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जीवसमास विवेचन--प्रथम नरक रत्नप्रभा पृथ्वी में मिथ्यादृष्टि नारक असंख्यात श्रेणी प्रमाण हैं अर्थात् घनरूप में बनाई हुई लोक की असंख्यात आकाश श्रेणियों में जितने आकाश प्रदेश होते है उतने परिमाण में पहली पृथ्वी मे मिथ्यादृष्टि जीव होते हैं।
शर्कराप्रभादि नरक पृध्वियों में घनाकार लोक की एक आकाश श्रेणी के असंख्यातवें भाग जितने आकाश-प्रदेश होते है उतने मिथ्यादृष्टि जीव जानना चाहिये।
इसी प्रकार क्रमशः एक-एक नरक में मिथ्यादृष्टि जीवों की संख्या लोक की एक आकाश श्रेणी के असंख्यातवें भाग के समरूप समझना चाहिये। दूसरी से तीसरी में, तीसरी से चौथी में यावत् सातवीं नरक तक इसका भी असंख्यातवां भाग क्रमश: कम होता जाता है। इस प्रकार छठी पृथ्वी के नारकी से भी सातवीं पृथ्वी के नारक जीवों की संख्या असंख्यात भाग कम परिमाण में जानना चाहिये। ___अविरत सम्यग्दृष्टि जीवों की संख्या भी प्रत्येक नरक मे अव्यवच्छिन्न रूप से असंख्यात ही होती है तिर्यच में मिथ्यादृष्टि जीवों का परिमाण
तिरिया हुँति अणंता पयरं पंधिदिया अवहरति ।
देवावहारकाला असंखगुणहीण कालेणं ।।१५०।। ___ गाथार्थ- सामान्यतः तिर्यञ्च मिथ्यादृष्टि जीव अनन्त हैं। जबकि पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च घनकृत लोक के सात रज्जु लम्बे, सात रज्जु चौड़े तथा एक प्रदेश की मोटाई वाले प्रतर के आकाश प्रदेशों की संख्या के तुल्य हैं और कालापेक्षा से देव के अपहार काल से असंख्यात गुणा कम हैं।
विवेचन-- मिथ्यादृष्टि शब्द गाथा में न आने पर भी पूर्व प्रसंग से ग्रहण कर लिया है। सामान्यतः एकेन्द्रिय आदि मिथ्यादृष्टि तिर्यश्च अनन्त हैं तथा पर्याप्त-अपर्याप्त रूप मिथ्यादृष्टि पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च जीवों की संख्या संवर्तित किये हुए घनरूप असंख्य प्रतरात्मक लोक के सात रज्जु लम्बाई एवं सात रज्जु चौड़ाई तथा मात्र एक प्रदेश की मोटाई वाले असंख्येय आकाश प्रदेश परिमाण प्रतर के आकाश प्रदेशों के समरूप हैं और देव के अपहार काल से असंख्यात गुणा कम है।
यह अपहार कितने समय का होता है? यह बतलाते हुए कहा गया है कि यह काल की अपेक्षा से असंख्य उत्सर्पिणियों एवं अवसर्पिणियों के समयों की संख्या के समरूप हैं।