गई है। मम्मामम्मागासा कालोति य पारिणामिओ भावो। खंभा देस पएसा अणू व परिणाम उवरण ।। २७०।।मावदारं गाथार्थ- १. धर्मास्तिकाय २. अधर्मास्तिकाय ३. आकाशास्तिकाय तथा ४. काल में मात्र पारिणामिक भाव होता है। जबकि पुद्गल रूप- स्कन्ध, देश, प्रदेश तथा परमाणु में पारिणामिक तथा औदयिक भाव हैं। विवेचन-धर्मास्तिकाय आदि उपर्युक्त चारों द्रव्यों में मात्र पारिणामिक भाव हैं तथा अनादि काल से ये जीव तथा पुद्गल की गति या स्थिति के माध्यम है Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ जीवसमास और उन्हें अवकाश देते हैं। समय, आवलिका आदि व्यवहार काल से पारिणामिक भाव हैं। पुद्गल के चारों रूपों— स्कन्ध, देश, प्रदेश एवं परमाणु में सतत् रूप से औदयिक तथा पारिणामिक भाव चलता रहता है। सातवां भावद्वार समाप्त। Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 गति अल्पबहुत्व- द्वार योवा नरा नरेहि य असंखगुणिया हवंति नेरहया । ततो सुरा सुरेहि य सिद्धाणंता तओ तिरिया ।। २७१।। गाथार्थ - चारों गतियो में मनुष्य सबसे कम हैं। मनुष्य से असंख्यात गुणा अधिक नारकी हैं। उनसे असंख्यात गुणा अधिक देवता हैं । देनों से अनन्त गुणा अधिक सिद्ध (मुक्तात्मा) हैं। सिद्धों से अनन्त गुणा तिर्यच हैं। विवेचन - मुक्तात्मा एवं चारों गतियों के जीवों में गर्भज मनुष्य सबसे कम हैं। मनुष्यों का निवास क्षेत्र भी मात्र अढाई द्वीप हैं। उनसे असंख्यात गुणा अधिक जीव सात नरकों में रहे हुए हैं । उनसे भी असंख्यात गुणा अधिक देवता हैं। इन सबका क्षेत्र भी एक-दूसरे से अधिकाधिक है। देवों से अनन्त गुणा अधिक सिद्ध है तथा सिद्धों से अनन्त गुणा अधिक तिर्यच हैं। इस प्रकार गति की अपेक्षा से तिर्यय गति में सबसे अधिक जीन हैं। प्रशापनासूत्र के २७वें महादण्डक के अनुसार अधोलोक में पहली से लेकर सातवी नरक तक क्रमशः जीवों की संख्या घटती जाती है। ऊर्ध्वलोक में सबसे ऊपर के देवलोक से नीचे के देवलोकों में संख्या में वृद्धि होती हैं। सबसे ऊपर अनुत्तर विमानवासी देवों की संख्या सबसे कम हैं, फिर नीचे के देवों की संख्या क्रमशः बढ़ती जाती है। वैमानिकों में सर्वाधिक संख्या सौधर्म देवों की हैं। सौधर्म से अधिक भवनपति, उनसे अधिक व्यन्तर देवों तथा ज्योतिष्क देवों की हैं। फिर जैसे-जैसे इन्द्रियाँ कम होती जाती हैं वैसे-वैसे जीवों की संख्या अधिक होती जाती है। पर्याप्त एवं संज्ञी (विकसित) की अपेक्षा अविकसित एवं असंज्ञी तिर्यंचों को संख्या अधिक है। जबकि सबसे कम मनुष्यों की संख्या हैं। स्त्री आदि थोबाड मणुस्सीओ नरनत्यतिरिक्खिओ असंखगुणा । सुरवेक्षी संखगुणा सिन्हा तिरिया अनंतगुणा ।। २७२ ।। Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवसमास गावार्थ- सबसे कम मनुष्यनी (मानव-स्त्री) हैं। उससे असंख्यात गुणा अधिक मनुष्य हैं। मनुष्य से असंख्यात गुणा अधिक नारकी हैं। नारकी से असंख्यात गुणा अधिक तिरियचिनी, उनसे संख्यात गुणा अधिक देवियों हैं। उनसे अनन्तगुणा अधिक सिद्ध हैं तथा सिद्ध से अनन्त गुणा अधिक तियंच हैं। २२४ विवेचन - अन्य ग्रन्थों में पुरुष की अपेक्षा स्त्रियाँ अधिक बताई हैं तथा यहाँ स्त्रियाँ सबसे कम बतायी गई हैं। इसका क्या कारण है? उत्तर- गर्भज मनुष्यों की अपेक्षा से स्त्रियाँ अधिक हैं पर सम्मूर्च्छिम मनुष्यों की अपेक्षा से कम है। स्त्रियाँ संख्यात तथा सम्मूर्च्छिम मनुष्य असंख्यात गुणा है । प्रज्ञापनासूत्र के महादण्डक द्वार में समग्र रूप से जीवों के अल्प- बहुत्व की चर्चा की गई है। उस युग में आचार्यों ने जीवों की संख्या का तारतम्य बताने का प्रयत्न किया है तथा मनुष्य हो, देव हों या तिर्यञ्च हो सभी में पुरुष की अपेक्षा स्त्रियों की संख्या अधिक मानी गई। मनुष्यों में पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियाँ सत्ताइस गुण और सत्ताइस अधिक होती हैं। सिद्ध उनसे अनन्त गुणा हैं तथा तिर्यंच सिद्ध से अनन्त गुणा हैं। यहाँ तिर्यंच में निगोद को भी सम्मिलित कर लेना चाहिये। नरकगति आदि थोवा य तमतमाए कमसो घम्मतया असंखगुणा । योवा तिरिक्पज्जत संख तिरिया अनंतगुणा ।। २७३ ।। माथार्थ - अन्तिम सातवीं तमस्तमप्रभा नारकी में सबसे कम नारकी जीव हैं। फिर अनुक्रम से असंख्यात गुणा उलटेक्रम से प्रथम नरक तक जानना चाहिये। तिर्यच में सबसे कम तिरियचिनियाँ हैं। उनसे असंख्यात गुणा अधिक पर्याप्त पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च हैं तथा उनसे अनन्त गुणा एकेन्द्रियादि तिर्यच हैं। विवेचन - सातवीं पृथ्वी में सबसे कम नारकी हैं। फिर क्रमशः उत्तरोत्तर छ: नरकों में एक-दूसरे से असंख्यात गुणा अधिक समझना चाहिए। तिर्यञ्च गति में सबसे कम तिर्यञ्च स्त्रियाँ हैं। उनसे असंख्यात गुणा अधिक पर्याप्त तिर्यश्च पश्चेन्द्रिय जीव हैं। पर्याप्त पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च से एकेन्द्रिय तिर्यञ्चादि अनन्त गुणा अधिक हैं। ज्ञातव्य है कि तिर्यच गति में भी सम्मूर्च्छिम तथा गर्भज पर्याप्त मिलाने पर तिर्यञ्चनियाँ कम हैं। मात्र गर्भज तिर्यञ्चं जीवों की अपेक्षा तो तिरियचिनियाँ अधिक ही हैं। Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२५ अल्पबहुत्व-द्रार देवगति आदि थोवाणुत्तरवासी असंखगुणवती जाव सोहम्मो। भवणेसु वंतरेसु य संखेज्जगुणा जोइसिया।। २७४।। गाथार्थ सबसे कम अनुत्तर विमानवासी देव हैं। उनसे क्रमश: असंख्यात गुणा अधिक सौधर्म देवलोक तक के देवों की संख्या जानना। वैमानिक देवों की अपेक्षा भवनपति तथा व्यन्तर को भी असंख्यात गुणा अधिक जानना तथा उनसे ज्योतिषक देवों को संख्यात गुणा अधिक जानना चाहिये। विवेचन-देवों में अनत्तर विमानवासी देव सबसे कम हैं। उनसे असंख्यात गुणा अधिक प्रैवेयक विमानवासी देव हैं। उनसे अच्युत विमानवासी असंख्य गुणा अधिक है। इस प्रकार क्रमश: सौधर्म देवलोक तक असंख्यात गुणा अधिक-अधिक जानना चाहिये। सौधर्म से भवनपति तथा भवनपति से व्यन्तर देव असंख्यात गुणा अधिक है। व्यन्तर से ज्योतिष्क देव संख्यात गुणा अधिक है। एकेन्द्रिय पंचिंदिया प योवा विवज्जएण विपला विसेसहिया। तत्तो य अणंतगुणा अणिदिएगिदिया कमसो । २७५।। गाथार्थ-सबसे कम पञ्चेन्द्रिय हैं। फिर विकलेन्द्रियों का क्रम उल्टा कर देने से उनमें क्रमश: विशेष (अधिक) हैं। उनसे सिद्ध अनन्त गुणा तथा सिद्ध से अनन्तगुणा एकेन्द्रिय हैं। विवेचन- सबसे कम पंचेन्द्रिय जीव हैं। फिर विकलेन्द्रियों का क्रम (विवज्जएण) विपरीत कर देने से अर्थात् चतुरिन्द्रिय, वीन्द्रिय तथा द्वीन्द्रिय करने पर एक-दूसरे से अधिक-अधिक जानना चाहिए। अर्थात् पंचेन्द्रिय से विशेष अधिक चतुरिन्द्रिय, उससे विशेष अधिक श्रीन्द्रिय, उससे विशेष अधिक द्वीन्द्रिय फिर उनसे अनन्तगुणा अधिक सिद्ध तथा सिद्ध से अनन्तगणा अधिक एकेन्द्रिय समझना चाहिये। काय थोवा य तसा सतो तेढ असंखा तओ विसेसहिया। कमसो भूदगवाऊ अकाष हरिया अर्णतगुणा।। २७६।। गावार्थ-सबसे कम उसकाय है। उनसे असंख्यात गुणा अधिक तेजस्काय है। तेजस्काय से विशेष अधिक अनुक्रम से पृथ्वी, अप, वायु, उनसे अनन्त गुणा Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ जीवसमास काय-रहित सिद्ध है तथा उनसे अनन्त गुणा वनस्पतिकाय के जीव हैं। विवेचन- सबसे कम त्रसकाय के जीव हैं। उनसे असंख्यात गुणा अधिक अग्निकाय के जीव हैं। उनसे पृथ्वीकाय आदि के जीव अनुक्रम से अधिक हैं। उनसे वायुकाय के जीव अधिक है। वायुकाय से सिद्ध अनन्त गुणा अधिक हैं तथा उनसे वनस्पतिकाय के जीव अनन्त गुणा अधिक है। गुणस्थान उवसामगा प थोवा खवग जिणे अप्पमत्त इसरे य। कमसो संखेज्जगुणा देसविरय सासणेऽसंखा ।। २७७।। मिस्साऽसंखेज्जगुणा अविरयसम्मा तओ असंखगुणा। सिवाय अणंतगुणा तत्तोमिच्छा अणंतगुणा ।। २७८।। गावार्थ- गणस्थानों की अपेक्षा से उपशामक सबसे कम होते हैं। उनसे अधिक क्षपक, उनसे अधिक जिन, उनसे अधिक अप्रमत्तसंयत तथा संख्यात गुणा उनसे अधिक प्रमत्तसंयत होते हैं। उनसे अधिक देशविरति, उनसे अधिक सास्वादनी, उनसे अधिक मिश्र और उनसे अधिक अविरति सम्यक्त्व क्रमश: असंख्यगुणा अधिक हाते हैं। उनसे सिद्ध अनन्त गुणा अधिक हैं तथा सिद्धों से मिथ्यात्वी अनन्त गुणा होते हैं। विवेचन-यहाँ उपशामक से तात्पर्य श्रेणी आरूढ उपशामक तथा उपशान्त मोही है। क्षपक से तात्पर्य श्रेणी आरूढ क्षपक तथा क्षीण मोही है। ये दोनों प्रकार के जीव कमी होते हैं तथा कभी नहीं होते हैं। पर यदि होते हैं तो उसमें उपशामक कम तथा क्षपक अधिक होते हैं। किन्तु कभी-कभी इसके विपरीत भी होता है। अर्थात् क्षपक कम तथा उपशामक अधिक होते हैं। क्षपक की अपेक्षा केवलीजिन संख्यातगुणा अधिक होते हैं। इनसे संख्यातगुणा अधिक अप्रमत्त गुणस्थानवी जीव होते हैं। उनसे संख्यात गुणा अधिक प्रमत्त गुणस्थानवर्ती साधु होते हैं। उनसे असंख्यात गुणा अधिक देशविरति श्रावक (मनुष्य तथा तिर्यञ्च दोनों) होते हैं। सास्वादनी कभी बिल्कुल नहीं होते हैं। यदि होते हैं तो जघन्य से एक, दो तथा उत्कृष्ट से चारों गतियों में होने के कारण असंख्यात गुणा अधिक होते हैं। मिश्र अर्थात् सम्यक्मिथ्यादृष्टि जीव होते है। सास्वादनी जीवों से संख्यात गुणा अधिक अविरत सम्यक्त्वी होते हैं। ये हमेशा संख्यात होते हैं। उनसे सिद्ध अनन्त गुणा होते हैं। उनसे मिध्यादष्टि अनन्त गुणा अधिक होते हैं क्योंकि सर्व निगोद के जीव मिथ्यादृष्टि ही होते हैं। Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवनारक गति अल्पबहुत्व द्वार २२७ सुरनरए सासाणा थोवा मीसा य संखगुणयारा। तत्तो अविश्सम्मा मिच्छा य भवे असंखगुणा ।। २७९ ।। गाथार्थ - देवलोक तथा नारकी में सास्वादन गुणस्थानवर्ती जीव सबसे कम होते हैं। मिश्र उनसे संख्यात गुणा अधिक होते हैं। अविरत सम्यक्त्वी उनसे असंख्यात गुणा अधिक होते हैं और मिथ्यात्वी उनसे असंख्यात गुणा अधिक होते है। विवेचन - ज्ञातव्य हैं कि देव तथा नारक में चार गुणस्थान ही होते हैं। देशविरति आदि अन्य गुण स्थानों की वहाँ संभावना नहीं है। तिर्यञ्च गति तिरिएसु देसविरया थोवा सासायणी असंखगुणा । मीसा व संख अजया असंख मिच्छा अनंतगुणा ।। २८० ।। गाथार्थ - तिर्यों में देशविरति वाले सबसे कम है। उनसे सास्वादानी असंख्यात गुणा अधिक हैं। उनसे मिश्र दृष्टि वाले संख्यात गुणा अधिक हैं। उनसे अविरत समाधी गुणा अधिक हैं तथा उनसे मिध्यात्वी अनन्त गुणा जीव हैं। विवेचन - तिर्यंच गति में देशविरति नामक पाँचवें गुणस्थान तक की संभावना है। प्रमत्तसंयतादि गुणस्थानकों का यहाँ अभाव रहता है। मनुष्य गति मणुया संखेज्जगुणा गुणीसु मिच्छा भवे असंखगुणा । एवं अप्पाबहुयं दव्यपमाणेहि साहेज्जा ।। २८१॥ गाभार्थ - मनुष्य में मिध्यादृष्टि को छोड़कर शेष तेरह गुणस्थानों में उलटे क्रम से संख्यात गुणा अधिक अधिक संख्या होती है। जबकि मिथ्यादृष्टि उनसे असंख्यगुणा अधिक होते हैं। इस प्रकार द्रव्यपरिमाण से अल्प- बहुत्व जानना चाहिये। विवेचन - मनुष्यों में चौदह गुणस्थान पाये जाते हैं। इनमें मिध्यादृष्टि को छोड़ करके शेष तेरह गुणस्थानवर्ती जीव आगे बताये गये क्रम से संख्यात गुणा अधिक होते हैं। इन तेरह गुणास्थानवर्ती में मिध्यात्वी मनुष्य ( संमूर्च्छिम मनुष्यों को सम्मिलित करने पर असंख्यात गुणा अधिक होते हैं। प्रथम गुणस्थान से ऊपर Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ जीवसमास चढ़ने वाले सभी मनुष्य गर्भज होने के कारण वे संख्यात ही होते हैं। ज्ञातव्य है कि पूर्व में भी हमने गर्भज मनुष्यों की संख्या - संख्यात बतायी हैं। गुणस्थानवत जीवों में सबसे कम अयोगी केवली होते हैं। उनसे संख्यात गुणा अधिक उपशामक है। उपशामक से संख्यात गुणा अधिक क्षपक हैं। उनसे संख्यात गुणा अधिक सयोगी केवली हैं। उनसे संख्यात गुणा अधिक अप्रमत्तसंयत हैं। अप्रमत्त से संख्यात गुणा प्रमत्तसंयत हैं। प्रमत्त संयत से संख्यात गुणा अधिक देशविरत है। देशविरत से संख्यात गुणा अधिक अविरत सम्यक्त्वी हैं। उनसे संख्यात गुणा अधिक शुरुवादानी हैं। उनसे संख्यात गुणा मिश्रदृष्टि हैं तथा उनसे असंख्यात गुणा गर्भज तथा सम्मूर्च्छिम मनुष्य हैं। इस प्रकार यह अल्पबहुत्व द्वार पूर्ण हुआ । अब चौदह मार्गणाओं की अपेक्षा से संक्षेप में अल्पबहुत्व द्वार के विषय में चर्चा की जाती है १. गति - चारों गतियों में मनुष्य सबसे कम हैं, मनुष्य से संख्यात गुणा अधिक नारकी, उनसे असंख्यात गुणा अधिक देव, उनसे अनन्त गुणा अधिक सिद्ध तथा उनसे अनन्त गुणा अधिक तिर्यन हैं। २. इन्द्रिय- इन्द्रियों की अपेक्षा से सबसे कम पंचेन्द्रिय जीव हैं। फिर क्रमशः चतुरिन्द्रिय, त्रीन्द्रिय द्वीन्द्रिय एक दूसरे से अधिक हैं। उनसे अनन्त गुणा अधिक अनिन्द्रिय (सिद्ध) तथा उनसे अनन्त गुणा अधिक एकेन्द्रिय हैं। ३. काय काय की अपेक्षा से सबसे कम उस कायिक जीव हैं। उनसे असंख्यात गुणा अधिक तेजस्काय हैं उनसे क्रमश: विशेष अधिक पृथ्वीकाय अप्काय और वायुकाय के जीव हैं उनसे भी अनन्त गुणा अधिक सिद्ध (अकायी) हैं, उनसे अनन्त गुणा अधिक वनस्पतिकाय हैं। - ४. योग - सबसे कम मनोयोगी, उनसे असंख्यात गुणा अधिक वचनयोगी तथा उनसे अनन्त गुणा अधिक अयोगी ( सिद्ध) तथा उनसे अनन्त गुणा अधिक काययोगी हैं। ५. वेद - सबसे कम पुरुष वेदी हैं, उनसे संख्यात गुणा अधिक स्वीवेदी और उनसे अनन्त गुणा अधिक अवेदी (सिद्ध) हैं तथा उनसे भी अनन्त गुणा नपुंसक हैं। (इन्हें निगोद आदि सर्व जीवों की अपेक्षा से जानना चाहिये) ६. कवाब - सबसे कम अकषायी (केवली), उनसे अनन्त गुणा मान कषायी, उनसे विशेषाधिक क्रोधकषायी, उनसे विशेषाधिक मायाकषायी, उनसे Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अल्पबहुत्व-द्वार २२१ विशेषाधिक लोभ कषायी हैं। चारों कषाय चारों गतियों में होने के कारण यह 'अनन्त' शब्द का प्रयोग किया गया है। ७. ज्ञान-अज्ञान-सबसे कम मन:पर्ययज्ञानी, उनसे असंख्यात गुणा अधिक अवधिज्ञानी, उनसे विशेषाधिक मतिश्रुत शानी, उनसे असंख्यात गुणा अधिक विभंगज्ञानी, उनसे अनन्त गुणा अधिक केवल ज्ञानी तथा उनसे अनन्त गुणा अधिक मतिश्रुत अज्ञानी हैं। ८. विरत-(संयम) सबसे कम सर्वविरति धर (मुनि) उनसे असंख्यात गुणा अधिक देश विरति (गृहस्थ) उनसे अनन्त गुणा अधिक नो विरताविरत तथा उनसे अनन्त गुणा अधिक अविरत हैं। ९. दर्शन- अवधिदर्शनी सबसे कम, चक्षुदर्शनी उनसे असंख्यात गुणा अधिक, केवलीदर्शनी उनसे भी अनन्त गुणा अधिक, उनसे भी अचक्षुदर्शनी अनन्त गुणा अधिक हैं। १०. लेश्या- सबसे कम शुक्ल-लेश्या वाले जीव, उनसे सख्यात गुणा अधिक पन-लेश्या वाले जीव, उनसे संख्यात गुणा अधिक तेजो-लेश्या वाले जीव और उनसे अनन्त गुणा अधिक अलेशी (सिद्ध) होते हैं। उनसे भी अनन्त गुणा अधिक कापोत-लेश्या वाले, उनसे विशेषाधिक नील-लेश्या वाले तथा उनसे भी अनन्तगुणा अधिक कृष्ण-लेश्या वाले जीव हैं। लेश्या का सद्भाव चारों गतियों में है। ११. सम्यक्त्व-(दृष्टि) सबसे कम मिश्रदृष्टि जीव हैं, उनसे अनन्त गुणा अधिक सम्यग्दृष्टि जीव तथा उनसे भी अनन्त गुणा अधिक मिथ्यादृष्टि जीव है। अनन्त शब्द का प्रयोग चारों गतियों की अपेक्षा से किया गया है। १२. भव्यत्व- सबसे कम अभव्य जीव हैं। उनसे भव्याभव्य रूप सिद्ध जीव अनन्त गुणा अधिक है तथा उनसे अनन्त गुणा अधिक भव्य जीव हैं। १३. संझी-संज्ञी जीव सबसे कम हैं, उनसे नो संज्ञी अनन्त गुणा (सिद्ध) अधिक हैं तथा उनसे भी असंज्ञी जीव अनन्त गुणा हैं। १४, आहार-अनाहार के जीव सबसे कम हैं, उनसे असंख्यात गुणा अधिक आहारक जीव होते हैं। विग्रह गतिवर्ती जीव, समुद्घाती, अयोगी तथा सिद्ध के अतिरिक्त सभी जीव आहारक हैं। उपरोक्त चौदह मार्गणा के अतिरिक्त भी अल्प-बहुत्व की विचारणा इस प्रकार है। Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवसमास उपयोग- अनाकार उपयोगी अल्प है, साकार उपयोगी उनसे संख्यात गुणा अधिक हैं। इसका कारण है कि दर्शन की अपेक्षा ज्ञान का काल संख्यात गुणा अधिक है। पर्याप्त-अपर्याप्त की अपेक्षा पर्याप्त जीव असंख्यात गुणा अधिक हैं इसका कारण भी काल ही है। अपर्याप्त का काल अन्तर्मुहर्त है तथा पर्याप्त का काल उत्कृष्टतः तैतीस सागरोपम है। मावर- बादर अर्थात् स्थूल जीव अल्प है तथा सूक्ष्म उनसे असंख्यात गुणा अधिक हैं। निगोद आदि जीवों की अपेक्षा से ऐसा कथन किया गया है। अजीव में अल्पबहुत्व धमाधम्भागासा सिग्निवि दबया भवे थोवा। ततो अणंतगणिया पोग्गल दवा तओ समया ।। २८२।। गाथार्थ- धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय तथा आकाशास्तिकाय- ये तो तीनों ही अल्प हैं। इनसे पुद्गल द्रव्य अनन्त है। पुद्गल द्रव्य से समय (काल द्रव्य) अनन्त हैं। विवेचन- यद्यपि जहाँ-जहाँ पुगल द्रव्य तथा काल है वहाँ-वहाँ ये तीनों द्रव्य हैं फिर भी ये संख्या में एक हैं, अत: अल्प है। ये तीनों ही द्रव्य परस्पर समान हैं। पुद्गल द्रव्य इनसे अनन्त गुणा अधिक हैं। उनसे भी निर्विभाज्य कालांश अर्थात् समय अनन्त गुणा अधिक हैं। पुद्गल अनन्त हैं, वे भूत में भी थे, वर्तमान में भी हैं तथा वे पुद्गल परिवर्तित होकर भविष्य में भी रहेंगे। फिर भी एक-एक पुद्गल द्रव्य पर अनन्त कालाणुओं के होने से काल द्रव्य पुद्गल द्रव्य की अपेक्षा भी अधिक माना गया हैं। प्रदेश अल्पबहुत्व पम्मामम्मपएसा तुल्ला परमाणवो अणंतगुणा। समया तओ अणंता तह खपएसा अणंतगुणा ।। २८३।। षमाधम्मपएसेहितो जीवा तओ अणंतगुणा । . पोग्गलसमया खंपि य पएसओ तेणऽणतगुणा ।। २८४।। गाथार्थ-धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय के प्रदेश समान है। उनसे परमाणु अनन्त गुणा अधिक हैं। परमाणु से कालाणु अर्थात् समय अनन्त गुणा अधिक है। उनसे आकाश प्रदेश अनन्त गुणा अधिक हैं। Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अल्पबहुत्व- द्वार २३१ धर्मास्तिकाय अधर्मास्तिकाय तथा जीवास्तिकाय के प्रदेश असंख्यात हैं। फिर भी धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय द्रव्य की अपेक्षा जीब द्रव्य के प्रदेश अनन्त गुणा हैं। जीव द्रव्य के प्रदेशों से पुद्गल के प्रदेश अनन्त गुणा अधिक हैं पुल द्रव्य से 'समय' अर्थात का गुणा अधिक हैं एवं उससे लोकाकाश के प्रदेश अनन्त गुणा अधिक हैं। विवेचन – धर्मास्तिकाय एवं अधर्मास्तिकाय के प्रदेश समान हैं । पुद्गल उससे अनन्त गुणा अधिक हैं। अतः पुद्गल के प्रदेश भी अनन्त गुणा अधिक हैं। समय उनसे भी अनन्त गुणा अधिक है— जैसे की पूर्व गाथा में स्पष्ट किया हैं तथा समय से अनन्त गुणे आकाश के प्रदेश हैं। तत्त्वार्थकार ने अध्याय ५ में द्रव्यों के प्रदेशों की संख्या इस प्रकार बताई है— धर्म और अधर्म के असंख्यात प्रदेश हैं। एक जीव के भी असंख्यात प्रदेश हैं। आकाश के प्रदेश अनन्त हैं । पुद्गल द्रव्य के प्रदेश संख्यात, असंख्यात तथा अनन्त हैं। परमाणु के प्रदेश नहीं होते हैं। उपर्युक्त गाथा २८४ के अनुसार ही धर्माधर्मास्तिकाय - धर्मास्ति काय अधर्मास्तिकाय इन दोनो के प्रदेश असंख्यात हैं तथा जीव भी असंख्यात प्रदेशी हैं। प्रदेश- वस्तु का ऐसा अविभाज्य अंश है जिसके फिर टुकड़े न हो सके। परन्तु यह स्कन्ध के साथ जुड़ा होने के कारण प्रदेश कहलाता हैं। परमाणु - परमाणु भी ऐसा ही अविभाज्य अंश है परन्तु स्कन्ध से अलग हो जाने कारण उसे 'परमाणु' संज्ञा दी जाती हैं। धर्म-अधर्म ये दोनों एक-एक इकाई रूप हैं। उनके अविभाज्य अंश भी असंख्यात असंख्यात हैं परन्तु उक्त दोनों द्रव्य ऐसे हैं जिनके असंख्य अविभाज्य अंश केवल बुद्धि से कल्पित किये जा सकते हैं, दे मूलतः स्कन्ध से पृथक् नहीं किये जा सकते। जीव-जीव द्रव्य भी असंख्य प्रदेशी हैं तथा यह भी अखंड इकाई है परन्तु वह संख्या की अपेक्षा स्वतन्त्र द्रव्य के रूप में अनन्त है अर्थात् जीव द्रव्य अनन्त हैं परन्तु एक जीव के प्रदेश असंख्यात ही हैं। पुल - पुल के स्कन्ध चारों द्रव्यों की तरह निश्चित नहीं हैं। कोई पुद्गल स्कन्ध संख्यात प्रदेशी, कोई असंख्यात प्रदेशी, कोई अनन्त प्रदेशी तथा कोई अनन्तानन्त प्रदेशी होता है। पुद्गल के अतिरिक्त अन्य चारों द्रव्य अविभाज्य हैं परन्तु पुगल द्रव्य विभाजित होता है। पुनः वे चारों द्रव्य अमूर्त हैं तथा पुद्रल द्रव्य मूर्त हैं पुगल में संयोग Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 232 जीवसमास तथा वियोग होने की योग्यता है। ज्ञातव्य है कि कालाणु सदैव स्वतन्त्र होते है, उनमें संयोग वियोग नहीं है। आकाश के प्रदेश तो निश्चित रूप से अनन्त ही होते हैं। (अल्प-बहुत्व को विस्तार से जानने हेतु देखें प्रज्ञापनासूत्र पद 198. से 283) मभंगविहिवाए विठ्ठत्वाणं जिणोवाहाणं। धारणपसही भुग आपसमासस्यउपरतो / / 985 / / जीव समास के अर्थ को समझने वाला सजग साधक जिनोपदिष्ट एवं विविध अपेक्षाओं से कथित दृष्टिवाद के द्रष्टार्थ (वास्तविक अर्थ) का धारक विशिष्ट शाता बन जाता है। फल प्राप्ति एवं जीवाजीवे वित्यरभिहिए समासनिहिडे / उपउत्तो जो गुणए तस्स मई जायए विउला / / 286 / / गाथार्थ-आगम में विस्तार से वर्णित जीव एवं अजीव तत्त्व का यहाँ संक्षेप में विवेचन किया गया हैनोइस जीव समास का सजग होकर चिन्तन करता है, उसकी मति (बुद्धि) विपुल होती है। आठवाँ अल्पवाहत्व-बार समाप्त जीवसमास सम्पूर्ण